शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Tuesday, July 31, 2012

तेरे कितने रुप है देवा




ॐ सांई राम


 





किसी का राम किसी का श्याम किसी का गोपाला
जाकि जैसी भक्ति बाबा


जाकि जैसी भक्ति बाबा


वैसा ही रंग डाला
रंग डाला सांई ने रंग डाला
किसी का राम किसी का श्याम किसी का गोपाला
जाकि जैसी भक्ति बाबा


जाकि जैसी भक्ति बाबा


वैसा ही रंग डाला
रंग डाला सांई ने रंग डाला
किसी का राम किसी का श्याम किसी का गोपाला

तेरे कितने रुप है देवा जिसने की जैसी सेवा
कोई जल और फूल चढ़ाता, कोई चढ़ाये मिश्री मेवा
किसी का राम किसी का श्याम किसी का गोपाला
जाकि जैसी भक्ति बाबा


जाकि जैसी भक्ति बाबा


वैसा ही रंग डाला
रंग डाला सांई ने रंग डाला
किसी का राम किसी का श्याम किसी का


कहीं बिराजे तू सोने पर, कहीं साँई बैठा पत्थर पर
जाकी जैसी कुटिया बाबा वैसा ही पग डाला
किसी का राम किसी का श्याम किसी का गोपाला
जाकि जैसी भक्ति बाबा


जाकि जैसी भक्ति बाबा


वैसा ही रंग डाला
रंग डाला सांई ने रंग डाला
किसी का राम किसी का श्याम किसी का



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सांई नैनो में झांको तो सदा झलकता प्यारा है





ॐ सांई राम


 








सांई की मन भावन मूरत मन में है समाई
सांई धुन की एक अजीब दीवानगी सी छायी
मैं हुआ दीवाना ओ लोगो हुआ दीवाना
मैं सांई का दीवाना मैं बाबा का दीवाना

सांई नैनो में झांको तो सदा झलकता प्यारा है
सांई के हाथों में देखो, पलता ये संसार है
अब तो सांई द्वार को छोड़ ओर कहीं ना जाना
सांई नाम की माला का मैं बन जाऊँ एक दाना
मैं हुआ दीवाना ओ लोगो हुआ दीवाना
मैं सांई का दीवाना मैं बाबा का दीवाना

सांई की मन भावन मूरत मन में है समाई
सांई धुन की एक अजीब दीवानगी सी छायी
मैं हुआ दीवाना ओ लोगो हुआ दीवाना
मैं सांई का दीवाना मैं बाबा का दीवाना

घर में ना आँगन में ये दिल लगता है ना गुलशन में
मित्रों में परिवार में न साथी के साथ मधुबन में
तू ही रहीम तू ही राम तू ही मेरा कान्हा
क्यों जाऊँ मैं मथुरा काशी क्यों जाऊँ मैं मदीना
मैं हुआ दीवाना ओ लोगो हुआ दीवाना – 2
मैं सांई का दीवाना मैं बाबा का दीवाना – 2

सांई की मन भावन मूरत मन में है समाई
सांई धुन की एक अजीब दीवानगी सी छायी
मैं हुआ दीवाना ओ लोगो हुआ दीवाना
मैं सांई का दीवाना मैं बाबा का दीवाना








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Monday, July 30, 2012

सब का मालिक एक ही सांई





ॐ सांई राम












सांई दया करना मेरे सांई कृपा करना
सांई दया करना मेरे सांई कृपा करना


श्रध्दा और सबुरी सांई
सब का मालिक एक ही सांई
सांई दया करना मेरे सांई कृपा करनामैं निर्धन हूँ मैं निर्बल हूँ
दाता सांई मैं भिक्षुक हूँ – 2
सांई शक्ति देना मेरे सांई कृपा करना
सांई दया करना मेरे सांई कृपा करना

मोहमाया से दूर ही रखना
पाप करम से दूर ही रखना
भजन चरण शरण में रखना
मेरे सांई कृपा करना
सांई दया करना मेरे सांई कृपा करना


