शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Saturday, August 31, 2013

श्री गुरु तेग बहादर जी - जीवन परिचय








श्री गुरु तेग बहादर जी - जीवन परिचय


























































श्री गुरु तेग बहादर जी - जीवन परिचय





प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): अमृतसर में 1 अप्रैल 1621 (पंजाब)Parkash Ustav (Birth date): April 1, 1621 at Amritsar (Punjab)

पिता: गुरु हरगोबिंद जी
Father: Guru Hargobind ji
माँ: माता Nanaki जी
Mother: Mata Nanaki ji
सहोदर: बाबा गुरदित्ता, बाबा वीरो, बाबा सूरजमल, बाबा अनी राय, बाबा अटल राय
Sibling: Baba Gurditta, Baba Viro, Baba Suraj Mal, Baba Ani Rai, Baba Atal Rai
महल (पति या पत्नी): करतारपुर जिला के माता गुज़री जी, पुत्री श्री लाल चंद जी, जालंधर.
Mahal (spouse): Mata Gujri ji D/o Lal Chand of Kartarpur Distt. Jullandhar.
साहिबज़ादे (वंश): गोबिंद राय जी
Sahibzaday (offspring): Gobind Rai ji
ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): चांदनी चौक, दिल्ली में 11 नवंबर 1675
Joti Jyot (ascension to heaven): November 11, 1675 at Chandini Chowk, Delhi




गुरु मंगल 





दोहरा|| हिंदू धरम तरु मूल को राखयो धरनि मझार|| 


तेग बहादर सतिगुरु त्रिण समान तन डारि||१||



श्री गुरु तेग बहादर जी का जन्म श्री गुरु हरि गोबिंद जी के घर माता नानकी जी की पवित्र कोख से रविवार वैसाख वदी पंचमी संवत 1678 विक्रमी को अमृतसर में हुआ| आप जी का विवाह गुजरी जी से जो कि श्री लाल चंद सुभिखी क्षत्रि की सुपुत्री से 15 असूज संवत 1689 विक्रमी को करतारपुर में हुआ|

माता गुजरी जी की पवित्र कोख से पटने शहर में पोष सुदी सप्तमी रविवार असूज संवत 1723 विक्रमी को सवा पहर रात रहती श्री (गुरु) गोबिंद सिंह जी ने अवतार धरण किया|

Friday, August 30, 2013

श्री गुरु हरि कृष्ण जी - ज्योति ज्योत





श्री गुरु हरि कृष्ण जी - ज्योति ज्योत















































श्री गुरु हरि कृष्ण जी ज्योति - ज्योत समाना



रानियों के महल से वापिस आकर कुछ समय बाद गुरु जी को बुखार हो गया जिससे सबको चिंता हो गई| बुखार के साथ-साथ दूसरे दिन ही गुरु जी को शीतला निकल आई| जब एक दो दिन इलाज करने से बीमारी का फर्क ना पड़ा तो इसे छूत की बीमारी समझकर राजा जयसिंह के बंगले से आपको यमुना नदी के किनारे तिलेखरी में तम्बू कनाते लगाकर भेज दिया|

इस प्रकार दो दिन दो राते गुरु जी को बहुत कष्ट रहा जिससे आपकी हालत खराब हो गई| सिखो ने प्रार्थना की महाराज! संगत के लिए क्या आज्ञा है किसके जिम्मे लगा चले हो| घर-घर गुरु बन बैठेगें| इसलिए संगत की बाजू किसे पकड़ाओगे| कृपा करके हमें बताए|


गुरु जी ने अपने मसंद भाई गुरुबक्श जी से एक ओर पांच पैसे मंगवाकर थाल में रखकर उनको माथा टेक कर कहा - 





"बाबा बसहि जि गराम बकले|| बनि गुर संगति सकल समाले||"



यह वचन करके आपजी कुश के आसन पर चादर तान कर लेट गए और शरीर त्यागकर स्वर्ग सिधार गए| 



कुल आयु व गुरु गद्दी का समय (Shri Guru Har Krishan Ji Total Age and Ascension to Heaven)


श्री गुरु हरि कृष्ण जी 5 साल 2 महीने की उम्र में गुरु गद्दी पर बैठ कर 2 साल 5 महीने गुरुत्व करके चेत्र सुदी चौदस 1721 विक्रमी को ज्योति ज्योत समां गए|



Thursday, August 29, 2013

श्री गुरु हरि कृष्ण जी - साखियाँ - अनपढ़ झीवर से श्री भागवत गीता के अर्थ करवायें





श्री गुरु हरि कृष्ण जी - साखियाँ













































अनपढ़ झीवर से श्री भागवत गीता के अर्थ करवायें






कीरतपुर से दिल्ली को जाते हुए गुरु जी अम्बाले के पास पंजोखरे गाँव में ठहरे| पंडित जो उसी गाँव के रहने वाले थे आपसे कहने लगे कि आप छोटी उम्र में ही ईश्वर अवतार और गुरु कहलाते हो|


अगर आपमें शक्ति है तो मुझे आप गीता के अर्थ करके दिखाओ| पंडित की ऐसी बात सुनकर गुरु जी ने कहा, पंडित जी! अगर अपने गीता के अर्थ सुनने हैं तो अपने गाँव में से किसी आदमी को लेकर आओ, हम उससे ही गीता के अर्थ आपको सुनवा देंगे|

