शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Monday, April 30, 2012

मेरे साईं चले आये



ॐ सांई राम










जब जब
तुम्हे पुकारा




मुझे
देख मुस्कुराये




मेरे
साईं चले आये




जब कहर की आंधी आई




और कदम डगमगाए




मेरे साईं चले आये




मेरे बाबा चले आये








 






मेरे साईं जब भी मैंने




तनहा खुद को पाया




तुने ही सर पे मेरे




बनाया अपना साया




जब घोर तूफां आये




और दिल मेरा घबराये




मेरे साईं चले आये




मेरे साईं चले आये










दर्शन की जब तमन्ना




मुझे हर घडी सताए




भक्ति की राह पर जब




कदम चल न पाए




कभी राम बन के आये




कभी शाम बन के आये




मेरे बाबा चले आये




मेरे बाबा चले आये




 






माया की डंकिनी ने




जब जब मुझे सताया




मुझे अपनी ओर खींचकर




मेरे क़दमों को भटकाया




कभी संत बन के आये




या फकीर बन के आये




मेरे साईं चले आये




मेरे साईं चले आये





भजन प्रस्तुति बहन रविंदर जी के कर कमलों द्वारा

साईं सब में तू समाया, जीयूं कैसे बिन तिहारे


ॐ सांई राम















साईं सब में तू समाया, जीयूं कैसे बिन तिहारे




तेरे दर पे साईं आके, झुकते हैं सर हमारे




साईं सब में तू समाया, जीयूं कैसे बिन तिहारे





सभी देवता हैं तुझमे, मुझे दिखते हैं जो  हर दम




चलता हूँ मै तो साईं, तेरे नाम के सहारे




साईं सब में तू समाया, जीयूं कैसे बिन तिहारे








मस्ती में मै  डूबा हूँ, दुनिया से जा के कह दो




मुझे होश मै न लायें, झूठे जग के ये नज़ारे




साईं सब में तू समाया, जीयूं कैसे बिन तिहारे











साईं नाम का प्याला, उन सभी को तू पिला दे




जो तकते हैं राह तेरी, हैं सभी जो ग़म के मारे




साईं सब में तू समाया, जीयूं कैसे बिन तिहारे





यह भजन माला बहन रविंदर जी के गुलदस्तें से ली गयी है...





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Sunday, April 29, 2012

साईं का रूप बना के आया रे डमरू वाला



ॐ सांई राम






साईं का रूप बना के आया रे डमरू वाला

काशी को छोड़ के शिव ने शिर्डी में डेरा डाला







त्याग दिया त्रिशूल कमंडल हाथ में छड़ी उठा ली



ना जाने क्या सोच के झोली काँधे पे लटका ली



गंगा में विसर्जित कर दी शिव ने सर्पों की माला रे



 साईं का रूप बना के आया रे डमरू वाला






शिव है साईं साईं शिव है बात नहीं ये झूठी



भस्म है ये भोले शंकर की कहते हैं जिसको विभूति



जो मांगोगे दे देगा है शिव सा भोला भाला रे



साईं का रूप बना के आया रे डमरू वाला






साईं तपस्वी साईं योगी साईं है सन्यासी



घर घर में है वास उसी का वो है घाट घाट वासी



शिव शम्भू शम्भू जप ले या जप साईं की माला रे



साईं का रूप बना के आया रे डमरू वाला







 





