ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 48 - भक्तों के संकट निवारण
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1. शेवड़े और
2. सपटणेकर की कथाएँ ।
अध्याय के प्रारम्भ करने से पूर्व किसी ने हेमाडपंत से प्रश्न किया कि साईबाबा गुरु थे या सदगुरु । इसके उत्तर में हेमाडपंत सदगुरु के लक्षणों का निम्नप्रकार वर्णन करते है ।
सदगुरु के लक्षण
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जो वेद और वेदान्त तथा छहों शास्त्रों की शिक्षा प्रदान करके ब्रहृविषयक मधुर व्याख्यान देने में पारंगत हो तता जो अपने श्वासोच्छवास क्रियाओं पर नियंत्रण कर सहज ही मुद्रायें लगाकर अपने शिष्यों को मंत्रोपदेश दे निश्चित अवधि में यथोचित संख्या का जप करने का आदेश दे और केवल अपने वाकचातुर्य से ही उन्हें जीवन के अंतिम ध्येय का दर्शन कराता हो तथा जिसे स्वयं आत्मसाक्षात्कार न हुआ हो, वह सदगुरु नहीं वरन् जो अपने आचरणों से लौकिक व पारलौकिक सुखों से विरक्ति की भावना का निर्माण कर हमें आत्मानुभूति का रसास्वादन करा दे तथा जो अपने शिष्यों को क्रियात्मक और प्रत्यक्ष ज्ञान (आत्मानुभूति) करा दे, उसे ही सदगुरु कहते है । जो स्वयं ही आत्मसाक्षात्कार से वंचित है, वे भला अपने अनुयायियों को किस प्रकार अनुभूति कर सकते है । सदगुरु स्वप्न में भी अपने शिष्य से कोई लाभ या ससेवा-शुश्रूषा की लालसा नहीं करते, वरन् स्वयं उनकी सेवा करने को ही उघत करते है । उन्हें यह कभी भी भान नहीं होता है कि मैं कोई महान हूँ और मेरा शिष्य मुझसे तुच्छ है, अपितु उसे अपने ही सदृश (या ब्रहमस्वरुप) समझा करते है । सदगुरु की मुख्य विशेषता यही है कि उनके हृदय में सदैव परम शांति विघमान रहती है । वे कभी अस्थिर या अशांत नहीं होते और न उन्हं अपने ज्ञान का ही लेशमात्र गर्व होता है । उनके लिये राजा-रंक, स्वर्ग-अपवर्ग सब एक ही समान है ।
हेमाडपंत कहते है कि मुझे गत जन्मों के शुभ संस्कारों के परिणामस्वरुप श्री साईबाब सदृश सदगुरु के चरणों की प्राप्ति तथा उनके कृपापात्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । वे अपने यौवन काल में चिलम के अतिरिक्त कुछ संग्रह न किया करते थे । न उनके बाल-बच्चे तथा मित्र थे, न घरबार था और न उन्हें किसी का आश्रय प्राप्त था । 18 वर्ष की अवस्था से ही उनका मनोनिग्रह बड़ा विलश्रण था । वे निर्भय होकर निर्जन स्थानों में विचरण करते एवं सदा आत्मलीन रहते थे । वे सदैव भक्तों की निःस्वार्थ भक्ति देखकर ही उनकी इच्छानुसार आचरण किया करते थे । उनका कथना था कि मैं सदा भक्त के पराधीन रहता हूँ । जब वे शरीर में थे, उस समय भक्तों ने जो अनुभव किये, उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् आज भी जो उनके शरणागत होचुके है, उन्हें उसी प्रकार के अनुभव होते रहते है । भक्तों को तो केवल इतना ही यथेष्ठ है कि यदि वे अपने हृदय को भक्ति और विश्वास का दीपक बनाकर उसमें प्रेम की ज्योति प्रज्वलित करें तो ज्ञानज्योति (आत्मसाक्षात्कार) स्वयं प्रकाशित हो उठेगी । प्रेम के अभाव में शुष्क ज्ञान व्यर्थ है । ऐसा ज्ञान किसी को भी लाभप्रद नहीं हो सकता, प्रेमभाव में संतोष नहीं होता । इसलिये हमारा प्रेम असीम और अटूट होना चाहिये । प्रेम की कीर्ति का गुणगान कौन कर सकता है, जिसकी तुलना में समस्त वस्तुएँ तुच्छ जान पड़ती है । प्रेमरहित पठनपाठन सब निष्फल है । प्रेमांकुर के उदय होते ही भक्ति, वैराग्य, शांति और कल्याणरुपी सम्पत्ति सहज ही प्राप्त हो जाती है । जब तक किसी वस्तु के लिये प्रेम उत्पन्न नहीं होता, तब तक उसे प्राप्त करने की भावना ही उत्पन्न नहीं होती । इसलिये जहाँ व्याकुलता और प्रेम है, वहाँ भगवान् स्वयं प्रगट हो जाते है । भाव में ही प्रेम अंतर्निहित है और वही मोक्ष का कारणीभूत है । यदि कोई व्यक्ति कलुषित भाव से भी किसी सच्चे संत के चरण पकड़ ले तो यह निश्चित है कि वह अवश्य तर जायेगा । ऐसी ही कथा नीचे दर्शाई गई है ।
श्री शेवड़े
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अक्कलकोट (सोलापुर जिला) के श्री. स्पटणेकर वकालत का अध्ययन कर रहे थे । एक दिन उनकी अपने सहपाठी श्री. शेवड़े से भेंट हुई । अन्य और भी विधार्थी वहाँ एकत्रित हुए और सब ने अपनी-अपनी अध्ययन संबंधी योग्यता का परस्पर परीक्षण किया । प्रश्नोत्तरों से विदित हो गया कि सब से कम अध्ययन श्री. शेवड़े का है और वे परीक्षा में बैठने के अयोग्य है । जब सब मित्रों ने मिलकर उनका उपहास किया, तब शेवड़े ने कहा कि यघपि मेरा अध्ययन अपूर्ण है तो भी मैं परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण हो जाऊँगा । मेरे साईबाबा ही सबको सफलता देने वाले है । श्री. सपटणेकर को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने श्री. शेवड़े से पूछा कि ये साईबाबा कौन है, जिनका तुम इतना गुणगान कर रहे हो । उन्होंने उत्तर दिया कि वे एक फकीर है, जो शिरडी (अहमदनगर) की एक मसजिद में निवास करते है । वे महान सत्पुरुष है । ऐसे अन्य संत भी हो सकते है, परन्तु वे उनसे अद्गितीय है । जब तक पूर्व जन्म के शुभ संस्कार संचित न हो, तब तक उनसे भेंट होना दुर्लभ है । मेरी तो उन पर पूर्ण श्रद्घा है । उनके श्रीमुख से निकले वचन कभी असत्य नहीं होते । उन्होंने ही मुझे विश्वास दिलाया है कि मैं अगले वर्ष परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण हो जाऊँगा । मेरा भी अटल विश्वास है कि मैं उनकी कृपा से परीक्षा में अवश्य ही सफलता पाऊँगा । श्री. सपटणेकर को अपने मिक्ष के ऐसे विश्वास पर हँसी आ गई और साथ ही साथ श्री साईबाबा का भी उन्होंन उपहास किया । भविष्य में जब शेवड़े दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गये, तब सपटणेकर को यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ ।
श्री. सपटणेकर
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श्री. सपटणेकर परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात् अक्कलकोट में रहले लगे और वहीं उन्हो्ने अपनी वकालत प्रारम्भ कर दी । दस वर्षों के पश्चात् सन् 1913 में उनके इकलौते पुक्ष की गले की बीमारी से मृत्यु हो गई, जिससे उनका हृदय विचलित हो उठा । मानसिक शांति प्राप्त करने हेतु उन्होंने पंढ़रपुर, गाणगापुर और अन्य तीर्थस्थानों की यात्रा की, परन्तु उनकी अशांति पूर्ववत् ही बनी रही । उन्होंने वेदांत का भी श्रवण किया, परन्तु वह भी व्यर्थ ही सिदृ हुआ । अचानक उन्हें शेवड़े के वचनों तथा श्री साईबाबा के प्रति उनके विश्वास की स्मृति हो आई और उन्होंने विचार किया कि मुझे भी शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करना चाहिये । वे