सांई दया करना मेरे सांई कृपा करना










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Sunday, July 29, 2012


ॐ सांई राम जी





उत्तम गुण साँई बसे


साँई गुणों की खान


लीला अमृत घोल कर


करें सभी रस पान।






भूख प्यास जब तुम्हे सताये


ज़ीव जंतु को भी ध्यान मे लाये


भोजन जल यदि भोग लगाये


थोड़ा उनके लिये बनाये


खाये पियेंगे वे जब आप खिलाये


बाबा जी के मन को भी आप भाये।





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बालक खापर्डे को प्लेग



ॐ साईं राम


http://www.saibaba.com/saiweb/images/PhotoArchive/36/34/lg/Baba_1.jpg


श्रीमती खापर्डे (अमरावती के श्री
दादासाहेब खापर्डे की धर्मपत्नी) अपने छोटे पुत्र के साथ कई दिनों से
शिरडी में थी । पुत्र तीव्र ज्वर से पीड़ित था, पश्चात उसे प्लेग की
गिल्टी (गाँठ) भी निकल आई । श्रीमती खापर्डे भयभीत हो बहुत घबराने लगी और
अमरावती लौट जाने का विचार करने लगी । संध्या-समय जब बाबा वायुसेवन के लिए
वाड़े (अब जो समाधि मंदिर कहा जाता है) के पास से जा रहे थे, तब उन्होंने
उनसे लौटने की अनुमति माँगी तथा कम्पित स्वर में कहने लगी कि मेरा प्रिय
पुत्र प्लेग से ग्रस्त हो गया है, अतः अब मैं घर लौटना चाहती हूँ ।
प्रेमपूर्वक उनका समाधान करते हुए बाबा ने कहा, आकाश में बहुत बादल छाये
हुए हैं । उनके हटते ही आकाश पूर्ववत् स्वच्छ हो जायेगा । ऐसा कहते हुए
उन्होंने कमर तक अपनी कफनी ऊपर उठाई और वहाँ उपस्थित सभी लोगों को चार
अंडों के बराबर गिल्टियाँ दिखा कर कहा, देखो, मुझे अपने भक्तों के लिये
कितना कष्ट उठाना पड़ता हैं । उनके कष्ट मेरे हैं । यह विचित्र और असाधारण
लीला दिखकर लोगों को विश्वास हो गया कि सन्तों को अपने भक्तों के लिये किस
प्रकार कष्ट सहन करने पड़ते हैं । संतों का हृदय मोम से भी नरम तथा
अन्तर्बाहृ मक्खन जैसा कोमल होता है । वे अकारण ही भक्तों से प्रेम करते और
उन्हे अपना निजी सम्बंधी समझते हैं । 







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Sai Aayega

ॐ सांई राम

Saturday, July 28, 2012

सांई नाथ अनमोल खजाना जिन चाहा तिन पाया




ॐ सांई राम












तन में राम, मन में राम, रोम रोम में राम समाया
सांई नाथ अनमोल खजाना जिन चाहा तिन पाया



तन में राम, मन में राम, रोम रोम में राम समाया
सांई नाथ अनमोल खजाना जिन चाहा तिन पाया
तन में राम, मन में राम, रोम रोम में राम समाया


सांई राम सांई राम सांई राम सांई राम..........

झूठे बेर सांई ने खाये लक्ष्मण कितने सकुचाये
शबरी के मन प्रीत है कितनी लक्ष्मण समझ ना पाये
सांई राम सांई राम सांई राम सांई राम..........


तन में राम, मन में राम, रोम रोम में राम समाया
शिरडी में बाबा शिव आये अवतारी सांई कहलाये
बाबा तेरे रुप है कितने भक्ति बिना कोई समझ ना पाये
सांई राम सांई राम सांई राम सांई राम..........
तन में राम, मन में राम, रोम रोम में राम समाया
सांई राम अनमोल खजाना जिन चाहा तिन पाया
तन में राम, मन में राम, रोम रोम में राम समाया


सांई राम सांई राम सांई राम सांई राम..........






