ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 39 - बाबा का संस्कृत ज्ञान
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गीता के एक श्लोक की बाबा द्घारा टीका, समाधि मन्दिर का निर्माण ।
इस अध्याय में बाबा ने गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाया है । कुछ लोगों की ऐसी धारणा थी कि बाबा को संस्कृत भाषा का ज्ञान न था और नानासाहेब की भी उनके प्रति ऐसी ही धारणा थी । इसका खंडन हेमाडपंत ने मूल मराठी ग्रंथ के 50वें अध्याय में किया है । दोनों अध्यायों का विषय एक सा होने के कारण वे यहाँ सम्मिलित रुप में लिखे जाते है ।
प्रस्तावना
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शिरडी के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है । श्री द्घारिकामाई भी धन्य है, जहाँ श्री साई ने आकर निवास कियाऔर वहीं समाधिस्थ हुए ।
शिरडी के नरनारी भी धन्य है, जिन्हें स्वयं साई ने पधारकर अनुगृहीत किया और जिनके प्रेमवश ही वे दूर से चलकर वहाँ आये । शिरडी तो पहले एक छोटा सा ग्राम था, परन्तु श्री साई के सम्पर्क से विशेष महत्त्व पाकर वह एक तीर्थ-क्षेत्र में परिणत हो गया ।
शिरडी की नारियां भी परम भाग्यशालिनी है, जिनका उनपर असीम और अभिन्न विश्वास के परे है । आठों पहर-स्नान करते, पीसते, अनाज निकालते, गृहकार्य करते हुये वे उनकी कीर्ति का गुणगान किया करती थी । उनके प्रेम की उपमा ही क्या हो सकती है । वे अत्यन्त मधुर गायन करती थी, जिससे गायकों और श्रोतागण के मन को परम शांति मिलती थी ।
बाबा द्घारा टीका
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किसी को स्वप्न में भी ज्ञात न था कि बाबा संस्कृत के भी ज्ञाता है । एक दिन नानासाहेब चाँदोरकर को गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाकर उन्होंने लोगों को विस्मय में डाल दिया । इसका संक्षिप्त वर्णन सेवानिवृत्त मामलतदार श्री. बीय व्ही. देव ने मराठी साईलीला पत्रिका के भाग 4, (स्फुट विषय पृष्ठ 563) में छपवाया है । इसका संक्षिप्त विवरण Sai Baba’s Charters and Sayings पुस्तक के 61वें पृष्ठ पर और The Wonderous Saint Sai Baba के पृष्ठ 36 पर भी छपा है । ये दोनों पुस्तकें श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी द्घारा रचित है । श्री. बी. व्ही. देव ने अंग्रेजी में तारीख 27-9-1936 को एक वत्तक्व्य दिया है, जो कि नरसिंह स्वामी द्घारा रचित पुस्तक के भक्तों के अनुभव, भाग 3 में छापा गया है । श्री. देव को इस विषय की प्रथम सूचना नानासाहेब चाँदोरकर वेदान्त के विद्घान विघार्थियों में से एक थे । उन्होंने अनेक टीकाओं के साथ गीता का अध्ययन भी किया था तथा उन्हें अपने इस ज्ञान का अहंकार भी था । उनका मत था कि बाबा संस्कृत भाषा से सर्वथा अनभिज्ञ है । इसीलिये बाबा ने उनके इस भ्रम का निवारण करने का विचार किया । यह उस समय की बात है, जब भक्तगण अल्प संख्या में आते थे । बाबा भक्तों से एकान्त में देर तक वार्तालाप किया करते थे । नानासाहेब इस समय बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे और अस्पष्ट शब्दों में कुछ गुनगुना रहे थे ।
बाबा – नाना, तुम धीरे-धीरे क्या कह रहे हो ।
नाना – मैं गीता के एक श्लोक का पाठ कर रहा हूँ ।
