" बाबा ने कहा "श्रद्धा रख सब्र से काम ले अल्लाह भला करेगा." ये विशवास और आश्वासन हमेशा से भक्तो के लिए एक उजाले की किरण बनता रहा है. धुपखेडा गाँव के चाँद पाटिल से लेकर आज तक जिसने भी अपने मन में ये श्रीसाईं के इन दो शब्दों को बसा लिया उसका पूरी दुनिया तो क्या स्वयं प्रारब्ध या कहें की 'होनी' भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती. सिर्फ एक अटल विश्वाश और अडिग यकीन आपको सारी मुसीबतों और तकलीफों के पार ले जा सकता है|
बहुत से भक्तो को बाबा की श्रद्धा-सबूरी का मतलब आज भी स्पष्ट नहीं है. वास्तव में बाबा ने कहा था कि अपने ईष्ट, अपने गुरु, अपने मालिक पर श्रद्धा रखो. ये विश्वास रखो कि भवसागर को पार अगर कोई करा सकता है तो वो आपका ईष्ट, गुरु, और मालिक है. अपने मालिक की बातों को ध्यान से सुनो और उनका अक्षरक्ष पालन करो. बाबा को पता था कि केवल किसी पर विश्वास रखना ही काफी नहीं है. विश्वास की डूबती-उतरती नाव का कोई भरोसा नहीं है इसीलिए बाबा ने इस पर सबूरी का लंगर डाल दिया था. किसी पर विश्वास करना है और इस हद तक करना है कि कोई उस विश्वास को डिगा ना सके चाहे कितने ही साल और जनम लगें. जैसा कि पहले हमने बताया दुःख दूर होना है और होगा मगर उस समय तक पहुँचने के लिए एक सहारा चाहिए और वो सहारा है
श्रद्धा और सबूरी..........
"Baba said," keep the faith Be patient taking God will bless. "The belief and assurance Hchto always a ray of light is created. Dhupakeda Chand Patil of village from which his mind till date of this Srisaian These two words have settled the whole world what his own fate or rather the 'be' can also harm. Biswash only one firm and immovable sure you can get beyond all the troubles and problems.
Many of the trust Hchto Baba - Sburi means is still unclear. In fact Baba said that his Esht, your mentor, your boss trust in yourself. The faith that anyone can make it, they crossed Haasaghar your Esht, master, and owner. Listen carefully to the words of his boss and his Aksharksha obey. Baba knew that just is not enough to trust someone. Sinking of faith - there is no guarantee of boats descend on this Sburi why Baba had put the anchor. Someone to trust and to the extent that no matter how that trust can not diga same year and they may give birth. As previously reported, we will have to be misery, but to reach that point and that one must resort to resort
कितना सुन्दर, कितना प्यारा मुखड़ा, तुम्हारा लगता साईं ऐसा नूर तेरे चेहरे का, कर दिया मुझको भी नूरोनूर तेरी आँखों में देखा तो मिल गए मुझको भी ऐसी ज्योत तेरे सिवा कुछ और न दिखता बस गए इनमे तुम ही साईं मंदिर मस्जिद या गुरुद्वारा हर जग में तुझको पाऊ
अब तक थी मै भटक रही तुझको ही थी ढूंढ रही कर दी ऐसी दया मेरे साईं खींचा खुद ही अपनी ओर प्यार हुआ तुझसे अब इतना मिले बिना रहा न जाए हर दम तुझसे मिलना चाहू तुझमे ही मै खोना चाहू
शिरडी में आज तक कोई ऐसा इंसान नहीं मिला जो ये कहता हो कि उसे दो जून की रोटी नहीं मिलती। और साईं की ये आखिरी इच्छा भी थी।
शिरडी में एक नीम का पेड़ है। उस पेड़ के नीचे ही साईं अपने भक्तों को प्रवचन दिया करते थे। दरअसल, इसकी एक बड़ी अजीब कहानी है। जब साईं शिरडी आए तो इस पेड़ के आस-पास खुदाई करने लगे। लोगों ने जब पूछा कि आप क्या कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि यहां हमारे गुरु रहते हैं उन्हें निकाल रहा हूं। फिर तो लोग साथ मिलकर खुदाई करने लगे। जमीन के नीचे जब पांच फीट की खुदाई हुई तो वहां से पांच दीए निकले। ये देख कर सब हैरत में पड़ गए। उसके बाद तो साईं के साथ साथ इस नीम के पेड़ के पास उनके गुरु की भी पूजा होने लगी।
इस नीम के पेड़ की एक और खासियत है। आम तौर पर नीम के पते कड़वे होते हैं लेकिन यहां इन के पत्तों में मिठास है। ये कड़वे पत्ते भक्तों को मीठे लगते हैं और भक्त इसे साईं का प्रसाद ही समझते हैं। इसका फल ठीक वैसे ही है जैसे साईं आरती का फल है।
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 5
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चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन, अभिनंदन तथा श्री साई शब्द से सम्बोधन, अन्य संतों से भेंट, वेश-भूषा व नित्य कार्यक्रम, पादुकाओं की कथा, मोहिद्दीन के साथ कुश्ती, मोहिद्दीन का जीवन परिवर्तन, जल का तेल में रुपान्ततर, मिथ्या गरु जौहरअली ।
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जैसा गत अध्याय में कहा गया है, मैं अब श्री साई बाबा के शिरडी से अंतर्दृान होने के पश्चात् उनका शिरडी में पुनः किस प्रकार आगमन हुआ, इसका वर्णन करुँगा ।
चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन
जिला औरंगाबाद (निजाम स्टेट) के धूप ग्राम में चाँद पाटील नामक एक धनवान् मुस्लिम रहते थे । जब वे औरंगाबाद जा रहे थे तो मार्ग में उनकी घोड़ी खोगई । दो मास तक उन्होंने उसकी खोज में घोर परिश्रम किया, परन्तु उसका कहीं पता न चल सका । अन्त में वे निराश होकर उसकी जीन को पीट पर लटकाये औरंगाबाद को लौट रहे थे । तब लगभग 14 मील चलने के पश्चात उन्होंने एक आम्रवृक्ष के नीचे एस फकीर को चिलम तैयार करते देखा, जिसके सिर पर एक टोपी, तन पर कफनी और पास में एक सटका था । फकीर के बुलाने पर चाँद पाटील उनके पास पहुँचे । जीन देखते ही फकीर ने पूछा यह जीन कैसी । चाँद पाटील ने निराशा के स्वर में कहा क्या कहूँ मेरी एक घोड़ी थी, वह खो गई है और यह उसी की जीन है ।
फकीर बोले – थोड़ा नाले की ओर भी तो ढूँढो । चाँद पाटील नाले के समीप गये तो अपनी घोड़ी को वहाँ चरते देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि फकीर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, वरन् कोई उच्च कोटि का मानव दिखलाई पड़ता है । घोड़ी को साथ लेकर जब वे फकीर के पास लोटकर आये, तब तक चिलम भरकर तैयार हो चुकी थी । केवल दो वस्तुओं की और आवश्यकता रह गई थी। एक तो चिलम सुलगाने के लिये अग्नि और दितीय साफी को गीला करने के लिये जल की ।फकीर ने अपना चिमटा भूमि में घुसेड़ कर ऊपर खींचा तो उसके साथ ही एक प्रज्वलित अंगारा बाहर निकला और वह अंगारा चिलम पर रखा गया । फिर फकीर ने सटके से ज्योंही बलपूर्वक जमीन पर प्रहार किया, त्योंही वहाँ से पानी निकलने लगा ओर उसने साफी को भिगोकर चिलम को लपेट लिया । इस प्रकार सब प्रबन्ध कर फकीर ने चिलम पी ओर तत्पश्चात् चाँद पाटील को भी दी । यह सब चमत्कार देखकर चाँद पाटील को बड़ा विस्मय हुआ । चाँद पाटील ने फकीर ने अपने घर चलने का आग्रह किया । दूसरे दिन चाँद पाटील के साथ फकीर उनके घर चला गया । और वहाँ कुछ समय तक रहा । पाटील धूप ग्राम की अधिकारी था और बारात शिरडी को जाने वाली थी । इसलिये चाँद पाटील शिरडी को प्रस्थान करने का पूर्ण प्रबन्ध करने लगा । फकीर भी बारात के साथ ही गया । विवाह निर्विध्र समाप्त हो गया और बारात कुशलतापू्र्वक धूप ग्राम को लौट आई । परन्तु वह फकीर शिरडी में ही रुक गया और जीवनपर्यन्त वहीं रहा ।
फकीर को साई नाम कैसे प्राप्त हुआ
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जब बारात शिरडी में पहुँची तो खंडोबा के मंदिर के समीप म्हालसापति के खेत में एक वृक्ष के नीचे ठहराई गई । खंडोबा के मंदिर के सामने ही सब बैलगाड़ियाँ खोल दी गई और बारात के सब लोग एक-एक करके नीचे उतरने लगे । तरुण फकीर को उतरते देख म्हालसापति ने आओ साई कहकर उनका अभिनन्दन किया तथा अन्य उपस्थित लोगों ने भी साई शब्द से ही सम्बोधन कर उनका आदर किया । इसके पश्चात वे साई नाम से ही प्रसिदृ हो गये ।
अन्त संतों से सम्पर्क
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शिरडी आने पर श्री साई बाबा मसजिद में निवास रने लगे । बाबा के शिरडी में आने के पूर्व देवीदास नाम के एक सन्त अनेक वर्षों से वहाँ रहते थे । बाबा को वे बहुत प्रिय थे । वे उनके साथ कभी हनुमान मन्दिर में और कभी चावड़ी में रहते थे । कुछ समय के पश्चात् जानकीदास नाम के एक संत का भी शिरडी में आगमन हुआ । अब बाबा जानकीदास से वार्तालाप करने में अपना बहुत-सा समय व्यतीत करने लगे । जानकीदास भी कभी-कभी बाबा के स्थान पर चले आया करते थे और पुणताम्बे के श्री गंगागीर नामक एक पारिवारिक वैश्य संत भी बहुधा बाबा के पास आया-जाया करते थे । जब प्रथम बार उन्होंने श्री साई बाबा को बगीचा-सिंचन के लिये पानी ढोते देखा तो उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ । वे स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि शिरडी परम भाग्यशालिनी है, जहाँ एक अमूल्य हीरा है । जिन्हें तुम इस प्रकार परिश्रम करते हुए देख रहे हो, वे कोई सामान्य पुरुष नहीं है । अपितु यह भूमि बहुत भाग्यशालिनी तथा महान् पुण्यभूमि है, इसी कारण इसे कारण इसे यह रत्न प्राप्त हुआ है । इसी प्रकार श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक प्रसिदृ शिष्य पधारे, उन्होंने भी स्पष्ट कहा कि यघपि बाहृदृषि्ट से ये साधारण व्यक्ति जैसे प्रतीत होते है, परंतु ये सचमुच असाधारण व्यक्ति है । इसका तुम लोगों को भविष्य में अनुभव होगा । ऐसा कहकर वो येवला को लौट गये । यह उस समय की बात है, जब शिरडी बहुत ही साधारण-सा गाँव था और साई बाबा बहुत छोटी उम्र के थे ।
बाबा का रहन-सहन व नित्य कार्यक्रम