अपने छोटे भाई पंड़ितराव के साथ शिरडी आये । बाबा के दर्शन कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । जब उन्होंने समीप जाकर नमस्कार करेक शुदृ भाना से श्रीफल भेंट किया तो बाबा तुरन्त क्रोधित हो उठे और बोले कि यहाँ से निकल जाओ । सपटणेकर का सिर झुक गया और वे कुछ हटकर पीछे बैठ गये । वे जानना चाहते थे कि किस प्रकार उनके समक्ष उपस्थित होना चाहिए । किसी ने उन्हें बाला शिम्प का नाम सुझा दिया । सपटणेकर उनके पास गये और उनसे सहायता करने की प्रार्थना करने लगे । तब वे दोनों बाबा का एक चित्र लेकर मसजिद को आये । बाला शिम्पी ने अपने हाथ में चित्र लेकर बाबा के हाथ में दे दिया और पूछा कि यह किसका चित्र है । बाबा ने सपटणेकर की ओर संकेत कर रहा कि यह तो मेरे यार का है । यह कहकर वे हंसने लगे और साथ ही सब भक्त मंडली भी हँसने लगी । बाला शिम्पी के इशारे पर जब सपटणेकर उन्हें प्रणाम करने लगे तो वे पुनः चिल्ला पड़े कि बाहर निकलो । सपटणेकर की समझ में नहीं आता था कि वे क्या करे । तब वे दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बाबा के सामने बैठ गये, परन्तु बाबा ने उन्हें तुरन्त ही बाहर निकलने की आज्ञा दी । वे दोनों बहुत ही निराश हुए । उनकी आज्ञा कौन टाल सकता था । आखिर सपटणेकर खिन्न-हृदय शिरडी से वापस चले आये । उन्होंने मन ही मन प्रार्थना की कि हे साई । मैं आपसे दया की भक्षा माँगता हूँ । कम से कम इतना ही आश्वासन दे दीजिये कि मुझे भविष्य में कभी न कभी आपके श्री दर्शनों की अनुमति मिल जायेगी ।
श्रीमती सपटणेकर
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एक वर्ष बीत गया, फिर भी उनके मन में शांति न आई । वे गाणगापुर गये, जहाँ उनके मन में और अधिक अशांति बढ़ गई । अतः वे माढ़ेगाँव विश्राम के लिये पहुँचे और वहाँ से ही काशी जाने का निश्चय किया । प्रस्थान करने के दो दिन पूर्व उनकी पत्नी को स्वप्न हुआ कि वह स्वप्न में एक गागर ले लक्कड़शाह के कुएँ पर जल भरने जा रही है । वहाँ नीम के नीचे एक फकीर बैठा है । सिर पर एक कपड़ा बँधा हुआ है । फकीर उसके पास आकर कहने लगा कि मेरी प्रिय बच्ची । तुम क्यों व्यर्थ कष्ट उठा रही हो । मैं तुम्हारी गागर निर्मल जल से भर देता हूँ । तब फकीर के भय से वह खाली गागर लेकर ही लौट आई । फकीर भी उसके पीछे-पीछे चला आया । इतने में ही घबराहट में उसकी नीद भंग हो गई और उसने आँखे खोल दी । यह स्वप्न उसने अपने पति को सुनाया । उन्होंने इस एक शुभ शकुन जाना और वे दोनों शिरडी को रवाना हो गये । जब वे मसजिद पहुँचे तो बाबा वहाँ उपस्थित न थे । वे लेण्डी बाग गये हुए थे । उनके लौटने की प्रतीक्षा में वे वहीं बैठे रहे । जब बाबा लौटे तो उन्हें देखकर उनकी पत्नी को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि स्वप्न में जिस फकीर के उसने दर्शन किये थे, उनकी आकृति बाबा से बिलकुल मिलती-जुलती थी । उसने अति आदरसहित बाबा को प्रणाम किया और वहीं बैठे-बैठे उन्हें निहारने लगी । उसका विनम्र स्वभाव देखकर बाबा अत्यन्त प्रसन्न हो गये । अपनी पदृति के अनुसार वे एक तीसरे व्यक्ति को अपने अनोखे ढंग से एक कहानी सुनाने लगे – मेरे हाथ, उदर, शरीर तथा कमर में बहुत दिनों से दर्द हुआ करता था । मैंनें अनेक उपचार किये, परन्तु मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचा । मैं औषधियों से ऊब उठा, क्योंकि मुझे उनसे कोई लाभ न हो रहा था, परन्तु अब मुझे बड़ा अचम्भा हो रहा है कि मेरी समस्त पीड़ाये एकदम ही जाती रही । यघपि किसी का नाम नहीं लिया गया था, परन्तु यह चर्चा स्वयं श्रीमती सपटणेकर की थी । उनकी पीड़ा जैसा बाब ने अभी कहा, सर्वथा मिट गई और वे अत्यन्त प्रसन्न हो गई ।
