शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Wednesday, August 31, 2011

क्या भरोसा जिन्दगी का सांई नाम ले

ॐ सांई राम




क्या भरोसा जिन्दगी का सांई नाम ले

अच्छा रस्ता देख के तू मंजिल जान ले

लोभ मोह क्रोध रहते है सब यहाँ

मरता है शरीर लेकिन मरती नहीं आत्मा

क्या भरोसा जिन्दगी का सांई नाम ले

अच्छा रस्ता देख के तू मंजिल जान ले

होती है सुबह और आती है शाम

बोले मुख से क्यों ना तू सांई नाम है

क्या भरोसा जिन्दगी का सांई नाम ले

अच्छा रस्ता देख के तू मंजिल जान ले

माला फेरने से जीवन कट जायेगा

कर ले कर ले भक्ति तू मुक्ति पायेगा 

क्या भरोसा जिन्दगी का सांई नाम ले

अच्छा रस्ता देख के तू मंजिल जान ले

होगा तेरा फैसला सांई के सामने

डरता है तू क्यों सांई के नाम से

क्या भरोसा जिन्दगी का सांई नाम ले

अच्छा रस्ता देख के तू मंजिल जान ले


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 21 & ENGLISH CHAPTER ALSO

ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा

किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है



श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 21


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श्री. व्ही. एच. ठाकुर, अनंतराव पाटणकर और पंढ़रपुर के वकील की कथाएँ

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इस अध्याय में हेमाडपंत ने श्री विनायक हिश्चन्द्र ठाकुर, बी. ए., श्री. अनंतराव पाटणकर, पुणे निवासी तथा पंढरपुर के एक वकील की कथाओं का वर्णन किया है । ये सब कथाएँ अति मनोरंजक है । यदि इनका साराँश मननपूर्वक ग्रहण कर उन्हें आचरण में लाया जाय तो आध्यात्मिक पंथ पर पाठकगण अवश्य अग्रसर होंगें ।
प्रारम्भ

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यह एक साधारण-सा नियम है कि गत जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही हमें संतों का स्न्ध्य और उनकी कृपा प्राप्त होती है । उदाहरणार्थ हेमाडपंत स्वयं अपनी घटना प्रस्तुत करते है । वे अनेक वर्षों तक बम्बई के उपनगर बांद्रा के स्थानीय न्यायाधीश रहे । पीर मौलाना नामक एक मुस्लिम संत भी वहीं निवास करते थे । उनके दर्शनार्थ अनेक हिन्दू, पारसी और अन्य धर्मावलंबी वहाँ जाया करते थे । उनके मुजावर (पुजारी) ने हेमाडपंत से भी उलका दर्शन करने के लिये बहुत आग्रह किया, परन्तु किसी न किसी कारण वश उनकी भेंट उनसे न हो सकी । अनेक वर्षों के उपरान्त जब उनका शुभ काल आया, तब वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दरबार में जाकर स्थायी रुप से सम्मिलित हो गए । भाग्यहीनों को संतसमागम की प्राप्ति कैसे हो सकती है । केवल वे ही सौभाग्यशाली हे, जिन्हें ऐसा अवसर प्राप्त हो ।
संतों द्घारा लोकशिक्षा

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संतों द्घारा लोकशिक्षा का कार्य चिरकाल से ही इस विश्व में संपादित होता आया है । अनेकों संत भिन्न-भिन्न स्थानों पर किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिये स्वयं प्रगट होते है । यघपि उनका कार्यस्थल भिन्न होता है, परन्तु वे सब पूर्णतः एक ही है । वे सब उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की संचालनशक्ति के अंतर्गत एक ही लहर में कार्य करते है । उन्हें प्रत्येक के कार्य का परस्पर ज्ञान रहता है और आवश्यकतानुसार परस्पर कमी की पूर्ति करते है, जो निम्नलिखित घटना द्घारा स्पष्ट है ।
श्री. ठाकुर

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श्री. व्ही. एच. ठाकुर, बी. ए. रेव्हेन्यू विभाग में एक कर्मचारी थे । वे एक समय भूमिमापक दल के साथ कार्य करते हुए बेलगाँव के समीप वडगाँव नामक ग्राम में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक कानड़ी संत पुरुष (आप्पा) के दर्शन कर उनकी चरण वन्दना की । वे अपने भक्तों को निश्चलदासकृत विचार-सागर नामक ग्रंथ (जो वेदान्त के विषय में है) का भावार्थ समझा रहे थे । जब श्री. ठाकुर उनसे विदाई लेने लगे तो उन्होंने कहा, तुम्हें इस ग्रंथ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये और ऐसा करने से तुम्हारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायेंगी तथा जब कार्य करते-करते कालान्तर में तुम उत्तर दिशा में जाओगे तो सौभाग्यवश तुम्हारी एक महान् संत से भेंट होगी, जो मार्ग-पर्दर्शन कर तुम्हारे हृदय को शांति और सुख प्रदान करेंगे । बाद में उनका स्थानांतरण जुन्नर को हो गया, जहाँ कि नाणेघाट पार करके जाना पड़ता था । यह घाट अधिक गहरा और पार करने में कठिन था । इसलिये उन्हें भैंसे की सवारी कर घाट पार करना पड़ा, जो उन्हें अधिक असुविधाजनक तथा कष्टकर प्रतीत हुआ । इसके पश्चात् ही उनका स्थानांतरण कल्याण में एक उच्च पद पर हो गया और वहाँ उनका नानासाहेब चाँदोरकर से परिचय हो गया । उनके द्घारा उन्हें श्री साईबाबा के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात हुआ और उन्हें उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई । दूसरे दिन ही नानासाहेब शिरडी को प्रस्थान कर रहे थे । उन्होंने श्री. ठाकुर से भी अपने साथ चलने का आग्रह किया । ठाणे के दीवानी-न्यायालय में एक मुकदमे के संबंध में उनकी उपस्थिति आवश्यक होने के कारण वे उनके साथ न जा सके । इस कारण नानासाहेब अकेले ही रवाना हो गये । ठाणे पहुँचने पर मुकदमे की तारीख आगे के लिए बढ़ गई । इसलिए उन्हें ज्ञात हुआ कि नानासाहेब पिछले दिन ही यहाँ से चले गये है । वे अपने कुछ मित्रों के साथ, जो उन्हें वहीं मिल गये थे, श्री साईबाबा के दर्शन को गए । उन्होंने बाबा के दर्शन किये और उनके चरणकमलों की आराधना कर अत्यन्त हर्षित हुए । उन्हें रोमांच हो आया और उनकी आँखों से अश्रुधाराएँ प्रवाहित होने लगी । त्रिकालदर्शी बाबा ने उनसे कहा – इस स्थान का मार्ग इतना सुमा नही, जितना कि कानड़ी संत अप्पा के उपदेश या नाणेघाट पर भैंसे की सवारी थी । आध्यात्मिक पथ पर चलने के लिये तुम्हें घोर परिश्रम करना पडेगा, क्योंकि वह अत्यन्त कठिन पथ है । जब श्री. ठाकुर ने हेतुगर्भ शब्द सुने, जिनका अर्थ उनके अतिरिक्त और कोई न जानता था तो उनके हर्ष का पारावार न रहा और उन्हें कानड़ी संत के वचनों की स्मृति हो आई । तब उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर बाबा के चरणों पर अपना मस्तक रखा और उनसे प्रार्थना की कि प्रभु, मुझ पर कृपा करो और इस अनाथ को अपने चरण कमलों की शीतलछाया में स्थान दो । तब बाबा बोले, जो कुछ अप्पा ने कहा, वह सत्य था । उसका अभ्यास कर उसके अनुसार ही तुम्हें आचरण करना चाहिये । व्यर्थ बैठने से कुछ लाभ न होगा । जो कुछ तुम पठन करते हो, उसको आचरण में भी लाओ, अन्यथा उसका उपयोग ही क्या । गुरु कृपा के बिना ग्रंथावलोकन तथा आत्मानुभूति निरर्थक ही है । श्री. ठाकुर ने अभी तक केवल विचार सागर ग्रन्थ में सैद्घांतिक प्रकरण ही पढ़ा था, परन्तु उसकी प्रत्यक्ष व्यवहार प्रणाली तो उन्हें शिरडी में ही ज्ञात हुई । एक दूसरी कथा भी इस सत्य का और अधिक सशक्त प्रमाण है ।
श्री. अनंतराव पाटणकर