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Saturday, April 28, 2012

रो रही अखियाँ मेरी तो साईं





ॐ सांई राम



रो रही अखियाँ मेरी तो साईं,

तुम तो न आये याद तुम्हारी आई






सूरज भी आये चंदा भी आये,

आसमा पे साईं तारे टिमटिमाये

एक तुम ही न आये साईं,

याद तुम्हारी आई



आई बसंत ये मन मुरझाया,

बरखा की बूंदों ने न भी न हर्षाया

बरखा भी आंसू बन के आई,

याद तुम्हारी आई



ईद दिवाली कैसे मनाऊं,

बिन साईं दीप मैं कैसे जलाऊं

याद में जलता हूँ साईं,

याद तुम्हारी आई



रो रही अखियाँ मेरी तो साईं,

तुम तो न आये याद तुम्हारी आई




यह सुंदर प्रस्तुति बहन साईं जास्मिन ( मलेसिया से ) के द्वारा



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Friday, April 27, 2012

ये माटी का पुतला इक दिन माटी में मिल जायेगा


ॐ साईं राम








राम साईं राम साईं राम साईं राम


शाम साईं शाम साईं शाम साईं शाम


भाग्यवान है मानव तुझको


सिमरन को जिह्वा है मिली


मन में जगा ले नाम की ज्योति


ये काया है मिटने चली


राम साईं राम साईं राम साईं राम


शाम साईं शाम साईं शाम साईं शाम








जग जा अब भी ओ प्राणी


ये समय गुज़रता जायेगा


ये माटी का पुतला इक दिन


माटी में मिल जायेगा


राम साईं राम साईं राम साईं राम


शाम साईं शाम साईं शाम साईं शाम






झूठी धन दौलत पे प्राणी


क्यों इतराए घड़ी घड़ी


मन में जगा ले नाम की ज्योति


ये काया है मिटने चली


राम साईं राम साईं राम साईं राम


शाम साईं शाम साईं शाम साईं शाम






इसी नाम की नाव पे तर गयी


कृष्ण भक्त मीरा बाई


पी गयी विष का प्याला फिर भी


उसको मौत नहीं आई


राम साईं राम साईं राम साईं राम


शाम साईं शाम साईं शाम साईं शाम






मन में रख श्रद्धा सबुरी


करता जा तू सबकी भली


मन में जगा ले नाम की ज्योति


ये काया है मिटने चली


राम साईं राम साईं राम साईं राम


शाम साईं शाम साईं शाम साईं शाम




यह पेशकश बहन रविंदर गोएल जी के द्वारा प्रस्तुत की जा रही है


Thursday, April 26, 2012

साईं नाम जप ले बन्दे तर जायेगा


ॐ सांई राम













साईं नाम साईं नाम जपता जा,




साईं राम साईं राम रटता जा


साईं नाम जप ले बन्दे तर जायेगा




टूट गयी गर डोर तो फिर पछतायेगा




माटी का चोला माटी बन जायेगा




बन जायेगा, बन जायेगा, बन जायेगा




टूट गयी गर डोर तो फिर पछतायेगा










सारा जीवन तू डोला, कभी राम नाम नI बोला




सारा जीवन तू डोला, कभी राम नाम नI बोला




बड़ी
मुश्किल से मिलता है, मानव का ये चोला




हीरा जन्म अमोल तू यूँ ही गवायेगा,


टूट गयी गर डोर तो फिर पछतायेगा




साईं नाम जप ले बन्दे तर जायेगा,


टूट गयी गर डोर तो फिर पछतायेगा











तेरे पाप पुण्य का लेखा, सब साईं ने है देखा




तेरे पाप पुण्य का लेखा, सब साईं ने है देखा




कर दे साईं को अर्पण, अपने
कर्मों का लेखा




कर्मों का फल इस, जनम में ही कट जायेगा




टूट गयी गर डोर तो फिर पछतायेगा




साईं नाम जप ले बन्दे तर जायेगा




टूट गयी गर डोर तो फिर पछतायेगा




 








अब तो बन्दे तू संभल जा, इस जीवन में कुछ कर जा




साईं चरणों में आ के, भव सागर
से तू तर जा




चाह के भी फिर तू , कुछ ना कर पायेगा




टूट गयी गर डोर, तो फिर पछतायेगा




साईं नाम जप ले, बन्दे तर जायेगा




टूट गयी गर डोर, तो फिर पछतायेगा




माटी का चोला, माटी बन जायेगा




बन जायेगा, बन जायेगा, बन जायेगा




टूट गयी गर डोर, तो फिर पछतायेगा





This is Presented by Sai Devotee Smt. Ravinder Ji Goel

Wednesday, April 25, 2012

Shirdi Darshan


ॐ सांई राम



Shirdi - Sai BabaSamadhi Mandir






The Mandir is built with stones and Baba's Samadhi is built with white marble stones. A railing is built in marble around the Samadhi and is full of ornamental decorations. In front of the Samadhi are two silver pillars full of decorative designs. Just behind the Samadhi is Sai Baba's marvelous statue made of Italian marble which shows him seated on a throne. This idol was made by late Balaji Vasant.






This statue was installed on 7th October 1954. Above the statue is an open, silver umbrella. The front of the Mandir has an assembly hall where about 600 devotees can be accomadated. Here is the show-case where various things handled by Baba are kept. On the first floor of the Mandir are pictures depicting the life of Baba.





The routine of the temple starts at 5 o'clock in the morning with Bhoopali, a morning song, and closes at 10 o'clock in the night after Shejarati is sung. Only on three occasions the temple is kept open overnight .ie. on Gurupoornima, Dassera, and Ramnavami. Every Thursday and on each fesitival, a Palakhi with Baba's photo is taken out from the temple.







Dwarkamai





Shri Sai Baba came to Shridhi with a marriage procession. He stayed at Dwarkamai till the very end of his life. Dwarkamai is situated on the right side of the entrance of Samadhi Mandir. Here he solved problems of the people, cured their sickness and worries. Before Baba's arrival in Shridhi, Dwarkamai was an old mosque in a dilapidated condition. Baba turned it into Dwarkamai and proved that God is one.





The first level of Dwarkamai has a portrait of Baba and a big stone on which Baba used to sit. This level has two rooms. One contains the chariot and the second a palkhi. Just in front of the room where the chariot is kept is a small temple. A saffron flag flies over it. The second level of Dwarkamai has a square stool made of stone, which Baba used for taking a bath. The main attraction of this place is the oil painting of Shri Sai Baba sitting in a carved wooden shrine. This level also has the grinding stone and the wooden vessel called Kolamba in which Baba used to keep the Bhiksha brought from the village.










Gurusthan


Sai Baba first came to Shridhi in the form of Bal Yogi - a child ascetic. He was first spotted seated under a Neem tree. This place came to be known as Gurusthan. The renovation of Gurusthan was made on 30th September, 1941. The present temple was built after this period. There is a small shrine in Gurusthan. On a elevated platform of this shrine a big portrait of Baba is placed. On the side is a marble statue of Baba. In front of the portrait is a Shivling and the Nandi. Photos of twelve Jyotirlingas are kept in the temple. The branches of the Neem tree have come out through the roof of the temple.








CHAVADI







At a short distance lies Baba's CHAVADI. Baba used to sleep here every alternate day. The Chavadi is divided into two parts. One part of the Chavadi has a large portrait of Baba along with a wooden bed and a white chair belonging to him. There is a cottage of Abdul Baba, an ardent devotee of Shri Sai Baba, in front of the Chavadi. The Lendi Baug was looked after by Abdul Baba. There are photos and various things which were handled by Sai Baba and Abdul Baba in the cottage.There is a Maruti Mandir located at some distance from the cottage of Abdul Baba. This mandir was visited by Baba for the sat-sang with Devidas, a Balyogi, who lived at the Mandir ten to twelve years before Baba arrived. There are also temples of village deities named Shani, Ganapati, and Shankar to be visited.







Lendi Bagh





At some distance from Gurusthan there is the Lendi Baug. This Baug was made and watered daily by Baba himself. It got its name from a Nalla (a drain) which used to previously flow there. Baba used to come here every morning and afternoon and take rest under a Neem tree. Baba dug a pit, 2 feet deep, under the Neem tree and kept a Deep lit in that pit. One octangular Deepgriha called Nanda Deep has been built in marble stone in memory of this place.