संतति-दान
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तब श्री. सपटणेकर दर्शनों के लिए आगे बढ़, परन्तु उनका पूर्वोक्त वचनों से ही स्वागत हुआ कि बाहर निकल जाओ । इस बार वे बहुत धैर्य और नम्रता धारण करके आये थे । उन्होंने कहा कि पिछले कर्मों के कारण ही बाबा मुझसे अप्रसन्न है और उन्होंने अपना चरित्र सुधारने का निश्चय कर लिया और बाबा से एकान्त में भेंट करके अपने पिछले कर्मों की क्षमा माँगने का निश्चय किया । उन्होंने वैसा ही किया भी और अब जब उन्होंने अपना मस्तक उनके श्रीचरमणों पर रखा तो बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया । अब सपटणेकर उनके चरण दबाते हुए बैठे ही थे कि इतने में एक गड़ेरिन आई और बाबा की कमर दबाने लगी । तब वे सदैव की भाँति एक बनिये की कहानी सुनाने लगे । जब उन्होंने उसके जीवन के अनेकों परिवर्तन तथा उसके इकलौते पुत्र की मृत्यु का हाल सुनाया तो सपटणेकर को अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि जो कथा वे सुना रहे है, वह तो मेरी ही है । उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ कि उनको मेरे जीवन की प्रत्येक बात का पता कैसे चल गया । अब उन्हं विदित हो गया कि बाबा अन्तर्यामी है और सबके हृदय का पूरा-पूरा रहस्य जानते है । यह विचार उनके मन में आया ही था कि गड़ेरिन से वार्तालाप चालू रखते हुए बाबा सपटणेकर की ओर संकेत कर कहने लगे कि यह भला आदमी मुझ पर दोषारोपण करता है कि मैंने ही इसके पुत्र को मार डाला है । क्या मैं लोगों के बच्चों के प्राण-हरण करता हूँ । फिर ये महाशय मसजिद में आकर अब क्यों चीख-पुकार मचाते है । अब मैं एक काम करुँगा । अब मैं उसी बालक को फिर से इनकी पत्नी के गर्भ में ला दूँगा । - ऐसा कहकर बाबा ने अपना वरद हस्त सपटणेकर के सिर पर रखा और उसे सान्त्वना देते हुए काह कि ये चरण अधिक पुरातन तथा पवित्र है । जब तुम चिंता से मुक्त होकर मुझ पर पूरा विश्वास करोगे, तभी तुम्हें अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । सपटणेकर का हृदय गदरगद हो उठा । तब अश्रुधारा से उनके चरण धोकर वे अपने निवासस्थान पर लौट आये और फिर पूजन की तैयारी कर नैवेघ आदि लेकर वे सपत्नीक मसजिद में आये । वे इसी प्रकार नित्य नैवेघ चढ़ाते और बाबा से प्रसाद ग्रहण करते रहे ।
मसजिद में अपार भीड़ होते हुए भी वे वहाँ जाकर उन्हें बार-बार नमस्कार करते थे । एक दूसरे से सिर टकराते देखकर बाब ने उनसे कहा कि प्रेम तथा श्रद्घा द्घारा किया हुआ एक ही नमस्कार मुझे पर्याप्त है । उसी रात्रि को उन्हें चावड़ी का उत्सव देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्हें बाबा ने पांडुरंग के रुप में दर्शन दिये ।