भूख प्यास जब तुम्हे सताये


ज़ीव जंतु को भी ध्यान मे लाये


भोजन जल यदि भोग लगाये


थोड़ा उनके लिये बनाये


खाये पियेंगे वे जब आप खिलाये


बाबा जी के मन को भी आप भाये।




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Friday, July 27, 2012


ॐ सांई राम जी






सद्गुरु साँई नाथ का,


वर्णन करना होये


मूक होये कर बैठिये,


मन साँई मे होये




भूख प्यास जब तुम्हे सताये


ज़ीव जंतु को भी ध्यान मे लाये


भोजन जल यदि भोग लगाये


थोड़ा उनके लिये बनाये


खाये पियेंगे वे जब आप खिलाये


बाबा जी के मन को भी आप भाये।






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अपने बर्ताव के सम्बन्ध में बाबा का उपदेश



ॐ साईं राम



बाबा कहते हैं  :- जब तक किसी से कोई पूर्व नाता या सम्बन्ध न
हो, तब तक कोई किसी के समीप नहीं जाता । यदि कोई मनुष्य या प्राणी तुम्हारे
समीप आये तो उसे असभ्यता से न ठुकराओ । उसका स्वागत कर


आदरपूर्वक बर्ताव
करो । यदि तृषित को जल, क्षुधा-पीड़ित को भोजन, नंगे को वस्त्र और आगन्तुक
को अपना दालान विश्राम करने को दोगे तो भगवान श्री हरि तुमसे निस्सन्देह
प्रसन्न होंगे । यदि कोई तुमसे द्रव्य-याचना करे और तुम्हारी इच्छा देने की
न हो तो न दो, परन्तु उसके साथ कुत्ते के समान ही व्यवहार न करो ।
तुम्हारी कोई कितनी ही निंदा क्यों न करे, फिर भी कटु उत्तर देकर तुम उस पर
क्रोध न करो । यदि इस प्रकार ऐसे प्रसंगों से सदैव बचते रहे तो यह निश्चित
ही है कि तुम सुखी रहोगे । संसार चाहे उलट-पलट हो जाये, परन्तु तुम्हें
स्थिर रहना चाहिये । सदा अपने स्थान पर दृढ़ रहकर गतिमान दृश्य को
शान्तिपूर्वक देखो । एक को दूसरे से अलग रखने वाली भेद (द्वैत) की दीवार
नष्ट कर दो, जिससे अपना मिलन-पथ सुगम हो जाये । द्वैत भाव (अर्थात मैं और
तू) ही भेद-वृति है, जो शिष्य को अपने गुरु से पृथक कर देती है । इसलिये जब
तक इसका नाश न हो जाये, तब तक अभिन्नता प्राप्त करना सम्भव नही हैं ।
अल्लाह मालिक अर्थात ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है और उसके सिवा अन्य कोई
संरक्षणकर्ता नहीं है । उनकी कार्यप्रणाली अलौकिक, अनमोल और कल्पना से परे
है । उनकी इच्छा से ही सब कार्य होते है । वे ही मार्ग-दर्शन कर सभी
इच्छाएँ पूर्ण करते है । ऋणानुबन्ध के कारण ही हमारा संगम होता है, इसलिये
हमें परस्पर प्रेम कर एक दूसरे की सेवा कर सदैव सन्तुष्ट रहना चाहिये ।
जिसने अपने जीवन का ध्येय (ईश्वर दर्शन) पा लिया है, वही धन्य और सुखी है ।
दूसरे तो केवल कहने को ही जब तक प्राण है, तब तक जीवित हैं ।








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Thursday, July 26, 2012


सदगुरु वर्णन होये ना,


थकते वेद पुराण,


मै मूर्ख कैसे करूँ,


साँई के गुणगान।





ॐ साँई राम जी

कैसे कहूँ बाबा तुमसे कितना प्यार है


ॐ सांई राम





 