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पूना के एक महाशय, श्री. अनंतराव पाटणकर श्री साईबाबा के दर्शनों के इच्छुक थे । उन्होंने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये । दर्शनों से उनके नेत्र शीतल हो गये और वे अति प्रसन्न हुए । उन्होंने बाबा के श्री चरण छुए और यथायोग्य पूजन करने के उपरान्त बोले, मैंने बहुत कुछ पठन किया । वेद, वेदान्त और उपनिषदों का भी अध्ययन किया तथा अन्य पुराण भी श्रवण किये, फिर भी मुझे शान्ति न मिल सकी । इसलिये मेरा पठन व्यर्थ ही सिदृ हुआ । एक निरा अज्ञानी भक्त मुझसे कहीं श्रेष्ठ है । जब तक मन को शांति नहीं मिलती, तब तक ग्रन्थावलोकन व्यर्थ ही है । मैंने ऐसा सुना है कि आप केवल अपनी दृष्टि मात्र से और विनोदपूर्ण वचनों द्घारा दूसरों के मन को सरलतापूर्वक शान्ति प्रदान कर देते है । यही सुनकर मैं भी यहाँ आया हूँ । कृपा कर मुझ दास को भी आर्शीवाद दीजिये ।
ततब बाबा ने निम्नलिखित कथा कही - घोड़ी की लीद के लौ गोले (नवधा भक्ति) ...
एक समय एक सौदागर यहाँ आया । उसके सम्मुख ही एक घोड़ी ने लीद की । जिज्ञासु सौदागर ने अपनी धोती का एक छोर बिछाकर उसमें लीद के नौ गोले रख लिये और इस प्रकार उसके चित्त को शांति पत्राप्त हुई । श्री. पाटणकर इस कथा का कुछ भी अर्थ न समझ सके । इसलिये उन्होंने श्री. गणेश दामोदर उपनाम दादा केलकर से अर्थ समझाने की प्रार्थना की और पूछा कि बाबा के कहने का अभिप्राय क्या है । वे बोले कि जो कुछ बाबा कहते है, उसे मैं स्वयं भी अच्छी तरह नहीं समझ सकता, परंतु उनकी प्रेरणा से ही मैं जो कुछ समझ सका हूँ, वह तुम से कहता हूँ । घोड़ी है ईश-कृपा, और नौ एकत्रित गोले है नवविधा भक्ति-यथा –
1. श्रवण

2. कीर्तन

3. नामस्मरण

4. पादसेवन

5. अर्चन

6. वन्दन

7. दास्य या दासता

8. सख्यता और

9. आत्मनिवेदन ।
ये भक्ति के नौ प्रकार है । इनमें से यदि एक को भी सत्यता से कार्यरुप में लाया जाय तो भगववान श्रीहरि अति प्रसन्न होकर भक्त के घर प्रगट हो जायेंगे । समस्त साधनाये अर्थात् जप, तप, योगाभ्यास तथा वेदों के पठन-पाठन में जब तक भक्ति का समपुट न हो, बिल्कुल शुष्क ही है । वेदज्ञानी या व्रहमज्ञानी की कीर्ति भक्तिभाव के अभाव में निरर्थक है । आवश्यकता है तो केवल पूर्ण भक्ति की । अपने को भी उसी सौदागर के समान ही जानकर और व्यग्रता तथा उत्सुकतापूर्वक सत्य की खोज कर नौ प्रकार की भक्ति को प्राप्त करो । तब कहीं तुम्हें दृढ़ता तथा मानसिक शांति प्राप्त होगी । दूसरे दिन जब श्री. पाटणकर बाबा को प्रणाम करने गये तो बाबा ने पूछा कि क्या तुमने लीद के नौ गोले एकत्रित किये । उन्होंने कहा कि मैं अनाश्रित हूँ । आपकी कृपा के बिना उन्हें सरलतापूर्वक एकत्रित करना संभव नहीं है । बाबा ने उन्हें आर्शीवाद देकर सांत्वना दी कि तुम्हें सुख और शांति प्राप्त हो जायेगी, जिसे सुनकर श्री. पाटणकर के हर्षे का पारावार न रहा ।
पंढ़रपुर के वकील

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भक्तों के दोष दूर कर, उन्हें उचित पथ पर ला देने की बाबा की त्रिकालज्ञता की एक छोटी-सी कथ का वर्णन कर इस अध्याय को समाप्त करेंगे । एक समय पंढरपुर से एक वकील शिरडी आये । उन्होंने बाबा के दर्शन कर उन्हं प्रणाम किया तथा कुछ दक्षिणा भेंट देकर एक कोने में बैठ वार्तालाप सुनने लगे । बाबा उनकी ओर देख कर कहने लगे कि लोग कितने धूर्त है, जो यहाँ आकर चरणों पर गिरते और दक्षिणा देते है, परंतु भीतर से पीठ पीछे गालियाँ देते रहते है । कितने आश्चर्य की बात है न । यह पगड़ी वकील के सिर पर ठीक बैठी और उन्हें उसे पहननी पड़ी । कोई भी इन शब्दों का अर्थ न समझ सका । परन्तु वकील साहब इसका गूढ़ार्थ समझ गये, फिर भी वे नतशिर बैठे ही रहे । वाड़े को लौटकर वकील साहब ने काकासाहेब दीक्षित को बतलाया कि बाबा ने जो कुछ उदाहरण दिया और जो मेरी ही ओर लक्ष्य कर कहा गया था, वह सत्य है । वह केवल चेतावनी ही थी कि मुझे किसी की निन्दा न करनी चाहिए । एक समय जब उपन्यायाधीश श्री. नूलकर स्वास्थ्य लाभ करने के लिये पंढरपुर से शिरडी आकर ठहरे तो बताररुम में उनके संबंध में चर्चा हो रही थी । विवाद का विषय था कि जीस व्याधि से उपन्यायाधीश अस्वस्थ है, क्या बिना औषधि सेवन किये केवल साईबाबा की शरण में जाने से ही उससे छुटकारा पाना सम्भव है । और क्या श्री. नूलकर सदृश एक शिक्षित व्यक्ति को इस मार्ग का अवलम्बन करना उचित है । उस समय नूलकर का और साथ ही श्री साईबाबा का भी बहुत उपहास किया गया । मैंने भी इस आलोचना में हाथ बँटाया था । श्री साईबाबा ने मेरे उसी दूषित आचरण पर प्रकाश डाला है । यह मेरे लिये उपहास नही, वरन् एक उपकार है, जो केवल परामर्श है कि मुझे किसी की निनदा न करनी चाहिए और न ही दूसरों के कार्यों में विघ्न डालना चाहिए । शिरडी और पंढरपुर में लगभग 300 मील का अन्तर है । फिर भी बाबा ने अपनी सर्वज्ञता द्घारा जान लिया कि बाररुम में क्या चल रहा था । मार्ग में आने वाली नदियाँ, जंगल और पहाड़ उनकी सर्वज्ञता के लिये रोड़ा न थे । वे सबके हृदय की गुहृ बात जान लेते थे और उनसे कुछ छिपा न था । समीपस्थ या दूरस्थ प्रत्येक वस्तु उन्हें दिन के प्रकाश के समान जाज्वल्यमान थी तथा उनकी सर्वव्यापक दृष्टि से ओझल न थी । इस घटना से वकीलसाहब को शिक्षा मिलीकि कभी किसी का छिद्रान्वेषण एवं निंदा नहीं करनी चाहिए । यह कथा केवल वकीलसाहव को ही नहीं, वरन सबको शिक्षाप्रद है । श्री साईबाबा की महानता कोई न आँक सका और न ही उनकी अदभुत लीलाओं का अंत ही पा सका । उनकी जीवनी भी तदनुरुप ही है, क्योंकि वे परब्रहास्वरुप है ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

 

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Chapter 21

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Stories of (1) V.H. Thakur (2) Anantrao Patankar and (3) Pandharpur Pleader.
In this Chapter, Hemadpant relates the stories of Vinayak Harishchandra Thakur, B.A., Anantrao Patankar of Poona, and a pleader from Pandharpur. All these stories are very interesting which if very carefully read and grasped, will lead the readers on to the spiritual path.
Preliminary
It is a general rule, that it is our good luck in the form of accumulation of merits in past births, that enables us to seek the company of Saints and profit thereby. In illustration of this rule, Hemadpant gives his own instance. He was a resident Magistrate of Bandra, A suburb of Bombay, for many years. A famour Mahomedan Saint named Pir Moulana was living there and many Hindus, Parsis and many others who followed different religion used to go to him and take his darshan. His Mujavar (priest) by name Inus pressed Hemadpant many a time, night and day, for going to see him, but for some reason or other he was not able to see him. After many years his turn came and he was called to Shirdi where he was permanently enlisted in Sai Baba's Darbar. Unfortunate fellows do not get this contact of the Saints. It is only the fortunate ones that get it.
Institution of Saints
There have been institutions of Saints in this world, from time immemorial. Various Saints appear (incarnate) themselves in various places to carry out the missions allotted to them, but though they work in different places, they are, as it were, one. They work in unison under the common authority of the Almighty Lord and know full well what each of them is doing in his place, and supplement his work where necessary. An instance illustrating this is given below.
Mr. Thakur
Mr. V.H.Thakur, B.A., was a clerk in the Revenue Department and he once came to a town named Vadgaum near Belgaum (S.M. Country) along with a Survey party. There he saw a Kanarese Saint (Appa) and bowed before him. The Saint was explaining a portion from the book "Vichar-Sagar" of Nischaldas (a standard work on Vedanta) to the audience. When Thakur was taking his leave to go, he said to him, "you should study this book, and if you do so, your desires will be fulfilled, and when you go to the North in the discharge of your duties in future, you will come across a great Saint by your good luck, and then he will show you the future path, and give rest to your mind and make you happy".
Then, he was transferred to Junnar, where he had to go by crossing Nhane Ghat. This Ghat was very steep and impassible, and no other conveyance, than a buffalo was of use in crossing it. So he had to take a buffalo-ride through the Ghat, which inconvenienced and pained him much. Thereafter, he was transferred to Kalyan on higher post, and there he became acquainted with Nanasaheb Chandorkar. He heard much about Sai Baba from him and wished to see Him. Next day, Nanasaheb had to go to Shirdi, and he asked Thakur to accompany him. He could not do so as he had to attend the
Thana Civil Court
for a civil case. So Nanasaheb went alone. Thakur went to Thana, but there the case was postponed. Then, he repented for not accompanying Nanasaheb. Still he left for Shirdi and when he went there, he found that Nanasaheb had left the place the previous day. Some of his other friends, whom he met there, took him to Baba. He saw Baba, fell at His Feet and was overjoyed. His eyes were full of tears of joy and his hair stood on end. Then after a while the omniscient Baba said to him - "The path of this place is not so easy as the teaching of the Kanarese Saint Appa or even as the buffalo-ride in the Nhane Ghat. In this spiritual path, you have to put in your best exertion as it is very difficult". When Thakur heard these significant signs and words, which none else than he knew, he was overwhelmed with joy. He came to know, that the word of the Kanarese Saint had turned true. Then joining both hands and placing his head on Baba's Feet, he prayed that he should be a accepted and blessed. Then Baba said - "What Appa told you was all right, but these things have to be practised and lived. Mere reading won't do. You have to think and carry out what you read, otherwise, it is of no use. Mere book-learning, without the grace of the Guru, and self-realization is of no avail". The theoretical portion was read from the work `Vichar Sagar' by Thakur, but the practical way was shown to him at Shirdi. Another story given below will bring out this truth more forcibly.
Anantrao Patankar
One gentleman from Poona, by name Anantrao Patankar wished to see Baba. He came to Shirdi, and took Baba's darshan. His eyes were appeased, he was much pleased. He fell at Baba's Feet; and after performing proper worship said to Baba - "I have read a lot, studied Vedas, Vedants and Upanishads and heard all the Purnas, but still I have not got any peace of mind; so I think that all my reading was useless. Simple ignorant devout persons are better than myself. Unless the mind becomes calm, all book-learning is of no avail. I have heard, from many people, that you easily give peace of mind to so many people by your mere glance, and playful word; so I have come here; please take pity on me and bless me". Then Baba told him a parable, which was as follows:-
Parable of Nine Balls of Stool (Nava-vidha Bhakti)
"Once a Soudagar (merchant) came here. Before him a mare passed her stool (nine balls of stool). The merchant, intent on his quest, spread the end of his dhotar and gathered all the nine balls in it, and thus he got concentration (peace) of mind".
Mr. Patankar could not make out the meaning of this story; so he asked Ganesh Damodar, alias Dada Kelkar, "What does Baba mean by this?" He replied - "I too do not know all that Baba says and means, but at His inspiration I say, what I come to know. The mare is God's grace and the nine balls excreted are the nine forms or types of Bhakti, viz., (1) Shravana (Hearing); (2) Kirtana (Praying); (3) Smarana (Remembering); (4) Padasevana (resorting to the feet); (5) Archana (Worship); (6) Namaskara (Bowing); (7) Dasya (Service); (8) Sakhyatva (Friendship); (9) Atmanivedana (surrender of the self). These are the nine types of Bhakti. If any of these is faithfully followed, Lord Hari will be pleased, and manifest Himself in the home of the devotee. All the sadhanas, viz. Japa (vocal worship), Tapa (penance), Yoga practice and studying the scriptures and expounding them are quite useless unless they are accompanied by Bhakti, i.e., devotion. Knowledge of the Vedas, or fame as a great Jnani, and mere formal Bhajan (worship) are of no avail. What is wanted is Loving Devotion. Consider yourself as the merchant or seeker after the truth and be anxious and eager like him to collect or cultivate the nine types of devotion. Then you will attain stability and peace of mind".