बाबा – कौन सा श्लोक है वह ।
नाना – यह भगवदगीता का एक श्लोक है ।
बाबा – जरा उसे उच्च स्वर में कहो ।
तब नाना भगवदगीता के चौथे अध्याय का 34वाँ श्लोक कहने लगे ः-
“तद्घिद्घि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।“
बाबा – नाना, क्या तुम्हें इसका अर्थ विदित है ।
नाना – जी, महाराज ।
बाबा – यदि विदित है तो मुझे भी सुनाओ ।
नाना – इसका अर्थ है – तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दंडवत् कर, सेवा और निष्कपट भाव से किये गये प्रश्न द्घारा उस ज्ञान को जान । वे ज्ञानी, जिन्हें सद्घस्तु (ब्रहम्) की प्राप्ति हो चुकी है, तुझे ज्ञान का उपदेश देंगें ।
बाबा – नाना, मैं इस प्रकार का संकुल भावार्थ नहीं चाहता । मुझे तो प्रत्येक शब्द और उसका भाषांतरित उच्चारण करते हुए व्याकरणसम्मत अर्थ समझाओ ।
अब नाना एक-एक शब्द का अर्थ समझाने लगे ।
बाबा – नाना, क्या केवल साष्टांग नमस्कार करना ही पर्याप्त है ।
नाना – नमस्कार करने के अतिरिक्त मैं प्रणिपात का कोई दूसरा अर्थ नहीं जानता ।
बाबा – परिप्रश्न का क्या अर्थ है ।
नाना – प्रश्न पूछना ।
बाबा – प्रश्न का क्या अर्थ है ।
नाना – वही (प्रश्न पूछना) ।
बाबा – यदि परिप्रश्न और प्रश्न दोनों का अर्थ एक ही है, तो फिर व्यास ने परिउपसर्ग का प्रयोग क्यों किया क्या व्यास की बुद्घि भ्रष्ट हो गई थी ।
नाना – मुझे तो परिप्रश्न का अन्य अर्थ विदित नहीं है ।
बाबा – सेवा । किस प्रकार की सेवा से यहाँ आशय है ।
नाना – वही जो हम लोग सदा आपकी करते रहते है ।
बाबा – क्या यह सेवा पर्याप्त है ।
नाना – और इससे अधिक सेवा का कोई विशिष्ट अर्थ मुझे ज्ञात नही है ।
बाबा – दूसरी पंक्ति के उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं में क्या तुम ज्ञान शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग कर इसका अर्थ कह सकते हो ।
नाना – जी हाँ ।
बाबा – कौन सा शब्द ।
नाना – अज्ञानम् ।
बाबा – ज्ञानं के बजाय उस शब्द को जोड़कर क्या इस श्लोक का अर्थ निकलता है ।
नाना - जी नहीं, शांकर भाष्य में इस प्रकार की कोई व्याख्या नहीं है ।
बाबा – नहीं है, तो क्या हुआ । यदि अज्ञान शब्द के प्रयोग से कोई उत्तम अर्थ निकल सकता है तो उसमें क्या आपत्ति है ।
नाना – मैं नहीं जानता कि उसमें अज्ञान शब्द का किस प्रकार प्रयोग होगा ।
बाबा – कृष्ण ने अर्जुन को क्यों ज्ञानियों या तत्वदर्शियों को नमस्कार करने, उनसे प्रश्न पूछने और सेवा करने का उपदेश किया था । क्या स्वयं कृष्ण तत्वदर्शी नहीं थे । वस्तुतः स्वयं ज्ञान स्वरुप ।
नाना – जी हाँ, वे ज्ञानावतार थे । परन्तु मुझे यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने अर्जुन से अन्य ज्ञानियों के लिये क्यों कहा ।
बाबा – क्या तुम्हारी समझ में नहीं आया ।
अब नाना हतभ्रत हो गये । उनका घमण्ड चूर हो चुका था । तब बाबा स्वयं इस प्रकार अर्थ समझाने लगे ।
1. ज्ञानियों को केवल साष्टांग नमस्कार करना पर्याप्त नहीं है । हमें सदगुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना चाहिये ।
2. केवल प्रश्न पूछना पर्याप्त नहीं । किसी कुप्रवृत्ति या पाखंड, या वाक्य-जाल में फँसाने, या कोई त्रुटि निकालने की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न नहीं करना चाहिये, वरन् प्रश्न उत्सुतकापूर्वक केवल मोक्ष या आध्यात्मिक पथ पर उन्नति प्राप्त करने की भावना से ही प्रेरित होकर करना चाहिये ।