जब वे दूसरे दिन वहाँ से प्रस्थान करने लगे तो उन्होंने विचार किया कि पहले दक्षिणा में बाबा को एक रुपया दूँगा । यदि उन्होंने और माँगे तो अस्वीकार करने के बजाय एक रुपया और भेंट में चढ़ा दूँगा । फिर भी यात्रा के लिये शेष द्रव्यराशि पर्याप्त होगी । जब उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा को एक रुपया दक्षिणा दी तो बाबा ने भी उनकी इच्छा जानकर एक रुपया उनसे और माँगा । जब सपटणेकर ने उसे सहर्ष दे दिया तो बाबा ने भी उन्हें आर्शीवाद देकर कहाकि यह श्रीफल ले जाओ और इसे अपनी पत्नी की गोद में रखकर निश्चिंत होकर घर जाओं । उन्होंने वैसा ही किया और एक वर्ष के पश्चात ही उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ । आठ मास का शिशु लेकर वह दम्पति फिर शिरडी को आये और बाबा के चरणों पर बालक को रखकर फिर इस प्रकार प्रर्थना करने लगे कि हे श्री साईनाथ । आपके ऋण हम किस प्रकार चुका सकेंगें । आपके श्री चरणों में हमारा बार-बार प्रणाम है । हम दीनों पर आप सदैव कृपा करते रहियेगा, क्योंकि हमारे मन में सोते-जागते हर समय न जाने क्या-क्या संकल्प-विकल्प उठा करते है । आपके भजन में ही हमारा मन मग्न हो जाये, ऐसा आर्शीवाद दीजिये ।
उस पुत्र का नाम मुरलीधर रखा गया । बाद में उनके दो पुत्र (भास्कर और दिनकर) और उत्पन्न हुए । इस प्रकार सपटणेकर दम्पति को अनुभव हो गया कि बाबा के वचन कभी असत्य और अपूर्ण नहीं निकले ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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Chapter 48
Warding
off Devotee's Calamities
Stories of
(1) Shevade and
(2) Sapatneker
At the commencement of this chapter, some one asked Hemadpant whether Sai
Baba was a Guru or Sad-guru. In order to answer the question Hemadpant
describes the signs or marks of a Sad-guru as follows:-
Signs of Sad-guru
He who
teaches us Veda and Vedanta or the six Shastras (systems), he who controls the
breath, or brands his body with Mudras (metallic marks of Vishnu's weapons) or
gives pleasing discourses regarding Brahma, he who gives mantras (sacred
syllables) to the disciples and orders them to chant the same a certain number
of times, but does not assure them any result in a definite time, he who by his
spacious wordy knowledge explains beautifully the Ultimate Principle, but has
himself got no experience or self-realization is not a Sad-guru. But he, who by
his discourse creates in us, a distaste for the enjoyments of this world and
the next, and gives us a taste of self-realization, who is well-versed in both
the theoretical and practical knowledge (self-realization) deserves to be called
a Sad-guru. How can he, who is himself devoid of self-realization, give it to
the disciples? A Sad-guru does not, even in his dream, expect any service or
profit from his disciples. On the contrary he wishes to serve them. He does not
think that he is great and the disciple small. Not only he loves him as his son
but regards him as equal to himself or as Brahma. The main characteristic of a
Sad-guru is that he is the abode of peace. He is never restless nor ruffled. He
has no pride of his learning. The poor and the rich, the small and the great,
are the same to him.