It constantly burns in a glass box. On one side of the Deepgriha is a Peepal tree and on the other side is a Neem tree. Some distance away is a Datta Mandir below an Audumbar tree. In the Mandir there is a statue of Datta built in marble stone. The statue of Datta was installed on 6th December, 1976. Just behind the Datta Mandir is a Samadhi of the horse, Shyamsundar which belonged to Baba and which used to bow to him. Lendi Baug also has a well dug by Baba with the cooperation of his devotees. At the entrance of the Baug are the Samadhi's of ardent Sai devotees Tatya Kote Patil, Bhau Maharaj Kumbhar, Nanavalli and Abdul Baba.







Khandoba Mandir


This temple is situated on the main road. In front of this temple Baba was welcomed by Poojari Mhalsapati, of this temple, saying "Aao Sai", when Baba stepped in Shridi. In this temple there are icons of Khandoba, Banai and Mhalsai. How to get there Shirdi is located approximately 296 Kilometers from Mumbai (Bombay) City in India.










By Rail


The nearest railway station is Kopargaon 19 kilometers on Manmad-Daund section of Central Railways.One could take a Central Railway train from Mumbai (Bombay) V.T. station to Manmad station and then take a bus to Shirdi. State transport buses are available from Manmad to Shirdi. By Road :Well connected to Mumbai, Nasik. By Air : Programmes and Their Timeings : Kakad Arati 5:15 a.m. Holy Bath of Shri Sai Baba 6:00 a.m. Darshan Begins 7:00 a.m. Satyanarayana Pooja 9:00 a.m. Abhishek 9:00 a.m. Noon Arati 12:00 Noon Pravachan or Pujan 4:00 p.m. Dhuparati Sunset Bhajan, Keertan, Vocal Music, etc 9:00 p.m. Shejarati 10:00 p.m Important instructions to devotees arriving in Shirdi For proper guidance and assistance to the devotees, Reception centers have been opened opposite the S.T. Bus stand.





On arrival to Shirdi, devotees should immediately get in touch with the above mention Reception centers of the Sansthan and should thereafter proceed to the Enquiry Office for booking their accommodation which is made available after registration of name and other particulars. Occupied room(s) should be locked before going out. If the accommodation provided is in the common hall, luggage should always be left in charge of a member of the party to safeguard it from anti-social elements.A locker is available at nominal charge and against a deposit, which may be booked at the enquiry office, and used for keeping luggage or any other valuables.





Care should be taken not to leave any belongings behind in the toilets and the bathrooms. As the Samadhi Mandir is over-crowded at the time of Arati, devotees should safeguard their ornaments and purses from pick-pockets and mind their children. Devotees should note that all religious functions and Poojas in the Sansthan premises are to be arranged and performed through the office of the Sansthan. Necessary payments for these are to be made at the office against a receipt. Boxes have been provided by the Sansthan in the Mandir itself to receive the devotees' offerings by way of Dakshina and Hundis. Offering to Shri Sai Baba in cash or kind should always be made at the office against a receipt. Devotees should bear in mind that Baba left no heirs or disciples and should guard themselves against such deception practiced by impostors.








As all the necessary assistance and guidance is readily available to the devotees at the Reception center of the Sansthan, assistance from unauthorized guides at the S.T. stand, if taken by the devotees, will be at their own risk. Devotees are warned against practitioners of black magic professing allegiance to Shri Sai Baba, and also against those circulating chain-letters, asking the receiver to send a certain number of copies of the letter to his friends. Literature about Shri Sai Baba containing authentic information has been published by the Sansthan and is readily available at book shops near the Samadhi Mandir.





A complaint/suggestion book is always kept in the office for the use by the devotees, in which they are requested to write clearly their complaints/suggestions along with their full name(s) and addresses. The Sansthan authorities take due note of such complaints/suggestions. Donations should always be sent by Money Orders, Postal Orders, Crossed and A/c. Payee Cheques or Drafts to ensure safe delivery of the same.





Do not send cash or currency notes in postal envelopes. As the various dealers and vendors of Pooja articles are not connected with the Sansthan, devotees should first fix the price before buying these articles to avoid any trouble thereafter. All donations for oil for the Nanda-deep and for firewood for Dhuni in the Dwarkamai are to be given in the Accounts office only. Further details regarding these can be obtained from the Temple-in-charge. Devotees desirous of feeding the poor can arrange to do so against cash payment to be made to the Prasadalaya itself or the account office. Coupons are not accepted for this purpose. Devotees desirous of distributing alms to beggars can do so only in the beggars' shed, near Prasadalaya with the help of the Security officer.





Devotees making correspondence should give their complete and correct addresses. Devotees are requested to avail of the facilities at the Tea canteen and Prasadalaya run by the Sansthan where tea and meals are served at subsidized rates. Medical facilities are available at the well-equipped Sainath Hospital run by the Shirdi Sansthan. The Sansthan has not appointed any representative for the purpose of collecting donations in cash or otherwise. Devotees are informed that no donations either in cash or otherwise should be given to anybody personally. This is to avoid deceit as well as to prevent devotees from being cheated by unscrupulous elements.









Source : Publications of the Shri Sai Baba Sansthan, Shirdi .




