शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Wednesday, August 31, 2011

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 21 & ENGLISH CHAPTER ALSO

ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा

किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है



श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 21


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श्री. व्ही. एच. ठाकुर, अनंतराव पाटणकर और पंढ़रपुर के वकील की कथाएँ

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इस अध्याय में हेमाडपंत ने श्री विनायक हिश्चन्द्र ठाकुर, बी. ए., श्री. अनंतराव पाटणकर, पुणे निवासी तथा पंढरपुर के एक वकील की कथाओं का वर्णन किया है । ये सब कथाएँ अति मनोरंजक है । यदि इनका साराँश मननपूर्वक ग्रहण कर उन्हें आचरण में लाया जाय तो आध्यात्मिक पंथ पर पाठकगण अवश्य अग्रसर होंगें ।
प्रारम्भ

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यह एक साधारण-सा नियम है कि गत जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही हमें संतों का स्न्ध्य और उनकी कृपा प्राप्त होती है । उदाहरणार्थ हेमाडपंत स्वयं अपनी घटना प्रस्तुत करते है । वे अनेक वर्षों तक बम्बई के उपनगर बांद्रा के स्थानीय न्यायाधीश रहे । पीर मौलाना नामक एक मुस्लिम संत भी वहीं निवास करते थे । उनके दर्शनार्थ अनेक हिन्दू, पारसी और अन्य धर्मावलंबी वहाँ जाया करते थे । उनके मुजावर (पुजारी) ने हेमाडपंत से भी उलका दर्शन करने के लिये बहुत आग्रह किया, परन्तु किसी न किसी कारण वश उनकी भेंट उनसे न हो सकी । अनेक वर्षों के उपरान्त जब उनका शुभ काल आया, तब वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दरबार में जाकर स्थायी रुप से सम्मिलित हो गए । भाग्यहीनों को संतसमागम की प्राप्ति कैसे हो सकती है । केवल वे ही सौभाग्यशाली हे, जिन्हें ऐसा अवसर प्राप्त हो ।
संतों द्घारा लोकशिक्षा

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संतों द्घारा लोकशिक्षा का कार्य चिरकाल से ही इस विश्व में संपादित होता आया है । अनेकों संत भिन्न-भिन्न स्थानों पर किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिये स्वयं प्रगट होते है । यघपि उनका कार्यस्थल भिन्न होता है, परन्तु वे सब पूर्णतः एक ही है । वे सब उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की संचालनशक्ति के अंतर्गत एक ही लहर में कार्य करते है । उन्हें प्रत्येक के कार्य का परस्पर ज्ञान रहता है और आवश्यकतानुसार परस्पर कमी की पूर्ति करते है, जो निम्नलिखित घटना द्घारा स्पष्ट है ।
श्री. ठाकुर