Next day, when Patankar went to Baba for saluation, he was asked whether he collected the 'nine balls of stool'. Then he said that he, being a poor fellow, should first be graced by Baba, and then they will be easily collected. Then Baba blessed and comforted him, saying that he would attain peace and welfare. After hearing this, Patankar became overjoyed and happy.
The Pandharpur Pleader
We shall close this Chapter with short story showing Baba's omniscience and His using it for correcting people and setting them on the right path. Once a pleader from Pandharpur came to Shirdi, went to the Masjid, saw Sai Baba, fell at His Feet and, without being asked, offered some Dakshina, and sat in a corner eager to hear the talk, that was going on. Then Baba turned His face towards him and said - "How cunning the people are! They fall at the feet, offer Dakshina, but inwardly give abuses behind the back. Is not this wonderful?" This cap (remark) fitted the pleader and he had to wear (take) it. None understood the remark. The pleader grasped it, but kept silent. When they returned to the Wada, the pleader said to Kakasaheb Dixit - "What Baba remarked was perfectly right. The dart (remark) was aimed at me, it was a hint to me, that I should not indulge in reviling or scandalizing others (calling by names). When the subjudge or munsiff of Pandharput (Mr.Noolkar) came and stayed here for the improvement of his health, a discussion about this matter was going on in the bar-room at Pandharpur (as it ever happens in many a bar-room). It was said or discussed there whether the ailments, from which the sub-judge suffered were, ever likely to be got rid of without medicines, by merely going after Sai Baba, and whether it was proper for an educated man, like the sub-judge, to have recourse to such methods. The sub-judge was taken to task, i.e. he was ciritisied, as also Sai Baba. I also took some part in this affair; and now Sai Baba showed the impropriety of my conduct. This is not a rebuke to me, but a favour, an advice that I should not indulge in any scandal or slander of others; and not interfere unnecessarity in others' affairs".
Shirdi is about 100 Koss (Koss=3 miles) distant from Pandharpur; still Baba by His omniscience knew what transpired there in the bar-room. The intervening places -- rivers, jungles and mountains - were not a bar to His all-perceiving sight and He could see or read the hearts of all. There was nothing secret or veiled from Him. Everything, far or near, was plain and clear to Him as broad as daylight. Let a man be far or near, he cannot avoid the all-pervading gaze of Sai Baba. From this incident, the pleader took the lesson that he should never speak ill of others, nor unnecessarily criticize them. This his evil tendency was completely got rid of, and he was set on the right path.
Though the story refers to a pleader, still it is applicable to all. All should, therefore, take this lesson to heart and profit thereby.
Sai Baba's greatness is unfathomable, so are His wonderful Leelas. His life is also such; for He is Para-Brahman (Lord God) incarnate.


Bow to Shri Sai - Peace be to all

Tuesday, August 30, 2011

!! ईद मुबारक !!

!! ईद मुबारक आयी है ईद !!




!! सबका मालिक एक !!


On this special day, the Muslims indulge in traditional activities aside from celebrating with their dear ones.




The Eid Ul Ftr is considered as a national holiday in India. People gather at the Jama Masjid mosque in New Delhi to offer their prayers to Allah. On this special day, the Muslims try out different recipes including sweet delicacies. Most of them indulge in Eid Ul Fitr celebrations by preparing a special dish – the ‘Siwaiyaan’. This recipe is actually made of toasted sweet vermicelli noodles, dried fruits, and milk. This is the day when the Muslims send Eid Ul Fitr cards to their loved ones and convey their best wishes on this festive occasion.



You may celebrate the Eid Ul Fitr by shopping around for new clothes. Go for a gift exchange with your family members and friends.


An important part of Eid Ul Fitr celebrations is to express warm wishes to your neighbors and invite them for a meal. An interesting idea is to celebrate the Eid Ul Fitr with poor children.


Monday, August 29, 2011

कोई कहे सांई कृष्ण कन्हैया....

ॐ सांई राम






श्री सच्चरित्र सन्देश 




"जो सदैव  दुष्कर्मों में ही व्यस्त रहता है,जिन्हें अनुचित्त माना जाता है और इसलिये श्रुतियों ने भी उन्हें दण्डनीय ठहराया है, ऐसे व्यक्ति का चित्त अशान्त रहता है ||
 

He who indulges in low, forbidden acts and stoop down to lowest behaviour, unacceptable to the shrutis and smritis, and who is permanently leading that kind of life can never have equanimity of mind.
 

जिसे उचित-अनुचित का विचार है,

   वही वास्तव में जीवंत है |
 




कोई कहे सांई कृष्ण कन्हैया,
कोई कहे सांई राम रमैया

कोई कहे अल्लाह ताला,
मेरा सांई है रखवाला |


शिरडी में चमत्कार दिखाये,
मन्दिर में शिव पूजन जाये |

मस्जिद में कुरान  पढ़ाये,
ऐसा है वो निराला,

मेरा सांई है रखवाला |


सारे जग से सुन्दर सांई,
अठारह कला सम्पूर्ण सांई |

जिसने सबकी बिगड़ी बनायी,
मेरा शिरडी वाला,
मेरा सांई है रखवाला |


सारा जग है सांई दीवाना,
सबने इनको ईश्वर माना |

शिरडी जा के फूल चढ़ाना,
ऐसा है वो निराला,

मेरा सांई है रखवाला |


कोई कहे सांई कृष्ण कन्हैया,
कोई कहे सांई राम रमैया |

कोई कहे अल्लाह ताला,
मेरा सांई है रखवाला |


Sunday, August 28, 2011

हम सब का सांई भगवान है तूं

ॐ सांई राम


श्री राम के फकीरी भेष की पहचान है तूं
इसाई भी तेरे चरणों में झुकते है

गुरू-नानक की आन है तूं
अल्लाह पाक की शानों-शौकत वाले

"ऐ फकीर बादशाह"
हम सब का सांई भगवान है तूं


जय सांई राम






सच्चे दिल से करो फ़रियाद तो

दुनिया की हर एक चीज मिल जाती

जिस पर साईं की रहमत जो जाय

उसे काँटों में भी ख़ुशी मिल जाती


साईं नाम मुद मंगलकारी,

विघ्न हरे सब पातकहारी,

साईं नाम है सबसे ऊंचा,

नाम शक्ती शुभ ज्ञान समूचा




|| श्री सच्चीदानंद समर्थ सदगुरू सांईनाथ महाराज की जय ||


ॐ सांई राम

ॐ सांई राम





Sai leela shravan hi

Sabse sugam upaaye

Man-Mandir Sai base

Moksh dwaar khul jaye.

Om Shree Sai Nathaye Namah..





