शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Wednesday, September 14, 2011

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 23 & ENGLISH VERSION ALSO

ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 23

---------------------------------------------------------------------------------------------------------योग और प्याज, शामा का सर्पविष उतारना, विषूचिका (हैजी) निवारणार्थ नियमों का उल्लंघन, गुरु भक्ति की कठिन परीक्षा ।

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प्रस्तावना
वस्तुतः मनुष्य त्रिगुणातीत (तीन गुण अर्थात् सत्व-रज-तम) है तथा माया के प्रभाव से ही उसे अपने सत्-चित-आनंद स्वरुप की विस्मृति हो, ऐसा भासित होने लगता है कि मैं शरीर हूँ । दैहिक बुद्घि के आवरण के कारण ही वह ऐसी धारणा बना लेता है कि मैं ही कर्ता और उपभोग करने वाला हूँ और इस प्रकार वह अपने को अनेक कष्टों में स्वयं फँसा लेता है । फिर उसे उससे छुटकारे का कोई मार्ग नहीं सूझता । मुक्ति का एकमात्र उपाय है – गुरु के श्री चरणों में अचल प्रेम और भक्ति । सबसे महान् अभिनयकर्ता भगवान् साई ने भक्तों को पूर्ण आनन्द पहुँचाकर उन्हें निज-स्वरुप में परिवर्तित कर लिया है । उपयुक्त कारणों से हम साईबाबा को ईश्वर का ही अवतार मानते है । परन्तु वे सदा यही कहा करते थे कि मैं तो ईश्वर का दास हूँ । अवतार होते हुए भी मनुष्य को किस प्रकारा आचरण करना चाहिये तथा अपने वर्ण के कर्तव्यों को किस प्रकार निबाहना चाहिए, इसका उदाहरण उन्होंने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया । उन्होंने किसी प्रकार भी दूसरे से स्पर्द्घा नहीं की और न ही किसी को कोई हानि ही पहुँचाई । जो सब जड़ और चेतन पदार्थों में ईश्वर के दर्शन करता हो, उसको विनयशीलता ही उपयुक्त थी । उन्होंने किसी की उपेक्षा या अनादर नहीं किया । वे सब प्राणियों में भगवद्दर्शन करते थे । उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मैं अनल हक्क (सोडह्मम) हूँ । वे सदा यही कहते थे कि मैं तो यादे हक्क (दासोडहम्) हूँ । अल्ला मालिक सदा उनके होठोंपर था । हम अन्य संतों से परिचित नहीं है और नन हमें यही ज्ञात है कि वे किस प्रकार आचरण किया करते है अथवा उनकी दिनचर्या इत्यादि क्या है । ईश-कृपा से केवल हमें इतना ही ज्ञात है कि वे अज्ञान और बदृ जीवों के निमित्त स्वयं अवतीर्ण होते है । शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही हममें सन्तों की कथायें और लीलाये श्रवण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, अन्यथा नहीं । अब हम मुख्य कथा पर आते है ।
योग और प्याज

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एक समय कोई एक योगाभ्यासी नानासाहेब चाँदोरकर के साथ शिरडी आया । उसने पातंजलि योगसूत्र तथा योगशास्त्र के अन्य ग्रन्थों का विशेष अध्ययन किया था, परन्तु वह व्यावहारिक अनुभव से वंचित था । मन एकाग्र न हो सकने के कारण वह थोड़े समय के लिये भी समाधि न लगा सकता था । यदि साईबाबा की कृपा प्राप्त हो जाय तो उनसे अधिक समय तक समाधि अवस्था प्राप्त करने की विधि ज्ञात हो जायेगी, इस विचार से वह शिरडी आया और जब मसजिद में पहुँचा तो साईबाबा को प्याजसहित रोटी खाते देख उसे ऐसा विचार आया कि यह कच्च प्याजसहित सूखी रोटी खाने वाला व्यक्ति मेरी कठिनाइयों को किस प्रकार हल कर सकेगा । साईबाबा अन्तर्ज्ञान से उसका विचार जानकर तुरन्त नानासाहेब से बोले कि ओ नाना । जिसमें प्याज हजम करने की श्क्ति है, उसको ही उसे खाना चाहिए, अन्य को नहीं । इन शब्दों से अत्यन्त विस्मित होकर योगी ने साईचरणों में पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया । शुदृ और निष्कपट भाव से अपनी कठिनाइयँ बाबा के समक्ष प्रस्तुत करके उनसे उनका हल प्राप्त किया और इस प्रकार संतुष्ट और सुखी होकर बाबा के दर्शन और उदी लेकर वह शिरडी से चला गया ।
शामा की सर्पदंश से मुक्ति