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श्री. व्ही. एच. ठाकुर, बी. ए. रेव्हेन्यू विभाग में एक कर्मचारी थे । वे एक समय भूमिमापक दल के साथ कार्य करते हुए बेलगाँव के समीप वडगाँव नामक ग्राम में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक कानड़ी संत पुरुष (आप्पा) के दर्शन कर उनकी चरण वन्दना की । वे अपने भक्तों को निश्चलदासकृत विचार-सागर नामक ग्रंथ (जो वेदान्त के विषय में है) का भावार्थ समझा रहे थे । जब श्री. ठाकुर उनसे विदाई लेने लगे तो उन्होंने कहा, तुम्हें इस ग्रंथ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये और ऐसा करने से तुम्हारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायेंगी तथा जब कार्य करते-करते कालान्तर में तुम उत्तर दिशा में जाओगे तो सौभाग्यवश तुम्हारी एक महान् संत से भेंट होगी, जो मार्ग-पर्दर्शन कर तुम्हारे हृदय को शांति और सुख प्रदान करेंगे । बाद में उनका स्थानांतरण जुन्नर को हो गया, जहाँ कि नाणेघाट पार करके जाना पड़ता था । यह घाट अधिक गहरा और पार करने में कठिन था । इसलिये उन्हें भैंसे की सवारी कर घाट पार करना पड़ा, जो उन्हें अधिक असुविधाजनक तथा कष्टकर प्रतीत हुआ । इसके पश्चात् ही उनका स्थानांतरण कल्याण में एक उच्च पद पर हो गया और वहाँ उनका नानासाहेब चाँदोरकर से परिचय हो गया । उनके द्घारा उन्हें श्री साईबाबा के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात हुआ और उन्हें उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई । दूसरे दिन ही नानासाहेब शिरडी को प्रस्थान कर रहे थे । उन्होंने श्री. ठाकुर से भी अपने साथ चलने का आग्रह किया । ठाणे के दीवानी-न्यायालय में एक मुकदमे के संबंध में उनकी उपस्थिति आवश्यक होने के कारण वे उनके साथ न जा सके । इस कारण नानासाहेब अकेले ही रवाना हो गये । ठाणे पहुँचने पर मुकदमे की तारीख आगे के लिए बढ़ गई । इसलिए उन्हें ज्ञात हुआ कि नानासाहेब पिछले दिन ही यहाँ से चले गये है । वे अपने कुछ मित्रों के साथ, जो उन्हें वहीं मिल गये थे, श्री साईबाबा के दर्शन को गए । उन्होंने बाबा के दर्शन किये और उनके चरणकमलों की आराधना कर अत्यन्त हर्षित हुए । उन्हें रोमांच हो आया और उनकी आँखों से अश्रुधाराएँ प्रवाहित होने लगी । त्रिकालदर्शी बाबा ने उनसे कहा – इस स्थान का मार्ग इतना सुमा नही, जितना कि कानड़ी संत अप्पा के उपदेश या नाणेघाट पर भैंसे की सवारी थी । आध्यात्मिक पथ पर चलने के लिये तुम्हें घोर परिश्रम करना पडेगा, क्योंकि वह अत्यन्त कठिन पथ है । जब श्री. ठाकुर ने हेतुगर्भ शब्द सुने, जिनका अर्थ उनके अतिरिक्त और कोई न जानता था तो उनके हर्ष का पारावार न रहा और उन्हें कानड़ी संत के वचनों की स्मृति हो आई । तब उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर बाबा के चरणों पर अपना मस्तक रखा और उनसे प्रार्थना की कि प्रभु, मुझ पर कृपा करो और इस अनाथ को अपने चरण कमलों की शीतलछाया में स्थान दो । तब बाबा बोले, जो कुछ अप्पा ने कहा, वह सत्य था । उसका अभ्यास कर उसके अनुसार ही तुम्हें आचरण करना चाहिये । व्यर्थ बैठने से कुछ लाभ न होगा । जो कुछ तुम पठन करते हो, उसको आचरण में भी लाओ, अन्यथा उसका उपयोग ही क्या । गुरु कृपा के बिना ग्रंथावलोकन तथा आत्मानुभूति निरर्थक ही है । श्री. ठाकुर ने अभी तक केवल विचार सागर ग्रन्थ में सैद्घांतिक प्रकरण ही पढ़ा था, परन्तु उसकी प्रत्यक्ष व्यवहार प्रणाली तो उन्हें शिरडी में ही ज्ञात हुई । एक दूसरी कथा भी इस सत्य का और अधिक सशक्त प्रमाण है ।
श्री. अनंतराव पाटणकर