गुरु जी की यह बात सुनकर पंडित जी ने एक अनपढ़ झीवर को बुलाया| गुरु जी ने उस झीवर को हाथ मुँह धुलवा कर एक आसन पर बिठा दिया|गुरु जी ने अपने हाथ की छड़ी उसके सिर पर रख कर कहा कि "पंडित जी को गीता के अर्थ करके सुनाओ|" गुरु जी की कृपा से उस झीवर ने गीता पड़कर शास्त्र अनुसार अर्थ करके पंडित को सुनाए|

गुरु जी के ऐसे कौतक को देखकर पंडित जी दंग रह गए| उनकी ऐसी प्रत्यक्ष शक्ति को देखकर पंडित ने गुरु जी को प्रणाम किया और क्षमा माँगी| अब इस स्थान पर एक सुन्दर गुरुद्वारा बना हुआ है|

Wednesday, August 28, 2013

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 38



ॐ सांई राम





आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...




श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 38



बाबा की हंड़ी, नानासाहेब द्अघारा देव-मूर्ति की उपेक्षा, नैवेघ वितरण, छाँछ का प्रसाद ।
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गत अध्याय में चावड़ी के समारोह का वर्णन किया गया है । अब इस अध्याया में बाबा की हंडी तथा कुछ अन्य विषयों का वर्णन होगा ।







प्रस्तावना
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हे सदगुरु साई । तुम धन्य हो । हम तुम्हें नमन करते है । तुमने विश्व को सुख पहुँचाय और भक्तों का कल्याण किया । तुम उदार हृदय हो । जो भक्तगण तुम्हारे अभय चरण-कमलों में अपने को समर्पित कर देते है, तुम उनकी सदैव रक्षा एवं उद्घार किया करते हो । भक्तों के कल्याण और परित्राण के निमित्त ही तुम अवतार लेते हो । ब्रहम के साँचे में शुद्घ आत्मारुपी द्रव्य ढाला गया और उसमें से ढलकर जो मूर्ति निकली, वही सन्तों के सन्त श्री साईबाबा है । साई स्वयं ही आत्माराम और चिरआनन्द धाम है । इस जीवन के समस्त कार्यों को नश्वर जानकर उन्होंने भक्तों को निष्काम और मुक्त किया ।






बाबा की हंड़ी
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मानव धर्म-शास्त्र में भिन्न-भिन्न युगों के लिये भिन्न-भिन्न साधनाओं का उन्नेख किया गया है । सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्घापर में यज्ञ और कलियुग में दान का विशेष माहात्म्य है । सर्व प्रकार के दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है । जब मध्याहृ के समय हमें भोजन प्राप्त नहीं होता, तब हम विचलित हो जाते है । ऐसी ही स्थिति अन्य प्राणियों की अनुभव कर जो किसी भिक्षुक या भूखे को भोजन देता है, वही श्रेष्ठ दानी है । तैत्तिरीयोपनिषद् में लिखा है कि अन्न ही ब्रहमा है और उसीसे सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा उससे ही वे जीवित रहते है और मृत्यु के उपरांत उसी में लय भी हो जाते है । जब कोई अतिथि दोपहर के समय अपने घर आता है तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम उसका अभिन्नदन कर उसे भोजन करावे । अन्य दान जैसे-धन, भूमि और वस्त्र इत्यादि देने में तो पात्रता का विचार करना पड़ता है, परन्तु अन्न के लिये विशेष सोचविचार की आवश्यकता नहीं है । दोपहर के समय कोई भी अपने द्घार पर आवे, उसे शीघ्रभोजन कराना हमारा परम कर्त्व्य है । प्रथमतः लूले, लंगड़े, अन्धे या रुग्ण भिखारियों को, फिर उन्हें, जो हाथ पैर से स्वस्थ है और उनसभी के बाद अपने संबन्धियों को भोजन कराना चाहिये । अन्य सभी की अपेक्षा पंगुओं को भोजन कराने का मह्त्व अधिक है । अन्नदान के बिना अन्य सब प्रकार के दान वैसे ही अपूर्ण है, जैसे कि चन्द्रमा बिना तारे, पदक बिना हार, कलश बिना मन्दिर, कमलरहित तलाब, भक्तिरहित, भजन, सिन्दूररहित सुहागिन, मधुर स्वरविहीन गायन, नमक बिना पकवान । जिस प्रकार अन्य भोज्य पदार्थों में दाल उत्तम समझी जाती है, उसी प्रकार समस्त दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है । अब देखें कि बाबा किस प्रकार भोजन तैयार कराकर उसका वितरण किया करते थे ।