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कथा प्रारंभ करने से पूर्व हेमाडपंत लिखते है कि जीव की तुलना पालतू तोते से की जा सकती है, क्योंकि दोनों ही बदृ है । एक शरीर में तो दूसरा पिंजड़े में । दोनों ही अपनी बद्घावस्था को श्रेयस्कर समझते है । परन्तु यदि हरिकृपा से उन्हें कोई उत्तम गुरु मिल जाय और वह उनके ज्ञानचक्षु खोलकर उन्हें बंधन मुक्त कर दे तो उनके जीवन का स्तर उच्च हो जाता है, जिसकी तुलना में पूर्व संकीर्ण स्थिति सर्वथा तुच्छ ही थी ।
गत अध्यया में किस प्रकार श्री. मिरीकर पर आने वाले संकट की पूर्वसूचना देकर उन्हें उससे बचाया गया, इसका वर्णन किया जा चुका है । पाठकवृन्द अब उसी प्रकार की और एक कथा श्रवण करें ।
एक बार शामा को विषधर सर्प ने उसके हाथ की उँगली में डस लिया । समस्त शरीर में विष का प्रसार हो जाने के कारण वे अत्यन्त कष्ट का अनुभव करके क्रंदन करने लगे कि अब मेरा अन्तकाल समीप आ गया है । उनके इष्ट मित्र उन्हें भगवान विठोबा के पास ले जाना चाहते थे, जहाँ इस प्रकार की समस्त पीड़ाओं की योग्य चिकित्सा होती है, परन्तु शामा मसजिद की ओर ही दौड़-अपने विठोबा श्री साईबाबा के पास । जब बाबा ने उन्हें दूर से आते देखा तो वे झिड़कने और गाली देने लगे । वे क्रोधित होकर बोले – अरे ओ नादान कृतघ्न बम्मन । ऊपर मत चढ़ । सावधान, यदि ऐसा किया तो । और फिर गर्जना करते हुए बोले, हटो, दूर हट, नीचे उतर । श्री साईबाबा को इस प्रकार अत्यंत क्रोधित देख शामा उलझन में पड़ गयाऔर निराश होकर सोचने लगा कि केवल मसजिद ही तो मेरा घर है और साईबाबा मात्र किसकी शरण में जाऊँ । उसने अपने जीवन की आशा ही छोड़ दी और वहीं शान्तीपूर्वक बैठ गया । थोड़े समय के पश्चात जब बाबा पूर्वव्त शांत हुए तो शामा ऊपर आकर उनके समीप बैठ गया । तब बाबा बोले, डरो नहीं । तिल मात्र भी चिन्ता मत करो । दयालु फकीर तुम्हारी अवश्य रक्षा करेगा । घर जाकर शान्ति से बैठो और बाहर न निकलो । मुझपर विश्वास कर निर्भय होकर चिन्ता त्याग दो । उन्हें घर भिजवाने के पश्चात ही पुछे से बाबा ने तात्या पाटील और काकासाहेब दीक्षित के द्घारा यह कहला भेजा कि वह इच्छानुसार भोजन करे, घर में टहलते रहे, लेटें नही और न शयन करें । कहने की आवश्यकता नहीं कि आदेशों का अक्षरशः पालन किया गया और थोड़े समय में ही वे पूर्ण स्वस्थ हो गये । इस विषय में केवल यही बात स्मरण योग्य है कि बाबा के शब्द (पंच अक्षरीय मंत्र-हटो, दूर हट, नीचे उतर) शामा को लक्ष्य करके नहीं कहे गये थे, जैसा कि ऊपर से स्पष्ट प्रतीत होता है, वरन् उस साँप और उसके विष के लिये ही यह आज्ञा थी (अर्थात् शामा के शरीर में विष न फैलाने की आज्ञा थी) अन्य मंत्र शास्त्रों के विशेषज्ञों की तरह बाबा ने किसी मंत्र या मंत्रोक्त चावल या जल आदि का प्रयोग नहीं किया ।
इस कथा और इसी प्रकार की अन्य अथाओं को सुनकर साईबाबा के चरणों में यह दृढ़ विश्वास हो जायगा कि यदि मायायुक्त संसार को पार करना हो तो केवल श्री साईचरणों का हृदय में ध्यान करो ।
हैजा महामारी