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पूना के एक महाशय, श्री. अनंतराव पाटणकर श्री साईबाबा के दर्शनों के इच्छुक थे । उन्होंने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये । दर्शनों से उनके नेत्र शीतल हो गये और वे अति प्रसन्न हुए । उन्होंने बाबा के श्री चरण छुए और यथायोग्य पूजन करने के उपरान्त बोले, मैंने बहुत कुछ पठन किया । वेद, वेदान्त और उपनिषदों का भी अध्ययन किया तथा अन्य पुराण भी श्रवण किये, फिर भी मुझे शान्ति न मिल सकी । इसलिये मेरा पठन व्यर्थ ही सिदृ हुआ । एक निरा अज्ञानी भक्त मुझसे कहीं श्रेष्ठ है । जब तक मन को शांति नहीं मिलती, तब तक ग्रन्थावलोकन व्यर्थ ही है । मैंने ऐसा सुना है कि आप केवल अपनी दृष्टि मात्र से और विनोदपूर्ण वचनों द्घारा दूसरों के मन को सरलतापूर्वक शान्ति प्रदान कर देते है । यही सुनकर मैं भी यहाँ आया हूँ । कृपा कर मुझ दास को भी आर्शीवाद दीजिये ।
ततब बाबा ने निम्नलिखित कथा कही - घोड़ी की लीद के लौ गोले (नवधा भक्ति) ...
एक समय एक सौदागर यहाँ आया । उसके सम्मुख ही एक घोड़ी ने लीद की । जिज्ञासु सौदागर ने अपनी धोती का एक छोर बिछाकर उसमें लीद के नौ गोले रख लिये और इस प्रकार उसके चित्त को शांति पत्राप्त हुई । श्री. पाटणकर इस कथा का कुछ भी अर्थ न समझ सके । इसलिये उन्होंने श्री. गणेश दामोदर उपनाम दादा केलकर से अर्थ समझाने की प्रार्थना की और पूछा कि बाबा के कहने का अभिप्राय क्या है । वे बोले कि जो कुछ बाबा कहते है, उसे मैं स्वयं भी अच्छी तरह नहीं समझ सकता, परंतु उनकी प्रेरणा से ही मैं जो कुछ समझ सका हूँ, वह तुम से कहता हूँ । घोड़ी है ईश-कृपा, और नौ एकत्रित गोले है नवविधा भक्ति-यथा –
1. श्रवण

2. कीर्तन

3. नामस्मरण

4. पादसेवन

5. अर्चन

6. वन्दन

7. दास्य या दासता

8. सख्यता और

9. आत्मनिवेदन ।
ये भक्ति के नौ प्रकार है । इनमें से यदि एक को भी सत्यता से कार्यरुप में लाया जाय तो भगववान श्रीहरि अति प्रसन्न होकर भक्त के घर प्रगट हो जायेंगे । समस्त साधनाये अर्थात् जप, तप, योगाभ्यास तथा वेदों के पठन-पाठन में जब तक भक्ति का समपुट न हो, बिल्कुल शुष्क ही है । वेदज्ञानी या व्रहमज्ञानी की कीर्ति भक्तिभाव के अभाव में निरर्थक है । आवश्यकता है तो केवल पूर्ण भक्ति की । अपने को भी उसी सौदागर के समान ही जानकर और व्यग्रता तथा उत्सुकतापूर्वक सत्य की खोज कर नौ प्रकार की भक्ति को प्राप्त करो । तब कहीं तुम्हें दृढ़ता तथा मानसिक शांति प्राप्त होगी । दूसरे दिन जब श्री. पाटणकर बाबा को प्रणाम करने गये तो बाबा ने पूछा कि क्या तुमने लीद के नौ गोले एकत्रित किये । उन्होंने कहा कि मैं अनाश्रित हूँ । आपकी कृपा के बिना उन्हें सरलतापूर्वक एकत्रित करना संभव नहीं है । बाबा ने उन्हें आर्शीवाद देकर सांत्वना दी कि तुम्हें सुख और शांति प्राप्त हो जायेगी, जिसे सुनकर श्री. पाटणकर के हर्षे का पारावार न रहा ।
पंढ़रपुर के वकील

