शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Wednesday, August 24, 2011

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 20 & ENGLISH CHAPTER ALSO

ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा

किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है



श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 20

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विलक्षण समाधान . श्री काकासाहेब की नौकरानी द्घारा श्री दासगणू की समस्या का समाधान ।

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श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्घारा श्री. दासगणू की समस्या किस प्रकार हल हुई, इसका वर्णन हेमाडपंत ने इस अध्याय में किया है ।

प्रारम्भ

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श्री साई मूलतः निराकार थे, परन्तु भक्तों के प्रेमवश ही वे साककार रुप में प्रगट हुए । माया रुपी अभिनेत्री की सहायता से इस विश्व की वृहत् नाट्यशाला में उन्होंने एक महान् अभिनेता के सदृश अभिनय किया । आओ, श्री साईबाबा का ध्यान व स्मरण करें और फिर शिरडी चलकर ध्यानपूर्वक मध्याहृ की आरती के पश्चात का कार्यक्रम देखें । जब आरती समाप्त हो गई, तब श्री साईबाबा ने मसजिद से बाहर आकर एक किनारे खड़े होकर बड़ी करुणा तथा प्रेमपूर्वक भक्तों को उदी वितरण की । भक्त गण भी उनके समक्ष खड़े होकर उनकी ओर निहारकर चरण छूते और उदी वृष्टि का आनंद लेते थे । बाबा दोनों हाथों से भक्तों को उदी देते और अपने हाथ से उनके मस्तक पर उदी का टीका लगाते थे । बाबा के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम था । वे भक्तों को प्रेम से सम्बोधित करते, ओ भाऊ । अब जाओ, भोजन करो । इसी प्रकार वे प्रत्येक भक्त से सम्भाषण करते और उन्हें घर लौटाया करते थे । आह । क्या थे वे दिन, जो अस्त हुए तो ऐसे हुए कि फिर इस जीवन में कभी न मिलें । यदि तुम कल्पना करो तो अभी भी उस आनन्द का अनुभव कर सकते हो । अब हम साई की आनन्दमयी मूर्ति का ध्यान कर नम्रता, प्रेम और आदरपूर्वक उनकी चरणवन्दना कर इस अध्याय की कथा आरम्भ करते है ।

ईशोपनिषद्

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एक समय श्री दासगणू ने ईशोपनिषद् पर टीका (ईशावास्य-भावार्थबोधिनी) लिखना प्रारम्भ किया । वर्णन करने से पूर्व इस उपनिषद का संक्षिप्त परिचय भी देना आवश्यक है । इसमें बैदिक संहिता के मंत्रों का समावेश होने के कारण इसे मन्त्रोपनिषद् भी कहते है और साथ ही इसमें यजुर्वेद के अंतिम (40वें) अध्याय का अंश सम्मलित होने के कारण यह वाजसनेयी (यदुः) संहितोशनिषद् के नाम से भी प्रसिदृ है । वैदिक संहिता का समावेश होने के कारण इसे उन अन्य उपनिषदों की अपेक्षा श्रेष्ठकर माना जाता है, जो कि ब्राहमण और आरण्यक (अर्थात् मन्त्र और धर्म) इन विषयों के विवरणात्मक ग्रंथ की कोटि में आते है । इतना ही नही, अन्य उपनिषद् तो केवन ईशोपनिषद् में वर्णित गूढ़ तत्वों पर ही आधारित टीकायें है । पण्डित सातवलेकर द्घारा रचित वृहदारण्यक उपनिषद् एवं ईशोपनिषद् की टीका प्रचलित टीकाओं में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है । प्रोफेसर आर. डी. रानाडे का कथन है कि ईशोपनिषद् एक लघु उपनिषद् होते हुए भी, उसमें अनेक विषयों का समावेश हे, जो एक असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है । इसमें केवल 18 श्लोकों में ही आत्मतत्ववर्णन, एक आदर्श संत की जीवनी, जो आकर्षण और कष्टों के संसर्ग में भी अचल रहता है, कर्मयोग के सिद्घान्तों का प्रतिबिम्ब, जिसका बाद में सूत्रीकरण किया गया, तथा ज्ञान और कर्त्व्य के पोषक तत्वों का वर्णन है, जिसके अन्त में आदर्श, चामत्कारिक और आत्मासंबंधी गूढ़ तत्वों का संग्रह है । इस उपनिषद् के संबंध में संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि इसका प्राकृत भाषा में वास्तविक अर्थ सहित अनुवाद करना कितना दुष्कर कार्य है । श्री. दासगणू ने ओवी छन्दों में अनुवाद तो किया, परन्तु उसके सार त्तत्व को ग्रतहण न कर सकने के कारण उन्हें अपने कार्य से सन्तोष न हुआ । इस प्रकार असंतुष्ट होकर उन्होंने कई अन्य विद्घानों से शंका-निवारणार्थ परामर्श और वादविवाद भी अधिक किया, परन्तु समस्या पूर्ववत् जटिल ही बनी रही और सन्तोषजनक अर्थ करने में कोई भी सफल न हो सका । इसी कारण श्री. दासगणू बहुत ही असंतुष्ट हुए ।