हम पहले ही उल्लेख कर चुके है कि बाबा अल्पाहारी थे और वे थोड़ा बहुत जो कुछ भी खाते थे, वह उन्हें केवल दो गृहों से ही भिक्षा में उपलब्ध हो जाया करता था । परन्तु जब उनके मन में सभी भक्तों को भोजन कराने की इच्छा होती तो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक संपूर्ण व्यवस्था वे स्वयं किया करते थे । वे किसी पर निर्भर नहीं रहते थे और न ही किसी को इस संबंध में कष्ट ही दिया करते थे । प्रथमतः वे स्वयं बाजार जाकर सब वस्तुएं – अनाज, आटा, नमक, मिर्ची, जीरा खोपरा और अन्य मसाले आदि वस्तुएँ नगद दाम देकर खरीद लाया करते थे । यहाँ तक कि पीसने का कार्य भी वे स्वयं ही किया करते थे । मसजिद के आँगन में ही एक भट्टी बनाकर उसमें अग्नि प्रज्वलित करके हंडी के ठीक नाप से पानी भर देते थे । हंडी दो प्रकार की थी – एक छोटी और दूसरी बड़ी । एक में सौ और दूसरी में पाँच सौ व्यक्तियों का भोजन तैयार हो सकता था । कभी वे मीठे चावल बनाते और कभी मांसमिश्रित चावल (पुलाव) बनाते थे । कभी-कभी दाल और मुटकुले भी बना लेते थे । पत्थर की सिल पर महीन मसाला पीस कर हंडी में डाल देते थे । भोजन रुचिकर बने, इसका वे भरसक प्रयत्न किया करते थे । ज्वार के आटे को पानी में उबाल कर उसमें छाँछ मिलाकर अंबिल (आमर्टी) बनाते और भोजन के साथ सब भक्तों को समान मात्रा में बाँट देते थे । भोजन ठीक बन रहा है या नहीं, यह जानने के लिये वे अपनी कफनी की बाँहें ऊपर चढ़ाकर निर्भय हो उतबलती हंडी में हाथ डाल देते और उसे चारों ओर घुमाया करते थे । ऐसा करने पर भी उनके हाथ पर न कोई जलन का चिन्ह और न चेहरे पर ही कोई व्यथा की रेखा प्रतीत हुआ करती थी । जब पूर्ण भोजन तैयार हो जाता, तब वे मसजिद सम बर्तन मँगाकर मौलवी से फातिहा पढ़ने को कहते थे, फिर वे म्हालसापति तथा तात्या पाटील के प्रसाद का भाग पृथक् रखकर शेष भोजन गरीब और अनाथ लोगों को खिलाकर उन्हें तृप्त करते थे । सचमुच वे लोग धन्य थे । कितने भाग्यशाली थे वे, जिन्हें बाबा के हाथ का बना और परोसा हुआ भोजन खाने को प्राप्त हुआ ।










यहाँ कोई यह शंका कर सकता है कि क्या वे शाकाहारी और मांसाहारी भोज्य पदार्थों का प्रसाद सभी को बाँटा करते थे । इसका उत्तर बिलकुल सीधा और सरल है । जो लोग मांसाहारी थे, उन्हें हण्डी में से दिया जाता था तथा शाकाहारियों को उसका स्पर्श तक न होने देते थे । न कभी उन्होंने किसी को मांसाहार का प्रोत्साहन ही दिया और न ही उनकी आंतरिक इच्छा थी कि किसी को इसके सेवन की आदत लग जाये । यह एक अति पुरातन अनुभूत नियम है कि जब गुरुदेव प्रसाद वितरण कर रहे हो, तभी यदि शिष्य उसके ग्रहण करने में शंकित हो जाय तो उसका अधःपतन हो जाता है । यह अनुभव करने के लिये कि शिष्य गण इस नियम का किस अंश तक पालन करते है, वे कभी-कभी परीक्षा भी ले लिया करते थे । उदाहरँणार्थ एक एकादशी के दिन उन्होंने दादा केलकर को कुछ रुपये देकर कुछ मांस खरीद लाने को कहा । दादा केलकर पूरे कर्मकांडी थे और प्रायः सभी नियमों का जीवन में पालन किया करते थे । उनकी यह दृढ़ भावना थी कि द्रव्य, अन्न और वस्त्र इत्यादि गुरु को भेंट करना पर्याप्त नहीं है । केवल उनकी आज्ञा ही शीघ्र कार्यान्वित करने से वे प्रसन्न हो जाते है । यही उनकी दक्षिणा है । दादा शीघ्र कपडे पहिन कर एक थैला लेकर बाजार जाने के लिये उघत हो गये । तब बाबा ने उन्हें लौटा लिया और कहा कि तुम न जाओ, अन्य किसी को भेज दो । दादा ने अपने नौकर पाण्डू को इस कार्य के निमित्त भेजा । उसको जाते देखकर बाबा ने उसे भी वापस बुलाने को कहकर यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया ।



ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उन्होंने दादा से कहा कि देखो तो नमकीन पुलाव कैसा पका है । दादा ने यों ही मुंह देखी कह दिया कि अच्छा है । तब वे कहने लगे कि तुमने न अपनी आँखों से ही देखा है और न जिहा से स्वाद लिया, फिर तुमने यह कैसे कह दिया कि उत्तम बना है । थोड़ा ढक्कन हटाकर तो देखो । बाबा ने दादा की बाँह पकड़ी और बलपूर्वक बर्तन में डालकर बोले – थोड़ासा इसमें से निकालो और अपना कट्टरपन छोड़कर चख कर देखो । जब माँ का सच्चा प्रेम बच्चे पर उमड़ आता है, तब माँ उसे चिमटी भरती है, परन्तु उसका चिल्लाना या रोना देखकर वह उसे अपने हृदय से लगाती है । इसी प्रकार बाबा ने सात्विक मातृप्रेम के वश हो दादा का इस प्रकार हाथ पकड़ा । यथार्थ में कोई भी सन्त या गुरु कभी भी अपने कर्मकांडी शिष्य को वर्जित भोज्य के लिये आग्रह करके अपनी अपकीर्ति कराना पसन्द न करेगा ।