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तरुण अवस्था में श्री साई बाबा ने अपने केश कभी भी नहीं कटाये और वे सदैव एक पहलवान की तरह रहते थे । जब वे रहाता जाते (जो कि शिरडी से 3 मील दूर है)तो गहाँ से वे गेंदा, जाई और जुही के पौधे मोल ले आया करते थे । वे उन्हें स्वच्छ करके उत्तम भूमि दोखकर लगा देते और स्वंय सींचते थे । वामन तात्या नाम के एक भक्त इन्हें नित्य प्रति दो मिट्टी के घडे़ दिया करते थे । इन घड़ों दृारा बाबा स्वंय ही पौधों में पानी डाला करते थे । वे स्वंय कुएँ से पानी खींचते और संध्या समय घड़ों को नीम वृक्ष के नीचे रख देते थे । जैसे ही घड़े वहाँ रखते, वैसे ही वे फूट जाया करते थे, क्योंकि वे बिना तपाये और कच्ची मिट्टी क बने रहते थे । दूसरे दिन तात्या उन्हें फिर दो नये घड़े दे दिया करते थे । यह क्रम 3 वर्षों तक चला और श्री साई बाबा इसी स्थान पर बाबा के समाधि-मंदिर की भव्य इमारत शोभायमान है, जहाँ सहस्त्रों भक्त आते-जाते है ।
नीम वृक्ष के नीचे पादुकाओं की कथा
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श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक भक्त, जिनका नाम भाई कृष्ण जी अलीबागकर था, उनके चित्र का नित्य-प्रति पूजन किया करते थे । एक समय उन्होंने अक्कलकोटकर (शोलापुर जिला) जाकर महाराज की पादुकाओं का दर्शन एवं पूजन करने का निश्चय किया । परन्तु प्रस्थान करने के पूर्व अक्कलकोटकर महाराज ने स्वपन में दर्शन देकर उनसे कहा कि आजकल शिरडी ही मेरा विश्राम-स्थल है और तुम वहीं जाकर मेरा पूजन करो । इसलिये भाई ने अपने कार्यक्रम में परिवर्तन कर शिरडी आकर श्री साईबाबा की पूजा की । वे आनन्दपूर्वक शिरडी में छः मास रहे और इस स्वप्न की स्मृति-स्वरुप उन्होंने पादुकायें बनवाई । शके सं. 1834 में श्रावण में शुभ दिन देखकर नीम वृक्ष के नीचे वे पादुकायें स्थापित कर दी गई । दादा केलकर तथा उपासनी महाराज ने उनका यथाविधि स्थापना-उत्सव सम्पन्न किया । एक दीक्षित ब्राहृमण पूजन के लिये नियुक्त कर दिया गया और प्रबन्ध का कार्य एक भक्त सगुण मेरु नायक को सौंप गया ।
कथा का पूर्ण विवरण
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ठाणे के सेवानिवृत मामलतदार श्री.बी.व्ही.देव जो श्री साईबाबा के एक परम भक्त थे, उन्होंने सगुण मेरु नायक और गोविंद कमलाकर दीक्षित से इस विषयमें पूछताछ की । पादुकाओं का पूर्ण विवरण श्री साई लीला भाग 11, संख्या 1, पृष्ठ 25 में प्रकाशित हुआ है, जो निम्नलिखित है – शक 1834 (सन् 1912) में बम्बई के एक भक्त डाँ. रामराव कोठारे बाबा के दर्शनार्थ शिरडी आये । उनका कम्पाउंडर और उलके एक मित्र भाई कृष्ण जी अलीबागकर भी उनके साथ में थे । कम्पाउंडर और भाई की सगुण मेरु नायक तथा जी. के. दीक्षित से घनिष्ठ दोस्ती हो गई । अन्य विषयों पर विवाद करता समय इन लोगों को विचार आया कि श्री साई बाबा के शिरडी में प्रथम आगमन तथा पवित्र नीम वृक्ष के नीचे निवास करने की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष्य में क्यों न पादुकायें स्थापित की जायें । अब पादुकाओं के निर्माण पर विचार विमर्श होने लगा । तब भाई के मित्र कम्पाउंडर ने कहा कि यदि यह बात मेरे स्वामी कोठारी को विदित हो जाय तो वे इस कार्य के निमित्त अति सुन्दर पादुकायें बनवा देंगे । यह प्रस्ताव सबको मान्य हुआ और डाँ. कोठारे को इसकी सूचना दी गई । उन्होंने शिरडी आकर पादुकाओं की रुपरेखा बनाई तथा इस विषय में उपासनी महीराज से भी खंडोवा के मंदिर में भेंट की । उपासनी महाराज ने उसमेंबहुत से सुधार किये और कमल फूलादि खींच दिये तथा नीचे लिखा श्लोक भी रचा, जो नीम वृक्ष के माहात्म्य व बाबा की योगशक्ति का घोतक था, जो इस प्रकार है -
सदा निंबवृक्षस्य मूलाधिवासात्
सुधास्त्राविणं तित्तमप्यप्रियं तम् ।
तरुं कल्पवृक्षाधिकं साधयन्तं
नमानीश्वरं सद्गगुरुं साईनाथम् ।।
अर्थात् मैं भगवान साईनाथ को नमन करता हूँ, जिनका सानिध्य पाकर नीम वृक्ष कटु तथा अप्रिय होते हुए भी अमृत वर्षा करता था । (इस वृक्ष का रस अमृत कहलाता है) इसमें अनेक व्याधियों से मुक्ति देने के गुण होने के कारण इसे कल्पवृक्ष से भी श्रेष्ठ कहा गया है ।
उपासनी महाराज का विचार सर्वमान्य हुआ और कार्य रुप में भी परिणत हुआ । पादुकायें बम्बई में तैयार कराई गई और कम्पाउंडर के हाथ शिरडी भेज दी गई । बाबा की आज्ञानुसार इनकी स्थापना श्रावण की पूर्णिमा के दिन की गई । इस दिन प्रातःकाल 11 बजे जी.के. दीक्षित उन्हें अपने मस्तक पर धारण कर खंडोबा के मंदिर से बड़े समारोह और धूमधाम के साथ दृारका माई में लाये । बाबा ने पादुकायें स्पर्श कर कहा कि ये भगवान के श्री चरण है । इनकी नीम वृक्ष के नीचे स्थापना कर दो । इसके एक दिन पूर्व ही बम्बई के एक पारसी भक्त पास्ता शेट ने 25 रुपयों का मनीआर्डर भेजा । बाबा ने ये रुपये पादुकाओं की स्थापना के निमित्त दे दिये । स्थापना में कुल 100 रुपये हुये, जिनमें 75 रुपये चन्दे दृारा एकत्रित हुए । प्रथम पाँच वर्षों तक डाँ. कोठारे दीपक के निमित्त 2 रुपये मासिक भेजते रहे । उन्होंने पादुकाओं के चारों ओर लगाने के लिये लोहे की छडे़ भी भेजी । स्टेशन से छड़े ढोने और छप्पर बनाने का खर्च (7 रु. 