Man chanchalta chhorkar

Aalas door bhagaye

Aasakti indriye taj

Sai leela gaaye.

Om Sai Ram to all...

Friday, August 26, 2011

ॐ सांई राम



Main hi sab mein vyapt hu

Shree Sai samjhaye

Jad chetan jo bhi rahe

Sabme mujhko paye.

Om Sai Ram to all...



Sai sabhi swaroop mein

Maya badi apaar

Jeewan de paalan kare

Aur kare sanhaar.

Om Shree Sai Nathaye Namah..

Thursday, August 25, 2011

साईं सच्चरित्र सार

ॐ सांई राम
 साईं सच्चरित्र सार
जिस तरह कीड़ा कपड़ो को कुतर डालता है,
उसी तरह इर्ष्या मनुष्य को


क्रोध मुर्खता से शुरू होता है और पश्चाताप पर खत्म होता है


नम्रता से देवता भी मनुष्य के वश में हो जाते है


सम्पन्नता मित्रता बढाती है, विपदा उनकी परख करती है


एक बार निकले बोल वापस नहीं आ सकते, इसलिए सोच कर बोलो


तलवार की धार उतनी तेज नहीं होती, जीतनी जिव्हा की


धीरज के सामने भयंकर संकट भी धुएं के बदलो की तरह उड़ जाते है


तीन सचे मित्र है - बूढी पत्नी, पुराना कुत्ता और पास का धन


मनुष्य के तीन सद्गुण है - आशा, विश्वास और दान


घर में मेल होना पृथ्वी पर स्वर्ग के सामान है


मनुष्य की महत्ता उसके कपड़ो से नहीं वरण उसके आचरण से जानी जाती है


दुसरो के हित के लिए अपने सुख का भी त्याग करना सच्ची सेवा है


भूत से प्रेरणा लेकर वर्त्तमान में भविष्य का चिंतन करना चाहिए




जब तुम किसी की सेवा करो तब उसकी त्रुटियों को देख कर उससे घृणा नहीं करनी चाहिए


मनुष्य के रूप में परमात्मा सदा हमारे साथ सामने है, उनकी सेवा करो


अँधा वह नहीं जिसकी आंखे नहीं है, अँधा वह है जो अपने दोषों को ढकता है


चिंता से रूप, बल और ज्ञान का नाश होता है


दुसरो की गिराने की कोशिश में तुम स्वयं गिर जाओगे


प्रेम मनुष्य को अपनी तरफ खींचने वाला चुम्बक है


Wednesday, August 24, 2011

साई साई देवा साई |

ॐ सांई राम




साई साई बाबा साई |
साई शक्ती बाबा साई ||
साई भक्ती बाबा साई |
साई जीवन बाबा साई ||

साई मुक्ती बाबा साई |
साई दर्पण बाबा साई ||
साई अर्पण बाबा साई ||
साई सुमिरन बाबा साई ||

साई चिंतन बाबा साई |
साई मंथन बाबा साई ||
साई तनमन बाबा साई |
साई सत्यम बाबा साई |

साई शिवम बाबा साई |
साई सुंदरम्‌ बाबा साई ||
साई साई बाबा साई |
साई साई सत्य साई ||

साई साई शक्ती साई |
साई साई बाबा साई ||
साई साई राम साई |
साई साई देवा साई |

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 20 & ENGLISH CHAPTER ALSO

ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा

किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है



श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 20

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विलक्षण समाधान . श्री काकासाहेब की नौकरानी द्घारा श्री दासगणू की समस्या का समाधान ।

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श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्घारा श्री. दासगणू की समस्या किस प्रकार हल हुई, इसका वर्णन हेमाडपंत ने इस अध्याय में किया है ।

प्रारम्भ

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श्री साई मूलतः निराकार थे, परन्तु भक्तों के प्रेमवश ही वे साककार रुप में प्रगट हुए । माया रुपी अभिनेत्री की सहायता से इस विश्व की वृहत् नाट्यशाला में उन्होंने एक महान् अभिनेता के सदृश अभिनय किया । आओ, श्री साईबाबा का ध्यान व स्मरण करें और फिर शिरडी चलकर ध्यानपूर्वक मध्याहृ की आरती के पश्चात का कार्यक्रम देखें । जब आरती समाप्त हो गई, तब श्री साईबाबा ने मसजिद से बाहर आकर एक किनारे खड़े होकर बड़ी करुणा तथा प्रेमपूर्वक भक्तों को उदी वितरण की । भक्त गण भी उनके समक्ष खड़े होकर उनकी ओर निहारकर चरण छूते और उदी वृष्टि का आनंद लेते थे । बाबा दोनों हाथों से भक्तों को उदी देते और अपने हाथ से उनके मस्तक पर उदी का टीका लगाते थे । बाबा के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम था । वे भक्तों को प्रेम से सम्बोधित करते, ओ भाऊ । अब जाओ, भोजन करो । इसी प्रकार वे प्रत्येक भक्त से सम्भाषण करते और उन्हें घर लौटाया करते थे । आह । क्या थे वे दिन, जो अस्त हुए तो ऐसे हुए कि फिर इस जीवन में कभी न मिलें । यदि तुम कल्पना करो तो अभी भी उस आनन्द का अनुभव कर सकते हो । अब हम साई की आनन्दमयी मूर्ति का ध्यान कर नम्रता, प्रेम और आदरपूर्वक उनकी चरणवन्दना कर इस अध्याय की कथा आरम्भ करते है ।

ईशोपनिषद्

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एक समय श्री दासगणू ने ईशोपनिषद् पर टीका (ईशावास्य-भावार्थबोधिनी) लिखना प्रारम्भ किया । वर्णन करने से पूर्व इस उपनिषद का संक्षिप्त परिचय भी देना आवश्यक है । इसमें बैदिक संहिता के मंत्रों का समावेश होने के कारण इसे मन्त्रोपनिषद् भी कहते है और साथ ही इसमें यजुर्वेद के अंतिम (40वें) अध्याय का अंश सम्मलित होने के कारण यह वाजसनेयी (यदुः) संहितोशनिषद् के नाम से भी प्रसिदृ है । वैदिक संहिता का समावेश होने के कारण इसे उन अन्य उपनिषदों की अपेक्षा श्रेष्ठकर माना जाता है, जो कि ब्राहमण और आरण्यक (अर्थात् मन्त्र और धर्म) इन विषयों के विवरणात्मक ग्रंथ की कोटि में आते है । इतना ही नही, अन्य उपनिषद् तो केवन ईशोपनिषद् में वर्णित गूढ़ तत्वों पर ही आधारित टीकायें है । पण्डित सातवलेकर द्घारा रचित वृहदारण्यक उपनिषद् एवं ईशोपनिषद् की टीका प्रचलित टीकाओं में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है । प्रोफेसर आर. डी. रानाडे का कथन है कि ईशोपनिषद् एक लघु उपनिषद् होते हुए भी, उसमें अनेक विषयों का समावेश हे, जो एक असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है । इसमें केवल 18 श्लोकों में ही आत्मतत्ववर्णन, एक आदर्श संत की जीवनी, जो आकर्षण और कष्टों के संसर्ग में भी अचल रहता है, कर्मयोग के सिद्घान्तों का प्रतिबिम्ब, जिसका बाद में सूत्रीकरण किया गया, तथा ज्ञान और कर्त्व्य के पोषक तत्वों का वर्णन है, जिसके अन्त में आदर्श, चामत्कारिक और आत्मासंबंधी गूढ़ तत्वों का संग्रह है । इस उपनिषद् के संबंध में संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि इसका प्राकृत भाषा में वास्तविक अर्थ सहित अनुवाद करना कितना दुष्कर कार्य है । श्री. दासगणू ने ओवी छन्दों में अनुवाद तो किया, परन्तु उसके सार त्तत्व को ग्रतहण न कर सकने के कारण उन्हें अपने कार्य से सन्तोष न हुआ । इस प्रकार असंतुष्ट होकर उन्होंने कई अन्य विद्घानों से शंका-निवारणार्थ परामर्श और वादविवाद भी अधिक किया, परन्तु समस्या पूर्ववत् जटिल ही बनी रही और सन्तोषजनक अर्थ करने में कोई भी सफल न हो सका । इसी कारण श्री. दासगणू बहुत ही असंतुष्ट हुए ।