इस प्रकार यह हंडी का कार्यक्रम सन् 1910 तक चला और फिर स्थगित हो गया । जैसा पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, दासगणू ने अपने कीर्तन द्घारा समस्त बम्बई प्रांत में बाबा की अधिक कीर्ति फैलई । फलतः इस प्रान्त से लोगों के झुंड के झुंड शिरडी को आने लगे और थोड़े ही दिनों में शिरडी पवित्र तीर्थ-क्षेत्र बन गया । भक्तगण बाबा को नैवेघ अर्पित करने के लिये नाना प्रकारके स्वादिष्ट पदार्थ लाते थे, जो इतनी अधिक मात्रा में एकत्र हो जाता था कि फकीरों और भिखारियों को सन्तोषपूर्वक भोजन कराने पर भी बच जाता था । नैवेघ वितरण करने की विधि का वर्णन करने से पूर्व हम नानासाहेब चाँदोरकर की उस कथा का वर्णन करेंगे, जो स्थानीय देवी-देवताओं और मूर्तियों के प्रति बाबा की सम्मान-भावना की घोतक है ।



नानासाहेब द्घारा देव-मूर्ति की उपेक्षा
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कुछ व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार बाबा को ब्राहमण तथा कुछ उन्हें यवन समझा करते थे, परन्तु वास्तव में उनकी कोई जाति न थी । उनकी और ईश्वर की केवल एक जाति थी । कोई भी निश्चयपूर्वक यह नहीं जानता कि वे किस कुल में जनमें और उनके मातापिता कौन थे । फिर उन्हें हिन्दू या यवन कैसे घोषित किया जा सकता है । यदि वे यवन होते तो मसजिद में सदैव धूनी और तुलसी वृन्दावन ही क्यों लागते और शंख, घण्टे तथा अन्य संगीत वाघ क्यों बजने देते । हिन्दुओं की विविध प्रकार की पूजाओं को क्यों स्वीकार करते । यदि सचमुच यवन होते तो उनके कान क्यों छिदे होते तथा वे हिन्दू मन्दिरों का स्वयं जीर्णोद्घार क्यों करवाते । उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तियों तथा देवी-देवताओ की जरा सी उपेक्षा भी कभी सहन नहीं की ।



एक बार नानासाहेब चाँदोरक अपने साढू (साली के पति) श्री बिनीवले के साथ शिरडी आये । जब वे मसजिद में पहुँचे, बाबा वार्तालाप करते हुए अनायास ही क्रोधित होकर कहने लगे कि तुम दीर्घकाल से मेरे सान्ध्य में हो, फिर भी ऐसा आचरण क्यों करते हो । नानासाहेब प्रथमतः इन शब्दों का कुछ भी अर्थ न समझ सके । अतः उन्होंने अपना अपराध समझाने की प्रार्थना की । प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि तुम कब कोपरगाँव आये और फिर वहाँ से कैसे शिरडी आ पहुँचे । तब नानासाहेब को अपनी भूल तुरन्त ही ज्ञात हो गयी । उनका यह नियम था कि शिरडी आने से पूर्व वे कोपरगाँव में गोदावरी के तट पर स्थित श्री दत्त का पूजन किया करते थे । परन्तु रिश्तेदार के दत-उपासक होने पर भी इस बार विलम्ब होने के भय से उन्होंने उनको भी दत्त मंदिर में जाने से हतोत्साहित किया और वे दोनों सीधे शिरडी चले आये थे । अपना दोष स्वीकार कर उन्होंने कहा कि गोदावरी स्नान करते समय पैर में एक बड़ा काँटा चुभ जाने के कारण अधिक कष्ट हो गया था । बाबा ने काह कि यह तो बहुत छोटासा दंड था और उन्हें भविष्य में ऐसे आचरण के लिये सदैव सावधान रहने की चेतावनी दी ।



नैवेघ-वितरण
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अब हम नैवेघ-वितरण का वर्णन करेंगे । आरती समाप्त होने पर बाबा से आर्शीवाद तथा उदी प्राप्त कर जब भक्तगण अपने-अपने घर चले जाते, तब बाबा परदे के पीछे प्रवेश कर निम्बर के सहारे पीठ टेककर भोजन के लिये आसन ग्रहण करते थे । भक्तों की दो पंक्तियाँ उनके समीप बैठा करती थी । भक्तगण नाना प्रकार के नैवेघ, पीरी, माण्डे, पेड़ा बर्फी, बांसुदीउपमा (सांजा) अम्बे मोहर (भात) इत्यादि थाली में सजा-सजाकर लाते और जब तक वे नैवेघ स्वीकार न कर लेते, तब तक भक्तगण बाहर ही प्रतीक्षा किया करते थे । समस्त नैवेघ एकत्रित कर दिया जाता, तब वे स्वयं ही भगवान को नैवेघ अर्पण कर स्वयं ग्रहण करते थे । उसमें से कुछ भाग बाहर प्रतीक्षा करने वालों को देकर शेष भीतर बैठे हुए भक्त पा लिया करते थे । जब बाबासबके मध्य में आ विराजते, तब दोनों पंक्तियों में बैठे हुए भक्त तृप्त होकर भोजन किया करते थे । बाबा प्रायः शामा और निमोणकर से भक्तों को अच्छी तरह भोजन कराने और प्रत्येक की आवश्यकता का सावधानीपूर्वक ध्यान रखने को कहते थे । वे दोनों भी इस कार्य को बड़ी लगन और हर्ष से करते थे । इस प्रकार प्राप्त प्रत्येक ग्रास भक्तों को पोषक और सन्तोषदायक होता था । कितना मधुर, पवित्र, प्रेमरसपूर्ण भोजन था वह । सदा मांगलिक और पवित्र ।