केवल सदगुरु ही अर्थ समझाने में समर्थ

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यह उपनिषद वेदों का महान् विवरणात्मक सार है । इस अस्त्र के प्रयोग से जन्म-मरण का बन्धन छिन्न भिन्न हो जाता है और मुक्ति की प्राप्ति होती है । अतः श्री. दासगणू को विचार आया कि जिसे आत्मसाक्षात्कार हो चुका हो, केवल वही इस उपनिषद् का वास्तविक अर्थ कर सकता है । जब कोई भी उनकी शंका का निवारण न कर सका तो उन्होंने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । जब उन्हें शिरडी जाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बाबा से भेंट की और चरण-वन्दना करने के पश्चात् उपनिषद् में आई हुई कठिनाइयाँ उलके समक्ष रखकर उनसे हल करने की प्रार्थना की । श्री साईबाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । उसमें कठिनाई ही क्या है । जब तुम लौटोगे तो विलेपार्ला में काका दीक्षित की नौकरानी तुम्हारी शंका का निवारण कर देगी । उपस्थित लोगों ने जब ये वचन सुने तो वे सोचने लगे कि बाबा केवल विनोद ही कर रहे है और कहने लगे कि क्या एक अशिक्षित नौकरानी भी ऐसी जटिल समस्या हल कर सकती है । परन्तु दासगणू को तो पूर्ण विश्वास था कि बाबा के वचन कभी असत्य नहीं हो सकते, क्योंकि बाबा के वचन तो साक्षात् ब्रहमवाक्य ही है ।