8 आने) सगुण मेरु नायक ने दिये । आजकल जरबाड़ी (नाना पुजारी) पूजन करते है और सगुण मेरु नायक नैवेघ अर्पण करते तथा संध्या को दीहक जलाते है । भाई कृष्ण जी पहले अक्कलकोटकर महाराज के शिष्य थे । अक्कलकोटकर जाते हुए, वे शक 1834 में पादुका स्थापन के शुभ अवसर पर शिरडी आये और दर्शन करने के पश्चात् जब उन्होंने बाबा से अक्कलकोटकर प्रस्थान करने की आज्ञा माँगी, तब बाबा कहने लगे, अरे अक्कलकोटकर में क्या है । तुम वहाँ व्यर्थ क्यों जाते हो । वहाँ के महाराज तो यही (मैं स्वयं) हैं यह सुनकर भाई ने अक्कलकोटकर जाने का विचार त्याग दिया । पादुकाएँ स्थापित होने के पश्चात् वे बहुधा शिरडी आया करते थे । श्री बी.व्ही, देव ने अंत में ऐसा लिखा है कि इन सब बातों का विवरण हेमाडपंत को विदित नहीं था । अन्यथा वे श्री साई सच्चरित्र में लिखना कभी नहीं भूलते ।
शिरडी में एक पहलवान था, जिसका नाम मोहिद्दीन तम्बोली था । बाबा का उससे किसी विषय पर मतभेद हो गया । फलस्वरुप दोनों में कुश्ती हुई और बाबा हार गये । इसके पश्चात् बाबा ने अपनी पोशाक और रहन-सहन में परिवर्तन कर दिया । वे कफनी पहनते, लंगोट बाँधते और एक कपडे़ के टुकड़े से सिर ढँकते थे । वे आसन तथा शयन के लिये एक टाट का टुकड़ा काम में लाते थे । इस प्रकार फटे-पुराने चिथडे़ पहिन कर वे बहुत सन्तुष्ट प्रतीत होते थे । वे सदैव यही कहा करते थे । कि गरीबी अब्बल बादशाही, अमीरी से लाख सवाई, गरीबों का अल्ला भाई । गंगागीर को भी कुश्ती से बड़ा अनुराग था । एक समय जब वह कुश्ती लड़ रहा था, तब इसी प्रकार उसको भी त्याग की भावना जागृत हो गई । इसी उपयुक्त अवसर पर उसे देव वाणी सुनाई दी भगवान के साथ खेल भगवान के साथ खेल में अपना शरीर लगा देना चाहिये । इस कारण वह संसार छोड़ आत्म-अनुभूति की ओर झुक गया । पुणताम्बे के समीप एक मठ स्थापित कर वह अपने शिष्यों सहित वहाँ रहने लगा । श्री साई बाबा लोगों से न मिलते और न वार्तालाप ही करते थे । जब कोई उनसे कुछ प्रश्न करता तो वे केवल उतना ही उत्तर देते थे । दिन के समय वे नीम वृक्ष के नीचे विराजमान रहते थे । कभी-कभी वे गाँव की मेंड पर नाले के किनारे एक बबूल-वृक्ष की छाया में भी बैठे रहते थे । और संध्या को अपनी इच्छानुसार कहीं भी वायु-सेवन को निकल जाया करते थे । नीमगाँव में वे बहुधा बालासाहेब डेंगले के गृह पर जाया करते थे । बाबा श्री बालासाहेब को बहुत प्यार करते थे । उनके छोटे भाई, जिसका नाम नानासाहेब था, के दितीय विवाह करने पर भी उनको कोई संतान न थी । बालासाहेब ने नानासाहेब को श्री साई बाबा के दर्शनार्थ शिरडी भेजा । कुछ समय पश्चात उनकी श्री कृपा से नानासाहेब के यहाँ एक पुत्ररत्न हुआ । इसी समय से बाबा के दर्शनार्थ लोगों का अधिक संख्या में आना प्रारंभ हो गया तथा उनकी कीर्ति भी दूर दूर तक फैलने लगी । अहमदनगर में भी उनकी अधिक प्रसिदिृ हो गई । तभी से नानासाहेब चांदोरकर, केशव चिदम्बर तथा अन्य कई भक्तों की शिरडी में आगमन होने लगा । बाबा दिनभर अपने भक्तों से घिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मसजिद में शयन करते थे । इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाखू, एक टमरेल, एक लम्बी कफनी, सिर के चारों और लपेटने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे । सिर पर सफेद कपडे़ का एक टुकड़ा वे सदा इस प्रकार बाँधते थे कि उसका एक छोर बायें कान पर से पीठ पर गिरता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो बालों का जूड़ा हो । हफ्तों तक वे इन्हें स्वच्छ नहीं करते थे । पैर में कोई जूता या चप्पल भी नहीं पहिनते थे । केवल एक टाट का टुकड़ा ही अधिकांश दिन में उनके आसन का काम देता था । वे एक कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिये दक्षिण मुख हो धूनी से तपते थे । वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे तथा अपना अहंकार, समस्त इच्छायें और समस्च कुविचारों की उसमें आहुति दिया करते थे । वे अल्लाह मालिक का सदा जिहृा से उच्चारण किया करते थे । जिस मसजिद में वे पधारे थे, उसमें केवल दो कमरों के बराबर लम्बी जगह थी और यहीं सब भक्त उनके दर्शन करते थे । सन् 1912 के पश्चात् कुछ परिवर्तन हुआ । पुरानी मसजिद का जीर्णोदाार हो गया और उसमें एक फर्श भी बनाया गया । मसजिद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घ काल तक तकिया में रहे । वे पैरों में घुँघरु बाँधकर प्रेमविहृल होकर सुन्दर नृत्य व गायन भी करते थे ।
जल का तेल में परिवर्तन