Hemadpant thinks that on account of the store or accumulation of merits in
his past births, he had the good fortune of meeting and being blessed by such a
Sad-guru as Sai Baba. Even in full youth He hoarded nothing (expect perhaps
chillim). He had no family, no friend, no home, nor any support. Since He was
eighteen, His control of mind was perfect and extra-ordinary. He lived then
fearless in a secluded place and always abided in His Self. Seeing the pure
attachment of His devotees He always acted in their interests and hence He was
in a way dependent on them. What experiences He gave to His devotees while he
was living in flesh, are even to-day, after His Mahasamadhi, obtained now by
those who attach themselves to Him. What the devotees have to do is this - They
have to trim their heart-lamp of faith and devotion, and burn in it wicks of
love, and when this is done, the flame of knowledge (self-realization) will be
lit up and shine brighter. Mere knowledge without love is dry; nobody wants
such knowledge. Without love there is no contentment; so we should have
unbroken and unbounded love. How can we praise love? Everything is
insignificant before it. Without love our reading, hearing and the study are of
no avail. In the wake of love follow devotion, dispassion, peace and liberation
with all their treasures. We do not get love for anything unless we feel
earnestly about it. So where there is real yearning and feeling, God manifests
Himself. It includes love and is the means of liberation.
Now let us revert to the main story of this chapter. Let a man go to a true
saint with a pure mind, otherwise (fraudulently) and hold his feet; ultimately
he is sure to be saved. This is illustrated by the following stories.
Mr.Shevade
Mr.
Sapatneker of Akkalkot (Sholapur District) was studying for law. A co-student
Mr.Shevade met him. Other fellow students also gathered together and compared
notes of their study. It was found by the questions and answers amongst
themselves, that Mr.Shevade was the least prepared of all for the examination,
and therefore all the students derided him. But he said that though he was not
prepared, he was sure to pass the examination, as his Sai Baba was there to get
him through it successfully. Mr.Sapatnekar was surprised at this remark. He
took Mr.Shevade aside and asked him who this Sai Baba was whom he extolled so
high. He replied - "There lives in a Masjid in Shirdi (Ahmednagar
District) a fakir. He is a great Sat-purusha. There may be other saints, but
this is unique. Unless there is a great store of merits on one's account, one
can't see Him. I fully believe in Him, and what He says will be never untrue.
He has assured me that I will pass definitely next year and I am confident that
I will get through the final examination also with His grace."
Mr.Sapatneker laughed at his friend's confidence and jeered at him and Baba.
Sapatnekars
Mr.Sapatnekar
passed his examination, settled at Akkalkot and practised as a pleader there.
Ten years after this, i.e., in 1913 he lost his only son on account of a throat
disease. This broke his heart. He sought relief by making a pilgrimage to
Pandharpur, Ganagapur and other holy places. He got no peace of mind. Then he
read Vedanta, which also did not help him. In the meanwhile he remembered
Mr.Shevade's remarks and his faith in Baba, and he thought that he too should
go to Shirdi and see Baba. He went to Shirdi with his younger brother Panditrao
and was much pleased to see Baba from a distance. When he went near and
prostrated himself and placed a coconut before Baba with pure feeling
(devotion), the latter at once cried out "Get away." Saptnekar hung
down his head, moved back and sat aside. He wanted to consult somebody who
would advise him how to proceed. Somebody mentioned Bala Shimpi's name.
Sapatnekar saw him and sought his help. They bought Baba's photos and came with
them to the Masjid. Baba Shimpi took a photo in his hand, gave it to Baba and
asked him whose photo it was. Baba said that this photo was the 'Yara' (Lover)
of him, pointing to Sapatnekar. Saying this Baba laughed and all others joined.
Bala asked Baba the significance of the laugh and beckoned Sapatnekar to come
forward and take darshan. When Saptnakar began to prostrate himself, Baba again
cried "Get out." Sapatnekar did not know what to do. Then they both
joined their hands and sat before Baba, praying. Baba finally ordered
sapatnekar to clear out immediately. Both were sad and dejected. As Baba's
order had to be obeyed, Sapatnekar left Shirdi with a heavy heart praying that
he should be allowed to take darshan next time.