3. मैं तो सेवा करने या अस्वीकार करने में पूर्ण स्वतंत्र हूँ, जो ऐसी भावना से कार्य करता है, वह सेवा नहीं कही जा सकती । उसे अनुभव करना चाहिये कि मुझे अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं है । इस शरीर पर तो गुरु का ही अधिकार है ौर केवल उनकी सेवा के निमित्त ही वह विघमान है ।
इस प्रकार आचरण करने से तुम्हें सदगुरु द्घारा ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी, जैसा कि पूर्व श्लोक में बताया गया है । नाना को यह समझ में नहीं आ सका कि गुरु किस प्रकार अज्ञान की शिक्षा देते है ।
बाबा – ज्ञान का उपदेश कैसा है । अर्थात् भविष्य में प्राप्त होने वाली आत्मानुभूति की शिक्षा । अज्ञान का नाश करना ज्ञान है । (गीता के श्लोक 18-66 पर ज्ञानेश्वरी भाष्य की ओवी 1396 में इस प्रकार वर्णन है – हे अर्जुन । यदि तुम्हारी निद्रा और स्वप्न भंग हो, तब तुम स्वयं हो । वह इसी प्रकार है । गीता के अध्याय 5-16 के आगे टीका में लिखा है – क्या ज्ञान में अज्ञान नष्ट करने के अतिरिक्त कोई और भेद भी है ) । अंधकार नष्ट करने का अर्थ प्रकाश है । जब हम द्घैत नष्ट करने की चर्चा करते है, तो हम अद्घैत की बात करते है । जब हम अंधकार नष्ट करने की बात करते है तो उसका अर्थ है कि प्रकाश की बात करते है । यदि हम अद्घैत की स्थिति का अनुभव करना चाहते है तो हमें द्घैत की भावना नष्ट करनी चाहिये। यही अद्घैत स्थिति प्राप्त हने का लक्षण है । द्घैत में रहकर अद्घैत की चर्चा कौन कर सकता है । जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, तब तक क्या उसका कोई अनुभव कर सकता है ।
शिष्य श्री सदगुरु के समान ही ज्ञान की मूर्ति है । उन दोनों में केवल अवस्था, उच्च अनुभूति, अदभुत अलौकिक सत्य, अद्घितीय योग्यता और ऐश्वर्य योग में भिन्नता होती है । सदगुरु निर्गुण निराार सच्चिदानंद है । वस्तुतः वे केवल मनुष्य जाति और विश्व के कल्याण के निमित्त स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण करते है, परन्तु नर-देह धारण करने पर भी उनकी सत्ता की अनंतता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । उनकी आत्मोपलब्धि, लाभ, दैविक शक्ति और ज्ञान एक-से रहते है । शिष्य का भी तो यथार्थ में वही स्वरुप है, परन्तु अनगिनत जन्मों के कारण उसे अज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसी के वशीभूत होकर उसे भ्रम हो जाता है तथा अपने शुदृ चैतन्य स्वरुप की विस्मृति हो जाती है । गीता का अध्याय 5 देखो । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहृन्ति जन्तवः । जैसा कि वहाँ बतलाया गया है, उसे भ्रम हो जाता है कि मैं जीव हूँ, एक प्राणी हूँ, दुर्बल और अस्सहाय हूँ । गुरु इस अज्ञानरुपी जड़ को काटकर फेंक देता है और इसीलिये उसे उपदेश करना पड़ता है । ऐसे शिष्य को जो जन्म-जन्मांतरों से यह धारणा करता आया है कि मैं तो जीव, दुर्बल और असहाय हूँ, गुरु सैकड़ों जन्मों तक ऐसी शिक्षा देते है कि तुम ही ईश्वर हो, सर्वशक्तिमान् और समर्थ हो, तब कहीं जाकर उसे किंचित मात्र भास होता है कि यथार्थ में मैं ही ईश्वर हूँ । सतत भ्रम में