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बाबा को प्रकाश से बड़ा अनुराग था । वे संध्या समय दुकानदारों से भिक्षा में तेल मागँ लेते थे तथा दीपमालाओं से मसजिद को सजाकर, रात्रिभर दीपक जलाया करते थे । यह क्रम कुछ दिनों तक ठीक इसी प्रकार चलता रहा । अब बलिये तंग आ गये और उन्होंने संगठित होकर निश्चय किया कि आज कोई उन्हें तेल की भिक्षा न दे । नित्य नियमानुसार जब बाबा तेल माँगने पहुँचें तो प्रत्येक स्थान पर उनका नकारात्मक उत्तर से स्वागत हुआ । किसी से कुछ कहे बिना बाबा मसजिद को लौट आये और सूखी बत्तियाँ दियों में डाल दीं। बनिये तो बड़े उत्सुक होकर उनपर दृष्टि जमाये हुये थे । बाबा ने टमरेल उठाया, जिसमें बिलकुल थोड़ा सा तेल था । उन्होंने उसमें पानी मिलाया और वह तेल-मिश्रित जल वे पी गये । उन्होंने उसे पुनः टीनपाट में उगल दिया और वही तेलिया पानी दियों में डालकर उन्हें जला दिया । उत्सुक बिनयों ने जब दीपकों को पूर्ववत् रात्रि भर जलते देखा, तब उन्हें अपने कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने बाबा से क्षमा-याचना की । बाबा ने उन्हें क्षमा कर भविष्य में सत्य व्यवहार रखने के लिये सावधान किया ।
मिथ्या गुरु जौहर अली
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उपयुक्त वर्णित कुश्ती के 5 वर्ष पश्चात जौहर अली नाम के एक फकीर अपने शिष्यों के साथ राहाता आये । वे वीरभद्र मंदिर के समीप एक मकान में रहने लगे । फकीर विदृान था । कुरान की आयतें उसे कंठस्थ थी ।उसका कंठ मधुर था । गाँव के बहुत से धार्मिक और श्रदृालु जन उसे पास आने लगे और उसका यथायोग्य आदर होने लगा । लोगों से आर्थिक सहायता प्राप्त कर, उसने वीरभद्र मंदिर के पास एक ईदगाह बनाने का निश्चय किया । इस विषय को लेकर कुछ झगड़ा हो गया, जिसके फलस्वरुप जौहर अली राहाता छोड़ शिरडी आया ओर बाबा के साथ मसजिद में निवास करने लगा । उसने अपनी मधुर वाणी से लोगों के मन को हर लिया । वह बाबा को भी अपना एक शिष्य बताने लगा । बाबा ने कोई आपत्ति नहीं की और उसका शिष्य होना स्वीका कर लिया । तब गुरु और शिष्य दोनों पुनः राहाता में आकर रहने लगे । गुरु शिष्य की योग्यता से अनभिज्ञ था, परंतु शिष्य गुरु के दोषों से पूर्ण से परिचित था । इतने पर भी बाबा ने कभी इसका अनादर नहीं किया और पूर्ण लगन से अपना कर्तव्य निबाहते रहे और उसकी अनेक प्रकार से सेवा की । वे दोनों कभी-कभी शिरडी भी आया करते थे, परंतु मुख्य निवास राहाता में ही था । श्री बाबा के प्रेमी भक्तों को उनका दूर राहाता में ऱहना अच्छा नहीं लगता था । इसलिये वे सब मिलकर बाबा को शिरडी वापस लाने के लिये गये । इन लोगों की ईदगाह के समीप बाबा से भेंट हुई ओर उन्हें अपने आगमन का हेतु बतलाया । बाबा ने उन लोगों को समझाया कि फकीर बडे़ क्रोधी और दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति है, वे मुझे नहीं छोडेंगे । अच्छा हो कि फकीर के आने के पूर्व ही आप लौट जाये । इस प्रकार वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में फकीर आ पहुँचे । इस प्रकार अपने शिष्य को वहाँ से ने जाने के कुप्रत्यन करते देखकर वे बहुत ही क्रुदृ हुए । कुछ वादविवाद के पश्चात् स्थति में परिवर्तन हो गया और अंत में यह निर्णय हुआ कि फकीर व शिष्य दोनों ही शिरडी में निवास करें और इसीलिये वे शिरडी में आकर रहने लगे । कुछ दिनों के बाद देवीदास ने गुरु की परीक्षा की और उसमें कुछ कमी पाई । चाँद पाटील की बारात के साथ जब बाबा शिरडी आये और उससे 12 वर्ष पूर्व देवीदास लगभग 10 या 11 वर्ष की अवस्था में शिरडी आये और हनुमान मंदिर में रहते थे । देवीदास सुडौल, सुनादर आकृति तथा तीक्ष्ण बुदि के थे । वे त्याग की साक्षात्मूर्ति तथा अगाध ज्ञगनी थे । बहुत-से सज्जन जैसे तात्या कोते, काशीनाथ व अन्य लोग, उन्हें अपने गुरु-समान मानते थे । लोग जौहर अली को उनके सम्मुख लाये । विवाद में जौहर अली बुरी तरह पराजित हुआ और शिरडी छोड़ वैजापूर को भाग गया । वह अनेक वर्षों के पश्चात शिरडी आया और श्री साईबाबा की चरण-वन्दना की । उसका यह भ्रम कि वह स्वये पुरु था और श्री साईबाबा उसके शिष्य अब दूर हो चुका था । श्री साईबाबा उसे गुरु-समान ही आदर करते थे, उसका स्मरण कर उसे बहुत पश्चाताप हुआ । इस प्रकार श्री साईबाबा ने अपने प्रत्यक्ष आचरण से आदर्श उरस्थित किया कि अहंकार से किस प्रकार छुटकारा पाकर शिष्य के कर्तव्यों का पालन कर, किस तरह आत्मानुभव की ओर अग्रसर होना चाहिये । ऊपर वर्णित कथा म्हिलसापति के कथनानुसार है । अगले अध्याय में रामनवमी का त्यौहार, मसजिद की पहली हालत एवं पश्चात् उसके जीर्णोंधार इत्यादि का वर्णन होगा ।
Baba’s Return with Chand Patil’s Marriage - party - Welcomed and Addressed as "Sai" - Contact with Other Saints - His Dress and Daily Routine - The Story of the Padukas - Wrestling Bout with Mohdin and Change in Life - Turning Water into Oil - The Pseudo - Guru Javhar Ali.
