शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Sunday, January 27, 2013

है कस्तूरी सम मोहक संत




ॐ सांई राम











है कस्तूरी सम मोहक संत। कृपा है उनकी सरस सुगंध।




ईखरसवत होते हैं संत। मधुर सुरूचि ज्यों सुखद बसंत॥




साधु-असाधु सभी पा करूणा। दृष्टि समान सभी पर रखना।




पापी से कम प्यार न करते। पाप-ताप-हर-करूणा करते॥




जो मल-युत है बहकर आता। सुरसरि जल में आन समाता।




निर्मल मंजूषा में रहता। सुरसरि जल नहीं वह गहता॥




वही वसन इक बार था आया। मंजूषा में रहा समाया।




अवगाहन सुरसरि में करता। धूल कर निर्मल खुद को करता॥




सुद्रढ़ मंजूषा है बैकुण्ठ। अलौकिक निष्ठा गंग तरंग।




जीवात्मा ही वसन समझिये। षड् विकार ही मैल समझिये॥




जग में तव पद-दर्शन पाना। यही गंगा में डूब नहाना।




पावन इससे होते तन-मन। मल-विमुक्त होता वह तत्क्षण॥




दुखद विवश हैं हम संसारी। दोष-कालिमा हम में भारी।




सन्त दरश के हम अधिकारी। मुक्ति हेतु निज बाट निहारी॥




गोदावरी पूरित निर्मल जल। मैली गठरी भीगी तत्जल।




बन न सकी यदि फिर भी निर्मल। क्या न दोषयुत गोदावरि जल॥




आप सघन हैं शीतल तरूवर।श्रान्त पथिक हम डगमग पथ हम।




तपे ताप त्रय महाप्रखर तम। जेठ दुपहरी जलते भूकण॥




ताप हमारे दूर निवारों। महा विपद से आप उबारों।




करों नाथ तुम करूणा छाया। सर्वज्ञात तेरी प्रभु दया॥




परम व्यर्थ वह छायातरू है। दूर करे न ताप प्रखर हैं।




जो शरणागत को न बचाये। शीतल तरू कैसे कहलाये॥




कृपा आपकी यदि नहीं पाये। कैसे निर्मल हम रह जावें।




पारथ-साथ रहे थे गिरधर। धर्म हेतु प्रभु पाँचजन्य-धर॥




सुग्रीव कृपा से दनुज बिभीषण। पाया प्राणतपाल रघुपति पद।




भगवत पाते अमित बङाई। सन्त मात्र के कारण भाई॥




नेति-नेति हैं वेद उचरते। रूपरहित हैं ब्रह्म विचरते।




महामंत्र सन्तों ने पाये। सगुण बनाकर भू पर लायें॥




दामा ए दिया रूप महार। रुकमणि-वर त्रैलोक्य आधार।




चोखी जी ने किया कमाल। विष्णु को दिया कर्म पशुपाल॥




महिमा सन्त ईश ही जानें। दासनुदास स्वयं बन जावें।




सच्चा सन्त बङप्पन पाता। प्रभु का सुजन अतिथि हो जाता॥




ऐसे सन्त तुम्हीं सुखदाता। तुम्हीं पिता हो तुम ही माता।




सदगुरु सांईनाथ हमारे। कलियुग में शिरडी अवतारें॥




लीला तिहारी नाथ महान। जन-जन नहीं पायें पहचान।




जिव्हा कर ना सके गुणगान। तना हुआ है रहस्य वितान॥




तुमने जल के दीप जलायें। चमत्कार जग में थे पायें।




भक्त उद्धार हित जग में आयें। तीरथ शिरडी धाम बनाए॥




जो जिस रूप आपको ध्यायें। देव सरूप वही तव पायें।




सूक्षम तक्त निज सेज बनायें। विचित्र योग सामर्थ दिखायें॥




पुत्र हीन सन्तति पा जावें। रोग असाध्य नहीं रह जावें।




रक्षा वह विभूति से पाता। शरण तिहारी जो भी आता॥




भक्त जनों के संकट हरते। कार्य असम्भव सम्भव करतें।




जग की चींटी भार शून्य ज्यों। समक्ष तिहारे कठिन कार्य त्यों॥




