शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Saturday, March 31, 2012

माँ सिद्धिदात्री



ॐ सांई राम 



या देवी सर्वभू‍तेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।









नवदुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अंतिम हैं। अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा
उपासना शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार करते हुए भक्त दुर्गा पूजा के नौवें
दिन इनकी उपासना में प्रवत्त होते हैं। इन सिद्धिदात्री माँ की उपासना
पूर्ण कर लेने के बाद भक्तों और साधकों की लौकिक, पारलौकिक सभी प्रकार की
कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। सिद्धिदात्री माँ के कृपापात्र भक्त के भीतर
कोई ऐसी कामना शेष बचती ही नहीं है, जिसे वह पूर्ण करना चाहे। वह सभी
सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और स्पृहाओं से ऊपर उठकर मानसिक रूप से माँ
भगवती के दिव्य लोकों में विचरण करता हुआ उनके कृपा-रस-पीयूष का निरंतर पान
करता हुआ, विषय-भोग-शून्य हो जाता है। माँ भगवती का परम सान्निध्य ही उसका
सर्वस्व हो जाता है। इस परम पद को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की
आवश्यकता नहीं रह जाती। माँ के चरणों का यह सान्निध्य प्राप्त करने के लिए
भक्त को निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करने का नियम कहा गया है। ऐसा
माना गया है कि माँ भगवती का स्मरण, ध्यान, पूजन, हमें इस संसार की असारता
का बोध कराते हुए वास्तविक परम शांतिदायक अमृत पद की ओर ले जाने वाला है।
विश्वास किया जाता है कि इनकी आराधना से भक्त को अणिमा
, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, सर्वकामावसायिता, दूर
श्रवण, परकामा प्रवेश, वाकसिद्ध, अमरत्व भावना सिद्धि आदि समस्त सिद्धियों
नव निधियों की प्राप्ति होती है। ऐसा कहा गया है कि यदि कोई इतना कठिन तप न
कर सके तो अपनी शक्तिनुसार जप, तप, पूजा-अर्चना कर माँ की कृपा का पात्र
बन सकता ही है। माँ की आराधना के लिए इस श्लोक का प्रयोग होता है। माँ
जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में नवमी के दिन इसका
जाप करने का नियम है।





 







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रामनवमी उत्सव व मसजिद का जीर्णोदृार, गुरु के कर-स्पर्श की महिमा, रामनवमी उत्सव, उर्स की प्राथमिक अवस्था ओर रुपान्तर एवम मसजिद का जीर्णोदृार





ॐ सांई राम







रामनवमी उत्सव व मसजिद का जीर्णोदृार, गुरु के कर-स्पर्श की महिमा, रामनवमी





उत्सव, उर्स की प्राथमिक अवस्था ओर रुपान्तर एवम मसजिद का जीर्णोदृार







गुरु के कर-स्पर्श के गुण
जब
सद्गुरु ही नाव के खिवैया हों तो वे निश्चय ही कुशलता तथा सरलतापूर्वक इस
भवसागर के


पार उतार देंगे । सद्गुरु शब्द का उच्चारण करते ही मुझे श्री
साई की स्मृति आ रही है । ऐसा प्रतीत होता है, मानो वो स्वयं मेरे सामने ही
खड़े है और मेरे मस्तक पर उदी लगा रहे हैं । देखो, देखो, वे अब अपना
वरद्-हस्त उठाकर मेरे मस्तक पर रख रहे है । अब मेरा हृदय आनन्द से भर गया
है । मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे है । सद्गुरु के कर-स्पर्श की
शक्ति महान् आश्चर्यजनक है । लिंग (सूक्ष्म) शरीर, जो संसार को भष्म करने
वाली अग्नि से भी नष्ट किया जा सकता है, वह केवल गुरु के कर-स्पर्श से ही
पल भर में नष्ट हो जाता है । अनेक जन्मों के समस्त पाप भी मन स्थिर हो जाते
है । श्री साईबाबा के मनोहर रुप के दर्शन कर कंठ प्रफुल्लता से रुँध जाता
है, आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है और जब हृदय भावनाओं से भर
जाता है, तब सोडहं भाव की जागृति होकर आत्मानुभव के आनन्द का आभास होने
लगता है । मैं और तू का भेद (दैृतभाव) नष्ट हो जाता है और तत्क्षण ही
ब्रहृा के साथ अभिन्नता प्राप्त हो जाती है । जब मैं धार्मिक ग्रन्थों का
पठन करता हूँ तो क्षण-क्षण में सद्गुरु की स्मृति हो आती है । बाबा राम या
कृष्ण का रुप धारण कर मेरे सामने खड़े हो जाते है और स्वयं अपनी जीवन-कथा
मुझे सुनाने लगते है । अर्थात् जब मैं भागवत का श्रवण करता हूँ, तब बाबा
श्री कृष्ण का स्वरुप धारण कर लेते हैं और तब मुझे ऐसा प्रतीत होने लगता है
कि वे ही भागवत या भक्तों के कल्याणार्थ उदृवगीता सुना रहे है । जब कभी भी
मै किसी से वार्तालाप किया करता हूँ तो मैं बाबा की कथाओं को ध्यान में
लाता हूँ, जिससे उनका उपयुक्त अर्थ समझाने में सफल हो सकूँ । जब मैं लिखने
के लिये बैठता हूँ, तब एक शब्द या वाक्य की रचना भी नहीं कर पाता हूँ,
परन्तु जब वे स्वयं कृपा कर मुझसे लिखवाने लगते है, तब फिर उसका कोई अंत
नहीं होता । जब भक्तों में अहंकार की वृदिृ होने लगती है तो वे शक्ति
प्रदान कर उसे अहंकार शून्य बनाकर अंतिम ध्येय की प्राप्ति करा देते है तथा
उसे संतुष्ट कर अक्षय सुख का अधिकारी बना देते है । जो बाबा को नमन कर
अनन्य भाव से उनकी शरण जाता है, उसे फिर कोई साधना करने की आवश्यकता नहीं
है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उसे सहज ही में प्राप्त हो जाते हैं । ईश्वर
के पास पहुँचने के चार मार्ग हैं – कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति । इन सबमें
भक्तिमार्ग अधिक कंटकाकीर्ण, गडढों और खाइयों से परिपूर्ण है । परन्तु यदि
सद्गुरु पर विश्वास कर गडढों और खाइयों से बचते और पदानुक्रमण करते हुए
सीधे अग्रसर होते जाओगे तो तुम अपने ध्येय अर्थात् ईश्वर के समीप आसानी से
पहुँच जाओगे । श्री साईबाबा ने निश्चयात्मक स्वर में कहा है कि स्वयं ब्रहा
और उनकी विश्व उत्पत्ति, रक्षण और लय करने आदि की भिन्न-भिन्न शक्तियों के
पृथकत्व में भी एकत्व है । इसे ही ग्रन्थकारों ने दर्शाया है । भक्तों के
कल्याणार्थ श्री साईबाबा ने स्वयं जिन वचनों से आश्वासन दिया था, उनको नीचे
उदृत किया जाता है –