रहने के कारण ही उसे ऐसा भास होता है कि मैं शरीर हूँ, एक जीव हूँ, तथा ईश्वर और यह विश्व मुझ से एक भिन्न वस्तु है । यह तो केवल एक भ्रम मात्र है, जो अनेक जन्म धारण करने के कारण उत्पन्न हो गया है । कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को सुखःदुख की प्राप्ति होती है । इस भ्रम, इस त्रुटि और इस अज्ञान की जड़ को नष्ट करने के लिये हमें स्वयं अपने से प्रश्न करना चाहिये कि यह अज्ञान कैसे पैदा हो गया । वह अज्ञान कहाँ है और इस त्रुटि का दिग्दर्शन कराने को ही उपदेश कहते है ।
अज्ञान के नीचे लिखे उदाहरण है –
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1. मैं एक जीव (प्राणी) हूँ ।
2. शरीर ही आत्मा है । (मैं शरीर हूँ)
3. ईश्वर, विश्व और जीव भिन्न-भिन्न तत्व है ।
4. मैं ईश्वर नहीं हूँ ।
5. शरीर आत्मा नहीं है, इसका अबोध ।
6. इसका ज्ञान न होना कि ईश्वर, विश्व और जीव सब एक ही है ।
जब तक इन त्रुटियों का उसे दिग्दर्शन नहीं कराया जाता, तब तक शिष्य को यह कभी अनुभव नहीं हो सकता कि ईश्वर, जीव और शरीर क्या है, उनमें क्या अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है तथा वे परस्पर भिन्न है या अभिन्न है अथवा एक ही है । इस प्रकार की शिक्षा देना और भ्रम को दूर करना ही अज्ञान का ज्ञानोपदेश कहलाता है । अब प्रश्न यह है कि जीव जो स्वयं ज्ञान-मूर्ति है, उसे ज्ञान की क्या आवश्यकता है । उपदेश का हेतु तो केवल त्रुटि को उसकी दृष्टि में लाकर अज्ञान को नष्ट करना है ।
बाबा ने आगे कहा –
1. प्रणिपात का अर्थ है शरणागति ।
2. शरणागत होना चाहिये तन, मन, धन से (अर्थात् अनन्य भाव से) ।
3. कृष्ण अन्य ज्ञानियों को ओर क्यों संकेत करते है । सदभक्त के लिये तो प्रत्येक तत्व वासुदेव है । (भगवदगीता अ. 7-19 अर्थात् कोई भी गुरु अपने भक्त के लिये कृष्ण है) और गुरु शिष्य को वासुदेव मानता है और कृष्ण इन दोनों को अपने प्राण और आत्मा ।
(भगवदगीता अ. 7-18 पर ज्ञानदेव की टीका) चूँकि श्रीकृष्ण को विदित था कि ऐसे अनेक भक्त और गुरु विघमान है, इसलिये उनका महत्व बढ़ाने के लिये ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ऐसा उल्लेख किया ।
समाधि-मन्दिर का निर्माण
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बाबा जो कुछ करना चाहते थे, उसकी चर्चा वे कभी नहीं करते थे, प्रत्युत् आसपास ऐसा वातावरण और परिस्थिति निर्माण कर देते थे कि लोगों को उनका मंथर, परन्तु निश्चित परिणाम देखकर बड़ा अचम्भा होता था । समाधि-मन्दिर इस विषय का उदाहरण है । नागपुर के प्रसिद्घ लक्षाधिपति श्रीमान् बापूसाहेब बूटी सहकुटुम्ब शिरडी में रहते थे । एक बार उन्हें विचार आया कि शिरडी में स्वयं का एक वाड़ा होना चाहिए । कुछ समय के पश्चात जब वे दीक्षित वाड़े में निद्रा ले रहे थे तो उन्हें एक स्वप्न हुआ । बाबा ने स्वप्न में आकर उनसे कहा कि तुम अपना एक वाड़ा और एक मन्दिर बनवाओ । शामा भी वहीं शयन कर रहा था और उसने भी ठीक वैसा ही स्वप्न देखा । बापूसाहेब जब उठे तो उन्होंने शामा को रुदन करते देखकर उससे रोने का कारण पूछा ।
तब शामा कहने लगा –