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भक्तों के दोष दूर कर, उन्हें उचित पथ पर ला देने की बाबा की त्रिकालज्ञता की एक छोटी-सी कथ का वर्णन कर इस अध्याय को समाप्त करेंगे । एक समय पंढरपुर से एक वकील शिरडी आये । उन्होंने बाबा के दर्शन कर उन्हं प्रणाम किया तथा कुछ दक्षिणा भेंट देकर एक कोने में बैठ वार्तालाप सुनने लगे । बाबा उनकी ओर देख कर कहने लगे कि लोग कितने धूर्त है, जो यहाँ आकर चरणों पर गिरते और दक्षिणा देते है, परंतु भीतर से पीठ पीछे गालियाँ देते रहते है । कितने आश्चर्य की बात है न । यह पगड़ी वकील के सिर पर ठीक बैठी और उन्हें उसे पहननी पड़ी । कोई भी इन शब्दों का अर्थ न समझ सका । परन्तु वकील साहब इसका गूढ़ार्थ समझ गये, फिर भी वे नतशिर बैठे ही रहे । वाड़े को लौटकर वकील साहब ने काकासाहेब दीक्षित को बतलाया कि बाबा ने जो कुछ उदाहरण दिया और जो मेरी ही ओर लक्ष्य कर कहा गया था, वह सत्य है । वह केवल चेतावनी ही थी कि मुझे किसी की निन्दा न करनी चाहिए । एक समय जब उपन्यायाधीश श्री. नूलकर स्वास्थ्य लाभ करने के लिये पंढरपुर से शिरडी आकर ठहरे तो बताररुम में उनके संबंध में चर्चा हो रही थी । विवाद का विषय था कि जीस व्याधि से उपन्यायाधीश अस्वस्थ है, क्या बिना औषधि सेवन किये केवल साईबाबा की शरण में जाने से ही उससे छुटकारा पाना सम्भव है । और क्या श्री. नूलकर सदृश एक शिक्षित व्यक्ति को इस मार्ग का अवलम्बन करना उचित है । उस समय नूलकर का और साथ ही श्री साईबाबा का भी बहुत उपहास किया गया । मैंने भी इस आलोचना में हाथ बँटाया था । श्री साईबाबा ने मेरे उसी दूषित आचरण पर प्रकाश डाला है । यह मेरे लिये उपहास नही, वरन् एक उपकार है, जो केवल परामर्श है कि मुझे किसी की निनदा न करनी चाहिए और न ही दूसरों के कार्यों में विघ्न डालना चाहिए । शिरडी और पंढरपुर में लगभग 300 मील का अन्तर है । फिर भी बाबा ने अपनी सर्वज्ञता द्घारा जान लिया कि बाररुम में क्या चल रहा था । मार्ग में आने वाली नदियाँ, जंगल और पहाड़ उनकी सर्वज्ञता के लिये रोड़ा न थे । वे सबके हृदय की गुहृ बात जान लेते थे और उनसे कुछ छिपा न था । समीपस्थ या दूरस्थ प्रत्येक वस्तु उन्हें दिन के प्रकाश के समान जाज्वल्यमान थी तथा उनकी सर्वव्यापक दृष्टि से ओझल न थी । इस घटना से वकीलसाहब को शिक्षा मिलीकि कभी किसी का छिद्रान्वेषण एवं निंदा नहीं करनी चाहिए । यह कथा केवल वकीलसाहव को ही नहीं, वरन सबको शिक्षाप्रद है । श्री साईबाबा की महानता कोई न आँक सका और न ही उनकी अदभुत लीलाओं का अंत ही पा सका । उनकी जीवनी भी तदनुरुप ही है, क्योंकि वे परब्रहास्वरुप है ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

 