सांई सदगुरू नाथ हमारें। रहम करो मुझ पर हे प्यारे।




शरणागत हूँ प्रभु अपनायें। इस अनाथ को नहीं ठुकरायें॥




प्रभु तुम हो राज्य राजेश्वर। कुबेर के भी परम अधीश्वर।




देव धन्वन्तरी तव अवतार। प्राणदायक है सर्वाधार॥




बहु देवों की पूजन करतें। बाह्य वस्तु हम संग्रह करते।




पूजन प्रभु की शीधी-साधा। बाह्य वस्तु की नहीं उपाधी॥




जैसे दीपावली त्यौहार। आये प्रखर सूरज के द्वार।




दीपक ज्योतिं कहां वह लाये। सूर्य समक्ष जो जगमग होवें॥




जल क्या ऐसा भू के पास। बुझा सके जो सागर प्यास।




अग्नि जिससे उष्मा पायें। ऐसा वस्तु कहां हम पावें॥




जो पदार्थ हैं प्रभु पूजन के। आत्म-वश वे सभी आपके।




हे समर्थ गुरू देव हमारे। निर्गुण अलख निरंजन प्यारे॥




तत्वद्रष्टि का दर्शन कुछ है। भक्ति भावना-ह्रदय सत्य हैं।




केवल वाणी परम निरर्थक। अनुभव करना निज में सार्थक॥




अर्पित कंरू तुम्हें क्या सांई। वह सम्पत्ति जग में नहीं पाई।




जग वैभव तुमने उपजाया। कैसे कहूं कमी कुछ दाता॥




"पत्रं-पुष्पं" विनत चढ़ाऊं। प्रभु चरणों में चित्त लगाऊं।




जो कुछ मिला मुझे हें स्वामी। करूं समर्पित तन-मन वाणी॥




प्रेम-अश्रु जलधार बहाऊं। प्रभु चरणों को मैं नहलाऊं।




चन्दन बना ह्रदय निज गारूं। भक्ति भाव का तिलक लगाऊं॥




शब्दाभूष्ण-कफनी लाऊं। प्रेम निशानी वह पहनाऊं।




प्रणय-सुमन उपहार बनाऊं। नाथ-कंठ में पुलक चढ़ाऊं॥




आहुति दोषों की कर डालूं। वेदी में वह होम उछालूं।




दुर्विचार धूम्र यों भागे। वह दुर्गंध नहीं फिर लागे॥




अग्नि सरिस हैं सदगुरू समर्थ। दुर्गुण-धूप करें हम अर्पित।




स्वाहा जलकर जब होता है। तदरूप तत्क्षण बन जाता है॥




धूप-द्रव्य जब उस पर चढ़ता। अग्नि ज्वाला में है जलता।




सुरभि-अस्तित्व कहां रहेगा। दूर गगन में शून्य बनेगा॥




प्रभु की होती अन्यथा रीति। बनती कुवस्तु जल कर विभुति।




सदगुण कुन्दन सा बन दमके। शाशवत जग बढ़ निरखे परखे॥




निर्मल मन जब हो जाता है। दुर्विकार तब जल जाता है।




गंगा ज्यों पावन है होती। अविकल दूषण मल वह धोती॥




सांई के हित दीप बनाऊं। सत्वर माया मोह जलाऊं।




विराग प्रकाश जगमग होवें। राग अन्ध वह उर का खावें॥




पावन निष्ठा का सिंहासन। निर्मित करता प्रभु के कारण।




कृपा करें प्रभु आप पधारें। अब नैवेद्य-भक्ति स्वीकारें॥




भक्ति-नैवेद्य प्रभु तुम पाओं। सरस-रास-रस हमें पिलाओं।




माता, मैं हूँ वत्स तिहारा। पाऊं तव दुग्धामृत धारा॥




मन-रूपी दक्षिणा चुकाऊं। मन में नहीं कुछ और बसाऊं।




अहम् भाव सब करूं सम्पर्ण। अन्तः रहे नाथ का दर्पण॥




बिनती नाथ पुनः दुहराऊं। श्री चरणों में शीश नमाऊं।



सांई कलियुग ब्रह्म अवतार। करों प्रणाम मेरे स्वीकार॥






===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===








बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।











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