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एक बार शिरडी विषूचिका के प्रकोप से दहल उठी और ग्रामवासी भयभीत हो गये । उनका पारस्परिक सम्पर्क अन्य गाँव के लोगों से प्रायः समाप्त सा हो गया । तब गाँव के पंचों ने एकत्रित होकर दो आदेश प्रसारित किये । प्रथम-लकड़ी की एक भी गाड़ी गाँव में न आने दी जाय । द्घितीय – कोई बकरे की बलि न दे । इन आदेशों का उल्लंघन करने वाले को मुखिया और पंचों द्घारा दंड दिया जायगा । बाबा तो जानते ही थे कि यह सब केवल अंधविश्वास ही है और इसी कारण उन्होंने इन हैजी के आदेशों की कोई चिंता न की । जब ये आदेशलागू थे, तभी एक लकड़ी की गाड़ी गाँव में आयी । सबको ज्ञात था कि गाँव में लगड़ी का अधिक अभाव है, फिर भीलोग उस गाड़वाले को भगाने लगे । यह समाचार कहीं बाबा के पास तक पहुँच गया । तब वे स्वयं वहाँ आये और गाड़ी वाले से गाड़ी मसजिद में ले चलने को कहा । बाबा के विरुदृ कोई चूँ—चपाट तक भीन कर सका । यथार्थ में उन्हें धूनी के लिए लकड़ियों की अत्यन्त आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने वह गाड़ी मोल ले ली । एक महान अग्निहोत्री की तरह उन्होंने जीवन भर धूनी को चैतन्य रखा । बाबा की धूनी दिनरात प्रज्वलित रहती थी और इसलिए वे लकड़ियाँ एकत्रित कर रखते थे । बाबा का घर अर्थात् मसजिद सबके लिए सदैव खुली थी । उसमें किसी ताले चाभी की आवश्यकता न थी । गाँव के गरीब आदमी अपने उपयोग के लिए उसमें से लकडियाँ निकाल भी ले जाया करते थे, परन्तु बाबा ने इस पर कभी कोई आपत्ति न की । बाबा तो सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर से ओतप्रोत देखते थे, इसलिये उनमें किसी के प्रति घृणा या शत्रुता की भावना न थी । पूर्ण विरक्त होते हुए भी उन्होंने एक साधारण गृहस्थ का-सा उदाहरण लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया ।
गुरुभक्ति की कठिन परीक्षा