काका की नौकरानी

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बाबा के वचनों में पूर्ण विश्वास कर वे शिरडी से विलेपार्ला (बम्बई के उपनगर) में पहुँचकर काका दीक्षित के यहाँ ठहरे । दूसरे दिन दासगणू सुबह मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें एक निर्धन बालिका के सुन्दर गीत का स्पष्ट और मधुर स्वर सुनाई पड़ा । गीत का मुख्य विषय था – एक लाल रंग की साड़ी । वह कितनी सुन्दर थी, उसका जरी का आँचल कितना बढ़िया था, उसके छोर और किनारे कितनी सुन्दर थी, इत्यादि । उन्हें वह गीत अति रुचिकर प्रतीत हुआ । इस कारण उन्हो्ने बाहर आकर देखा कि यह गीत एक बालिका - नाम्या की बहन - जो काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी है – गा रही है । बालिका बर्तन माँज रही थी और केवल एक फटे कपड़े से तन ढँकें हुए थी । इतनी दरिद्री-परिस्थिति में भी उसकी प्रसन्न-मुद्रा देखकर श्री. दासगणू को दया आ गई और दूसरे दिन श्री. दासगणू ने श्री. एम्. व्ही. प्रधान से उस निर्धन बालिका को एक उत्म साड़ी देने की प्रार्थना की । जब रावबहादुर एम. व्ही. प्रधान ने उस बालिका को एक धोती का जोड़ा दिया, तब एक क्षुधापीड़ित व्यक्ति को जैसे भाग्यवश मधुर भोजन प्राप्त होने पर प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा । दूसरे दिन उसने नई साड़ी पहनी और अत्यन्त हर्षित होकर सानन्द नाचने-कूदने लगी एवं अन्य बालिकाओं के साथ वह फुगड़ी खेलने में मग्न रही । अगले दिन उसने नई साड़ी सँभाल कर सन्दूक में रख दी और पूर्ववत् फटे पुराने कपड़े पहनकर आई, परन्तु फिर भी पिछले दिन के समान ही प्रसन्न दिखाई दी । यह देखकर श्री. दासगणू की दया आश्चर्य में परिणत हो गई । उनकी ऐसी धारणा थी कि निर्धन होने के ही कारण उसे फटे चिथड़े कपड़े पहनने पड़ते है, परन्तु अब तो उसके पास नई साड़ी थी, जिसे उसने सँभाल कर रख लिया और फटे कपडे पहनकर भी उसी गर्व और आनन्द का अनुभव करती रही । उसके मुखपर दुःख या निराशा का कोई निशान भी नही रहा । इस प्रकार उन्हें अनुभव हुआ कि दुःख और सुख का अनुभव केवल मानसिक स्थिति पर निर्भर है । इस घटना पर गूढ़ विचार करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि भगवान ने जो कुछ ददिया है, उसी में समाधान वृत्ति रखननी चाहिये और यह निश्चयपूर्वक समझना चाहिये कि वह सब चराचर मेंव्याप्त है और जो कुछ भी स्थिति उसकी दया से अपने को प्राप्त है, वह अपने लिये अवश्य ही लाभप्रद होगी । इस विशिष्ट घटना में बालिका की निर्धनावस्था, उसके पटे पुराने कपड़े और नई साड़ी देने वाला तथा उसकी स्वीकृति देने वाला यह सब ईश्वर दद्घारा ही प्रेरित कार्य था । श्री. दासगणू को उपनिषद् के पाठ की प्रत्यक्ष शिक्षा मिल गई अर्थात् जो कुछ अपने पास है, उसी में समाधानवृत्ति माननी चाहिए । सार यह है कि जो कुछ होता है, सब उसी की इच्छा से नियंत्रित है, अतः उसी में संतुष्ट रहने में हमारा कल्याण है ।

अद्घितीय शिक्षापद्घति

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उपयुक्त घटना से पाठकों को विदित होगा कि बाबा की पदृति अद्घितीय और अपूर्व थी । बाबा शिरडी के बाहर कभी नहीं गये, परन्तु फिर भी उन्होंने किसी को मच्छिन्द्रगढ़, किसी को कोल्हापुर या सोलापुर साधनाओं के लिये भेजा । किसी को दिन में ौर किसी को रात्रि में दर्शन दिये । किसी को काम करते हुए, तो किसी को निद्रावस्था में दर्शन दिये ओर उनकी इच्छाएँ पूर्ण की । भक्तों को शिक्षा देने के लिये उन्होंने कौन कौन-सी युक्तियाँ काम में लाई, इसका वर्णन करना असम्भव है । इस विशिष्ट घटना में उन्होंने श्री. दासगणू को विलेपार्ला भेज कर वहाँ उनकी नौकरानी द्घारा समस्या हल कराई । जिनका ऐसा विचार हो कि श्री. दासगणू को बाहर भेजने की आवश्यकता ही क्या थी, क्या वे स्वयं नही समझा सकते थे । उनसे मेरा कहना है कि बाबा ने उचित मार्ग ही अपनाया । अन्यथा श्री. दासगणू किस प्रकार एक अमूल्य शिक्षा उस निर्धन नौकरानी और उसकी साड़ी द्घारा प्राप्त करते, जिसकी रचना स्वयं साई ने की थी ।