मेरे भक्तों के घर अन्न तथा वस्त्रों का कभी अभाव नहीं होगा । यह मेरा
वैशिष्टय है कि जो भक्त मेरी शरण आ जाते है ओर अंतःकरण से मेरे उपासक है,
उलके कल्याणार्थ मैं सदैव चिंतित रहता हूँ । कृष्ण भगवान ने भी गीता में
यही समझाया है । इसलिये भोजन तथा वस्त्र के लिये अधिक चिंता न करो । यदि
कुछ मांगने की ही अभिलाषा है तो ईश्वर को ही भिक्षा में माँगो । सासारिक
मान व उपाधियाँ त्यागकर ईश-कृपा तथा अभयदान प्राप्त करो और उन्ही के दृारा
सम्मानित होओ । सांसारिक विभूतियों से कुपथगामी मत बनो । अपने इष्ट को
दृढ़ता से पकड़े रहो । समस्त इन्द्रियों और मन को ईश्वरचिंतन में प्रवृत
रखो । किसी पदार्थ से आकर्षित न हो, सदैव मेरे स्मरण में मन को लगाये रखो,
ताकि वह देह, सम्पत्ति व ऐश्वर्य की ओर प्रवृत न हो । तब चित्त स्थिर, शांत
व निर्भय हो जायगा । इस प्रकार की मनःस्थिति प्राप्त होना इस बात का
प्रतीक है कि वह सुसंगति में है । यदि चित्त की चंचलता नष्ट न हुई तो उसे
एकाग्र नहीं किया जा सकता ।



बाबा के उपयुक्त को उदृत कर ग्रन्थकार शिरडी के रामनवमी उत्सव का वर्णन
करता है । शिरडी में मनाये जाते वाले उत्सवों में रामनवमी अधिक धूमधाम से
मनायी जाती है । अतएव इस उत्सव का पूर्ण विवरण जैसा कि साईलीला-पत्रिका
(1925) के पृष्ठ 197 पर प्रकाशित हुआ था, यहाँ संक्षेप में दिया जाता है –







प्रारम्भ
कोपरगाँव

में श्री गोपालराव गुंड नाम के एक इन्सपेक्टर थे । वे बाबा के परम भक्त थे
। उनकी तीन स्त्रियाँ थी, परन्तु एक के भी स्थान न थी । श्री साईबाबा की
कृपा से उन्हें एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई । इस हर्ष के उपलक्ष्य में
सन् 1897 में उन्हें विचार आया कि शिरडी में मेला अथवा उर्स भरवाना चाहिये ।
उन्होंने यह विचार शिरडी के अन्य भक्त-तात्या पाटील, दादा कोते पाटील और
माधवराव के समक्ष विचारणार्थ प्रगट किया । उन सभी को यह विचार अति रुचिकर
प्रतीत हुआ तथा उन्हें बाबा की भी स्वीकृत और आश्वासन प्राप्त हो गया ।
उर्स भरने के लिये सरकारी आज्ञा आवश्यक थी । इसलिये एक प्रार्थना-पत्र
कलेक्टर के पास भेजा गया, परन्तु ग्राम कुलकर्णी (पटवारी) के आपत्ति उठाने
के कारण स्वीकृति प्राप्त न हो सकी । परन्तु बाबा का आश्वासन तो प्राप्त हो
ही चुका था, अतः पुनः प्रत्यन करने पर स्वीकृति प्राप्त हो गयी । बाबा की
अनुमति से रामनवमी के दिन उरुस भरना निश्चित हुआ । ऐसा प्रतीत होता है कि
कुछ निष्कर्ष ध्यान में रख कर ही उन्होंने ऐसी आज्ञा दी । अर्थात् उरुस व
रामनवमी के उत्सवों का एकीकरण तथा हिन्दू-मुसलिम एकता, जो भविष्य की घटनाओं
से ही स्पष्ट है कि यह ध्येय पूर्ण सफल हुआ । प्रथम बाधा तो किसी प्रकार
हल हुई । अब दितीय कठिनाई जल के अभाव की उपस्थित हुई । शिरडी तो एक छोटा सा
ग्राम था और पूर्व काल से ही वहाँ जल का अभाव बना रहता था । गाँव में केवल
दो कुएँ थे, जिनमें से एक तो प्रायः को सूख जाया करता था और दूसरे का पानी
खारा था । बाबा ने उसमें फूल डालकर उसके खारे जल को मीठा बना दिया । लेकिन
एक कुएँ का जल कितने लोगों को पर्याप्त हो सकता था । इसलिये तात्या पाटील
ने बाहर से जल मंगवाने का प्रबन्ध किया । लकड़ी व बाँसों की कच्ची दुकानें
बनाई गई तथा कुश्तियों का भी आयोजन किया गया । गोपालपाव गुंड के एक मित्र
दामू-अण्णा कासार अहमदनगर में रहते थे । वे भी संतानहीन होने के कारण दुःखी
थे । श्री साईबाबा की कृपा से उन्हें भी एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी
। श्री गुंड ने उनसे एक ध्वज देने को कहा । एक ध्वज जागीरदार श्री
नानासाहेब निमोणकर ने भी दिया । ये दोनों ध्वज बड़े समारोह के साथ गाँव में
से निकाले गये और अंत में उन्हें मसजिद, जिसे बाबा द्वारकामाई के नाम से
पुकारते थे, उसके कोनों पर फहरा दिया गया । यह कार्यक्रम अभी पूर्ववत् ही
चल रहा है ।