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अब देखिये, दूसरे आदेश की भी बाबा ने क्या दुर्दशा की । वह आदेश लागू रहते समय कोई मसजिद में एक बकरा बलि देने को लाया । वह अत्यन्त दुर्बल, बूढ़ा और मरने ही वाला था । उस समय मालेगाँव के फकीर पीरमोहम्मद उर्फ बड़े बाबा भी उनके समीप ही खड़े थे । बाबा ने उन्हें बकरा काटकर बलि चढ़ाने को कहा । श्री साईतबाबा बड़े बाबा का अधिक आदर किया करते थे । इस कारण वे सदैव उनके दाहिनीओर ही बैठा करते थे । सबसे पहने वे ही चिलम पीते और फिर बाबा को देते, बाद में अन्य भक्तों को । जब दोपहर को भोजन परोस दिया जाता, तब बाबा बड़े बाबा को आदरपूर्वक बुलाकर अपने दाहिनी ओर बिठाते और तब सब भोजन करते । बाबा के पास जो दक्षिणा एकत्रित होती, उसमेंसे वे 50 रु. प्रतिदिन बड़े बाबा को दे दिया करते थे । जब वे लौटते तो बाबा भी उनके साथ सौ कदम जाया करते थे । उनका इतना आदर होते हुए भी जब बाबा ने उनसे बकरा काटने को कहा तो उन्होंने अस्वीकार कर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि बलि चढ़ाना व्यर्थ ही है । तब बाबा ने शामा से बकरे की बलि के लिये कहा । वे राधाकृष्ण माई के घर जाकर एक चाकू ले आये और उसे बाबा के सामने रख दिया । राधाकृष्माई को जब कारण का पता चला तो उन्होंने चाकू वापस मँगवालिया । अब शामा दूसरा चाकू लाने के लिये गये, किन्तु बड़ी देर तक मसजिद में न लौटे । तब काकासाहेब दीक्षित की बारी आई । वह सोना सच्चा तो था, परन्तु उसको कसौटी पर कसना भी अत्यन्त आवश्यक था । बाबा ने उनसे चाकू लाकर बकरा काटने को कहा । वे साठेवाड़े से एक चाकू ले आये और बाबा की आज्ञा मिलते ही काटने को तैयार हो गये । उन्होंने पवित्र ब्राहमण-वंश में जन्म लिया था और अपने जीवन में वे बलिकृत्य जानते ही न थे । यघपि हिंसा करना निंदनीय है, फिर भी वे बकरा काटने के लिये उघत हो गये । सब लोगों को आश्चर्य था कि बड़े बाबा एक यवन होते हुए भी बकरा काटने को सहमत नहीं हैं और यह एक सनातन ब्राहमण बकरे की बलि देने की तैयारी कर रहा है । उन्होंने अपनी धोती ऊपर चढ़ा फेंटा कस लिया और चाकू लेकर हाथ ऊपर उठाकर बाबा की अन्तिम आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे । बाबा बोले, अब विचार क्या कर रहे हो । ठीक है, मारो । जब उनका हाथ नीचे आने ही वाला था, तब बाबा बोले ठहरो, तुम कितने दुष्ट हो । ब्राहमण होकर तुम बके की बलि दे रहे हो । काकासाहेब चाकू नीचे रख कर बाबा से बोले आपकी आज्ञा ही हमारे लिये सब कुछ है, हमें अन्य आदेशों से क्या । हम तो केवल आपका ही सदैव स्मरण तथा ध्यान करते है और दिन रात आपकी आज्ञा का ही पालन किया करते है । हमें यह विचार करने की आवश्यकता नहीं कि बकरे को मारना उचित है या अनुचित । और न हम इसका कारण ही जानना चाहते है । हमारा कर्तव्य और धर्म तो निःसंकोच होकर गुरु की आज्ञा का पूर्णतः पालन करने में है । तब बाबा ने काकासाहेब से कहा कि मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का कार्य करुँगा । तब ऐसा निश्चित हुआ कि तकिये के पास जहाँ बहुत से फकीर बैठते है, वहाँ चलकर इसकी बलि देनी चाहिए । जब बकरा वहाँ ले जाया जा रहा था, तभी रास्ते में गिर कर वह मर गया ।
भक्तों के प्रकार का वर्णन कर श्री. हेमाडपंत यह अध्याय समाप्त करते है । भक्त तीन प्रकार के है
1. उत्तम

2. मध्यम और

3. साधारण
प्रथम श्रेणी के भक्त वे है, जो अपने गुरु की इच्छा पहले से ही जालकर अपना कर्तव्य मान कर सेवा करते है । द्घितीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा मिलते ही उसका तुरन्त पालन करते है । तृतीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा सदैव टालते हुए पग-पग पर त्रुटि किया करते है । भक्तगण यदि अपनी जागृत बुद्घि और धैर्य धारण कर दृढ़ विश्वास स्थिर करें तो निःसन्देह उनका आध्यात्मिक ध्येय उनसे अधिक दूर नहीं है । श्वासोच्ध्वास का नियंत्रण, हठ योग या अन्य कठिन साधनाओं की कोई आवश्यकता नहीं है । जब शिष्य में उपयुक्त गुणों का विकास हो जाता है और जब अग्रिम उपदेशों के लिये भूमिका तैयार हो जाती है, तभी गुरु स्वयं प्रगट होकर उसे पूर्णता की ओर ले जाते है । अगले अध्याय में बाबा के मनोरंजक हास्य-विनोद के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।


---------------------------------------------------------------------------------------------------------Chapter 23

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Yoga and Onion - Shama Cured of Snake - Bite - Cholera Ordinance Broken - Ordeal of Guru-Bhakti.

Preliminary

Really this Jiva (human soul) transcends the three qualities, viz. Sattwa, Rajas and Tamas, but being deluded by Maya, he forgets his nature which is 'Existence-knowledge-bliss', and thinks that he is the doer and enjoyer and thus entangles himself in endless miseries and does not know the way of deliverance. The only way of deliverance is Loving Devotion towards the Guru's feet. The great Player or Actor Lord Sai has delighted His Bhaktas and transformed them into Himself (His nature).