छाँछ (मठ्ठा) का प्रसाद
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इस सत्संग में बैठकर एक दिन जब हेमाडपंत पूर्णतः भोजन कर चुके, तब बाबा ने उन्हें एक प्याला छाँछ पीने को दिया । उसके श्वेत रंग से वे प्रसन्न तो हुए, परन्तु उदर में जरा भी गुंजाइश न होने के कारण उन्होंने केवल एक घूँट ही पिया । उनका यह उपेक्षात्मक व्यवहार देखकर बाबा ने कहा कि सब पी जाओ । ऐसा सुअवसर अब कभी न पाओगे । तब उन्होंने पूरी छाँछ पी ली, किन्तु उन्हे बाबा के सांकेतिक वचनों का मर्म शीघ्र ही विदित हो गया, क्योंकि इस घटना के थोड़े दिनों के पश्चात् ही बाबा समाधिस्थ हो गये ।



पाठकों । अब हमें अवश्य ही हेमाडपंत के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये, क्योंकि उन्होंने तो छाँछ का प्याला पिया, परन्तु वे हमारे लिये यथेष्ठ मात्रा में श्री साई-लीला रुपी अमृत दे गये । आओ, हम उस अमृत के प्याले पर प्याले पीकर संतुष्ट और सुखी हो जाये ।




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।




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Tuesday, August 27, 2013

जन्माष्टमी की हार्दिक शुभ कामनायें



ॐ साईं राम




नन्द के आनन्द भयो... जय कन्हैया लाल की














श्री गुरु हरि कृष्ण जी - साखियाँ - चरणामृत से रोगियों के रोग दूर करना





श्री गुरु हरि कृष्ण जी - साखियाँ











































चरणामृत से रोगियों के रोग दूर करना




पंजोखरे से चलकर और स्थान-स्थान पर संगतो को दर्शन की खुशी देते हुए गुरु हरि कृष्ण जी दिल्ली पहुँच गए| गुरु जी के रहने का प्रबंध राजा जयसिंह ने अपने बंगले में कराया| उसने गुरु जी के दिल्ली पहुँचने की खबर बादशाह को भी दे दी|

उस समय दिल्ली शहर में हैजे की बीमारी से बहुत लोग बीमार थे| गुरु जी के आने की खबर सुनकर बहुत से रोगी आपके पास आने लगे| आप जिन्हें भी अपने चरणों का चरणामृत देते वह जल्द ही स्वस्थ हो जाता| इस प्रकार आपकी उपमा को सुनकर बहुत रोगी आपके पास आने लगे| आपने एक कुंड बनवाया जिसमे अमृत समय के स्मरण से उठकर अपने चरणों की छोह का पानी भर देते| इस कुंड में आए हुए रोगियों को सेवादार आठों पहर चरणामृत देते| जिससे बहुत से रोगी स्वस्थ हो गए| वह गुरु जी की महिमा गाते और भेंट अर्पण करते|


इस वार्ता को सुनकर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अरदास में यह शब्द रखे -

"श्री हरि कृष्ण जी धिआईअै जिस डिठै सभ दुख जाइ||"

Monday, August 26, 2013

आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप कि ओर से श्री कृष्ण जन्माष्टमी कि हार्दिक शुभ कामनाएं



सांई राम













बादशाह भी तु है


फ़कीर भी तु है
साधू भी तु है


और पीर भी तु है
कोई मिटा न सके जिसे


हाथो की वो लकीर है तू
तू समाया है सब में साईं


सब की तकदीर है तू...














नन्द के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की


हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की







*** जय श्री कृष्ण *** जय साईं राम ***







आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप कि ओर से


श्री कृष्ण जन्माष्टमी कि हार्दिक शुभ कामनाएं

































श्री गुरु हरि कृष्ण जी - साखियाँ - बादशाह औरंगजेब के शहिजादे का गुरु जी से प्रभावित होना






श्री गुरु हरि कृष्ण जी - साखियाँ










































बादशाह औरंगजेब के शहिजादे का गुरु जी से प्रभावित होना






राजा जयसिंह ने जब बादशाह को यह बताया कि गुरु जी ने मेने बंगले में निवास कर लिया है तो दूसरे ही दिन उसने अपने शहिजादे को गुरु जी के पास भेज दिया| शहिजादे ने बादशाह की ओर से गुरु जी को भेंट अर्पण की और माथा टेका| उसने गुरु जी से यह प्रार्थना की कि बादशाह आपके दर्शन करना चाहते हैं| पर गुरु जी आगे से कहने लगे कि हमारा प्रण है कि हम किसी बादशाह के माथे नहीं लगेंगे|