तेरे कदमों की आहट का मुझे इन्तजार है
कैसे कहूँ बाबा तुमसे कितना प्यार है
श्रद्वा सुमन से अपना आँगन मैंने सजा लिया
साथ में सबुरी का दीपक भी जला लिया
तेरे चिमटे की खन खन का मुझे इन्तजार है
कैसे कहूँ बाबा तुमसे कितना प्यार है

मुझे विश्वास है मेरी सदा न जायेगी खाली
तुम पधारो मेरे घर आयेगी दीवाली
तेरी चरणरच पाने का मुझे इन्तजार
कैसे कहूँ बाबा तुमसे कितना प्यार है
तेरे कदमों की आहट का मुझे इन्तजार है
कैसे कहूँ बाबा तुमसे कितना प्यार है





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छोड़ के दुनिया मैं तेरी शरण में आया




ॐ सांई राम







सांई ओ सांई ओ सांई
छोड़ के दुनिया मैं तेरी शरण में आया



मैं तेरी शरण में आया
सारे नाते सारे बंधन
सब मैं तोड़ के आया
सांई ओ सांई ओ सांई
छोड़ के दुनिया मैं तेरी शरण में आया
मैं तेरी शरण में आया

मात पिता क्या बहिना भाई
मतलब की है सब ये सदाई
मैंने तुझसे प्रीत लगाई
जग मैं छोड़ के आया
सांई ओ सांई ओ सांई
छोड़ के दुनिया मैं तेरी शरण में आया
मैं तेरी शरण में आया

मोह विलाश का पापी दामन
खींच न ले मेरा चंचल मन
सांई नाम की पावन चादर
लो मैं ओढ़ के आया
सांई ओ सांई ओ सांई
छोड़ के दुनिया मैं तेरी शरण में आया
मैं तेरी शरण में आया

सारे नाते सारे बंधन
सब मैं तोड़ के आया
सांई ओ सांई ओ सांई
छोड़ के दुनिया मैं तेरी शरण में आया
मैं तेरी शरण में आया






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Wednesday, July 25, 2012

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 20





ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं


हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है|





हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है










श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 20


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विलक्षण समाधान . श्री काकासाहेब की नौकरानी द्घारा श्री दासगणू की समस्या का समाधान ।


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श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्घारा श्री. दासगणू की समस्या किस प्रकार हल हुई, इसका वर्णन हेमाडपंत ने इस अध्याय में किया है ।




प्रारम्भ


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श्री साई मूलतः निराकार थे, परन्तु भक्तों के प्रेमवश ही वे साककार रुप में प्रगट हुए । माया रुपी अभिनेत्री की सहायता से इस विश्व की वृहत् नाट्यशाला में उन्होंने एक महान् अभिनेता के सदृश अभिनय किया । आओ, श्री साईबाबा का ध्यान व स्मरण करें और फिर शिरडी चलकर ध्यानपूर्वक मध्याहृ की आरती के पश्चात का कार्यक्रम देखें । जब आरती समाप्त हो गई, तब श्री साईबाबा ने मसजिद से बाहर आकर एक किनारे खड़े होकर बड़ी करुणा तथा प्रेमपूर्वक भक्तों को उदी वितरण की । भक्त गण भी उनके समक्ष खड़े होकर उनकी ओर निहारकर चरण छूते और उदी वृष्टि का आनंद लेते थे । बाबा दोनों हाथों से भक्तों को उदी देते और अपने हाथ से उनके मस्तक पर उदी का टीका लगाते थे । बाबा के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम था । वे भक्तों को प्रेम से सम्बोधित करते, ओ भाऊ । अब जाओ, भोजन करो । इसी प्रकार वे प्रत्येक भक्त से सम्भाषण करते और उन्हें घर लौटाया करते थे । आह । क्या थे वे दिन, जो अस्त हुए तो ऐसे हुए कि फिर इस जीवन में कभी न मिलें । यदि तुम कल्पना करो तो अभी भी उस आनन्द का अनुभव कर सकते हो । अब हम साई की आनन्दमयी मूर्ति का ध्यान कर नम्रता, प्रेम और आदरपूर्वक उनकी चरणवन्दना कर इस अध्याय की कथा आरम्भ करते है ।