Return with Chand Patil’s Marriage - Party
As hinted in the last Chapter, I shall now describe first how Sai Baba returned to Shirdi after His disappearance.
There lived in the Aurangabad District (NizamState), in a village called Dhoop, a well-to-do Mahomedan gentleman by name Chand Patil. While he was making a trip to Aurangabad, he lost his mare. For two long months, he made a diligent search but could get no trace of the lost mare. After being disappointed, he returned from Aurangabad with the saddle on his back. After travelling four Koss and a half, he came, on the way, to a mango tree under the foot of which sat a RATNA (queer fellow). He had a cap on His head, wore Kafni (long robe) and had a "Satka" (short stick) under His armpit and He was preparing to smoke a Chilim (pipe). On seeing Chand Patil pass by the way, He called out to him and asked him to have a smoke and to rest a little. The Fakir asked him about the saddle. Chand Patil replied that it was of his mare, which was lost. The queer fellow or Fakir asked him to make a search in the Nala close by. He went and the wonder of wonders! He found out the mare. He thought that this Fakir was not an ordinary man, but an Avalia (a great saint). He returned to the Fakir with the mare. The Chilim was ready for being smoked, but two things were wanting; (1) fire to light the pipe, and (2) water to wet the chhapi (piece of cloth through which smoke is drawn up). The Fakir took His prong and thrust it forcibly into the ground and out came a live burning coal, which He put on the pipe. Then He dashed the Satka on the ground, from whence water began to ooze. The chhapi was wetted with that water, was then wrung out and wrapped round the pipe. Thus everything being complete, the Fakir smoked the Chilim and then gave it also to Chand Patil. On seeing all this, Chand Patil was wonderstruck. He requested the Fakir to come to his home and accept his hospitality. Next day He went to the Patil’s house and stayed there for some time. The Patil was a village - officer of Dhoop. His wife’s brother’s son was to be married and the bride was from Shirdi. So Patil made preparations to start for Shirdi for the marriage. The Fakir also accompanied the marriage-party. The marriage went off without any hitch, the party returned to Dhoop, except the Fakir alone stayed in Shirdi, and remained there forever.
How the Fakir Got the Name Sai
When the marriage - party came to Shirdi, it alighted at the foot of a Banyan tree in Bhagat Mhalsapati’s field near Khandoba’s temple. The carts were loosened in the open courtyard of Khandoba’s temple. The carts were loosened in the open courtyard of Khandoba’s temple, and the members of the party descended one by one, and the Fakir also got down. Bhagat Mhalsapati saw the young Fakir getting down and accosted Him "YA SAI" (Welcome Sai). Others also addressed Him as Sai and thenceforth he became known as Sai Baba.
Contact with Other Saints
Sai Baba began to stay in a deserted Masjid. One Saint named Devidas was living in Shirdi many years before Baba came there. Baba liked his company. He stayed with him in the Maruti temple, in the Chavadi, and some time lived alone. Then came another Saint by name Jankidas. Baba spent most of His time in talking with him, or Jankidas went to Baba’s residence. So also one Vaishya householder Saint, from Puntambe by name Gangagir always frequented Shirdi. When he first saw Sai Baba, carrying pitchers of water in both hands, for watering the garden, he was amazed and said openly, "Blessed is Shirdi, that it got this precious Jewel. This man is carrying water today; but He is not an ordinary fellow. As this land (Shirdi) was lucky and meritorious, it secured this Jewel." So also one famous Saint by name Anandnath of Yewala Math, a disciple of Akkalkot Maharaj came to Shirdi with some Shirdi people. When he saw Sai Baba, he said openly, "This is a precious Diamond in reality. Though he looks like an ordinary man, he is not a ‘gar’ (ordinary stone) but a Diamond. You will realize this in the near future." Saying this he returned to Yewala. This was said while Sai Baba was a youngster.
Baba’s Dress and Daily Routine
In his young days, Sai Baba grew hair on His head; never had His head shaved. He dressed like an athlete. When He went to Rahata (3 miles from Shirdi), He brought with Him small plants of Merry Gold, Jai and Jui, and after cleaning, he planted and watered them. A devotee by name Vaman Tatya supplied Him daily with two earthen pitchers. With these Baba Himself used to water the plants. He drew water from the well and carried the pitchers on His shoulders. In the evening the pitchers were kept at the foot of the Neem tree. As soon as they were placed there, they were broken, as they were made of raw earth and not baked. Next day, Tatya supplied two fresh pitchers. This course went on for 3 years; and with Sai Baba’s toil and labour, there grew a flower garden. On this site, at present, stands the big mansion - Samadhi Mandir of Baba, which is now frequented and used by so many devotees.
The Story of Padukas (foot-prints) under the Neem Tree
A devotee of Akkalkot Maharaj by name Bhai Krishnaji Alibagkar worshipped the photo of Akkalkot Maharaj. He once thought of going to Akkalkot (Sholapur District), taking the darshana of the Padukas (foot-prints) of the Maharaj and offering his sincere worship there; but before he could go there, he got a vision in his dream. Akkalkot Maharaj appeared in the vision and said to him - "Now Shirdi is my resting place, go there and offer your Worship." So Bhai changed his plan and came to Shirdi, worshipped Baba, stayed there for six months and was happy. As a reminiscence of this vision etc., he prepared the Padukas and installed them on an auspicious day of Shravan, Shaka 1834 (1912 A.D.) under the Neem tree with due ceremonies and formalities, conducted by Dada Kelkar and Upasani. One Dixit Brahmin was appointed for worship, and the management was entrusted to devotee Sagun.