शहिजादे गुरु जी से बातचीत करके बहुत प्रभावित हुआ| उसने यह सारी बात बादशाह को बताई कि गुरु जी उम्र में चाहे बच्चे हैं परन्तु उनकी सूझ-बूझ वृद्धों वाली है| इस प्रकार शहिजादा गुरु हरि कृष्ण जी से प्रभावित हुए बिना ना रह सका|



Sunday, August 25, 2013

श्री गुरु हरि कृष्ण जी - साखियाँ - जयसिंह की रानी की परख करनी





श्री गुरु हरि कृष्ण जी - साखियाँ







































जयसिंह की रानी की परख करनी



राजा जयसिंह की रानी ने जब यह सुना कि बाल गुरु जी शक्तिवान हैं तो उसने आपको भोजन खिलाने के लिए महलों में बुलाया| रानी गुरु जी की शक्ति को परखना चाहती थी| इस मकसद से रानी ने सेविकाओं वाले वस्त्र पहन लिए और उनके बीच में जाकर बैठ गई| अन्तर्यामी गुरु जी जब अपनी माता सहित राजा के महल में गए तो सभी सेविकाओं ने आपको माथा टेका और बैठ गई|

गुरूजी अपने हाथ की छड़ी सबके सिर ऊपर रखते गए और साथ-साथ यह भी कहते रहे कि यह भी रानी नहीं, यह भी रानी नहीं| परन्तु जब असली रानी की बारी आई तो गुरु जी ने उसके सिर पर भी छड़ी रखी और कहने लगे यह ही रानी है| यह सुनकर रानी फूले नहीं समाई और बड़े प्यार से उन्हें गोदी में बिठा लिया| साथ ही साथ श्रदा के साथ उनके चरण पकडे और सिर झुकाया| राजा-रानी ने बड़े प्रेम से उन्हें भोजन खिलाया व जवाहरात की थाली भी उनको भेंट की|

Saturday, August 24, 2013

श्री गुरु हरि कृष्ण जी गुरु गद्दी मिलना






श्री गुरु हरि कृष्ण जी गुरु गद्दी मिलना







































कीरत पुर में गुरु हरि राय जी के दो समय दीवान लगते थे| हजारों श्रद्धालु वहाँ उनके दर्शन के लिए आते और अपनी मनोकामनाएँ पूरी करते| एक दिन गुरु हरि राय जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक पाया और देश परदेश के सारे मसंदो को हुक्मनामे भेज दिये कि अपने संगत के मुखियों को साथ लेकर शीघ्र ही किरत पुर पहुँच जाओ| इस तरह जब सब सिख सेवक और सोढ़ी, बेदी, भल्ले, त्रिहण, गुरु, अंश और सन्त-महन्त सभी वहाँ पहुँचे| आपजी ने दीवान लगाया और सब को बताया कि हमारा अन्तिम समय नजदीक आ रहा है और हमने गुरु गद्दी का तिलक अपने छोटे सपुत्र श्री हरि कृष्ण जी को देने का निर्णय किया है| 








इसके उपरांत गुरु जी ने श्री हरि कृष्ण जी को सामने बिठाकर उनकी तीन परिकर्मा की और पांच पैसे और नारियल आगे रखकर उनको नमस्कार की| उन्होंने साथ-साथ यह वचन भी किया कि आज से हमने इनको गुरु गद्दी दे दी है| आपने इनको हमारा ही रूप समझना है और इनकी आज्ञा में रहना है| गुरु जी का यह हुक्म सुनकर सारी संगत ने यह वचन सहर्ष स्वीकार किया और भेंट अर्पण की| इस प्रकार संगत ने श्री हरि कृष्ण जी को गुरु स्वीकार कर लिया|








यह सब गुरु हरि कृष्ण जी के बड़े भाई श्री राम राय जी बर्दाश्त ना कर सके| उन्होंने क्रोध में आकर बाहर मसंदो को पत्र लिखे कि गुरु की कार भेंट इक्कठी करके सब मुझे भेजो नहितो पछताना पड़ेगा| उसने इसके साथ-साथ दिल्ली जाकर औरंगजेब को कहा कि मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ है| गुरु गद्दी पर बैठने का हक तो मेरा था परन्तु मुझे छोडकर मेरे छोटे भाई को गुरु गद्दी पर बिठाया गया| जिसकी उम्र केवल पांच वर्ष की है| आप उसको दिल्ली में बुलाओ और कहो कि गुरु बनकर सिखो से कार भेंटा ना ले और अपने आप को गुरु ना कहलाए| श्री राम राय के बहुत कुछ कहने के कारण बादशाह ने मजबूर होकर राजा जयसिंह को कहा कि अपना विशेष आदमी भेजकर गुरु जी को दिल्ली बुलाओ| जयसिंह ने ऐसा ही किया| राजा जयसिंह कि चिट्टी पड़कर और मंत्री की जुबानी सुनकर गुरु हरि कृष्ण जी ने माता और बुद्धिमान सिक्खों से विचार किया और दिल्ली जाने की तैयारी कर ली|





Friday, August 23, 2013

श्री गुरु हरि कृष्ण जी - जीवन - परिचय




श्री गुरु हरि कृष्ण जी - जीवन - परिचय




































श्री गुरु हरि कृष्ण जी जीवन - परिचय




प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): किरतपुर में 7 जुलाई, 1656
Parkash Ustav (Birth date): July 7, 1656 at Kiratpur