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Chapter 21

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Stories of (1) V.H. Thakur (2) Anantrao Patankar and (3) Pandharpur Pleader.
In this Chapter, Hemadpant relates the stories of Vinayak Harishchandra Thakur, B.A., Anantrao Patankar of Poona, and a pleader from Pandharpur. All these stories are very interesting which if very carefully read and grasped, will lead the readers on to the spiritual path.
Preliminary
It is a general rule, that it is our good luck in the form of accumulation of merits in past births, that enables us to seek the company of Saints and profit thereby. In illustration of this rule, Hemadpant gives his own instance. He was a resident Magistrate of Bandra, A suburb of Bombay, for many years. A famour Mahomedan Saint named Pir Moulana was living there and many Hindus, Parsis and many others who followed different religion used to go to him and take his darshan. His Mujavar (priest) by name Inus pressed Hemadpant many a time, night and day, for going to see him, but for some reason or other he was not able to see him. After many years his turn came and he was called to Shirdi where he was permanently enlisted in Sai Baba's Darbar. Unfortunate fellows do not get this contact of the Saints. It is only the fortunate ones that get it.
Institution of Saints
There have been institutions of Saints in this world, from time immemorial. Various Saints appear (incarnate) themselves in various places to carry out the missions allotted to them, but though they work in different places, they are, as it were, one. They work in unison under the common authority of the Almighty Lord and know full well what each of them is doing in his place, and supplement his work where necessary. An instance illustrating this is given below.
Mr. Thakur
Mr. V.H.Thakur, B.A., was a clerk in the Revenue Department and he once came to a town named Vadgaum near Belgaum (S.M. Country) along with a Survey party. There he saw a Kanarese Saint (Appa) and bowed before him. The Saint was explaining a portion from the book "Vichar-Sagar" of Nischaldas (a standard work on Vedanta) to the audience. When Thakur was taking his leave to go, he said to him, "you should study this book, and if you do so, your desires will be fulfilled, and when you go to the North in the discharge of your duties in future, you will come across a great Saint by your good luck, and then he will show you the future path, and give rest to your mind and make you happy".
Then, he was transferred to Junnar, where he had to go by crossing Nhane Ghat. This Ghat was very steep and impassible, and no other conveyance, than a buffalo was of use in crossing it. So he had to take a buffalo-ride through the Ghat, which inconvenienced and pained him much. Thereafter, he was transferred to Kalyan on higher post, and there he became acquainted with Nanasaheb Chandorkar. He heard much about Sai Baba from him and wished to see Him. Next day, Nanasaheb had to go to Shirdi, and he asked Thakur to accompany him. He could not do so as he had to attend the
Thana Civil Court
for a civil case. So Nanasaheb went alone. Thakur went to Thana, but there the case was postponed. Then, he repented for not accompanying Nanasaheb. Still he left for Shirdi and when he went there, he found that Nanasaheb had left the place the previous day. Some of his other friends, whom he met there, took him to Baba. He saw Baba, fell at His Feet and was overjoyed. His eyes were full of tears of joy and his hair stood on end. Then after a while the omniscient Baba said to him - "The path of this place is not so easy as the teaching of the Kanarese Saint Appa or even as the buffalo-ride in the Nhane Ghat. In this spiritual path, you have to put in your best exertion as it is very difficult". When Thakur heard these significant signs and words, which none else than he knew, he was overwhelmed with joy. He came to know, that the word of the Kanarese Saint had turned true. Then joining both hands and placing his head on Baba's Feet, he prayed that he should be a accepted and blessed. Then Baba said - "What Appa told you was all right, but these things have to be practised and lived. Mere reading won't do. You have to think and carry out what you read, otherwise, it is of no use. Mere book-learning, without the grace of the Guru, and self-realization is of no avail". The theoretical portion was read from the work `Vichar Sagar' by Thakur, but the practical way was shown to him at Shirdi. Another story given below will bring out this truth more forcibly.
Anantrao Patankar
One gentleman from Poona, by name Anantrao Patankar wished to see Baba. He came to Shirdi, and took Baba's darshan. His eyes were appeased, he was much pleased. He fell at Baba's Feet; and after performing proper worship said to Baba - "I have read a lot, studied Vedas, Vedants and Upanishads and heard all the Purnas, but still I have not got any peace of mind; so I think that all my reading was useless. Simple ignorant devout persons are better than myself. Unless the mind becomes calm, all book-learning is of no avail. I have heard, from many people, that you easily give peace of mind to so many people by your mere glance, and playful word; so I have come here; please take pity on me and bless me". Then Baba told him a parable, which was as follows:-
Parable of Nine Balls of Stool (Nava-vidha Bhakti)
"Once a Soudagar (merchant) came here. Before him a mare passed her stool (nine balls of stool). The merchant, intent on his quest, spread the end of his dhotar and gathered all the nine balls in it, and thus he got concentration (peace) of mind".
Mr. Patankar could not make out the meaning of this story; so he asked Ganesh Damodar, alias Dada Kelkar, "What does Baba mean by this?" He replied - "I too do not know all that Baba says and means, but at His inspiration I say, what I come to know. The mare is God's grace and the nine balls excreted are the nine forms or types of Bhakti, viz., (1) Shravana (Hearing); (2) Kirtana (Praying); (3) Smarana (Remembering); (4) Padasevana (resorting to the feet); (5) Archana (Worship); (6) Namaskara (Bowing); (7) Dasya (Service); (8) Sakhyatva (Friendship); (9) Atmanivedana (surrender of the self). These are the nine types of Bhakti. If any of these is faithfully followed, Lord Hari will be pleased, and manifest Himself in the home of the devotee. All the sadhanas, viz. Japa (vocal worship), Tapa (penance), Yoga practice and studying the scriptures and expounding them are quite useless unless they are accompanied by Bhakti, i.e., devotion. Knowledge of the Vedas, or fame as a great Jnani, and mere formal Bhajan (worship) are of no avail. What is wanted is Loving Devotion. Consider yourself as the merchant or seeker after the truth and be anxious and eager like him to collect or cultivate the nine types of devotion. Then you will attain stability and peace of mind".