चन्दन समारोह
इस
मेले में एक अन्य कार्यक्रम का भी श्री गणेश हुआ, जो चन्दनोत्सव के नाम से
प्रसिदृ है । यह कोरहल के एक मुसलिम भक्त श्री अमीर सक्कर दलाल के
मस्तिष्क की सूझ थी । प्रायः इस प्रकार का उत्सव सिदृ मुसलिम सन्तों के
सम्मान में ही किया जाता है । बहुत-सा चन्दन घिसकर बहुत सी चन्दन-धूप
थालियों में भरी जाती है तथा लोहवान जलाते है और अंत में उन्हें मसजिद में
पहुँचा कर जुलूस समाप्त हो जाता है । थालियों का चन्दन और धूप नीम पर और
मसजिद की दीवारों पर डाल दिया जता है । इस उत्सव का प्रबन्ध प्रथम तीन
वर्षों तक श्री. अमीर सक्कर ने किया और उनके पश्चात उनकी धर्मपत्नी ने किया
। इस प्रकार हिन्दुओं दृारा ध्वज व मुसलमानों के दृारा चन्दन का जुलूस एक
साथ चलने लगा और अभी तक उसी तरह चल रहा है ।







प्रबन्ध
रामनवमी

का दिन श्री साईबाबा के भक्तों को अत्यन्त ही प्रिय और पवित्र है । कार्य
करने के लिये बहुत से स्वयंसेवक तैयार हो जाते थे और वे मेले के प्रबन्ध
में सक्रिय भाग लेते थे । बाहर के समस्त कार्यों का भार तात्या पाटील और
भीतर के कार्यों को श्री साईबाबा की एक परम भक्त महिला राधाकृष्णा माई
संभालती थी । इस अवसर पर उनका निवासस्थान अतिथियों से परिपूर्ण रहता और
उन्हें सब लोगों की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना पड़ता था । साथ ही वे मेले
की समस्त आवश्यक वस्तुओं का भी प्रबन्ध करता थीं । दूसरा कार्य जो वे
स्वयं खुशी से किया करती, वह था मसजिद की सफाई करना, चूना पोतना आदि ।
मसजिद की फर्श तथा दीवारें निरन्तर धूनी जलने के कारण काली पड़ गयी थी । जब
रात्रि को बाबा चावड़ी में विश्राम करने चले जाते, तब वे यह कार्य कर लिया
करती थी । समस्त वस्तुएँ धूनी सहित बाहर निकालनी पड़ती थी और सफई व पुताई
हो जाने के पश्चात् वे पूर्ववत् सजा दी जाती थी । बाबा का अत्यन्त प्रिय
कार्य गरीबों को भोजन कराना भी इस कार्यक्रम का एक अंग था । इस कार्य के
लिये वृहद् भोज का आयोजन किया जाता था और अनेक प्रकार की मिठाइयाँ बनाई
जाती थी । यह सब कार्य राधाकृष्णा माई के निवासस्थान पर ही होता था । बहुत
से
धनाढ्य व श्रीमंत भक्त इस कार्य में आर्थिक सहायता पहुँचाते थे ।