We regard Sai Baba as an incarnation of God for reasons already stated, but He always said that He was an obedient servant of God. Though an incarnation He showed the people the way, how to behave satisfactorily and carry out the duties of their respective stations (Varnas) in this life. He never emulated others in any way, nor asked others to have something done for Him. For Him, Who saw the Lord in all movable and immovable things of this world, humility was the most proper thing. None He disregarded or disrespected; for He saw Narayan (Lord) in all beings, He never said, "I am God," but that He was a humble servant and He always remembered Him and always uttered - "Allah Malik" (God is the sole proprietor or Owner).

We do not know the various kinds of Saints, how they behave, what they do and eat etc. We only know, that by God's grace they manifest themselves in this world to liberate the ignorant and bound souls. If there be any store of merits on our account, we get a desire in listening to the stories and Leelas of the Saints, otherwise not. Let us now turn to the main stories of this Chapter.

Yoga and Onion

Once it so happened, that a sadhak of Yoga came to Shirdi with Nanasaheb Chandorkar. He had studied all the works on Yoga, including the Yoga-sutras of Patanjali, but had no practical experience. He could not concentrate his mind and attain samadhi even for a short time. He thought that if Sai Baba be pleased with him, He will show him the way to attain samadhi for a long time. With this object in view he came to Shirdi, and when he went to the Masjid he saw Sai Baba eating bread with onion. On seeing this, a thought arose in his mind - `How can this man, eating stale bread with raw onion, solve my difficulties and help me?' Sai Baba read his mind and said to Nanasaheb - "Oh Nana, he who has the power to digest onion, should eat it and none else". Hearing this remark, the yogi was wonder-struck and then he fell at Baba's Feet with complete surrender. With pure and open mind, he asked his difficulties and got their solution from Baba. Thus being satisfied and happy, he left Shirdi with Baba's Udi and blessings.

Shama Cured of Snake-Bite

Before Hemadpant begins the story, he says about the Jiva that it can be very well compared with a parrot, and that they both are bound, the one in the body and the other in a cage. Both think that their present bound state is good for them. It is only when a Helper, i.e., Guru comes and by God's grace opens their eyes and liberates them from their bondage, that their eyes are opened to a greater and larger life, compared to which their former limited life is nothing.

In the last Chapter, it was shown how Baba anticipated the calamity, that was to befall on Mr. Mirikar and rescued him from it. Now let the readers hear a story grander than that. Once Shama was bitten by a poisonous snake. His little finger of the hand was stung and the poison began to spread into the body. The pain was also severe and Shama thought that he would pass off soon. His friends wanted to take him to the God Viroba, where such cases were often sent, but Shama ran to the Masjid -- to His Viroba (Sai Baba). When Baba saw him, He began to scold and abuse. He got enraged and said - "Oh vile Bhaturdya (Priest) do not climp up. Beware if you do so" and then roared - "Go, Get away, Come down." Seeing Baba thus red with wrath, Shama was greatly puzzled and disappointed. He thought that the Masjid was his home and Sai Baba his sole Refuge, but if he was driven away like this, where should he go? He lost all hope of life and kept silent. After a time Baba became normal and calm when Shama went up and sat near. Then Baba said to him - "Don't be afraid, don't care a jot, the Merciful Fakir will save you, go and sit quiet at home, don't go out, believe in Me and remain fearless and have no anxeity". Then he was sent home. Immediately afterwards, Baba sent Tatya Patil and Kakasaheb Dixit to him with instructions to the effect, that he should eat what he liked, should move in the home, but should never lie down and sleep. Needless to say that these instructions were acted upon and Shama got all-right in a short time. The only thing to be remembered in this connection is this - the words of Baba (or the five syllabled Mantra, viz, `Go, Get away, Come down') were not addressed to Shama- as it apparently looked - but they were a direct order to the snake and its poison not to go up and circulate through Shama's body. Like others well-versed in Mantrashastra, He had not to use any incantation, charged rice or water etc. His words only were most efficacious in saving the life of Shama.

Any one, hearing this story and other similar ones, will beget firm faith in the Feet of Sai Baba, and the only way to cross the ocean of Maya is to remember ever the Feet of Baba in the heart.