केवल सदगुरु ही अर्थ समझाने में समर्थ

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यह उपनिषद वेदों का महान् विवरणात्मक सार है । इस अस्त्र के प्रयोग से जन्म-मरण का बन्धन छिन्न भिन्न हो जाता है और मुक्ति की प्राप्ति होती है । अतः श्री. दासगणू को विचार आया कि जिसे आत्मसाक्षात्कार हो चुका हो, केवल वही इस उपनिषद् का वास्तविक अर्थ कर सकता है । जब कोई भी उनकी शंका का निवारण न कर सका तो उन्होंने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । जब उन्हें शिरडी जाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बाबा से भेंट की और चरण-वन्दना करने के पश्चात् उपनिषद् में आई हुई कठिनाइयाँ उलके समक्ष रखकर उनसे हल करने की प्रार्थना की । श्री साईबाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । उसमें कठिनाई ही क्या है । जब तुम लौटोगे तो विलेपार्ला में काका दीक्षित की नौकरानी तुम्हारी शंका का निवारण कर देगी । उपस्थित लोगों ने जब ये वचन सुने तो वे सोचने लगे कि बाबा केवल विनोद ही कर रहे है और कहने लगे कि क्या एक अशिक्षित नौकरानी भी ऐसी जटिल समस्या हल कर सकती है । परन्तु दासगणू को तो पूर्ण विश्वास था कि बाबा के वचन कभी असत्य नहीं हो सकते, क्योंकि बाबा के वचन तो साक्षात् ब्रहमवाक्य ही है ।

काका की नौकरानी

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बाबा के वचनों में पूर्ण विश्वास कर वे शिरडी से विलेपार्ला (बम्बई के उपनगर) में पहुँचकर काका दीक्षित के यहाँ ठहरे । दूसरे दिन दासगणू सुबह मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें एक निर्धन बालिका के सुन्दर गीत का स्पष्ट और मधुर स्वर सुनाई पड़ा । गीत का मुख्य विषय था – एक लाल रंग की साड़ी । वह कितनी सुन्दर थी, उसका जरी का आँचल कितना बढ़िया था, उसके छोर और किनारे कितनी सुन्दर थी, इत्यादि । उन्हें वह गीत अति रुचिकर प्रतीत हुआ । इस कारण उन्हो्ने बाहर आकर देखा कि यह गीत एक बालिका - नाम्या की बहन - जो काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी है – गा रही है । बालिका बर्तन माँज रही थी और केवल एक फटे कपड़े से तन ढँकें हुए थी । इतनी दरिद्री-परिस्थिति में भी उसकी प्रसन्न-मुद्रा देखकर श्री. दासगणू को दया आ गई और दूसरे दिन श्री. दासगणू ने श्री. एम्. व्ही. प्रधान से उस निर्धन बालिका को एक उत्म साड़ी देने की प्रार्थना की । जब रावबहादुर एम. व्ही. प्रधान ने उस बालिका को एक धोती का जोड़ा दिया, तब एक क्षुधापीड़ित व्यक्ति को जैसे भाग्यवश मधुर भोजन प्राप्त होने पर प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा । दूसरे दिन उसने नई साड़ी पहनी और अत्यन्त हर्षित होकर सानन्द नाचने-कूदने लगी एवं अन्य बालिकाओं के साथ वह फुगड़ी खेलने में मग्न रही । अगले दिन उसने नई साड़ी सँभाल कर सन्दूक में रख दी और पूर्ववत् फटे पुराने कपड़े पहनकर आई, परन्तु फिर भी पिछले दिन के समान ही प्रसन्न दिखाई दी । यह देखकर श्री. दासगणू की दया आश्चर्य में परिणत हो गई । उनकी ऐसी धारणा थी कि निर्धन होने के ही कारण उसे फटे चिथड़े कपड़े पहनने पड़ते है, परन्तु अब तो उसके पास नई साड़ी थी, जिसे उसने सँभाल कर रख लिया और फटे कपडे पहनकर भी उसी गर्व और आनन्द का अनुभव करती रही । उसके मुखपर दुःख या निराशा का कोई निशान भी नही रहा । इस प्रकार उन्हें अनुभव हुआ कि दुःख और सुख का अनुभव केवल मानसिक स्थिति पर निर्भर है । इस घटना पर गूढ़ विचार करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि भगवान ने जो कुछ ददिया है, उसी में समाधान वृत्ति रखननी चाहिये और यह निश्चयपूर्वक समझना चाहिये कि वह सब चराचर मेंव्याप्त है और जो कुछ भी स्थिति उसकी दया से अपने को प्राप्त है, वह अपने लिये अवश्य ही लाभप्रद होगी । इस विशिष्ट घटना में बालिका की निर्धनावस्था, उसके पटे पुराने कपड़े और नई साड़ी देने वाला तथा उसकी स्वीकृति देने वाला यह सब ईश्वर दद्घारा ही प्रेरित कार्य था । श्री. दासगणू को उपनिषद् के पाठ की प्रत्यक्ष शिक्षा मिल गई अर्थात् जो कुछ अपने पास है, उसी में समाधानवृत्ति माननी चाहिए । सार यह है कि जो कुछ होता है, सब उसी की इच्छा से नियंत्रित है, अतः उसी में संतुष्ट रहने में हमारा कल्याण है ।

अद्घितीय शिक्षापद्घति

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उपयुक्त घटना से पाठकों को विदित होगा कि बाबा की पदृति अद्घितीय और अपूर्व थी । बाबा शिरडी के बाहर कभी नहीं गये, परन्तु फिर भी उन्होंने किसी को मच्छिन्द्रगढ़, किसी को कोल्हापुर या सोलापुर साधनाओं के लिये भेजा । किसी को दिन में ौर किसी को रात्रि में दर्शन दिये । किसी को काम करते हुए, तो किसी को निद्रावस्था में दर्शन दिये ओर उनकी इच्छाएँ पूर्ण की । भक्तों को शिक्षा देने के लिये उन्होंने कौन कौन-सी युक्तियाँ काम में लाई, इसका वर्णन करना असम्भव है । इस विशिष्ट घटना में उन्होंने श्री. दासगणू को विलेपार्ला भेज कर वहाँ उनकी नौकरानी द्घारा समस्या हल कराई । जिनका ऐसा विचार हो कि श्री. दासगणू को बाहर भेजने की आवश्यकता ही क्या थी, क्या वे स्वयं नही समझा सकते थे । उनसे मेरा कहना है कि बाबा ने उचित मार्ग ही अपनाया । अन्यथा श्री. दासगणू किस प्रकार एक अमूल्य शिक्षा उस निर्धन नौकरानी और उसकी साड़ी द्घारा प्राप्त करते, जिसकी रचना स्वयं साई ने की थी ।