श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-5





ॐ सांई राम





आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |

 


हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

 


हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|




श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-5

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चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन, अभिनंदन तथा श्री साई शब्द से सम्बोधन, अन्य संतों से भेंट, वेश-भूषा व नित्य कार्यक्रम, पादुकाओं की कथा, मोहिद्दीन के साथ कुश्ती, मोहिद्दीन का जीवन परिवर्तन, जल का तेल में रुपान्ततर, मिथ्या गरु जौहरअली ।


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जैसा गत अध्याय में कहा गया है, मैं अब श्री साई बाबा के शिरडी से अंतर्दृान होने के पश्चात् उनका शिरडी में पुनः किस प्रकार आगमन हुआ, इसका वर्णन करुँगा ।









चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन
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जिला औरंगाबाद (निजाम स्टेट) के धूप ग्राम में चाँद पाटील नामक एक धनवान् मुस्लिम रहते थे । जब वे औरंगाबाद जा रहे थे तो मार्ग में उनकी घोड़ी खोगई । दो मास तक उन्होंने उसकी खोज में घोर परिश्रम किया, परन्तु उसका कहीं पता न चल सका । अन्त में वे निराश होकर उसकी जीन को पीट पर लटकाये औरंगाबाद को लौट रहे थे । तब लगभग 14 मील चलने के पश्चात उन्होंने एक आम्रवृक्ष के नीचे एस फकीर को चिलम तैयार करते देखा, जिसके सिर पर एक टोपी, तन पर कफनी और पास में एक सटका था । फकीर के बुलाने पर चाँद पाटील उनके पास पहुँचे । जीन देखते ही फकीर ने पूछा यह जीन कैसी । चाँद पाटील ने निराशा के स्वर में कहा क्या कहूँ मेरी एक घोड़ी थी, वह खो गई है और यह उसी की जीन है ।



फकीर बोले – थोड़ा नाले की ओर भी तो ढूँढो । चाँद पाटील नाले के समीप गये तो अपनी घोड़ी को वहाँ चरते देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि फकीर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, वरन् कोई उच्च कोटि का मानव दिखलाई पड़ता है । घोड़ी को साथ लेकर जब वे फकीर के पास लोटकर आये, तब तक चिलम भरकर तैयार हो चुकी थी । केवल दो वस्तुओं की और आवश्यकता रह गई थी। एक तो चिलम सुलगाने के लिये अग्नि और दितीय साफी को गीला करने के लिये जल की ।फकीर ने अपना चिमटा भूमि में घुसेड़ कर ऊपर खींचा तो उसके साथ ही एक प्रज्वलित अंगारा बाहर निकला और वह अंगारा चिलम पर रखा गया । फिर फकीर ने सटके से ज्योंही बलपूर्वक जमीन पर प्रहार किया, त्योंही वहाँ से पानी निकलने लगा ओर उसने साफी को भिगोकर चिलम को लपेट लिया । इस प्रकार सब प्रबन्ध कर फकीर ने चिलम पी ओर तत्पश्चात् चाँद पाटील को भी दी । यह सब चमत्कार देखकर चाँद पाटील को बड़ा विस्मय हुआ । चाँद पाटील ने फकीर ने अपने घर चलने का आग्रह किया । दूसरे दिन चाँद पाटील के साथ फकीर उनके घर चला गया । और वहाँ कुछ समय तक रहा । पाटील धूप ग्राम की अधिकारी था और बारात शिरडी को जाने वाली थी । इसलिये चाँद पाटील शिरडी को प्रस्थान करने का पूर्ण प्रबन्ध करने लगा । फकीर भी बारात के साथ ही गया । विवाह निर्विध्र समाप्त हो गया और बारात कुशलतापू्र्वक धूप ग्राम को लौट आई । परन्तु वह फकीर शिरडी में ही रुक गया और जीवनपर्यन्त वहीं रहा ।










फकीर को साई नाम कैसे प्राप्त हुआ
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जब बारात शिरडी में पहुँची तो खंडोबा के मंदिर के समीप म्हालसापति के खेत में एक वृक्ष के नीचे ठहराई गई । खंडोबा के मंदिर के सामने ही सब बैलगाड़ियाँ खोल दी गई और बारात के सब लोग एक-एक करके नीचे उतरने लगे । तरुण फकीर को उतरते देख म्हालसापति ने आओ साई कहकर उनका अभिनन्दन किया तथा अन्य उपस्थित लोगों ने भी साई शब्द से ही सम्बोधन कर उनका आदर किया । इसके पश्चात वे साई नाम से ही प्रसिदृ हो गये ।





अन्त संतों से सम्पर्क
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शिरडी आने पर श्री साई बाबा मसजिद में निवास रने लगे । बाबा के शिरडी में आने के पूर्व देवीदास नाम के एक सन्त अनेक वर्षों से वहाँ रहते थे । बाबा को वे बहुत प्रिय थे । वे उनके साथ कभी हनुमान मन्दिर में और कभी चावड़ी में रहते थे । कुछ समय के पश्चात् जानकीदास नाम के एक संत का भी शिरडी में आगमन हुआ । अब बाबा जानकीदास से वार्तालाप करने में अपना बहुत-सा समय व्यतीत करने लगे । जानकीदास भी कभी-कभी बाबा के स्थान पर चले आया करते थे और पुणताम्बे के श्री गंगागीर नामक एक पारिवारिक वैश्य संत भी बहुधा बाबा के पास आया-जाया करते थे । जब प्रथम बार उन्होंने श्री साई बाबा को बगीचा-सिंचन के लिये पानी ढोते देखा तो उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ । वे स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि शिरडी परम भाग्यशालिनी है, जहाँ एक अमूल्य हीरा है । जिन्हें तुम इस प्रकार परिश्रम करते हुए देख रहे हो, वे कोई सामान्य पुरुष नहीं है । अपितु यह भूमि बहुत भाग्यशालिनी तथा महान् पुण्यभूमि है, इसी कारण इसे कारण इसे यह रत्न प्राप्त हुआ है । इसी प्रकार श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक प्रसिदृ शिष्य पधारे, उन्होंने भी स्पष्ट कहा कि यघपि बाहृदृषि्ट से ये साधारण व्यक्ति जैसे प्रतीत होते है, परंतु ये सचमुच असाधारण व्यक्ति है । इसका तुम लोगों को भविष्य में अनुभव होगा । ऐसा कहकर वो येवला को लौट गये । यह उस समय की बात है, जब शिरडी बहुत ही साधारण-सा गाँव था और साई बाबा बहुत छोटी उम्र के थे ।