Cholera Epidemic

Once, Cholera was raging virulently in Shirdi. The residents were much frightened and they stopped all communication with the outside people. The panchas of the village assembled together and decided upon two ordinances as a remedy to check and put down the Epidemic. They were (1) No fuel-cart should be allowed to come in the village, and (2) No goat should be killed there. If anybody disobeyed these ordinances, they were to be fined by the village-authorities and panchas. Baba knew that all this was mere supersition, and therefore, He cared two pence for the Cholera-ordinances. While the ordinances were in force, a fuel-cart came there, and wanted to enter the village. Everybody knew that there was dearth of fuel in the village, still the people began to drive away the fuel-cart. Baba came to know of this. He came to the spot and asked the cartman to take the fuel-cart to the Masjid. None dared to raise his voice against this action of Baba. He wanted fuel for His Dhuni and so He purchased it. Like an Agnihotri keeping his sacred fire alive throughout his life, Baba kept His Dhuni ever burning all day and night; and for this He always stocked fuel. Baba's home, i.e. the Masjid was free and open to all. It had no lock and key; and some poor people removed some wood from there for their use. Baba did not grumble about this. Baba saw that the whole universe was pervaded by the Almighty, and so He never bore enmity or ill-will to anybody. Though perfectly detached. He behaved like an ordinary house-holder to set an example to the people.

Ordeal of Guru-Bhakti

Let us now see, how the second Cholera-ordinance fared with Baba. While it was in force, somebody brought a goat to the Masjid. It was weak, old and about to die. At this time Fakir Pir Mohamad of Malegaon alias Bade Baba was near. Sai Baba asked him to behead it with one stroke, and offer it as an oblation. This Bade Baba was much respected by Sai Baba. He always sat on the right hand of Sai Baba. After the chilim (pipe) was first smoked by him, it was then offered to Baba and others. After the dishes were served, at the time of taking meals at , Baba respectfully called Bade Baba and made him sit on His left side, and then all partook of food. Baba paid him also daily Rs.50/- out of the amount collected as Dakshina. Baba accompanied him hundred paces whenever he was going away. Such was his position with Baba. But when Baba asked him to behead the goat, he flatly refused, saying "Why it should be killed for nothing?" Then Baba asked Shama to kill it. He went to Radha-Krishna-Mai and brought a knife from her and placed it before Baba. Knowing the purpose for which the knife was taken, she recalled it. Then Shama went to bring another knife, but stayed in the Wada, and did not return soon. Then came the turn of Kakasaheb Dixit. He was 'good gold' no doubt, but had to be tested. Baba asked him to get a knife and kill the goat. He went to Sathe's Wada and returned with a knife. He was ready to kill it at Baba's bidding. He was born in a pure Brahmin family and never in his life knew killing. Though quite averse to do any act of violence, he made himself bold to kill the goat. All the people wondered to see that Bade Baba, a Mahomedan was unwilling to kill it while this pure Brahmin was making preparations to do so. He tightened his dhotar and with a semicircular motion raised his hand with the knife and looked at Baba for the final signal. Baba said - "What are you thinking of? Go on, strike". Then, when the hand was just about to come down, Baba said - "Stop, how cruel you are! Being a Brahmin, you are killing a goat?" Kakasaheb obeyed and kept the knife down and said to baba - "Your nectarlike word is law unto us, we do not know any other ordinance. We remember You always, meditate on Your Form and obey You day and night, we do not know or consider whether it is right or wrong to kill, we do not want to reason or discuss things, but implicit and prompt compliance with Guru's orders, is our duty and dharma".

Then Baba said to Kakaseheb, that He would Himself do the offering and killing business. It was settled that the goat should be disposed of near a place called Takkya, where fakirs used to sit. When the goat was being removed to that place, it fell dead on the way.

Hemadpant closes the Chapter with a classification of disciples. He says that they are of three kinds : (1) First or best (2) Second or middling and (3) Third or ordinary. The best kind of disciples are those who guess what their Gurus want and immediately carry it out and serve them without waiting for an order from them. The average disciples are those who carry out the orders of their Masters to a letter, without any delay, and the third kind of disciples are those, who go on postponing the carrying out of their orders and making mistakes at every step.

The disciples should have firm faith, backed up by intelligence and if they and patience to these, their spiritual goal will not be distant. Control of breath -- ingoing and outgoing, or Hath-Yoga or other difficult practices are not at all necessary. When the disciples get the above-mentioned qualities, they become ready for further instructions and the Masters then appear and lead them on, in their spiritual path to perfection.

In the next Chapter we will deal with Baba's interesting wit and humour.



Bow to Shri Sai - Peace be to all

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