अभी-अभी मुझे एक स्वप्न आया था कि बाबा मेरे बिलकुल समीप आये और स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि मन्दिर के साथ वाड़ा बनवाओ । मैं समस्त भक्तों की इच्छाएँ पूर्ण करुँगा । बाबा के मधुर और प्रेमपूर्ण शब्द सुनकर मेरा प्रेम उमड़ पड़ा तथा गला रुँध गया और मेरी आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी । इसलिये मैं जोर से रोने लगा । बापूसाहेब बूटी को आश्चर्य हुआ कि दोनों के स्वप्न एक से ही है । धनाढ्य तो वे थे ही, उन्होंने वाड़ा निर्माण करने का निश्चय कर लिया और शामा के साथ बैठकर एक नक्शा खींचा । काकासाहेब दीक्षित ने भी उसे स्वीकृत किया और जब नक्शा बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने भी तुरंत स्वीकृति दे दी । तब निर्माण कार्य प्रारम्भ कर दिया गया और शामा की देखरेख में नीचे मंजिल, तहखाना और कुआँ बनकर तैयार हो गया । बाबा भी लेंडी को आते-जाते समय परामर्श दे दिया करते थे । आगे यतह कार्य बापूसाहेब जोग को सौंप दिया गया । जब कार्य इसी तरह चल ही रहा था, उसी समय बापूसाहेब जोग को एक विचार आया कि कुछ खुला स्थान भी अवश्य होना चाहिये, बीचोंबीच मुरलीधर की मूर्ति की भी स्थापना की जाय । उन्होंने अपना विचार शामा को प्रकट किया तता बाबा से अनुमति प्राप्त करने को कहा । जब बाबा वाड़े के पास से जा रहे थे, तभी शामा ने बाबा से प्रश्न कर दिया । शामा का प्रश्न सुनकर बाबा ने स्वीकृति देते हुए कहा कि जब मन्दिर का कार्य पूर्ण हो जायगा, तब मैं स्वयं वहाँ निवास करुँगा, और वाड़े की ओर दृष्टिपात करते हुए कहा जब वाड़ा सम्पूर्ण बन जायगा, तब हम सब लोग उसका उपभोग करेंगे । वहीं रहेंगे, घूमेंगे, फिरेंगे और एक दूसरे को हृदय से लगायेंगे तथा आनन्दपूर्वक विचरेंगे । जब शामा ने बाबा से पूछा कि क्या यह मूर्ति के मध्य कक्ष की नींव के कार्य आरम्भ का शुभ मुहूर्त्त है । तब उन्होंने स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया । तभी शामा ने एक नारियल लाकर फोड़ा और कार्य प्रारम्भ कर दिया । ठीक समय में सब कार्य पूर्ण हो गया और मुरलीधर की एक सुन्दर मूर्ति बनवाने का प्रबन्ध किया गया । अभी उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ भी न हो पाया था कि एक नवीन घटना घटित हो गई । बाबा की स्थिति चिंताजक हो गई और ऐसा दिखने लगा कि वे अब देह त्याग देंगे । बापूसाहेब बहुत उदास और निराश से हो गये । उन्होंने सोचा कि यदि बाबा चले गये तो बाड़ा उनके पवित्र चरण-स्पर्श से वंचित रह जायगा और मेरा सब (लगभग एक लाख) रुपया व्यर्थ ही जायेगा, परन्तु अंतिम समय बाबा के श्री मुख से निकले हुए वचनों ने (मुझे बाड़े में ही रखना) केवल बूटीसाहेब को ही सान्त्वना नहीं पहुँचाई, वरन् अन्य लोगों को भी शांति मिली । कुछ समय के पश्चात् बाबा का पवित्र शरीर मुरलीधर की मूर्ति के स्थान पर रख दिया गया । बाबा स्वयं मुरलीधर बन गये और वाड़ा साईबाबा का समाधि मंदिर । उनकी अगाध लीलाओं की थाह कोई न पा सका । श्री. बापूसाहेब बूटी धन्य है, जिनके वाड़े में बाबा का दिव्य और पवित्र पार्थिव शरीर अब विश्राम कर रहा है ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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Shree Sai Sachritra English Chapter 39
Baba's
Knowledge of Sanskrit
His Interpretation of a Verse from Gita - Construction of the Samadhi
Mandir.