बाबा का रहन-सहन व नित्य कार्यक्रम
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तरुण अवस्था में श्री साई बाबा ने अपने केश कभी भी नहीं कटाये और वे सदैव एक पहलवान की तरह रहते थे । जब वे रहाता जाते (जो कि शिरडी से 3 मील दूर है)तो गहाँ से वे गेंदा, जाई और जुही के पौधे मोल ले आया करते थे । वे उन्हें स्वच्छ करके उत्तम भूमि दोखकर लगा देते और स्वंय सींचते थे । वामन तात्या नाम के एक भक्त इन्हें नित्य प्रति दो मिट्टी के घडे़ दिया करते थे । इन घड़ों दृारा बाबा स्वंय ही पौधों में पानी डाला करते थे । वे स्वंय कुएँ से पानी खींचते और संध्या समय घड़ों को नीम वृक्ष के नीचे रख देते थे । जैसे ही घड़े वहाँ रखते, वैसे ही वे फूट जाया करते थे, क्योंकि वे बिना तपाये और कच्ची मिट्टी क बने रहते थे । दूसरे दिन तात्या उन्हें फिर दो नये घड़े दे दिया करते थे । यह क्रम 3 वर्षों तक चला और श्री साई बाबा इसी स्थान पर बाबा के समाधि-मंदिर की भव्य इमारत शोभायमान है, जहाँ सहस्त्रों भक्त आते-जाते है ।











नीम वृक्ष के नीचे पादुकाओं की कथा
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श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक भक्त, जिनका नाम भाई कृष्ण जी अलीबागकर था, उनके चित्र का नित्य-प्रति पूजन किया करते थे । एक समय उन्होंने अक्कलकोटकर (शोलापुर जिला) जाकर महाराज की पादुकाओं का दर्शन एवं पूजन करने का निश्चय किया । परन्तु प्रस्थान करने के पूर्व अक्कलकोटकर महाराज ने स्वपन में दर्शन देकर उनसे कहा कि आजकल शिरडी ही मेरा विश्राम-स्थल है और तुम वहीं जाकर मेरा पूजन करो । इसलिये भाई ने अपने कार्यक्रम में परिवर्तन कर शिरडी आकर श्री साईबाबा की पूजा की । वे आनन्दपूर्वक शिरडी में छः मास रहे और इस स्वप्न की स्मृति-स्वरुप उन्होंने पादुकायें बनवाई । शके सं. 1834 में श्रावण में शुभ दिन देखकर नीम वृक्ष के नीचे वे पादुकायें स्थापित कर दी गई । दादा केलकर तथा उपासनी महाराज ने उनका यथाविधि स्थापना-उत्सव सम्पन्न किया । एक दीक्षित ब्राहृमण पूजन के लिये नियुक्त कर दिया गया और प्रबन्ध का कार्य एक भक्त सगुण मेरु नायक को सौंप गया ।





कथा का पूर्ण विवरण
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ठाणे के सेवानिवृत मामलतदार श्री.बी.व्ही.देव जो श्री साईबाबा के एक परम भक्त थे, उन्होंने सगुण मेरु नायक और गोविंद कमलाकर दीक्षित से इस विषयमें पूछताछ की । पादुकाओं का पूर्ण विवरण श्री साई लीला भाग 11, संख्या 1, पृष्ठ 25 में प्रकाशित हुआ है, जो निम्नलिखित है – शक 1834 (सन् 1912) में बम्बई के एक भक्त डाँ. रामराव कोठारे बाबा के दर्शनार्थ शिरडी आये । उनका कम्पाउंडर और उलके एक मित्र भाई कृष्ण जी अलीबागकर भी उनके साथ में थे । कम्पाउंडर और भाई की सगुण मेरु नायक तथा जी. के. दीक्षित से घनिष्ठ दोस्ती हो गई । अन्य विषयों पर विवाद करता समय इन लोगों को विचार आया कि श्री साई बाबा के शिरडी में प्रथम आगमन तथा पवित्र नीम वृक्ष के नीचे निवास करने की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष्य में क्यों न पादुकायें स्थापित की जायें । अब पादुकाओं के निर्माण पर विचार विमर्श होने लगा । तब भाई के मित्र कम्पाउंडर ने कहा कि यदि यह बात मेरे स्वामी कोठारी को विदित हो जाय तो वे इस कार्य के निमित्त अति सुन्दर पादुकायें बनवा देंगे । यह प्रस्ताव सबको मान्य हुआ और डाँ. कोठारे को इसकी सूचना दी गई । उन्होंने शिरडी आकर पादुकाओं की रुपरेखा बनाई तथा इस विषय में उपासनी महीराज से भी खंडोवा के मंदिर में भेंट की । उपासनी महाराज ने उसमेंबहुत से सुधार किये और कमल फूलादि खींच दिये तथा नीचे लिखा श्लोक भी रचा, जो नीम वृक्ष के माहात्म्य व बाबा की योगशक्ति का घोतक था, जो इस प्रकार है -





सदा निंबवृक्षस्य मूलाधिवासात्
सुधास्त्राविणं तित्तमप्यप्रियं तम् ।
तरुं कल्पवृक्षाधिकं साधयन्तं
नमानीश्वरं सद्गगुरुं साईनाथम् ।।





अर्थात् मैं भगवान साईनाथ को नमन करता हूँ, जिनका सानिध्य पाकर नीम वृक्ष कटु तथा अप्रिय होते हुए भी अमृत वर्षा करता था । (इस वृक्ष का रस अमृत कहलाता है) इसमें अनेक व्याधियों से मुक्ति देने के गुण होने के कारण इसे कल्पवृक्ष से भी श्रेष्ठ कहा गया है ।