उर्स का रामनवमी के त्यौहार में समन्वय



सब कार्यक्रम इसी तरह उत्तम प्रकार से चलता रहा और मेले का महत्व शनैः शनैः
बढ़ता ही गया । सन् 1911 में एक परिवर्तन हुआ । एक भक्त कृष्णराव जोगेश्वर
भीष्म (श्री साई सगुणोपासना के लेखक) अमरावती के दादासाहेब खापर्डे के साथ
मेले के एक दिन पूर्व शिरडी के दीक्षित-वाड़े में ठहरे । जब वे दालान में
लेटे हुए विश्राम कर रहे थे, तब उन्हें एक कल्पना सूझी । इसी समय श्री.
लक्ष्मणराव उपनाम काका महाजनी पूजन सामग्री लेकर मसजिद की ओर जा रहे थे ।
उन दोनों में विचार-विनिमय होने लगा ओर उन्होने सोचा कि शिरडी में उरुस व
मेला ठीक रामनवमी के दिन ही भरता है, इसमें अवश्य ही कोई गुढ़ रहस्य निहित
है । रामनवमी का दिन हिन्दुओं को बहुत ही प्रिय है । कितना अच्छा हो, यदि
रामनवमी उत्सव (अर्थात् श्री राम का जन्म दिवस) का भी श्री गणेश कर दिया
जाय । काका महाजनी को यह विचार रुचिकर प्रतीत हुआ । अब मुख्य कठिनाई हरिदास
के मिलने की थी, जो इस शुभ अवसर पर कीर्तन व ईश्वर-गुणानुवाद कर सकें ।
परन्तु भीष्म ने इस समस्या को हल कर दिया । उन्होंने कहा कि मेरा स्वरचित
राम आख्यान, जिसमें रामजन्म का वर्णन है, तैयार हो चुका है । मैं उसका ही
कीर्तन करुँगा और तुम हारमोनियम पर साथ करना तथा राधाकृष्णमाई सुंठवडा़
(सोंठ का शक्कर मिश्रित चूर्ण) तैयार कर देंगी । तब वे दोनों शीघ्र ही बाबा
की स्वीकृति प्राप्त करने हेतु मसजिद को गये । बाबा तो अंतर्यामी थे ।
उन्हें तो सब ज्ञान था कि वाड़े में क्या-क्या हो रहा है । बाबा ने महाजनी
से प्रश्न किया कि वहाँ क्या चल रहा था । इस आकस्मिक प्रश्न से महाजनी घबडा
गये और बाबा के शब्दों से पूछा कि क्या बात है । भीष्म ने रामनवमी-उत्सव
मनाने का विचार बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया तथा स्वीकृति देने की
प्रार्थना की । बाबा ने भी सहर्ष अनुमति दे दी । सभी भक्त हर्षित हुये और
रामजन्मोत्सव मनाने की तैयारियाँ करने लगे । दूसरे दिन रंग-बिरंगी झंडियों
से मस्जिद सजा दी गई । श्रीमती राधाकृष्णमाई ने एक पालना लाकर बाबा के आसन
के समक्ष रख दिया और फिर उत्सव प्रारम्भ हो गया । भीष्म कीर्तन करने को
खड़े हो गये और महाजनी हारमोनियम पर उनका साथ करने लगे । तभी बाबा ने
महाजनी को बुलाबा भेजा । यहाँ महाजनी शंकित थे कि बाबा उत्सव मनाने की
आज्ञा देंगे भी या नहीं । परन्तु जब वे बाबा के समीप पहुँचे तो बाबा ने
उनसे प्रश्न किया यह सब क्या है, यह पलना क्यों रखा गया है महाजनी ने
बतलाया कि रामनवमी का कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया और इसी कारण यह पालना यहाँ
रखा गया । बाबा ने निम्बर पर से दो हार उठाये । उनमें से एक हार तो
उन्होंने काका जी के गले में डाल दिया तथा दूसरा भीष्म के लिये भेज दिया ।
अब कीर्तन प्रारम्भ हो गया था । कीर्तन समाप्त हुआ, तब श्री राजाराम की
उच्च स्वर से जयजयकार हुई । कीर्तन के स्थान पर गुलाल की वर्षा की गई । जब
हर कोई प्रसन्नता से झूम रहा था, अचानक ही एक गर्जती हुई ध्वनि उनके कानों
पर पड़ी । वस्तुतः जिस समय गुलाल की वर्षा हो रही थी तो उसमें से कुछ कण
अनायास ही बाबा की आँख में चले गये । तब बाबा एकदम क्रुदृ होकर उच्च स्वर
में अपशब्द कहने व कोसने लगे । यह दृश्य देखकर सब लोग भयभीत होकर सिटपिटाने
लगे । बाबा के स्वभाव से भली भाँति परिचित अंतरंग भक्त भला इन अपशब्दों का
कब बुरा माननेवाले थे । बाबा के इन शब्दों तथा वाक्यों को उन्होंने
आर्शीवाद समझा । उन्होंने सोचा कि आज राम का जन्मदिन है, अतः रावण का नाश,
अहंकार एवं दुष्ट प्रवृतिरुपी राक्षसों के संहार के लिये बाबा को क्रोध
उत्पन्न होना सर्वथा उचित ही है । इसके साथ-साथ उन्हें यह विदित था कि जब
कभी भी शिरडी में कोई नवीन कार्यक्रम रचा जाता था, तब बाबा इसी प्रकार
कुपित या क्रुदृ हो ही जाया करते थे । इसलिये वे सब स्तब्ध ही रहे । इधर
राधाकृष्णमाई भी भयभीत थी कि कही बाबा पालना न तोड़-फोड़ डालें, इसलिये
उन्होंने काका महाजनी से पालना हटाने के लिए कहा । परन्तु बाबा ने ऐसा करने
से उन्हें रोका । कुछ समय पश्चात् बाबा शांत हो गये और उस दिन की महापूजा
और आरती का कार्यक्रम निर्विध्र समाप्त हो गया । उसके बात काका महाजनी ने
बाबा से पालना उतारने की अनुमति माँगी परन्तु बाबा ने अस्वीकृत करते हुये
कहा कि अभी उत्सव सम्पूर्ण नहीं हुआ है । अगने दिन गोपाल काला उत्सव मनाया
गया, जिसके पश्चात् बाबा ने पालना उतारने की आज्ञा दे दी । उत्सव में दही
मिश्रित पौहा एक मिट्टी के बर्तन में लटका दिया जाता है और कीर्तन समाप्त
होने पर वह बर्तन फोड़ दिया जाता है, और प्रसाद के रुप में वह पौहा सब को
वितरित कर दिया जाता है, जिस प्रकार कि श्री कृष्ण ने ग्वालों के साथ किया
था । रामनवमी उत्सव इसी तरह दिन भर चलता रहा । दिन के समय दो ध्वजों जुलूस
और रात्रि के समय चन्दन का जुलूस बड़ी धूमधाम और समारोह के साथ निकाला गया ।
इस समय के पश्चात ही उरुस का उत्सव रामनवमी के उत्सव में परिवर्तित हो गया
। अगले वर्ष (सन् 1912) से रामनवमी के कार्यक्रमों की सूची में वृदिृ होने
लगी । श्रीमती राधाकृष्णमाई ने चैत्र की प्रतिपदा से नामसप्ताह प्रारम्भ
कर दिया । (लगातार दिन रात 7 दिन तक भगवत् नाम लेना नामसप्ताह कहलाता है)
सब भक्त इसमें बारी-बारी से भागों से भाग लेते थे । वे भी प्रातःकाल
सम्मिलित हो जाया करते थीं । देश के सभी भागों में रामनवमी का उत्सव मनाया
जाता है । इसलिये अगले वर्ष हरिदास के मिलने की कठिनाई पुनः उपस्थित हुई,
परन्तु उत्सव के पूर्व ही यह समस्या हल हो गई । पाँच-छः दिन पूर्व श्री
महाजनी की बाला बुवा से अकस्मात् भेंट हो गी । बुवासाहेब अधुनिक तुकाराम के
नाम से प्रसिदृ थे और इस वर्ष कीर्तन का कार्य उन्हें ही सौंपा गया । अगले
वर्ष सन् 1913 में श्री हरिदास (सातारा जिले केबाला बुव सातारकर)
बृहद्सिदृ कवटे ग्राम में प्लेग का प्रकोप होने के कारण अपने गाँव में
हरिदास का कार्य नहीं कर सकते थे । इस इस वर्ष वे शिरडी में आये ।
काकासाहेब दीक्षित ने उनके कीर्तन के लिये बाबा से अनुमति प्राप्त की ।
बाबा ने भी उन्हें यथेष्ट पुरस्कार दिया । सन् 1914 से हरिदास की कठिनाई
बाबा ने सदैव के लिये हल कर दी । उन्होंने यह कार्य स्थायी रुप से दासगणू
महाराज के सौंप दिया । तब से वे इस कार्य को उत्तम रीति से सफलता और
विदृतापूर्वक पूर्ण लगन से निभाते रहे । सन् 1912 से उत्सव के अवसर पर
लोगों की संख्या में उत्तरोत्तर वृदि होने लगी । चैत्र शुक्ल अष्टमी से
दृादशी तक शिरडी में लोगों की संख्या में इतनी अधिक वृदि हो जाया करती थी,
मानो मधुमक्खी का छत्ता ही लगा हो । दुकानों की संख्या में बढ़ती हो गई ।
प्रसिदृ पहलवानों की कुश्तियाँ होने लगी । गरीबों को वृहद् स्तर पर भोजन
कराया जाने लगा । राधाकृष्णमाई के घोर परिश्रम के फलस्वरुप शिरडी को
संस्थान का रुप मिला । सम्पत्ति भी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी । एक सुन्दर
घोड़ा, पालकी, रथ ओर चाँदी के अन्य पदार्थ, बर्तन, पात्र, शीशे इत्याति
भक्तों ने उपहार में भेंट किये । उत्सव के अवसर पर हाथी भी बुलाया जाता था ।
यघपि सम्पत्ति बहुत बढ़ी, परन्तु बाबा उल सब से सदा साधारण वेशभूषा घारण
करते थे । यह ध्यान देने योग्य है कि जुलूस तथा उत्सव में हिन्दू और
मुसलमान दोनों ही साथ-साथ कार्य करते थे । परन्तु आज तक न उनमें कोई विवाद
हुआ और न कोई मतभेद ही । पहनेपहन तो लोगों की संख्या 5000-7000 के लगभग ही
होता थी । परन्तु किसी-किसी वर्ष तो यह संख्या 75000 तक पहुँच जाती थी ।
फिर भी न कभी कोई बीमारी फैली और न कोई दंगा ही हुआ ।