पिता: गुरु हर राय जी
Father: Guru HarRai Ji


माँ: माता कृष्ण कौर
Mother: Mata Krishen Kaur


सहोदर: राम राय (भाई)
Sibling: Ram Rai (brother)


ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): 30 मार्च 1664
Joti Jyot (ascension to heaven): March 30, 1664





मंगल अष्ट गुरु जी ||








हरि किषण भयो अषटम बलबीरा || 





जिन पहुँचे देहली तजिओ सरीरा || 







बाल रूप धरिओ स्वांग रचाइि || 







तब सहिजे तन को छोड सिधाइि || 







इिउ मुगलन सीस परी बहु छारा || 







वै खुद पति सों पहुचे दरबारा || 







(पउड़ी २३ || वार ४१ || भाई गुरदास दूजा ||)

श्री हरि कृष्ण जी का जन्म श्री गुरु हरि राय जी के घर माता कृष्ण कौर जी की कोख से सावण वदी 10 बुधवार संवत 1713 विक्रमी को कीरतपुर नगर में हुआ| आपजी के बड़े भाई का नाम श्री राम राय जी था|


Thursday, August 22, 2013

श्री गुरु हरिराय जी - ज्योति ज्योत समाना




श्री गुरु हरिराय जी - ज्योति ज्योत समाना





































































ज्योति ज्योत समाना




दूसरे दिन कार्तिक वदी ९ संवत १७१८ विक्रमी को गुरु जी ने अपने आसन पर चौकड़ी मार ली| अपने श्रद्धानंद स्वरूप में वृति जोड़कर शरीर को त्याग दिया व सच क्खंड जा विराजे| आप जी के पांच तत्व के शरीर को चन्दन कि चिता में तैयार करके गुरु हरिगोबिंद जी के द्वारा निर्मित पतालपुरी के स्थान के पास अग्निभेंट कर दिया गया|


Wednesday, August 21, 2013

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 37



ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 37 




चावड़ी का समारोह
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इस अध्याय में हम कुछ थोड़ी सी वेदान्तिक विषयों पर प्रारम्भिक दृष्टि से समालोचना कर चावड़ी के भव्य समारोह का वर्णन करेंगे ।





प्रारम्भ


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धन्य है श्रीसाई, जिनका जैसा जीवन था, वैसी ही अवर्णनीय गति और क्रियाओं से पूर्ण नित्य के कार्यक्रम भी । कभी तो वे समस्त सांसारिक कार्यों से अलिप्त रहकर कर्मकाण्डी से प्रतीत होते और कभी ब्रहमानंद और कभी आत्मज्ञान में निमग्न रहा करते थे । कभी वे अनेक कार्य करते हुए भी उनसे असंबन्ध रहते थे । यघपि कभी-कभी वे पूर्ण निष्क्रिय प्रतीत होते, तथापि वे आलसी नहीं थे । प्रशान्त महासागर की नाईं सदैव जागरुक रहकर भी वे गंभीर, प्रशान्त और स्थिर दिखाई देते थे । उनकी प्रकृति का वर्णन तो सामर्थ्य से परे है ।





यह तो सर्व विदित है कि वे बालब्रहमचारी थे । वे सदैव पुरुषों को भ्राता तथा स्त्रियों को माता या बहिन सदृश ही समझा करते थे । उनकी संगति द्घारा हमें जिस अनुपम त्रान की उपलब्धि हुई है, उसकी विस्मृति मृत्युपर्यन्त न होने पाये, ऐसी उनके श्रीचरणों में हमारी विनम्र प्रार्थना है । हम समस्त भूतों में ईश्वर का ही दर्शन करें और नामस्मरण की रसानुभूति करते हुए हम उनके मोहविनाशक चरणों की अनन्य भाव से सेवा करते रहे, यही हमारी आकांक्षा है ।





हेमाडपंत ने अपने दृष्टिकोण द्घारा आवश्यकतानुसार वेदान्त का विवरण देकर चावड़ी के समारोह का वर्णन निम्न प्रकार किया है :-










चावड़ी का समारोह


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बाबा के शयनागार का वर्णन पहले ही हो चुका है । वे एक दिन मसजिद में और दूसरे दिन चावड़ी में विश्राम किया करते थे और यह कार्यक्रम उनकी महासमाधि पर्यन्त चालू रहा । भक्तों ने चावड़ी में नियमित रुप से उनका पूजन-अर्चन 10 दिसम्बर, सन् 1909 से आरम्भ कर दिया था । अब उनके चरणाम्बुजों का ध्यान कर, हम चावड़ी के समारोह का वर्णन करेंगे । इतना मनमोहक दृश्य था वह कि देखने वाले ठिठक-ठिठक कर रह जाते थे और अपनी सुध-बुध भूल यही आकांक्षा करते रहते थे कि यह दृश्य कभी हमारी आँखों से ओझल न हो । जब चावड़ी में विश्राम करने की उनकी नियमित रात्रि आती तो उस रात्रि को भक्तोंका अपार जन-समुदाय मसजिद के सभा मंडप में एकत्रित होकर घण्टों तक भजन किया करता था । उस मंडप के एक ओर सुसज्जित रथ रखा रहते था और दूसरी ओर तुलसी वृन्दावन था । सारे रसिक जन सभा-मंडप मे ताल, चिपलिस, करताल, मृदंग, खंजरी और ढोल आदि नाना प्रकार के वाघ लेकर भजन करना आरम्भ कर देते थे । इन सभी भजनानंदी भक्तों को चुम्बक की नाई आकर्षित करने वाले तो श्री साईबाबा ही थे ।