उपासनी महाराज का विचार सर्वमान्य हुआ और कार्य रुप में भी परिणत हुआ । पादुकायें बम्बई में तैयार कराई गई और कम्पाउंडर के हाथ शिरडी भेज दी गई । बाबा की आज्ञानुसार इनकी स्थापना श्रावण की पूर्णिमा के दिन की गई । इस दिन प्रातःकाल 11 बजे जी.के. दीक्षित उन्हें अपने मस्तक पर धारण कर खंडोबा के मंदिर से बड़े समारोह और धूमधाम के साथ दृारका माई में लाये । बाबा ने पादुकायें स्पर्श कर कहा कि ये भगवान के श्री चरण है । इनकी नीम वृक्ष के नीचे स्थापना कर दो । इसके एक दिन पूर्व ही बम्बई के एक पारसी भक्त पास्ता शेट ने 25 रुपयों का मनीआर्डर भेजा । बाबा ने ये रुपये पादुकाओं की स्थापना के निमित्त दे दिये । स्थापना में कुल 100 रुपये हुये, जिनमें 75 रुपये चन्दे दृारा एकत्रित हुए । प्रथम पाँच वर्षों तक डाँ. कोठारे दीपक के निमित्त 2 रुपये मासिक भेजते रहे । उन्होंने पादुकाओं के चारों ओर लगाने के लिये लोहे की छडे़ भी भेजी । स्टेशन से छड़े ढोने और छप्पर बनाने का खर्च (7 रु. 8 आने) सगुण मेरु नायक ने दिये । आजकल जरबाड़ी (नाना पुजारी) पूजन करते है और सगुण मेरु नायक नैवेघ अर्पण करते तथा संध्या को दीहक जलाते है । भाई कृष्ण जी पहले अक्कलकोटकर महाराज के शिष्य थे । अक्कलकोटकर जाते हुए, वे शक 1834 में पादुका स्थापन के शुभ अवसर पर शिरडी आये और दर्शन करने के पश्चात् जब उन्होंने बाबा से अक्कलकोटकर प्रस्थान करने की आज्ञा माँगी, तब बाबा कहने लगे, अरे अक्कलकोटकर में क्या है । तुम वहाँ व्यर्थ क्यों जाते हो । वहाँ के महाराज तो यही (मैं स्वयं) हैं यह सुनकर भाई ने अक्कलकोटकर जाने का विचार त्याग दिया । पादुकाएँ स्थापित होने के पश्चात् वे बहुधा शिरडी आया करते थे । श्री बी.व्ही, देव ने अंत में ऐसा लिखा है कि इन सब बातों का विवरण हेमाडपंत को विदित नहीं था । अन्यथा वे श्री साई सच्चरित्र में लिखना कभी नहीं भूलते ।





मोहिद्दीन तम्बोली के साथ कुश्ती और जीवन परिवर्तन
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शिरडी में एक पहलवान था, जिसका नाम मोहिद्दीन तम्बोली था । बाबा का उससे किसी विषय पर मतभेद हो गया । फलस्वरुप दोनों में कुश्ती हुई और बाबा हार गये । इसके पश्चात् बाबा ने अपनी पोशाक और रहन-सहन में परिवर्तन कर दिया । वे कफनी पहनते, लंगोट बाँधते और एक कपडे़ के टुकड़े से सिर ढँकते थे । वे आसन तथा शयन के लिये एक टाट का टुकड़ा काम में लाते थे । इस प्रकार फटे-पुराने चिथडे़ पहिन कर वे बहुत सन्तुष्ट प्रतीत होते थे । वे सदैव यही कहा करते थे । कि गरीबी अब्बल बादशाही, अमीरी से लाख सवाई, गरीबों का अल्ला भाई । गंगागीर को भी कुश्ती से बड़ा अनुराग था । एक समय जब वह कुश्ती लड़ रहा था, तब इसी प्रकार उसको भी त्याग की भावना जागृत हो गई । इसी उपयुक्त अवसर पर उसे देव वाणी सुनाई दी भगवान के साथ खेल भगवान के साथ खेल में अपना शरीर लगा देना चाहिये । इस कारण वह संसार छोड़ आत्म-अनुभूति की ओर झुक गया । पुणताम्बे के समीप एक मठ स्थापित कर वह अपने शिष्यों सहित वहाँ रहने लगा । श्री साई बाबा लोगों से न मिलते और न वार्तालाप ही करते थे । जब कोई उनसे कुछ प्रश्न करता तो वे केवल उतना ही उत्तर देते थे । दिन के समय वे नीम वृक्ष के नीचे विराजमान रहते थे । कभी-कभी वे गाँव की मेंड पर नाले के किनारे एक बबूल-वृक्ष की छाया में भी बैठे रहते थे । और संध्या को अपनी इच्छानुसार कहीं भी वायु-सेवन को निकल जाया करते थे । नीमगाँव में वे बहुधा बालासाहेब डेंगले के गृह पर जाया करते थे । बाबा श्री बालासाहेब को बहुत प्यार करते थे । उनके छोटे भाई, जिसका नाम नानासाहेब था, के दितीय विवाह करने पर भी उनको कोई संतान न थी । बालासाहेब ने नानासाहेब को श्री साई बाबा के दर्शनार्थ शिरडी भेजा । कुछ समय पश्चात उनकी श्री कृपा से नानासाहेब के यहाँ एक पुत्ररत्न हुआ । इसी समय से बाबा के दर्शनार्थ लोगों का अधिक संख्या में आना प्रारंभ हो गया तथा उनकी कीर्ति भी दूर दूर तक फैलने लगी । अहमदनगर में भी उनकी अधिक प्रसिदिृ हो गई । तभी से नानासाहेब चांदोरकर, केशव चिदम्बर तथा अन्य कई भक्तों की शिरडी में आगमन होने लगा । बाबा दिनभर अपने भक्तों से घिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मसजिद में शयन करते थे । इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाखू, एक टमरेल, एक लम्बी कफनी, सिर के चारों और लपेटने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे । सिर पर सफेद कपडे़ का एक टुकड़ा वे सदा इस प्रकार बाँधते थे कि उसका एक छोर बायें कान पर से पीठ पर गिरता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो बालों का जूड़ा हो । हफ्तों तक वे इन्हें स्वच्छ नहीं करते थे । पैर में कोई जूता या चप्पल भी नहीं पहिनते थे । केवल एक टाट का टुकड़ा ही अधिकांश दिन में उनके आसन का काम देता था । वे एक कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिये दक्षिण मुख हो धूनी से तपते थे । वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे तथा अपना अहंकार, समस्त इच्छायें और समस्च कुविचारों की उसमें आहुति दिया करते थे । वे अल्लाह मालिक का सदा जिहृा से उच्चारण किया करते थे । जिस मसजिद में वे पधारे थे, उसमें केवल दो कमरों के बराबर लम्बी जगह थी और यहीं सब भक्त उनके दर्शन करते थे । सन् 1912 के पश्चात् कुछ परिवर्तन हुआ । पुरानी मसजिद का जीर्णोदाार हो गया और उसमें एक फर्श भी बनाया गया । मसजिद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घ काल तक तकिया में रहे । वे पैरों में घुँघरु बाँधकर प्रेमविहृल होकर सुन्दर नृत्य व गायन भी करते थे ।