Complete Version of this Story
Mr. B.V. Deo, Retired Mamalatdar of Thana, and a great devotee of Sai Baba, made enquired about this matter with Sagun Meru Naik and Govind Kamlakar Dixit and has published a full version of the Padukas in Sai Leela Vol. 11, No. 1, page 25. It runs as follows:
In 1834 Shaka (1912 A.D.) one Doctor Ramarao Kothare of Bombay came to Shirdi for Baba’s darshana. His compounder; and his friend, Bhai Krishnaji Alibagkar, accompanied him. The compounder and Bhai became intimate with Sagun Meru Naik and G.K. Dixit. While discussing things, these persons thought that there must be some memorial of the fact of Sai Baba’s first coming to Shirdi and sitting under the holy Neem tree. They thought of installing Baba’s Padukas there and were going to make them of some rough stones. Then Bhai’s friend, the compounder, suggested that if this matter be made known to his master, Dr. Ramarao Kothare, who would prepare nice Padukas for this purpose. All liked the proposal and Dr. Kothare was informed of it. He came to Shirdi and drew a plan of the Padukas. He went to Upasani Maharaj in Khandoba’s temple, and showed him his plan. The latter made many improvements, drew lotuses, flowers, conch, disc, man etc., and suggested that the following SHLOKA (verse) regarding Neem tree’s great ness and Baba’s Yogi powers be inscribed. The verse was as follows:
"Sada Nimbarvrikshasya mooladhiwasat,
Sudhasravinam tiktamapi-apriyam tam,
Tarum Kalpavrikshadhikam sadhayantam
Namameeshwaram Sadgurum Sai Natham"
Upasani’s suggestions were accepted and carried out. The Padukas were made in Bombay and sent to Shirdi with the compounder. Baba said that they should be installed on the Pournima (15th) of Shravan. On that day at , G.K. Dixit brought them on his head from Khandoba’s temple to the Dwarkamai (Masjid) in procession. Baba touched the Padukas, saying that these are the feet of the Lord and asked the people to instal them, under foot of the Neem tree.
A day before, one Parsi devotee of Bombay named Pastha Shet sent Rs.25/- by money order. Baba gave this sum for the installation of the Padhukas. The total expense of installation came up to Rs.100/- out of which Rs.75/- were collected by subscriptions. For the first 5 years, G.K. Dixit worshipped the Padukas daily and then Laxman Kacheshwar Jakhadi did this. In the first five years, Dr. Kothare sent Rs. 2 per month for lighting and he also sent the railing round the Padukas. The expense of bringing the railing from the station to Shirdi (Rs. 7-8-0) (presently Rs.7.50p) and roofing was paid by Sagun Meru Naik. Now, Jakhadi (Nana Pujari) does the worship and Sagun Meru Naik offers the naivaidya and lights the evening lamps.
Bhai Krishnaji was orginally a devotee of Akkalkot Maharaj. He had come to Shirdi at the installation of the Padukas, in Shaka 1834 on his way to Akkalkot. He wanted to go to Akkalkot after taking the darshana of Baba. He asked Baba’s permission for this. Baba said - "Oh, what is there in Akkalkot? Why do you go there? The incumbent Maharaj of that place is here, Myself." Hearing this Bhai did not go to Akkalkot. He came to Shirdi off and on, after the installation of the Padukas.
Mr. B.V. Deo concluded that Hemadpant did not know these details. Had be known them, he would not have failed to depict them in his Sat-charita.
Wresting Bout with Mohdin Tamboli and Change in Life
To return to other stories of Baba. There was a wrestler in Shirdi, by name Mohdin Tamboli. Baba and he did not agree on some items, and both had a fight. In this Baba was defeated. Thenceforth, Baba changed His dress and mode of living. He donned Kafni, wore a Langot (waist band) and covered His head with a piece of cloth. He took a piece of sackcloth for His seat, sackcloth for His bed and was content with wearing torn and worn out rags. He always said "Poverty is better than Kingship, far better than Lordship. The Lord is always brother (befriender) of the poor." Gangagir was also very fond of wrestling. While he was once wrestling, a similar feeling of dispassion came over him, and at the proper time he heard the voice of an adept, saying that he should wear out his body, playing with God. So he too gave up Samsara and turned towards God-realization. He established a math on the banks of the river near Puntambe, and lived there with disciples.
Sai Baba did not mix and speak with the people. He only gave answers when he was questioned. By day he always sat under the Neem tree, sometimes under the shade of a branch of a Babul tree near the stream at the outskirts of the village. In the afternoon, He used to walk at random and go at times to Nimgaon. There He frequented the house of Balasaheb Dengale. Baba loved Mr. Balasaheb. His younger brother, named Nanasaheb, had no son, though he married a second wife. Balasaheb sent Nanasaheb for taking darshana of Sai Baba, and after some time with His grace, Nanasaheb got a son. From that time onwards, people began to come in numbers to see Sai Baba, and His fame began to spread and reached Ahmednagar; from thence Nanasaheb Chandorkar and Keshav Chidamber, and many others began to come to Shirdi. Baba was surrounded by His devotees during day; and slept at night in an old and dilapidated Masjid. Baba’s paraphernalia at this time consisted of a Chilim, tobacco, a "Tumrel" (tin pot), long flowing Kafni, a piece of cloth round His head, and a Satka (short stick), which He always kept with Him. The piece of white cloth on the head was twisted like matted hair, and flowed down from the left ear on the back. This was not washed for weeks. He wore no shoes, no sandals. A piece of sack-cloth was His seat for most of the day. He wore a coupin (waist-cloth-band) and for warding off cold he always sat in front of a Dhuni (sacred fire) facing south with His left hand resting on the wooden railing. In that Dhuni, He offered as oblation; egoism, desires and all thoughts and always uttered Allah Malik (God is the sole owner). The Masjid in which He sat was only of two room dimensions, where all devotees came and saw Him. After 1912 A.D., there was a change. The old Masjid was repaired and a pavement was constructed. Before Baba came to live in this Masjid, He lived for a long time in a place Takia, where with GHUNGUR (small bells) on His legs, Baba danced beautifully sang with tender love.
Turning Water into Oil
Sai Baba was very fond of lights. He used to borrow oil from shopkeepers, and keep lamps burning the whole night in the Masjid and temple. This went on for some time. The Banias, who supplied oil gratis, once met together and decided not to give Him oil. When, as usual, Baba went to ask for oil, they all gave Him a distinct No. Unperturbed, Baba returned to the Masjid and kept the dry wicks in the lamps. The banias were watching Him with curiosity. Baba took the Tumrel (tin pot) which contained very little (a few drops) of oil, put water into it and drank it and forced it fall in the container. After consecrating the tin-pot in this way, He again took water in the tin-pot and filled all the lamps with it and lighted them. To the surprise and dismay of the watching Banias, the lamps began to burn and kept burning the whole night. The Banias repented and apologized. Baba forgave them and asked them to be more truthful in future.