मसजिद का जीर्णोदृार
जिस
प्रकार उर्स या मेला भराने का विचार प्रथमतः श्री गोपाल गुंड को आया था,
उसी प्रकार मसजिद के जीर्णोदृार का विचार भी प्रथमतः उन्हें ही आया ।
उन्होंने इस कार्य के निमित्त पत्थर एकत्रित कर उन्हें वर्गाकार करवाया ।
परन्तु इस कार्य का श्रेय उन्हें प्राप्त नहीं होना था । वह सुयश तो
नानासाहेब चाँदोरकर के लिये ही सुरक्षित था और फर्श का कार्य काकासाहेब
दीक्षित के लिये । प्रारम्भ में बाबा ने इन कार्यों के लिये स्वीकृति नहीं
दी, परन्तु स्थानीय भक्त म्हालसापति के आग्रह करने सा बाबा की स्वीकृति
प्राप्त हो गई और एक रात में ही मसजिद का पूरा फर्श बन गया । अभी तक बाबा
एक टाट के ही टुकड़े पर बैठते थे । अब उस टाट के टुकड़े को वहाँ से हटाकर,
उसके स्थान पर एक छोटी सी गादी बिछा दी गई । सन् 1911 में सभामंडप भी घोर
परिश्रम के उपरांत ठीक हो गया । मसजिद का आँगन बहुत छोटा तथा असुविधाजनक था
। काकासाहेब दीक्षित आँगन को बढ़कर उसके ऊपर छप्पर बनाना चाहते थे ।
यथेष्ठ द्रव्यराशि व्यय कर उन्होंने लोहे के खम्भे, बल्लियाँ व कैंचियाँ
मोल लीं और कार्य भी प्रारम्भ हो गया । दिन-रात परिश्रम कर भक्तों ने लोहे
के खम्भे जमीन में गाड़े । जब दूसरे दिन बाबा चावड़ी से लौटे, उन्होंने उन
खमभों को उखाड़ कर फेंक दिया और अति क्रोधित हो गये । वे एक हाथ से खम्भा
पकड़ कर उसे उखाड़ने लगे और दूसर हाथ से उन्होंने तात्या का साफा उतार लिया
और उसमें आग लगाकर गड्ढे में फेंक दिया । बाबा के नेत्र जलते हुए अंगारे
के सदृश लाल हो गये । किसी को भी उनकी ओर आँख उठा कर देखने का साहस नहीं
होता था सभी बुरी तरह भयभीत होकर विचलित होने लगे कि अब क्या होगा । भागोजी
शिंदे (बाबा के एक कोढ़ी भक्त) कुछ साहस कर आगे बढ़े, पर बाबा ने उन्हें
धक्का देकर पीछे ढकेल दिया । माधवराव की भी वही गति हुई । बाबा उनके ऊपर भी
ईंट के ढेले फेंकने लगे । जो भी उन्हें शान्त करने गया, उसकी वही दशा हुई ।