ईशोपनिषद्


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एक समय श्री दासगणू ने ईशोपनिषद् पर टीका (ईशावास्य-भावार्थबोधिनी) लिखना प्रारम्भ किया । वर्णन करने से पूर्व इस उपनिषद का संक्षिप्त परिचय भी देना आवश्यक है । इसमें बैदिक संहिता के मंत्रों का समावेश होने के कारण इसे मन्त्रोपनिषद् भी कहते है और साथ ही इसमें यजुर्वेद के अंतिम (40वें) अध्याय का अंश सम्मलित होने के कारण यह वाजसनेयी (यदुः) संहितोशनिषद् के नाम से भी प्रसिदृ है । वैदिक संहिता का समावेश होने के कारण इसे उन अन्य उपनिषदों की अपेक्षा श्रेष्ठकर माना जाता है, जो कि ब्राहमण और आरण्यक (अर्थात् मन्त्र और धर्म) इन विषयों के विवरणात्मक ग्रंथ की कोटि में आते है । इतना ही नही, अन्य उपनिषद् तो केवन ईशोपनिषद् में वर्णित गूढ़ तत्वों पर ही आधारित टीकायें है । पण्डित सातवलेकर द्घारा रचित वृहदारण्यक उपनिषद् एवं ईशोपनिषद् की टीका प्रचलित टीकाओं में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है । प्रोफेसर आर. डी. रानाडे का कथन है कि ईशोपनिषद् एक लघु उपनिषद् होते हुए भी, उसमें अनेक विषयों का समावेश हे, जो एक असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है । इसमें केवल 18 श्लोकों में ही आत्मतत्ववर्णन, एक आदर्श संत की जीवनी, जो आकर्षण और कष्टों के संसर्ग में भी अचल रहता है, कर्मयोग के सिद्घान्तों का प्रतिबिम्ब, जिसका बाद में सूत्रीकरण किया गया, तथा ज्ञान और कर्त्व्य के पोषक तत्वों का वर्णन है, जिसके अन्त में आदर्श, चामत्कारिक और आत्मासंबंधी गूढ़ तत्वों का संग्रह है । इस उपनिषद् के संबंध में संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि इसका प्राकृत भाषा में वास्तविक अर्थ सहित अनुवाद करना कितना दुष्कर कार्य है । श्री. दासगणू ने ओवी छन्दों में अनुवाद तो किया, परन्तु उसके सार त्तत्व को ग्रतहण न कर सकने के कारण उन्हें अपने कार्य से सन्तोष न हुआ । इस प्रकार असंतुष्ट होकर उन्होंने कई अन्य विद्घानों से शंका-निवारणार्थ परामर्श और वादविवाद भी अधिक किया, परन्तु समस्या पूर्ववत् जटिल ही बनी रही और सन्तोषजनक अर्थ करने में कोई भी सफल न हो सका । इसी कारण श्री. दासगणू बहुत ही असंतुष्ट हुए ।










केवल सदगुरु ही अर्थ समझाने में समर्थ


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यह उपनिषद वेदों का महान् विवरणात्मक सार है । इस अस्त्र के प्रयोग से जन्म-मरण का बन्धन छिन्न भिन्न हो जाता है और मुक्ति की प्राप्ति होती है । अतः श्री. दासगणू को विचार आया कि जिसे आत्मसाक्षात्कार हो चुका हो, केवल वही इस उपनिषद् का वास्तविक अर्थ कर सकता है । जब कोई भी उनकी शंका का निवारण न कर सका तो उन्होंने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । जब उन्हें शिरडी जाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बाबा से भेंट की और चरण-वन्दना करने के पश्चात् उपनिषद् में आई हुई कठिनाइयाँ उलके समक्ष रखकर उनसे हल करने की प्रार्थना की । श्री साईबाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । उसमें कठिनाई ही क्या है । जब तुम लौटोगे तो विलेपार्ला में काका दीक्षित की नौकरानी तुम्हारी शंका का निवारण कर देगी । उपस्थित लोगों ने जब ये वचन सुने तो वे सोचने लगे कि बाबा केवल विनोद ही कर रहे है और कहने लगे कि क्या एक अशिक्षित नौकरानी भी ऐसी जटिल समस्या हल कर सकती है । परन्तु दासगणू को तो पूर्ण विश्वास था कि बाबा के वचन कभी असत्य नहीं हो सकते, क्योंकि बाबा के वचन तो साक्षात् ब्रहमवाक्य ही है ।