ईशोपनिषद् की शिक्षा

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ईशोपनिषद् की मुख्य देन नीति-शास्त्र सम्बन्धी उपदेश है । हर्ष की बात है कि इस उपनिषद् की नीति निश्चित रुप से आध्यात्मिक विषयों पर आधारित है, जिसका इसमें बृहत् रुप से वर्णन किया गया है । उपनिषद् का प्रारम्भ ही यहीं से होता है कि समस्त वस्तुएँ ईश्वर से ओत-प्रोत है । यह आत्मविषयक स्थिति का भी एक उपसिद्घान्त है और जो नीतिसंबंधी उपदेश उससे ग्रहण करने योग्य है, वह यह है कि जो कुछ ईशकृपा से प्राप्त है, उसमें ही आनन्द मानना चाहिये और दृढ़ भावना रखनी चाहिये कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान् है और इसलिए जो कुछ उसने दिया है, वही हमारे लिये उपयुक्त है । यह भी उसमें प्राकृतिक रुप से वर्णित है कि पराये धन की तृष्णा की प्रवृत्ति को रोकना चाहिये । सारांश यह है कि अपने पास जो कुछ है, उसी में सन्तुष्ट रहना, क्योंकि यही ईश्वरेच्छा है । चरित्र सम्बन्धी द्घितीय उपदेश यह है कि कर्तव्य को ईश्वरेच्छा समझते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये, विशेषतः उन कर्मोंको जिनको शास्त्र में वर्णित किया गया है । इस विषय में उपनिषद् का कहना है कि आलस्य से आत्मा का पतन हो जाता है और इस प्रकार निरपेक्ष कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करने वाला ही अकर्मणमयता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है । अन्त में कहा है कि जो सब प्राषियों को अपना ही आत्मस्वरुप समझता है तथा जिसे समस्त प्राणी और पदार्थ आत्मस्वरुप हो चुके है, उसे मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है । ऐसे व्यक्ति को दुःख का कोई कारण नहीं हो सकता । सर्व भूतों में आत्मदर्शन न कर सकने के काण भिन्न-भिन्न प्रकार के शोक, मोह और दुःखों की वृद्घि होती है । जिसके लिये सब वस्तुएँ आत्मस्वरुप बन गई हो, वह अन्य सामान्य मनुष्यों का छिद्रान्वेषण क्यों करने लगता है ।




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।




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Chapter 20

 

Das Ganu's Problem Solved by Kaka's Maid-Servant

In this Chapter, Hemadpant describes, how Das Ganu's problem was solved by Kakasaheb Dixit's maid-servant.

Preliminary

Sai (Lord) was originally formless. he assumed a form for the sake of Bhaktas. With the help of the actress Maya, He played the part of the Actor in the big drama of the universe. Let us remember and visualize Shri Sai. Let us go to Shirdi, and see carefully the programmes, after the noon-Arati. After the Arati ceremony was over, Sai used to come out of the Masjid, and standing on its edge, distribute udi to the devotees with very kind and loving looks. The Bhaktas also got up with equal fervour, clasped His Feet, and standing and staring at Him, enjoyed the shower of Udi. Baba passed handfuls of Udi into the palms of the devotees and marked their foreheads with Udi with His fingers. The love He bore for them in His heart was boundless. Then He addressed the Bhaktas as follows:- "Oh Bhau, go to take your lunch; you Anna, go to your lodgings; you Bapu, enjoy your dishes". In this way He accosted each and every devotee and sent them home. Even now, you can enjoy these sights if you bring into play your imagination. You can visualize and enjoy them. Now bringing Sai before our mental vision, let us meditate on Him, from His Feet upwards to His face, and prostrating before Him humbly, lovingly and respectfully, revert to the story of this Chapter.