कुछ समत के पश्चात् क्रोध शांत होने पर बाबा ने एक दुकानदार को बुलाया और
एक जरीदार फेंटा खरीद कर अपने हाथों से उसे तात्या के सिर पर बाँधने लगे,
जैसे उन्हें विशेष सम्मान दिया गया हो । यह विचित्र व्यवहार देखकर भक्तों
को आश्चर्य हुआ । वे समझ नहीं पा रहे थे कि किस अज्ञात कारण से बाबा इतने
क्रोधित हुए । उन्होंने तात्या को क्यों पीटा और तत्क्षण ही उनका क्रोध
क्यों शांत हो गया । बाबा कभी-कभी अति गंभीर तथा शांत मुद्रा में रहते थे
और बड़े प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया करते थे । परन्तु अनायास ही बिना किसी
गोचर कारण के वे क्रोधित हो जाया करते थे । ऐसी अनेक घटनाएँ देखने में आ
चुकी है, परन्तु मैं इसका निर्णय नहीं कर सकता कि उनमें से कौन सी लिखूँ और
कौन सी छोडूँ । अतः जिस क्रम से वे याद आती जायेंगी, उसी प्रकार उनका
वर्णन किया जायगा । अगले अध्याय में बाबा यवन हैं या हिन्दू, इसका विवेचन
किया जायेगा तथा उनके योग, साधन, शक्ति और अन्य विषयों पर भी विचार किया
जायेगा ।







।। श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।








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Friday, March 30, 2012

महागौरी पूजन धन, वैभव और सुख-शांति प्रदान करता है



ॐ सांई राम





 मां महागौरी का पूजन धन, वैभव और सुख-शांति प्रदान करता है |




नवरात्र
के  आठवें दिन मां के महागौरी स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। महागौरी
स्वरूप उज्जवल, कोमल, श्वेतवर्णा तथा श्वेत वस्त्रधारी हैं। महागौरी मस्तक
पर चन्द्र का मुकुट धारण किये हुए हैं। कान्तिमणि के समान कान्ति वाली देवी
जो अपनी चारों भुजाओं में क्रमशः शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए हुए
हैं, उनके कानों में रत्न जडितकुण्डल झिलमिलाते रहते हैं। महागौरीवृषभ के
पीठ पर विराजमान हैं। महागौरी गायन एवं संगीत से प्रसन्न होने वाली
‘महागौरी‘ माना जाता हैं।




मंत्र:

श्वेते वृषे समरूढ़ाश्वेताम्बराधरा शुचि:। महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।

ध्यान:-


वन्दे वांछित कामार्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।



सिंहारूढाचतुर्भुजामहागौरीयशस्वीनीम्॥



पुणेन्दुनिभांगौरी सोमवक्रस्थितांअष्टम दुर्गा त्रिनेत्रम।



वराभीतिकरांत्रिशूल ढमरूधरांमहागौरींभजेम्॥



पटाम्बरपरिधानामृदुहास्यानानालंकारभूषिताम्।



मंजीर, कार, केयूर, किंकिणिरत्न कुण्डल मण्डिताम्॥



प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांत कपोलांचैवोक्यमोहनीम्।



कमनीयांलावण्यांमृणालांचंदन गन्ध लिप्ताम्॥



स्तोत्र:-



सर्वसंकट हंत्रीत्वंहिधन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।



ज्ञानदाचतुर्वेदमयी,महागौरीप्रणमाम्यहम्॥



सुख शांति दात्री, धन धान्य प्रदायनीम्।



डमरूवाघप्रिया अघा महागौरीप्रणमाम्यहम्॥



त्रैलोक्यमंगलात्वंहितापत्रयप्रणमाम्यहम्।



वरदाचैतन्यमयीमहागौरीप्रणमाम्यहम्॥



कवच:-



ओंकार: पातुशीर्षोमां, हीं
बीजंमां हृदयो।क्लींबीजंसदापातुनभोगृहोचपादयो॥ललाट कर्णो,हूं, बीजंपात
महागौरीमां नेत्र घ्राणों।कपोल चिबुकोफट् पातुस्वाहा मां सर्ववदनो॥



मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का सोमचक्र
जाग्रत होताहैं। महागौरी के पूजन से व्यक्ति के समस्त पाप धुल जाते हैं।
महागौरी के पूजन करने वाले साधन के लिये मां अन्नपूर्णा के समान, धन, वैभव
और सुख-शांति प्रदान करने वाली एवं  संकट से मुक्ति दिलाने वाली देवी
महागौरी हैं।












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श्री साईं पालकी शोभा यात्रा निमंत्रण





ॐ सांई राम
श्री साईं पालकी शोभा यात्रा निमंत्रण



शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से राम नवमी का उत्सव


दिनांक 01 /04 /2012   को,  श्री साईं बाबा जी के अनन्य भक्त श्री दीपक वर्मा जी के निवास स्थान,


B - 205, सेक्टर - 71 , नोएडा,  में वर्मा परिवार द्वारा मनाया जा रहा है |







जिसमें सर्वप्रथम पालकी शोभा यात्रा का आयोजन किया जा रहा है जो


साईं महल सेक्टर - 61, नोएडा से परिक्रमा के पश्चात वापिस B - 205, सेक्टर - 71 , नोएडा, श्री वर्मा जी के निवास स्थान


पर विराम लेगी जहां बाबा जी के भजनों का गुणगान किया जायेगा एवं आरती के पश्चात भंडारा वितरित किया जायेगा|





आप सभी साईं भक्तो से अनुरोध है की आप सभी सह-परिवार उपस्थित हो कर बाबा जी का आशीर्वाद प्राप्त करें


एवं बाबा जी की पालकी शोभा यात्रा की शोभा बढाएं |





अधिक जानकारी हेतु संपर्क करें |





दीपक वर्मा  : 9213407290


आनंद साईं : 9810617373


-: कार्यक्रम :-


प्रात : ९:३० पालकी शोभा यात्रा


दोपहर : १२:०० पालकी विराम


दोपहर : १२:०० श्री साईं भजन-कीर्तन दरबार


दोपहर : १:३० भोग एवं भंडारा









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Thursday, March 29, 2012

You are cordially invited for Shri Sai Sandhya & Palki Yatra



ॐ सांई राम




anant-orng.JPG







You are cordially invited for


Shri Sai Sandhya & Palki Yatra


on 01 April 2012 (Sunday)


with your Family members


and friends as per programs are :-

Aarti : 12:00 pm.