Next day, when Patankar went to Baba for saluation, he was asked whether he collected the 'nine balls of stool'. Then he said that he, being a poor fellow, should first be graced by Baba, and then they will be easily collected. Then Baba blessed and comforted him, saying that he would attain peace and welfare. After hearing this, Patankar became overjoyed and happy.
The Pandharpur Pleader
We shall close this Chapter with short story showing Baba's omniscience and His using it for correcting people and setting them on the right path. Once a pleader from Pandharpur came to Shirdi, went to the Masjid, saw Sai Baba, fell at His Feet and, without being asked, offered some Dakshina, and sat in a corner eager to hear the talk, that was going on. Then Baba turned His face towards him and said - "How cunning the people are! They fall at the feet, offer Dakshina, but inwardly give abuses behind the back. Is not this wonderful?" This cap (remark) fitted the pleader and he had to wear (take) it. None understood the remark. The pleader grasped it, but kept silent. When they returned to the Wada, the pleader said to Kakasaheb Dixit - "What Baba remarked was perfectly right. The dart (remark) was aimed at me, it was a hint to me, that I should not indulge in reviling or scandalizing others (calling by names). When the subjudge or munsiff of Pandharput (Mr.Noolkar) came and stayed here for the improvement of his health, a discussion about this matter was going on in the bar-room at Pandharpur (as it ever happens in many a bar-room). It was said or discussed there whether the ailments, from which the sub-judge suffered were, ever likely to be got rid of without medicines, by merely going after Sai Baba, and whether it was proper for an educated man, like the sub-judge, to have recourse to such methods. The sub-judge was taken to task, i.e. he was ciritisied, as also Sai Baba. I also took some part in this affair; and now Sai Baba showed the impropriety of my conduct. This is not a rebuke to me, but a favour, an advice that I should not indulge in any scandal or slander of others; and not interfere unnecessarity in others' affairs".
Shirdi is about 100 Koss (Koss=3 miles) distant from Pandharpur; still Baba by His omniscience knew what transpired there in the bar-room. The intervening places -- rivers, jungles and mountains - were not a bar to His all-perceiving sight and He could see or read the hearts of all. There was nothing secret or veiled from Him. Everything, far or near, was plain and clear to Him as broad as daylight. Let a man be far or near, he cannot avoid the all-pervading gaze of Sai Baba. From this incident, the pleader took the lesson that he should never speak ill of others, nor unnecessarily criticize them. This his evil tendency was completely got rid of, and he was set on the right path.
Though the story refers to a pleader, still it is applicable to all. All should, therefore, take this lesson to heart and profit thereby.
Sai Baba's greatness is unfathomable, so are His wonderful Leelas. His life is also such; for He is Para-Brahman (Lord God) incarnate.


Bow to Shri Sai - Peace be to all

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