ईशोपनिषद् की शिक्षा

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ईशोपनिषद् की मुख्य देन नीति-शास्त्र सम्बन्धी उपदेश है । हर्ष की बात है कि इस उपनिषद् की नीति निश्चित रुप से आध्यात्मिक विषयों पर आधारित है, जिसका इसमें बृहत् रुप से वर्णन किया गया है । उपनिषद् का प्रारम्भ ही यहीं से होता है कि समस्त वस्तुएँ ईश्वर से ओत-प्रोत है । यह आत्मविषयक स्थिति का भी एक उपसिद्घान्त है और जो नीतिसंबंधी उपदेश उससे ग्रहण करने योग्य है, वह यह है कि जो कुछ ईशकृपा से प्राप्त है, उसमें ही आनन्द मानना चाहिये और दृढ़ भावना रखनी चाहिये कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान् है और इसलिए जो कुछ उसने दिया है, वही हमारे लिये उपयुक्त है । यह भी उसमें प्राकृतिक रुप से वर्णित है कि पराये धन की तृष्णा की प्रवृत्ति को रोकना चाहिये । सारांश यह है कि अपने पास जो कुछ है, उसी में सन्तुष्ट रहना, क्योंकि यही ईश्वरेच्छा है । चरित्र सम्बन्धी द्घितीय उपदेश यह है कि कर्तव्य को ईश्वरेच्छा समझते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये, विशेषतः उन कर्मोंको जिनको शास्त्र में वर्णित किया गया है । इस विषय में उपनिषद् का कहना है कि आलस्य से आत्मा का पतन हो जाता है और इस प्रकार निरपेक्ष कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करने वाला ही अकर्मणमयता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है । अन्त में कहा है कि जो सब प्राषियों को अपना ही आत्मस्वरुप समझता है तथा जिसे समस्त प्राणी और पदार्थ आत्मस्वरुप हो चुके है, उसे मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है । ऐसे व्यक्ति को दुःख का कोई कारण नहीं हो सकता । सर्व भूतों में आत्मदर्शन न कर सकने के काण भिन्न-भिन्न प्रकार के शोक, मोह और दुःखों की वृद्घि होती है । जिसके लिये सब वस्तुएँ आत्मस्वरुप बन गई हो, वह अन्य सामान्य मनुष्यों का छिद्रान्वेषण क्यों करने लगता है ।




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।




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Chapter 20

 

Das Ganu's Problem Solved by Kaka's Maid-Servant

In this Chapter, Hemadpant describes, how Das Ganu's problem was solved by Kakasaheb Dixit's maid-servant.

Preliminary

Sai (Lord) was originally formless. he assumed a form for the sake of Bhaktas. With the help of the actress Maya, He played the part of the Actor in the big drama of the universe. Let us remember and visualize Shri Sai. Let us go to Shirdi, and see carefully the programmes, after the noon-Arati. After the Arati ceremony was over, Sai used to come out of the Masjid, and standing on its edge, distribute udi to the devotees with very kind and loving looks. The Bhaktas also got up with equal fervour, clasped His Feet, and standing and staring at Him, enjoyed the shower of Udi. Baba passed handfuls of Udi into the palms of the devotees and marked their foreheads with Udi with His fingers. The love He bore for them in His heart was boundless. Then He addressed the Bhaktas as follows:- "Oh Bhau, go to take your lunch; you Anna, go to your lodgings; you Bapu, enjoy your dishes". In this way He accosted each and every devotee and sent them home. Even now, you can enjoy these sights if you bring into play your imagination. You can visualize and enjoy them. Now bringing Sai before our mental vision, let us meditate on Him, from His Feet upwards to His face, and prostrating before Him humbly, lovingly and respectfully, revert to the story of this Chapter.

Ishavasya Upanishad

Das Ganu once started to write a Marathi commentary ont he Ishavasya Upanishad. Let us first give a brief idea of this Upanishad, before proceeding further. It is called a `Mantropanishad', as it is embodied in the Mantras of the Vedic Samhita. It constitutes the last or the 40th Chapter of the Vajasaneyi Samhita (Yajurveda) and it is, therefore, called Vajasaneyi Samhitopanishad. Being embodied in Vedic Samhitas, this is regarded as superior to all other Upanishads, which occur in the Brahmanas and Aranyakas (explanatory treatises on Martras and rituals). Not only this, other Upanishads are considered to be commentaries on the truths mentioned briefly in the Ishavasya Upanishad. For instance, the biggest of the Upanishads, viz, the Brihadaranyaka Upanishad, is considered by Pandit Satwalekar to be a running commentary on the Ishavasya Upanishad.

Profesor R.D. Ranade says:- "The Ishopanishad is quite a small Upanishad; and yet it contains many hints which show an extraordinarily piercing insight. Within the short compass of 18 verses, it gives a valuable mystical description of the Atman, a description of the ideal sage, who stands unruffled in the minds of temptations and sorrows; and adumbration of the doctrine of Karma-Yoga as later formulated, and finally a reconciliation of the claims of knowledge and works. The most valuable ideas, that lies at the root of the Upanishad, is that of a logical synthesis between the two opposites of knowledge; and work, which are both required according to the Upanishad to be annulled in a higher synthesis". (page 24 of the Constructive Survey of the Upanishad Philosophy). In another place he says that "The poetry of the Ishopanishad is a Commixture of moral, mystical and metaphysical (ibid, Page 41)".

From the brief description given above about this Upanishad, any one can see how difficult it is to translate this Upanishad in a vernacular language, and brief out its exact meaning. Das Ganu translated it in Marathi 'Ovi'metre, verse by verse, but as he did not comprehend the gist or essence of the Upanishad, he was not satisfied with his performance. He therefore consulted some learned men regarding his doubts and difficulties and discussed with them at great length. They did not solve them nor did they give him any rational and satisfactory explanation. So Das Ganu was a little restless over this matter.

SadGuru only competent and Qualified to Explain

As we have seen, this Upanishad is the quintessence of the Vedas. It is the science of self-realization, it is the scythe or weapon which can rend asunder the bondage of life and death, and make us free. Therefore, he thought, that he who has himself attained self-realization, can only give him the true or correct interpretation of the Upanishad. When nobody could satisfy Das Ganu, he resolved to consult Sai Baba about this. When he got an opportunity to go to Shirdi, he saw Sai Baba, prostrated himself before Him, and mentioned his difficulties about the Ishavasya Upanishad and requested Him to give the correct solution. Sai Baba, blessed him and said- "You need not be anxious, there is no difficulty about the matter, the mind-servant of Kaka (Kakasaheb Dixit) will solve your doubts at Vile Parle, on your way home". The people who went present then and heard this, thought that Baba was joking and said, "How could an illiterate maid-servant solve the difficulties of this nature", but Das Garu thought otherwise. He was sure, that whatever Baba spoke, must come true, Baba's word was the decree of the Brahma (Almighty).