This chapter (39) deals with Baba's interpretation of a verse from the
Bhagawad-Gita. As some people believed that Baba knew not Sanskrit, and the
interpretation was Nanasaheb Chandorkar's, Hemadpant wrote another chapter (50)
refuting that objection. As the chapter No.50 deals with the same
subject-matter, it is incorporated in this chapter.
Preliminary
Blessed is
Shirdi and blessed is Dwarkamayi where Shri Sai lived and moved until He took
Mahasamadhi. Blessed are the people of Shirdi whom He obliged and for whom He
came such long distance. Shirdi was a small village first, but it attained
great importance, on account of His contact and became a Tirtha, holy place of
pilgrimage. Equally blessed are the womenfolk of Shirdi, blessed is their whole
and undivided faith in Him. They sang the glories of Baba while bathing,
grinding, pounding corn and doing other house-hold work. Blessed is their love,
for they sang sweet songs which calm and pacify the minds of the singers and
listeners.
Baba's Interpretation
Nobody
believed that Baba knew Sanskrit. One day He surprised all by giving a good
interpretation of a verse from the Gita to Nanasaheb Chandorkar. A brief
account about this matter was written by Mr.B.V.Deo, Retired Mamlatdar and
published in Marathi in 'Shri Sai Leela' magazine, Vol IV. Sphuta Vishaya, page
563. Short accounts of the same are also published in 'Sai Baba's Charters and
Sayings' page 61 and in 'The Wondrous Saint Sai Baba', page 36 - both by
Brother B.V.Narsimhaswami. Mr.B.V.Deo has also given an English version of this
in his statement dated
and published on page 66 of "Devotees' Experiences, Part III" published
by the said Swami. As Mr.Deo has got first hand information about this Subject
from Nanasaheb himself we give below his version.
Nanasaheb Chandorkar was a good student of Vedanta. He had read Gita with
commentaries and prided himself on his knowledge of all that. He fancied that
Baba knew nothing of all this or of Sanskrit. So, Baba one day pricked the
bubble. These were the days before crowds flocked to Baba, when Baba had
solitary talks at the Mosque with such devotees. Nana was sitting near Baba and
massaging His Legs and muttering something.
Baba - Nana, what are you mumbling yourself?
Nana - Iam reciting a shloka (verse) from Sanskrit.
Baba - What shloka?
Nana - From Bhagawad-Gita
Baba - Utter it loudly.
Nana then recited B.G.IV-34 which is as follows :-
'Tadviddhi Pranipatena Pariprashnena
Sevaya,
Upadekshyanti Te Jnanam
Jnaninastattwadarshinah'
Baba - Nana, do you understand it?
Nana - Yes.
Baba - If you do, then tell me.
Nana - It means this - "Making Sashtanga Namaskar, i.e., prostration,
questioning the guru, serving him, learn what this Jnana is. Then, those Jnanis
that have attained the real knowledge of the Sad-Vastu (Brahma) will give you
upadesha (instruction) of Jnana."
Baba - Nana, I do not want this sort of collected purport of the whole
stanza. Give me each word, its grammatical force and meaning.
Then Nana explained it word by word.
Baba - Nana, is it enough to make prostration merely ?
Nana - I do not know any other meaning for the word 'pranipata' than 'making
prostration'.
Baba - What is 'pariprashna'?
Nana - Asking questions.
baba - What does 'Prashna' mean?
Nana - The same (questioning).
Baba - If 'pariprashna' means the same as prashna (question), why did Vyasa
add the prefix 'pari'? Was Vyasa off his head?
Nana - I do not know of any other meaning for the word 'pariprashna'.
Baba - 'Seva', what sort of 'seva' is meant?
Nana - Just what we are doing always
Baba - Is it enough to render such service?