Mrs.Saptnekar
One year
elapsed. Still his mind was not at peace. He went to Gangapur, where he felt
more restless. Then he went to Madhegaon for rest and finally decided to go to
Kashi. Two days before starting, his wife got a vision. In her dream she was
going with a pitcher to Lakadsha's well. There a fakir with a piece of cloth
round his head, who was sitting at the foot of the Neem tree, came close to her
and said - "My dear lassie, why get exhausted for nothing? I get your
pitcher filled with pure water." She was afraid of the fakir and hastened
back with the empty pitcher. The fakir followed her. At this she was awakened
and opened her eyes. She told this vision to her husband. They thought that
this was an auspicious sign and they both left for Shirdi. When they reached
the Masjid, Baba was absent. He had gone to Lendi. They waited till His return.
When He returned, she was surprised to see that the fakir she saw in her
vision, resembled exactly Baba. She reverentially prostrated herself before
Baba and sat looking at him. Seeing her humility Baba was much pleased and
began to tell a story in his peculiar characteristic fashion to a third party.
He said - "My arms, abdomen and waist are paining for a long time. I took
many medicines, the pains did not abate. I got sick of the medicines as they
gave me no relief, but I am surprised to see now that all the pains have
disappeared at once." Though no name was mentioned it was the story of
Mrs.Sapatnekar herself. Her pains, as described by Baba, left her soon and she
was happy.
Then Mr.Sapatnekar went ahead to take darshan. He was again welcomed with
the former "Get out." This time he was more penitent and persevering.
He said that Baba's displeasure was due to his past deeds and resolved to make
amends for the same. He determined to see Baba alone and ask his pardon for his
past actions. This he did. He placed his head on Baba's feet and Baba placed
His hand on it and Sapatnekar sat stroking Baba's leg. Then a shepherdess came
and sat massaging Baba's waist. Baba in his characteristic way began to tell
the story of a bania. He related the various vicissitudes of all his life,
including the death of his only son. Sapatnekar was surprised to see that the
story which Baba related was his own, and he wondered how Baba knew every
detail of it. He came to know that He was omniscient and knew the hearts of
all. When this thought crossed his mind, Baba still addressing the shepherdess
and pointing to Sapatnekar said - "This fellow blames Me and charges Me
with killing his son. Do I kill people's children? Why does this fellow come to
the Masjid and cry? Now I will do this I will again bring that very child back
in his wife's womb." WIth these words He placed His blessing and on his
head and comforted him saying - "These feet are old and holy, you are
care-free now; place entire faith in Me and you will soon get your
object." Sapatnekar was much moved with emotion, he bathed Baba's feet
with his tears and then returned to his residence.
Then he made preparations of worship and naivedya and came with his wife to
the Masjid. He offered all this to Baba daily and accepted prasad from Him.
There was a crowd in the Masjid and Sapatnekar went there and saluted Baba
again and again. Seeing heads clashing against heads Baba said to Sapatnekar -
"Oh, why do you prostrate yourself now and then? The one Namaskar offered
with love and humility is enough." Then Sapatnekar witnessed that night
the chavadi procession described before. In that procession Baba looked like a
veritable Pandurang (Vithal).
At parting next day, Sapatnekar thought that he should first pay one rupee
as dakshina and if Baba asked again, instead of saying no, he should pay one
more, reserving with him sufficient amount as expenses for the journey. When he
went to the Masjid and offered one rupee, Baba asked for another as per his
intention and when it was paid, Baba blessed him him saying - "Take the
coconut, put it in your wife's oti (upper fold of her sari), and go away at
ease without the least anxiety." He did so, and within a year a son was
born to him and with an infant of 8 months the pair came to Shirdi, placed it
at Baba's feet and prayed thus - "Oh, Sainath, we do not know how to
redeem Your obligations, therefore we prostrate ourselves before You, bless us
poor helpless fellows, henceforth let Your holy feet be our sole refuge. Many
thoughts and ideas trouble us in waking and dream states, so turn away our minds
from them to Your bhajan and bless us."
The son was named Murlidhar. Two others (Bhaskar and Dinkar) were born
afterwards. The Sapatnekar pair thus realized that Baba's words were never
untrue and unfulfilled, but turned out literally true.
Bow to Shri sai - Peace be to all
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