Kirtan :  12:30 pm.

Bhandara : 2:30 pm.


 at Shree Sai Rasoi Chattarpur



F-61 Suman Colony, 


Chattarpur New Delhi 110074







Sai Palki Yatra at 4:30 pm.

Palki will start from Sai Mandir Chattarpur,near Chattarpur Metro Station










Sai Bhajan Sandhya


at 6:30 pm to Sai Ichaa tak

Bhajan will perform by


 Pankaj Srivastav



 



 for more details


contect :- 9717436369.


माँ महागौरी



ॐ सांई राम


श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः |

महागौरी   शुभं  दधान्महादेवप्रमोददा ||










माँ दुर्गा जी की आठवीं शक्ति का
नाम महागौरी है | इनका वर्ण पूर्णत: गौर


है | इनकी गौरता की उपमा शंख,
चक्र और कुंद के फूल से की गई है | इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- '
अष्टवर्षा भवेद गौरी ' | इनके वस्त्र एवं समस्त आभूषण आदि भी श्वेत है |
इनकी चार भुजाएं है | इनका वाहन वृषभ है | इनके ऊपर के दाहिना हाथ
अभय-मुद्रा में तथा नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है | ऊपर वाले बायें
हाथ में डमरू और नीचे वाले बायें हाथ में वर मुद्रा है | इनकी मुद्रा
अत्यंत शांत है | अपने पार्वती रूप में जब इन्होने शिव जी को पति रूप में
पाने के लिए तपस्या की थी तो इनका रंग काला पड़ गया था | इनकी तपस्या से
प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने इनके शरीर को पवित्र गंगा-जल से मल कर धोया तब
इनका शरीर बिजली की चमक के सामान अत्यंत क्रन्तिमान-गौर हो गया | तभी से
इनका नाम महागौरी पड़ा |





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Wednesday, March 28, 2012

श्री साई सच्चरित्र – अध्याय-1



सांई राम




आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...








श्री साई सच्चरित्रअध्याय-1




गेहूँ पीसने वाला एक अद्भभुत सन्त वन्दना - गेहूँ पीसने की कथा तथा उसका तात्पर्य

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पुरातन पद्घति के अनुसार श्री हेमाडपंत श्री साई सच्चरित्र का आरम्भ वन्दना करते हैं



1.
प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैं, जो कार्य को निर्विध समाप्त कर उस को यशस्वी बनाते हैं कि साई ही गणपति हैं




2.
फिर भगवती सरस्वती को, जिन्होंने काव्य रचने की प्रेरणा दी और कहते हैं कि साई भगवती से भिन्न नहीं हैं, जो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं




3.
फिर ब्रहा, विष्णु, और महेश को, जो क्रमशः उत्पत्ति, सि्थति और संहारकर्ता हैं और कहते हैं कि श्री साई और वे अभिन्न हैं वे स्वयं ही गुरू बनकर भवसहगर से पार उतार देंगें




4.
फिर अपने कुलदेवता श्री नारायण आदिनाथ की वन्दना करते हैं जो कि कोकण में प्रगट हुए कोकण वह भूमि है, जिसे श्री परशुरामजी ने समुद् से निकालकर स्थापित किया था तत्पश्चात् वे अपने कुल के आदिपुरूषों को नमन करते हैं




5.
फिर श्री भारदृाज मुनि को, जिनके गोत्र में उनका जन्म हुआ पश्चात् उन ऋषियों को जैसे-याज्ञवल्क्य, भृगु, पाराशर, नारद, वेदव्यास, सनक-सनंदन, सनत्कुमार, शुक, शौनक, विश्वामित्र, वसिष्ठ, वाल्मीकि, वामदेव, जैमिनी, वैशंपायन, नव योगींद्, इत्यादि तथा आधुनिक सन्त जैसे-निवृति, ज्ञानदेव, सोपान, मुक्ताबाई, जनार्दन, एकनाथ, नामदेव, तुकाराम, कान्हा, नरहरि आदि को नमन करते हैं




6.
फिर अपने पितामह सदाशिव, पिता रघुनाथ और माता को, जो उनके बचपन में ही गत हो गई थीं फिर अपनी चाची को, जिन्होंने उनका भरण-पोषण किया और अपने प्रिय ज्येष्ठ भ्राता को नमन करते हैं




7.
फिर पाठकों को नमन करते हैं, जिनसे उनकी प्रार्थना हैं कि वे एकाग्रचित होकर कथामृत का पान करें




8.
अन्त में श्री सच्चिददानंद सद्रगुरू श्री साईनाथ महाराज को, जो कि श्री दत्तात्रेय के अवतार और उनके आश्रयदाता हैं और जो ब्रहा सत्यं जगनि्मथ्या का बोध कराकर समस्त प्राणियों में एक ही ब्रहा की व्यापि्त की अनुभूति कराते हैं




श्री पाराशर, व्यास, और शांडिल्य आदि के समान भक्ति के प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कर अब ग्रंथकार महोदय निम्नलिखित कथा प्रारम्भ करते हैं











गेहूँ पीसने की कथा

-----------------------




सन् 1910 में मैं एक दिन प्रातःकाल श्री साई बाबा के दर्शनार्थ मसजिद में गया वहाँ का विचित्र दृश्य देख मेरे आश्चर्य का ठिकाना रहा कि साई बाबा मुँह हाथ धोने के पश्चात चक्की पीसने की तैयारी करने लगे उन्होंने फर्श पर एक टाट का टुकड़ा बिछा, उस पर हाथ से पीसने वाली चक्की में गेहूँ डालकर उन्हें पीसना आरम्भ कर दिया