Kaka's Maid-Servant

On fully believing in Baba's words, he left Shirdi and came to Vile Parle (a suburb of Bombay), and stayed with Kakasaheb Dixit. There the next day, when Das Ganu was enjoying his morning nap (some say when he was engaged in worship), he heard a poor girl singing a beautiful song in clear and melodious tones. The subject matter of the song was a crimson coloured Sari, how nice it was, how fine was its embroidery, how beautiful were its ends and borders etc. He liked the song so much that he came out, and saw that it was being sung by a young girl, the sister of Namya, who was a servant of Kakasaheb. The girl was cleaning vessels, and had only a torn rag on her person. On seeing her impoverished condition, and her jovial temperament, Das Ganu felt pity for her and when Rao Bahadur M.V.Pradhan next day gave him a pair of dhotars, he requested him to give a sari to the poor little girl also. Rao Bahadur bought a good Chirdi (small Sari) and presented it to her. Like a starving person getting luckily good dishes to eat, her joy knew to bounds. Next day she wore the new Sari, and out of great joy and merriment, whirled, danced round and played `Fugadi' with other girls and excelled them all. The Day following, she kept the new Sari in her box at home and came with the old and torn rags, but she looked as merry as she did the previous day. On seeing this, Das Ganu's pity was transferred into admiration. He thought that the girl being poor had to wear a torn rag, but now she had a new Sari which she kept in reserve and putting on the old rag, strutted herself, showing no trace of sorrow or dejection. Thus he realized that all our feelings of pain and pleasure depend upon the attitude of our mind. On thinking deeply over this incident, he realized that a man ought to enjoy whatever God has bestowed on him in the firm conviction that He besets every thing, from behind and before, and on all sides and that whatever is bestowed on him by God must be for his good. In this particular case, the impoverished condition of the poor girl, her torn rag and the new Sari, the donor, the dance and the acceptance were all parts of the Lord and pervaded by Him. Hence, Das Ganu got a practical demonstration of the lesson of the Upanishad - the lesson of contentment with one's own lot in the belief that whatever happens, is ordained by God, and is ultimately good for us.

Unique Method of Teaching

From the above incident, the reader will see that Baba's method was unique and varied. Though Baba never left Shirdi, He sent some to Machhindragad, some to Kolhapur or Sholapur for practising sadhanas. To some He appeared in His usual form, to some He appeared in waking or dreaming state, day or night and satisfied their desires. It is impossible to describe all the methods, that Baba used in imparting instructions to His Bhaktas. In this particular case, He sent Das Ganu to Vile Parle, where he got his problem solved, through the maid-servant. To those, who say that it was not necessary to sent Das Ganu outside and that Baba could have personally taught him, we say that Baba followed the right or best course, or how else could Das Ganu would have learnt a great lesson, that the poor maid-servant and her Sari were pervaded by the Lord.



Now we close the Chapter with another beautiful extract about this Upanishad.
The Ethics of the Ishavasya Upanishad

"One of the main features of the Ishavasya Upanishad, is the ethical advice it offers, and it is interesting to note that the ethics of the Upanishad are definitely based upon the meta-physical position advanced in it. The very opening words of the Upanishad tell us that God pervades every thing. As a corollary from this metaphysical position, the ethical advice it offers is, that a man ought to enjoy whatever God bestows on him in the firm belief, that as He pervades everything, whatever is bestowed on him by God must be good. It follows naturally, that the Upanishad should forbid us from coveting another man's property. In fact, we are fittingly taught here a lesson of contentment with one's own lot in the belief that whatever happens, it is divinely ordained and it is hence good for us. Another moral advice is, that man must spend his life-time always in doing action, specially the karmas enjoined in the Shastras, in a mood of believing resignation to His will. Inactivity, according to this Upanishad, would be the canker of the soul. It is only when a man spends his life-time on doing actions in this manner, that he can hope to attain the ideal of Naishkarmya. Finally, the text goes on to say that a man, who sees all beings in the Self and sees the Self as existing in all beings; in fact, for whom all beings and everything that exists have becomes the Self - how can such a man suffer infatuation? What ground would such a man have for grief? Loathfulness, infatuation and grief verily proceed from our not being able to see the Atman in all things. But a man, who realizes the oneness of all things, for whom everything has become the Self, must ipso facto, cease to be affected by the common foibles of humanity. (Page 169-170 of The Creative Period by Messrs. Belvalkar and Ranade).

Bow to Shri Sai - Peace be to all


Tuesday, August 23, 2011

सद्गुरू सांई नमो नमः ...

ॐ सांई राम




ॐ सांई नमो नमः ॥
शिर्डी निवासी नमो नमः ॥
करूणा मूर्ति नमो नमः ॥
सद्गुरू सांई नमो नमः ॥




जीवन की प्रभु सांझ भई है,
अब तो शरण में ले लो !

जगत के स्वामी मेरे प्रभुवर,
अपने चरन में ले लो!!

इस देही के मालिक तुम हो,
तुमको सदा भुलाया !

भरी जवानी मोल न जाना,
सदा तुम्हे बिसराया !!
तेरे चरन ही मान सरोवार,
अपने तरन में में ले लो !!!!

छोड़ के कंचन पाकर पीतल,
अंग ही उसे लगाया !!

मृगतृष्णा की पयास में भटका,
मन मेरा भरमाया !!
‘दास नारायण’ भिक्षा मांगे,
अपनी धरण में ले लो !!!!

जीवन की प्रभु सांझ भई है,
अब तो शरण में ले लो !
ॐ सांई नमो नमः ॥
शिर्डी निवासी नमो नमः ॥
करूणा मूर्ति नमो नमः ॥
सद्गुरू सांई नमो नमः ॥

Monday, August 22, 2011

हम सब साईं के रंग में झूमें

ॐ सांई राम




दुखी दिलो का दाता साईं

साईं रंग में रंगते सब बहिन भाई

हम सब साईं के रंग में झूमें

साईं हमारे रंग में झूमें

जय जय साईं दाता हमारा

...मैं हूँ एक भगत तुम्हारा




हर नज़र में नूर तेरा है ,

हर दिल में सुरूर तेरा है,

गर मैं ना समझ पाऊं

तो ये कुसूर मेरा है....




कैसे आऊं मै शिर्डी में बाबा

मुझको अब तुम ही बतला दो

कोई तो रास्ता अब निकालो

जो जल्दी से तेरे दर पे लाये

बहुत तरसी है आंखे ये अब तक

कब देखेंगी ये वो नजारा

जब मुझको भी जन्नत के दर्शन

तेरी शिर्डी में जा कर होंगे

मैंने हर पल तुझको ही चाहा

फिर क्यूँ न सुना तुमने बाबा

मिलने को तड़पते ही रहना है

खबर तो तुम्हे भी ये होगी

कोई रोता है तुम्हे याद कर के

तुम तो नरम दिल हो बाबा

फिर कैसे जुदाई तुम सह गए

साईं भक्त ये अरदास करें

हाथ जोड़ के साईं चरणों में

कैसे आऊं मै शिर्डी में बाबा

मुझको अब तुम ही बतला दो साईं नाथ मेरे !!




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