The Pseudo-Guru Javhar Ali
Five years after the wrestling bout mentioned above, one Fakir from Ahmednager by name Javhar Ali came to Rahata with his disciples and stayed in Bakhal (spacious room) near Virabhadra temple. The Fakir was learned, could repeat the whole Koran and had a sweet tongue. Many religious and devout people of the village came to him and began to respect him. With the help of the people, he started to build an Idgah (a wall before which Mahomedans pray on Idgah day), near the Virabhadra temple. There was some quarrel about this affair, on account of which, Javhar Ali had to leave Rahata. Then he came to Shirdi and lived in the Masjid with Baba. People were captured by his sweet talk, and he began to call Baba his disciple. Baba did not object and consented to be his Chela. Then both Guru and Chela decided to return to Rahata and live there. The Guru (Teacher) never knew his disciple’s worth, but the disciple knew the defects of the Guru, still he never disrespected him, observing carefully his duties. He even served the Master in various ways. They used to come to Shirdi off and on, but their main stay was in Rahata. The loving devotees of Baba in Shirdi did not like, that Baba should stay away from them in Rahata. So they went in a deputation to bring Baba back to Shirdi. When they met Baba near the Idgah and told the purpose for which they came, Baba said to them that the Fakir was an ill-tempered fellow, he would not leave him and that they should better return to Shirdi without him, before the Fakir returned. While they were thus talking, the Fakir turned up and was very angry with them for trying to take away his disciple. There was some discussion and altercation and it was finally decided that both the Guru and Chela should return to Shirdi. And so they returned and lived in Shirdi. But after a few days the Guru was tested by Devidas and he was found wanting. Twelve years before Baba arrived in Shirdi with the marriage-party, this Devidas aged about 10 or 11 came to Shirdi and lived in the Maruti temple. Devidas had fine features and brilliant eyes, and he was dispassion incarnate and a Jnani. Many persons, namely Tatya Kote, Kashinath and others regarded, him as their Guru. They brought Javhar Ali in his presence, and in the discussion that followed; Javhar was worsted and fled from Shirdi. He went and stayed in Bijapur and returned after many years to Shirdi, and prostrated himself before Sai Baba. The delusion that he was Guru and Sai Baba his Chela was cleared away, and as he repented, Sai Baba treated him with respect. In this case Sai Baba showed by actual conduct how one should get rid of egoism and do the duties of a disciple to attain the highest end, viz., self-realization. This story is told here according to the version given by Mhalsapati (a great devotee of Baba).
In the next Chapter will be described Rama-Navami Festival, the Masjid, its former condition and later improvement etc.
शिर्डी में रहकर भी तेरा कण कण में वास है कोई पास होकर भी दूर है, तू सब के पास है हर प्राणी पर तेरी ममता है, तुझ में रब जैसी क्षमता है तू अपने ऊपर ले लेता जीवों पर आये दुःख तमाम जय साईं राम, जय साईं राम, ॐ साईं राम ||
क्यों कहते हैं मां-बाप को धरती के भगवान
एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पेड़ के आस-पास एक बच्चा खेलने आया करता था। बच्चे और पेड़ की दोस्ती हो गई। पेड़ ने उस बच्चे से कहा तू आता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। बच्चा बोला लेकिन तुम्हारी शाखाएं बहुत ऊंची है मुझे खेलने में दिक्कत होती है। बच्चे के लिए पेड़ थोड़ा नीचे झुक गया। वह बच्चा खेलने लगा। एक बार बहुत दिनों तक बच्चा नहीं आया तो पेड़ उदास रहने लगा। और जब वह आया तो वह युवा हो चुका था। पेड़ ने उससे पूछा तू अब क्यों मेरे पास नहीं आता? वह बोला अब मैं बड़ा हो गया हूं। अब मुझे कुछ कमाना है। पेड़ बोला मैं नीचे झुक जाता हूं तो मेरे फल तोड़ ले और इसे बेच दे। तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा।
इस तरह वह पेड़ जवानी में भी उसके काम आ गया। फिर बहुत दिनों तक वह नहीं आया। पेड़ फिर उदास रहने लगा। बहुत दिनों बाद वह वापस लौटा तो पेड़ ने कहा तुम कहा रह गए थे। वह बोला क्या बताऊं बड़ी समस्या है। परिवार बड़ा हो गया है अब मुझे एक घर बनाना है। पेड़ बोला एक काम कर मुझे काट ले। मेरी लकडिय़ां तेरे कुछ काम आएंगी। उसने पेड़ काट डाला। अब केवल एक ठूंठ रह गया पेड़ के स्थान पर।
फिर लंबे अरसे तक वह नहीं आया। एक दिन वह आया तो बड़ा चिंतित था। पेड़ बोला तुम कहां रह गए थे और इतने परेशान क्यों हो? वह बोला मैं तो पूरी तरह से परिवार में उलझ गया हूं। बाल-बच्चे हो गए हैं। बेटी के लिए रिश्ता देखने जाना है। रास्ते में नदी है कैसे जाऊँ? पेड़ बोला। तू एक काम कर यह जो थोड़ी लकड़ी और बची है इसे काटकर एक नाव बना और अपनी बेटी के लिए लड़का देखने जा। उसने ऐसा ही किया। फिर वह बहुत दिनों तक नहीं आया। बहुत दिनों बाद जब वह आया तो बड़ा परेशान था। पेड़ ने पूछा अब क्या हुआ? वह बोला मैंने बच्चों को बड़ा तो कर दिया पर अब यह चिंता है कि मेरे बच्चे मेरे चिता की लकड़ी भी लाएंगे कि नहीं?
पेड़ ने कहा ये जो भी कुछ बचा है मेरे शरीर का हिस्सा। इसे भी तू काट ले यह तेरे अंतिम समय में काम आएगा। और उसने पेड़ का बाकी हिस्सा भी काट लिया। और इस तरह उस पेड़ ने उस बच्चे के प्रेम में अपना संपूर्ण व्यक्तित्व ही न्यौछावर कर दिया।