Nana - I do not know what more is signified by the word 'seva'.
Baba - In the next line "upadekshyanti te jnanam", can you so read
it as to read any other word in lieu of Jnanam?
Nana - Yes.
Baba - What word?
Nana - Ajnanam.
Baba - Taking that word (instead of Jnana) is any meaning made out of the
verse?
Nana - No, Shankara Bhashya gives no such construction.
Baba - Never mind if it does not. Is there any objection to using the word
"Ajnana" if it gives a better sense?
Nana - I do not understand how to construe by placing "Ajnana" in
it.
Baba - Why does
Jnanis or Tattwadarshis to do his prostration, interrogation and service? Was
not
himself.
Nana - Yes He was. But I do not make out why he referred Arjuna to Jnanis?
Baba - Have you not understood this?
Nana was humiliated. His pride was knocked on the head. Then Baba began to
explain -
(1) It is not enough merely to prostrate before the Jnanis. We must make
Sarvaswa Sharangati (complete surrender) to the Sad-guru.
(2) Mere questioning is not enough. The question must not be made with any
improper motive or attitude or to trap the Guru and catch at mistakes in the
answer, or out of idle curiosity. It must be serious and with a view to achieve
moksha or spiritual progress.
(3) Seva is not rendering service, retaining still the feeling that one is
free to offer or refuse service. One must feel that he is not the master of the
body, that the body is Guru's and exists merely to render service to him.
If this is done, the Sad-guru will show you what the Janna referred to in
the previous stanza is.
Nana did not understand what is meant by saying that a guru teaches ajnana.
Baba - How is Jnana Upadesh, i.e., imparting of realization to be effected?
Destroying ignorance is Jnana. (cf. Verse-Ovi-1396 of Jnaneshwari commenting on
Gita 18-66 says - "removal of ignorance is like this, Oh Arjuna, If dream
and sleep disappear, you are yourself. It is like that." Also Ovi 83 on
Gita V-16 says - "Is there anything different or independent in Jnana besides
the destruction of ignornace?")* Expelling darkness means light.
Destroying duality (dwaita) means non-duality (adwaita). Whenever we speak of
destroying Dwaita, we speak of Adwaita. Whenever we talk of destroying
darkness, we talk of light. If we have to realise the Adwaita state, the
feeling of Dwaita in ourselves has to be removed. That is the realization of
the Adwaita state. Who can speak of Adwaita while remaining in Dwaita? If one
did, unless one gets into that state, how can one know it and realise it?
Again, the Shishya (disciple) like the Sad-guru is really embodiment of
Jnana. The difference between the two lies in the attitude, high realization,
marvellous super-human Sattva (beingness) and unrivalled capacity and Aishwarya
Yoga (divine powers). The Sad-guru is Nirguna, Sat-Chit-Ananda. He has indeed
taken human form to elevate mankind and raise the world. But his real Nirguna
nature is not destroyed thereby, even a bit. His beingness (or reality), divine
power and widsom remain undiminished. The disciple also is in fact of the same
swarupa. But, it is overlaid by the effect of the samaskaras of innumerable
births in the shape of ignorance, which hides from his view that he is Shuddha
Chaitanya (see B.G. Ch. V-15). As stated therein, he gets the impressions -
"Iam Jiva, a creature, humble and poor." The Guru has to root out
these offshoots of ignorance and has to give upadesh or instruction. To the
disciple, held spell-bound for endless generations by the ideas of his being a
creature, humble and poor, the Guru imparts in hundreds of births the teaching
- "You are God, you are mighty and opulent." Then, he realizes a bit
that he is God really. The perpetual delusion under which the disciple is
labouring, that he is the body, that he is a creature (jiva) or ego, that God
(Paramatma) and the world are different from him, is an error inherited from
innumerable past births. From actions based on it, he has derived his joy,
sorrows and mixtures of both. To remove this delusion, this error, this root ignorance,
he must start the inquiry. How did the ignorance arise? Where is it? And to
show him this is called the Guru's upadesh. The following are the instances of
Ajnana :-
1 - I am a Jiva (creature)
2 - Body is the soul (I am the body).