Ishavasya Upanishad

Das Ganu once started to write a Marathi commentary ont he Ishavasya Upanishad. Let us first give a brief idea of this Upanishad, before proceeding further. It is called a `Mantropanishad', as it is embodied in the Mantras of the Vedic Samhita. It constitutes the last or the 40th Chapter of the Vajasaneyi Samhita (Yajurveda) and it is, therefore, called Vajasaneyi Samhitopanishad. Being embodied in Vedic Samhitas, this is regarded as superior to all other Upanishads, which occur in the Brahmanas and Aranyakas (explanatory treatises on Martras and rituals). Not only this, other Upanishads are considered to be commentaries on the truths mentioned briefly in the Ishavasya Upanishad. For instance, the biggest of the Upanishads, viz, the Brihadaranyaka Upanishad, is considered by Pandit Satwalekar to be a running commentary on the Ishavasya Upanishad.

Profesor R.D. Ranade says:- "The Ishopanishad is quite a small Upanishad; and yet it contains many hints which show an extraordinarily piercing insight. Within the short compass of 18 verses, it gives a valuable mystical description of the Atman, a description of the ideal sage, who stands unruffled in the minds of temptations and sorrows; and adumbration of the doctrine of Karma-Yoga as later formulated, and finally a reconciliation of the claims of knowledge and works. The most valuable ideas, that lies at the root of the Upanishad, is that of a logical synthesis between the two opposites of knowledge; and work, which are both required according to the Upanishad to be annulled in a higher synthesis". (page 24 of the Constructive Survey of the Upanishad Philosophy). In another place he says that "The poetry of the Ishopanishad is a Commixture of moral, mystical and metaphysical (ibid, Page 41)".

From the brief description given above about this Upanishad, any one can see how difficult it is to translate this Upanishad in a vernacular language, and brief out its exact meaning. Das Ganu translated it in Marathi 'Ovi'metre, verse by verse, but as he did not comprehend the gist or essence of the Upanishad, he was not satisfied with his performance. He therefore consulted some learned men regarding his doubts and difficulties and discussed with them at great length. They did not solve them nor did they give him any rational and satisfactory explanation. So Das Ganu was a little restless over this matter.

SadGuru only competent and Qualified to Explain

As we have seen, this Upanishad is the quintessence of the Vedas. It is the science of self-realization, it is the scythe or weapon which can rend asunder the bondage of life and death, and make us free. Therefore, he thought, that he who has himself attained self-realization, can only give him the true or correct interpretation of the Upanishad. When nobody could satisfy Das Ganu, he resolved to consult Sai Baba about this. When he got an opportunity to go to Shirdi, he saw Sai Baba, prostrated himself before Him, and mentioned his difficulties about the Ishavasya Upanishad and requested Him to give the correct solution. Sai Baba, blessed him and said- "You need not be anxious, there is no difficulty about the matter, the mind-servant of Kaka (Kakasaheb Dixit) will solve your doubts at Vile Parle, on your way home". The people who went present then and heard this, thought that Baba was joking and said, "How could an illiterate maid-servant solve the difficulties of this nature", but Das Garu thought otherwise. He was sure, that whatever Baba spoke, must come true, Baba's word was the decree of the Brahma (Almighty).