काका की नौकरानी


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बाबा के वचनों में पूर्ण विश्वास कर वे शिरडी से विलेपार्ला (बम्बई के उपनगर) में पहुँचकर काका दीक्षित के यहाँ ठहरे । दूसरे दिन दासगणू सुबह मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें एक निर्धन बालिका के सुन्दर गीत का स्पष्ट और मधुर स्वर सुनाई पड़ा । गीत का मुख्य विषय था – एक लाल रंग की साड़ी । वह कितनी सुन्दर थी, उसका जरी का आँचल कितना बढ़िया था, उसके छोर और किनारे कितनी सुन्दर थी, इत्यादि । उन्हें वह गीत अति रुचिकर प्रतीत हुआ । इस कारण उन्हो्ने बाहर आकर देखा कि यह गीत एक बालिका - नाम्या की बहन - जो काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी है – गा रही है । बालिका बर्तन माँज रही थी और केवल एक फटे कपड़े से तन ढँकें हुए थी । इतनी दरिद्री-परिस्थिति में भी उसकी प्रसन्न-मुद्रा देखकर श्री. दासगणू को दया आ गई और दूसरे दिन श्री. दासगणू ने श्री. एम्. व्ही. प्रधान से उस निर्धन बालिका को एक उत्म साड़ी देने की प्रार्थना की । जब रावबहादुर एम. व्ही. प्रधान ने उस बालिका को एक धोती का जोड़ा दिया, तब एक क्षुधापीड़ित व्यक्ति को जैसे भाग्यवश मधुर भोजन प्राप्त होने पर प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा । दूसरे दिन उसने नई साड़ी पहनी और अत्यन्त हर्षित होकर सानन्द नाचने-कूदने लगी एवं अन्य बालिकाओं के साथ वह फुगड़ी खेलने में मग्न रही । अगले दिन उसने नई साड़ी सँभाल कर सन्दूक में रख दी और पूर्ववत् फटे पुराने कपड़े पहनकर आई, परन्तु फिर भी पिछले दिन के समान ही प्रसन्न दिखाई दी । यह देखकर श्री. दासगणू की दया आश्चर्य में परिणत हो गई । उनकी ऐसी धारणा थी कि निर्धन होने के ही कारण उसे फटे चिथड़े कपड़े पहनने पड़ते है, परन्तु अब तो उसके पास नई साड़ी थी, जिसे उसने सँभाल कर रख लिया और फटे कपडे पहनकर भी उसी गर्व और आनन्द का अनुभव करती रही । उसके मुखपर दुःख या निराशा का कोई निशान भी नही रहा । इस प्रकार उन्हें अनुभव हुआ कि दुःख और सुख का अनुभव केवल मानसिक स्थिति पर निर्भर है । इस घटना पर गूढ़ विचार करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि भगवान ने जो कुछ ददिया है, उसी में समाधान वृत्ति रखननी चाहिये और यह निश्चयपूर्वक समझना चाहिये कि वह सब चराचर मेंव्याप्त है और जो कुछ भी स्थिति उसकी दया से अपने को प्राप्त है, वह अपने लिये अवश्य ही लाभप्रद होगी । इस विशिष्ट घटना में बालिका की निर्धनावस्था, उसके पटे पुराने कपड़े और नई साड़ी देने वाला तथा उसकी स्वीकृति देने वाला यह सब ईश्वर दद्घारा ही प्रेरित कार्य था । श्री. दासगणू को उपनिषद् के पाठ की प्रत्यक्ष शिक्षा मिल गई अर्थात् जो कुछ अपने पास है, उसी में समाधानवृत्ति माननी चाहिए । सार यह है कि जो कुछ होता है, सब उसी की इच्छा से नियंत्रित है, अतः उसी में संतुष्ट रहने में हमारा कल्याण है ।