3 - God, world and Jiva are different.
4 - I am not God.
5 - Not knowing, that body is not the soul.
6 - Not knowing that God, world and Jiva are one.
Unless these errors are exposed to his view, the disciple cannot learn what
is God, jiva, world, body; how they are inter-related and whether they are
different from each other, or are one and the same. To teach him these and
destroy his ignorance is this instruction in Jnana or Ajnana. Why should Jnana
be imparted to the jiva, (who is) a Jnanamurti? Upadesh is merely to show him
his error and destroy his ignorance.
Baba added :- (1) Pranipata implies surrender. (2) Surrender must be of
body, mind and wealth; Re: (3) Why should
refer Arjuna to other Jnanis? "Sadbhakta takes every thing to be Vasudev
(B.G.VII-19 i.e., any Guru will be
the devotee) and Guru takes disciple to be Vasudev and
treats both as his Prana and Atma (B.G.7-18, commentary of Jnanadev on this).
As Shri Krishna knows that there are such Bhaktas and Gurus, He refers Arjuna to
them so that their greatness may increase and be known.
Construction of the Samadhi-Mandir
Baba never
talked, nor ever made any fuss about the things which He wanted to accomplish,
but He so skillfully arranged the circumstances and surroundings that the
people were surprised at the slow but sure results attained. The construction
of the Samadhi-mandir is an instance in point. Shriman Bapusaheb Booty, the
famous multi-millionaire of
lived in Shirdi whith his family. Once an idea arose in his mind that he should
have a building of his own there. Sometimes after this, while he was sleeping
in Dixit's Wada, he got a vision. Bava appeared in his dream and ordered him to
build a Wada of his own with temple. Shama who was sleeping there, got also a
similar vision. When Bapusaheb was awakened, he saw Shama crying and asked him
why. The latter replied that in his vision Baba came close to him and ordered
distinctly - "Build the Wada with the temple. I shall fulfill the desires
of all. Hearing the sweet and loving words of Baba, I was overpowered with
emotion, my throat was choked, my eyes were overflowing with tears, and I began
to cry." Bapusaheb was surprised to see that both their visions tallied.
Being a rich and capable man, he decided to build a Wada there and drew up a
plan with Madhavarao (Shama). Kakasaheb Dixit also approved of it. And when it
was placed before Baba, He also sanctioned it immediately. Then the
construction-work was duly started and under the supervision of Shama, the
ground floor, the cellar and the well were completed. Baba also on his way to
and from Lendi suggested certain improvements. Further work was entrusted to
Bapusaheb Jog and when it was going on, an idea struck Bapusaheb Booty's mind
that there should be an open room or platform and in the centre the image of
Murlidhar (Lord Krishna with the flute) be installed. He asked Shama to refer
this matter to Baba and get His consent. The latter asked Baba about this when
He was just passing by the Wada. Hearing Shama, Baba gave His consent saying,
"after the temple is complete I will come there to stay" and staring
at the Wada He added - "after the Wada is complete, we shall use it
ourselves, we shall live, move and play there, embrace each other, and be very
happy." Then Shama asked Baba whether this was the auspicious time to
begin the foundation-work of the central room of the Shrine. The latter
answered in the affirmative. Shama got a coconut broke it and started the work.
In due time the work was completed and an order was also given for making a
good image of Murlidhar. But before it was ready, a new thing turned up. Baba
became seriously ill and was about to pass away. Bapusaheb became very sad and
dejected, thinking that if Baba passed away, his Wada would not be consecrated
by the holy touch of Baba's Feet, and all his money (about a lakh of rupees)
would be wasted away. But the words "Place or keep Me in the Wada"
which came out of Baba's mouth just before His passing away, consoled not only
Bapusaheb, but one and all. In due time Baba's holy body was placed and
preserved in the central shrine meant or designed for Murlidhar and Baba
Himself became Murlidhar and the Wada thus became the Samadhi-mandir of Sai
Baba. His wonderful life is unfathomable.
Blessed and fortunate is Bapusaheb Booty in whose Wada lies the holy and the
pure body of Baba.
Bow to Shri Sai - Peace be to all
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