मैं सोचने लगा कि बाबा को चक्की पीसने से क्या लाभ है उनके पास तो कोई है भी नही और अपना निर्वाह भी भिक्षावृत्ति दृारा ही करते है इस घटना के समय वहाँ उपसि्थत अन्य व्यक्तियों की भी ऐसी ही धोरणा थी परंतु उनसे पूछने का साहस किसे था बाबा के चक्की पीसने का समाचार शीघ्र ही सारे गाँव में फैल गया और उनकी यह विचित्र लीला देखने के हेतु तत्काल ही नर-नारियों की भीड़ मसजिद की ओर दौड़ पडी़




उनमें से चार निडर सि्त्रयां भीड़ को चीरता हुई ऊपर आई और बाबा को बलपूर्वक वहाँ से हटाकर हाथ से चक्की का खूँटा छीनकर तथा उनकी लीलाओं का गायन करते हुये उन्होंने गेहूँ पीसना प्रारम्भ कर दिया




पहिले तो बाबा क्रोधित हुए, परन्तु फिर उनका भक्ति भाल देखकर वे षान्त होकर मुस्कराने लगे पीसते-पीसते उन सि्त्रयों के मन में ऐसा विचार आया कि बाबा के तो घरदृार है और इनके कोई बाल-बच्चे है तथा कोई देखरेख करने वाला ही है वे स्वयं भिक्षावृत्ति दृारा ही निर्वाह करते हैं, अतः उन्हें भोजनाआदि के लिये आटे की आवश्यकता ही क्या हैं बाबा तो परम दयालु है हो सकता है कि यह आटा वे हम सब लोगों में ही वितरण कर दें इन्हीं विचारों में मगन रहकर गीत गाते-गाते ही उन्होंने सारा आटा पीस डाला तब उन्होंने चक्की को हटाकर आटे को चार समान भागों में विभक्त कर लिया और अपना-अपना भाग लेकर वहाँ से जाने को उघत हुई अभी तक शान्त मुद्रा में निमग्न बाब तत्क्षण ही क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगे- सि्त्रयों क्या तुम पागल हो गई हो तुम किसके बाप का माल हडपकर ले जा रही हो क्या कोई कर्जदार का माल है, जो इतनी आसानी से उठाकर लिये जा रही हो अच्छा, अब एक कार्य करो कि इस अटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमा) पर बिखेर आओ




मैंने शिरडीवासियों से प्रश्न किया कि जो कुछ बाबा ने अभी किया है, उसका यथार्थ में क्या तात्पर्य है उन्होने मुझे बतलाया कि गाँव में विषूचिका (हैजा) का जोरो से प्रकोप है और उसके निवारणार्थ ही बाबा का यह उपचार है अभी जो कुछ आपने पीसते देखा था, वह गेहूँ नहीं, वरन विषूचिका (हैजा) थी, जो पीसकर नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई है इस घटना के पश्चात सचमुच विषूचिका की संक्रामतकता शांत हो गई और ग्रामवासी सुखी हो गये




यह जानकर मेरी प्रसन्नता का पारावार रहा मेरा कौतूहल जागृत हो गया मै स्वयं से प्रश्न करने लगा कि आटे और विषूचिका (हैजा) रोग का भौतिक तथा पारस्परिक क्या सम्बंध है इसका सूत्र कैसे ज्ञात हो घटना बुदिगम्य सी प्रतीत नहीं होती अपने हृतय की सन्तुष्टि के हेतु इस मधुर लीला का मुझे चार शब्दों में महत्व अवश्य प्रकट करना चाहिये लीला पर चिन्तन करते हुये मेरा हृदय प्रफुलित हो उठा और इस प्रकार बाब का जीवन-चरित्र लिखने के लिये मुझे प्रेरणा मिली यह तो सब लोगों को विदित ही है कि यह कार्य बाबा की कृपा और शुभ आशीर्वाद से सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया



आटा पीसने का तात्पर्य


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शिरडीवासियों ने इस आटा पीसने की घटना का जो अर्थ लगाया, वह तो प्रायः ठीक ही है, परन्तु उसके अतिरिक्त मेरे विचार से कोई अन्य भी अर्थ है बाब शिरड़ी में 60 वर्षों तक रहे और इस दीर्घ काल में उन्होंने आटा पीसने का कार्य प्रायः प्रतिदिन ही किया पीसने का अभिप्राय गेहूँ से नहीं, वरन् अपने भक्तों के पापो, दुर्भागयों, मानसिक तथा शाशीरिक तापों से था उनकी चक्की के दो पाटों में ऊपर का पाट भक्ति तथा नीचे का कर्म था चक्की का मुठिया जिससे कि वे पीसते थे, वह था ज्ञान बाबा का दृढ़ विश्वास था कि जब तक मनुष्य के हृदय से प्रवृत्तियाँ, आसक्ति, घृणा तथा अहंकार नष्ट नहीं हो जाते, जिनका नष्ट होना अत्यन्त दुष्कर है, तब तक ज्ञान तथा आत्मानुभूति संभव नहीं हैं



यह घटना कबीरदास जी की उसके तदनरुप घटना की स्मृति दिलाती है कबीरदास जी एक स्त्री को अनाज पीसते देखकर अपने गुरू निपतिनिरंजन से कहने लगे कि मैं इसलिये रुदन कर रहा हूँ कि जिस प्रकार अनाज चक्की में पीसा जाता है, उसी प्रकार मैं भी भवसागर रुपी चक्की में पीसे जाने की यातना का अनुभव कर रहा हूँ उनके गुरु ने उत्तर दिया कि घबड़ाओ नही, चक्की के केन्द्र में जो ज्ञान रुपी दंड है, उसी को दृढ़ता से पकड़ लो, जिस प्रकार तुम मुझे करते देख रहे हो उससे दूर मत जाओ, बस, केन्द्र की ओप ही अग्रसर होते जाओ और तब यह निशि्चत है कि तुम इस भवसागर रुपी चक्की से अवश्य ही बच जाओगे




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु शुभं भवतु ।।



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