Kaka's Maid-Servant

On fully believing in Baba's words, he left Shirdi and came to Vile Parle (a suburb of Bombay), and stayed with Kakasaheb Dixit. There the next day, when Das Ganu was enjoying his morning nap (some say when he was engaged in worship), he heard a poor girl singing a beautiful song in clear and melodious tones. The subject matter of the song was a crimson coloured Sari, how nice it was, how fine was its embroidery, how beautiful were its ends and borders etc. He liked the song so much that he came out, and saw that it was being sung by a young girl, the sister of Namya, who was a servant of Kakasaheb. The girl was cleaning vessels, and had only a torn rag on her person. On seeing her impoverished condition, and her jovial temperament, Das Ganu felt pity for her and when Rao Bahadur M.V.Pradhan next day gave him a pair of dhotars, he requested him to give a sari to the poor little girl also. Rao Bahadur bought a good Chirdi (small Sari) and presented it to her. Like a starving person getting luckily good dishes to eat, her joy knew to bounds. Next day she wore the new Sari, and out of great joy and merriment, whirled, danced round and played `Fugadi' with other girls and excelled them all. The Day following, she kept the new Sari in her box at home and came with the old and torn rags, but she looked as merry as she did the previous day. On seeing this, Das Ganu's pity was transferred into admiration. He thought that the girl being poor had to wear a torn rag, but now she had a new Sari which she kept in reserve and putting on the old rag, strutted herself, showing no trace of sorrow or dejection. Thus he realized that all our feelings of pain and pleasure depend upon the attitude of our mind. On thinking deeply over this incident, he realized that a man ought to enjoy whatever God has bestowed on him in the firm conviction that He besets every thing, from behind and before, and on all sides and that whatever is bestowed on him by God must be for his good. In this particular case, the impoverished condition of the poor girl, her torn rag and the new Sari, the donor, the dance and the acceptance were all parts of the Lord and pervaded by Him. Hence, Das Ganu got a practical demonstration of the lesson of the Upanishad - the lesson of contentment with one's own lot in the belief that whatever happens, is ordained by God, and is ultimately good for us.

Unique Method of Teaching

From the above incident, the reader will see that Baba's method was unique and varied. Though Baba never left Shirdi, He sent some to Machhindragad, some to Kolhapur or Sholapur for practising sadhanas. To some He appeared in His usual form, to some He appeared in waking or dreaming state, day or night and satisfied their desires. It is impossible to describe all the methods, that Baba used in imparting instructions to His Bhaktas. In this particular case, He sent Das Ganu to Vile Parle, where he got his problem solved, through the maid-servant. To those, who say that it was not necessary to sent Das Ganu outside and that Baba could have personally taught him, we say that Baba followed the right or best course, or how else could Das Ganu would have learnt a great lesson, that the poor maid-servant and her Sari were pervaded by the Lord.



Now we close the Chapter with another beautiful extract about this Upanishad.
The Ethics of the Ishavasya Upanishad

"One of the main features of the Ishavasya Upanishad, is the ethical advice it offers, and it is interesting to note that the ethics of the Upanishad are definitely based upon the meta-physical position advanced in it. The very opening words of the Upanishad tell us that God pervades every thing. As a corollary from this metaphysical position, the ethical advice it offers is, that a man ought to enjoy whatever God bestows on him in the firm belief, that as He pervades everything, whatever is bestowed on him by God must be good. It follows naturally, that the Upanishad should forbid us from coveting another man's property. In fact, we are fittingly taught here a lesson of contentment with one's own lot in the belief that whatever happens, it is divinely ordained and it is hence good for us. Another moral advice is, that man must spend his life-time always in doing action, specially the karmas enjoined in the Shastras, in a mood of believing resignation to His will. Inactivity, according to this Upanishad, would be the canker of the soul. It is only when a man spends his life-time on doing actions in this manner, that he can hope to attain the ideal of Naishkarmya. Finally, the text goes on to say that a man, who sees all beings in the Self and sees the Self as existing in all beings; in fact, for whom all beings and everything that exists have becomes the Self - how can such a man suffer infatuation? What ground would such a man have for grief? Loathfulness, infatuation and grief verily proceed from our not being able to see the Atman in all things. But a man, who realizes the oneness of all things, for whom everything has become the Self, must ipso facto, cease to be affected by the common foibles of humanity. (Page 169-170 of The Creative Period by Messrs. Belvalkar and Ranade).

Bow to Shri Sai - Peace be to all


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