 












जल का तेल में परिवर्तन
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बाबा को प्रकाश से बड़ा अनुराग था । वे संध्या समय दुकानदारों से भिक्षा में तेल मागँ लेते थे तथा दीपमालाओं से मसजिद को सजाकर, रात्रिभर दीपक जलाया करते थे । यह क्रम कुछ दिनों तक ठीक इसी प्रकार चलता रहा । अब बलिये तंग आ गये और उन्होंने संगठित होकर निश्चय किया कि आज कोई उन्हें तेल की भिक्षा न दे । नित्य नियमानुसार जब बाबा तेल माँगने पहुँचें तो प्रत्येक स्थान पर उनका नकारात्मक उत्तर से स्वागत हुआ । किसी से कुछ कहे बिना बाबा मसजिद को लौट आये और सूखी बत्तियाँ दियों में डाल दीं। बनिये तो बड़े उत्सुक होकर उनपर दृष्टि जमाये हुये थे । बाबा ने टमरेल उठाया, जिसमें बिलकुल थोड़ा सा तेल था । उन्होंने उसमें पानी मिलाया और वह तेल-मिश्रित जल वे पी गये । उन्होंने उसे पुनः टीनपाट में उगल दिया और वही तेलिया पानी दियों में डालकर उन्हें जला दिया । उत्सुक बिनयों ने जब दीपकों को पूर्ववत् रात्रि भर जलते देखा, तब उन्हें अपने कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने बाबा से क्षमा-याचना की । बाबा ने उन्हें क्षमा कर भविष्य में सत्य व्यवहार रखने के लिये सावधान किया ।





मिथ्या गुरु जौहर अली
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उपयुक्त वर्णित कुश्ती के 5 वर्ष पश्चात जौहर अली नाम के एक फकीर अपने शिष्यों के साथ राहाता आये । वे वीरभद्र मंदिर के समीप एक मकान में रहने लगे । फकीर विदृान था । कुरान की आयतें उसे कंठस्थ थी ।उसका कंठ मधुर था । गाँव के बहुत से धार्मिक और श्रदृालु जन उसे पास आने लगे और उसका यथायोग्य आदर होने लगा । लोगों से आर्थिक सहायता प्राप्त कर, उसने वीरभद्र मंदिर के पास एक ईदगाह बनाने का निश्चय किया । इस विषय को लेकर कुछ झगड़ा हो गया, जिसके फलस्वरुप जौहर अली राहाता छोड़ शिरडी आया ओर बाबा के साथ मसजिद में निवास करने लगा । उसने अपनी मधुर वाणी से लोगों के मन को हर लिया । वह बाबा को भी अपना एक शिष्य बताने लगा । बाबा ने कोई आपत्ति नहीं की और उसका शिष्य होना स्वीका कर लिया । तब गुरु और शिष्य दोनों पुनः राहाता में आकर रहने लगे । गुरु शिष्य की योग्यता से अनभिज्ञ था, परंतु शिष्य गुरु के दोषों से पूर्ण से परिचित था । इतने पर भी बाबा ने कभी इसका अनादर नहीं किया और पूर्ण लगन से अपना कर्तव्य निबाहते रहे और उसकी अनेक प्रकार से सेवा की । वे दोनों कभी-कभी शिरडी भी आया करते थे, परंतु मुख्य निवास राहाता में ही था । श्री बाबा के प्रेमी भक्तों को उनका दूर राहाता में ऱहना अच्छा नहीं लगता था । इसलिये वे सब मिलकर बाबा को शिरडी वापस लाने के लिये गये । इन लोगों की ईदगाह के समीप बाबा से भेंट हुई ओर उन्हें अपने आगमन का हेतु बतलाया । बाबा ने उन लोगों को समझाया कि फकीर बडे़ क्रोधी और दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति है, वे मुझे नहीं छोडेंगे । अच्छा हो कि फकीर के आने के पूर्व ही आप लौट जाये । इस प्रकार वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में फकीर आ पहुँचे । इस प्रकार अपने शिष्य को वहाँ से ने जाने के कुप्रत्यन करते देखकर वे बहुत ही क्रुदृ हुए । कुछ वादविवाद के पश्चात् स्थति में परिवर्तन हो गया और अंत में यह निर्णय हुआ कि फकीर व शिष्य दोनों ही शिरडी में निवास करें और इसीलिये वे शिरडी में आकर रहने लगे । कुछ दिनों के बाद देवीदास ने गुरु की परीक्षा की और उसमें कुछ कमी पाई । चाँद पाटील की बारात के साथ जब बाबा शिरडी आये और उससे 12 वर्ष पूर्व देवीदास लगभग 10 या 11 वर्ष की अवस्था में शिरडी आये और हनुमान मंदिर में रहते थे । देवीदास सुडौल, सुनादर आकृति तथा तीक्ष्ण बुदि के थे । वे त्याग की साक्षात्मूर्ति तथा अगाध ज्ञगनी थे । बहुत-से सज्जन जैसे तात्या कोते, काशीनाथ व अन्य लोग, उन्हें अपने गुरु-समान मानते थे । लोग जौहर अली को उनके सम्मुख लाये । विवाद में जौहर अली बुरी तरह पराजित हुआ और शिरडी छोड़ वैजापूर को भाग गया । वह अनेक वर्षों के पश्चात शिरडी आया और श्री साईबाबा की चरण-वन्दना की । उसका यह भ्रम कि वह स्वये पुरु था और श्री साईबाबा उसके शिष्य अब दूर हो चुका था । श्री साईबाबा उसे गुरु-समान ही आदर करते थे, उसका स्मरण कर उसे बहुत पश्चाताप हुआ । इस प्रकार श्री साईबाबा ने अपने प्रत्यक्ष आचरण से आदर्श उरस्थित किया कि अहंकार से किस प्रकार छुटकारा पाकर शिष्य के कर्तव्यों का पालन कर, किस तरह आत्मानुभव की ओर अग्रसर होना चाहिये । ऊपर वर्णित कथा म्हिलसापति के कथनानुसार है । अगले अध्याय में रामनवमी का त्यौहार, मसजिद की पहली हालत एवं पश्चात् उसके जीर्णोंधार इत्यादि का वर्णन होगा ।