अद्घितीय शिक्षापद्घति


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उपयुक्त घटना से पाठकों को विदित होगा कि बाबा की पदृति अद्घितीय और अपूर्व थी । बाबा शिरडी के बाहर कभी नहीं गये, परन्तु फिर भी उन्होंने किसी को मच्छिन्द्रगढ़, किसी को कोल्हापुर या सोलापुर साधनाओं के लिये भेजा । किसी को दिन में ौर किसी को रात्रि में दर्शन दिये । किसी को काम करते हुए, तो किसी को निद्रावस्था में दर्शन दिये ओर उनकी इच्छाएँ पूर्ण की । भक्तों को शिक्षा देने के लिये उन्होंने कौन कौन-सी युक्तियाँ काम में लाई, इसका वर्णन करना असम्भव है । इस विशिष्ट घटना में उन्होंने श्री. दासगणू को विलेपार्ला भेज कर वहाँ उनकी नौकरानी द्घारा समस्या हल कराई । जिनका ऐसा विचार हो कि श्री. दासगणू को बाहर भेजने की आवश्यकता ही क्या थी, क्या वे स्वयं नही समझा सकते थे । उनसे मेरा कहना है कि बाबा ने उचित मार्ग ही अपनाया । अन्यथा श्री. दासगणू किस प्रकार एक अमूल्य शिक्षा उस निर्धन नौकरानी और उसकी साड़ी द्घारा प्राप्त करते, जिसकी रचना स्वयं साई ने की थी ।





ईशोपनिषद् की शिक्षा


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ईशोपनिषद् की मुख्य देन नीति-शास्त्र सम्बन्धी उपदेश है । हर्ष की बात है कि इस उपनिषद् की नीति निश्चित रुप से आध्यात्मिक विषयों पर आधारित है, जिसका इसमें बृहत् रुप से वर्णन किया गया है । उपनिषद् का प्रारम्भ ही यहीं से होता है कि समस्त वस्तुएँ ईश्वर से ओत-प्रोत है । यह आत्मविषयक स्थिति का भी एक उपसिद्घान्त है और जो नीतिसंबंधी उपदेश उससे ग्रहण करने योग्य है, वह यह है कि जो कुछ ईशकृपा से प्राप्त है, उसमें ही आनन्द मानना चाहिये और दृढ़ भावना रखनी चाहिये कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान् है और इसलिए जो कुछ उसने दिया है, वही हमारे लिये उपयुक्त है । यह भी उसमें प्राकृतिक रुप से वर्णित है कि पराये धन की तृष्णा की प्रवृत्ति को रोकना चाहिये । सारांश यह है कि अपने पास जो कुछ है, उसी में सन्तुष्ट रहना, क्योंकि यही ईश्वरेच्छा है । चरित्र सम्बन्धी द्घितीय उपदेश यह है कि कर्तव्य को ईश्वरेच्छा समझते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये, विशेषतः उन कर्मोंको जिनको शास्त्र में वर्णित किया गया है । इस विषय में उपनिषद् का कहना है कि आलस्य से आत्मा का पतन हो जाता है और इस प्रकार निरपेक्ष कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करने वाला ही अकर्मणमयता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है । अन्त में कहा है कि जो सब प्राषियों को अपना ही आत्मस्वरुप समझता है तथा जिसे समस्त प्राणी और पदार्थ आत्मस्वरुप हो चुके है, उसे मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है । ऐसे व्यक्ति को दुःख का कोई कारण नहीं हो सकता । सर्व भूतों में आत्मदर्शन न कर सकने के काण भिन्न-भिन्न प्रकार के शोक, मोह और दुःखों की वृद्घि होती है । जिसके लिये सब वस्तुएँ आत्मस्वरुप बन गई हो, वह अन्य सामान्य मनुष्यों का छिद्रान्वेषण क्यों करने लगता है ।








।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।







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