।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।


Tuesday, April 24, 2012

Rubaroo- A inner story of a child, who developed without love of mother


ॐ सांई राम





मन के तार झूमने लगे सांई धुन को सुन।


ॐ सांई राम













यूँ ही एक दिन चलते-चलते सांई से हो गई मुलाकात।
 जब अचानक सांई सच्चरित्र की पाई एक सौगात।



 फिर सांई के विभिन्न रूपों के मिलने लगे उपहार।
 तब सांई ने बुलाया मुझको शिरडी भेज के तार।
 सांई सच्चरित्र ने मुझ पर अपना ऐसा जादू डाला।
 सांई नाम की दिन-रात मैं जपने लगा फिर माला।
 घर में गूँजने लगी हर वक्त सांई गान की धुन।
 मन के तार झूमने लगे सांई धुन को सुन।
 धीरे-धीरे सांई भक्ति का रंग गाढ़ा होने लगा।
 और सांई कथाओं की खुश्बूं में मन मेरा खोने लगा।
 सांई नाम के लिखे शब्दों पर मैं होने लगी फिदा।
 अब मेरे सांई को मुझसे कोई कर पाए गा ना जुदा।
 हर घङी मिलता रहे मुझे सांई का संतसंग।

 सांई मेरी ये साधना कभी ना होवे भंग।
 सांई चरणों में झुका रहे मेरा यह शीश।
 सांई मेरे प्राण हैं और सांई ही मेरे ईश।
 भेदभाव से दूर रहूँ,शुद्ध हो मेरे विचार।
 सांई ज्ञान की जीवन में बहती रहे ब्यार |

 साईं की बेटी प्रिया



 Source : World of sai Group

Monday, April 23, 2012

दया की चादर तन पे डाले



ॐ सांई राम






दया की चादर तन पे डाले,

सांई तुम भगवान हो,

दीन दुखी के मालिक तुम हो,

धरती पर वरदान हो,

दर्श दिखा के अब सुख देदो,

तुम जीवन हो प्राण हो...





दया की चादर तन पे डाले,

सांई तुम भगवान हो,

दीन दुखी के मालिक तुम हो,

धरती पर वरदान हो,

दर्श दिखा के अब सुख देदो,

तुम जीवन हो प्राण हो...



सांई तुम्हरा नाम मन्त्र है,

रिद्दि सिद्दि है दोनो साथ,

नहीं जगत में जिसका कोई,

उसके स्वामी उसके नाथ...



अंधकार में तुम दीपक हो,

अंधकार में तुम दीपक हो,

गीत का तुम ञान हो...



दया की चादर तन पे डाले,

सांई तुम भगवान हो,

दीन दुखी के मालिक तुम हो,

धरती पर वरदान हो,

दर्श दिखा के अब सुख देदो,

तुम जीवन हो प्राण हो...



हर दिल की दौलत तुम सांई,

सब के दिल में तुम हो रहते,

भक्तों की रक्षा करते हो,

खुद सारी पीङा हो सहते...



फटा है चौला तन का बाबा,

फटा है चौला तन का बाबा,

फिर भी तुम धनवान हो...



दया की चादर तन पे डाले,

सांई तुम भगवान हो,

दीन दुखी के मालिक तुम हो,

धरती पर वरदान हो,

दर्श दिखा के अब सुख देदो,

तुम जीवन हो प्राण हो...



दया की चादर तन पे डाले,

सांई तुम भगवान हो...



सब की मंज़िल तुम हो बाबा,

सब को मंज़िल तुम देते हो,

जो जिसने जब भी मांगा है,

भर भर अंजल तुम देते हो...



चरण तुम्हारे नारायण है,

चरण तुम्हारे नारायण है,

तुम रत्नों की खान हो...



दया की चादर तन पे डाले,

सांई तुम भगवान हो,

भक्तों की तुम शान हो,

तुम गीता हो कुराण हो...





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This is also a kind of SEWA.





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