मसजिद के आँगन को देखो तो भक्त-गण बड़ी उमंगों से नाना प्रकार के मंगल-कार्य सम्पन्न करने में संलग्न थे । कोई तोरण बाँधकर दीपक जला रहे थे, तो कोई पालकी और रथ का श्रृंगार कर निशानादि हाथों में लिये हुए थे । कही-कही श्री साईबाबा की जयजयकार से आकाशमंडल गुंजित हो रहा था । दीपों के प्रकाश से जगमगाती मसजिद ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो आज मंगलदायिनी दीपावली स्वयं शिरडी में आकर विराजित हो गई हो । मसजिद के बाहर दृष्टिपात किया तो द्घार पर श्री साईबाबा का पूर्ण सुसज्जित घोड़ा श्यामसुंदर खड़ा था । श्री साईबाबा अपनी गादी पर शान्त मुद्रा में विराजित थे कि इसी बीच भक्त-मंडलीसहित तात्या पटील ने आकर उन्हें तैयार होने की सूचना देते हुए उठने में सहायता की । घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण तात्या पाटील उन्हें मामा कहकर संबोधित किया करते थे । बाबा सदैव की भाँति अपनी वही कफनी पहिन कर बगल में सटका दबाकर चिलम और तम्बाखू संग लेकर धन्धे पर एक कपड़ा डालकर चलने को तैयार हो गये । तभी तात्या पाटील ने उनके शीश पर एक सुनहरा जरी का शेला डाल दिया । इसके पश्चात् स्वयं बाबा ने धूनी को प्रज्वलित रखने के लिये उसमें कुछ लकड़ियाँ डालकर तथा धूनी के समीप के दीपक को बाँयें हाथ से बुझाकर चावड़ी को प्रस्थान कर दिया । अब नाना प्रकार के वाघ बजने आरम्भ हो गये और उनसे भाँति-भाँति के स्वर निकलने लगे । सामने रंग-बिरंगी आतिशबाजी चलने लगी और नर-नारी भाँति-भाँति के वाघ बजाकर उनकी कीर्ति के भजन गाते हुए आगे-आगे चलने लगे । कोई आनंद-विभोर हो नृत्य करने लगा तो कोई अनेक प्रकार के ध्वज और निशान लेकर चलने लगे । जैसे ही बाबा ने मसजिद की सीढ़ी पर अपने चरण रखे, वैसे ही भालदार ने ललकार कर उनके प्रस्थान की सूचना दी । दोनों ओर से लोग चँवर लेकर खड़े हो गये और उन पर पंखा झलने लगे । फिर पथ पर दूर तक बिछे हुए कपड़ो के ऊपर से समारोह आगे बढ़ने लगा । तात्या पाटील उनका बायाँ तथा म्हालसापति दायाँ हाथ पकड़ कर तथा बापूसाहेब जोग उनके पीछे छत्र लेकर चलने लगे । इनके आगे-आगे पूर्ण सुसज्जित अश्व श्यामसुंदर चल रहा था और उनके पीछे भजन मंडली तथा भक्तों का समूह वाघों की ध्वनि के संग हरि और साई नाम की ध्वनि, जिससे आकाश गूँज उठता था, उच्चारित करते हुए चल रहा था । अब समारोह चावड़ी के कोने पर पहुँचा और सारा जनसमुदाय अत्यन्त आनंदित तथा प्रफुल्लित दिखलाई पड़ने लगा । जब कोने पर पहुँचकर बाबा चावड़ी के सामने खड़े हो गये, उस समय उनके मुख-मंडल की दिव्यप्रभा बड़ी अनोखी प्रतीत होने लगी और ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो अरुणोदय के समय बाल रवि क्षितिज पर उदित हो रहा हो । उत्तराभिमुख होकर वे एक ऐसी मुद्रा में खड़े गये, जैसे कोई किसी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हो । वाघ पूर्ववत ही बजते रहे और वे अपना दाहिना हाथ थोड़ी देर ऊपर-नीचे उठाते रहे । वादक बड़े जोरों से वाघ बजाने लगे और इसी समय काकासाहेब दीक्षित गुलाल और फूल चाँदी की थाली में लेकर सामने आये और बाबा के ऊपर पुष्प तथा गुलाल की वर्षा करने लगे । बाबा के मुखमंडल पर रक्तिम आभा जगमगाने लगी और सब लोग तृप्त-हृदय हो कर उस रस-माधुरी का आस्वादन करने लगे । इस मनमोहक दृश्य और अवसक का वर्णन शब्दों में करने में लेखनी असमर्थ है । भाव-विभोर होकर भक्त म्हालसापति तो मधुर नृत्य करने लगे, परन्तु बाबा की अभंग एकाग्रता देखकर सब भक्तों को महान् आश्चर्य होने लगा । एक हाथ में लालटेन लिये तात्या पाटील बाबा के बाँई ओर और आभूषण लिये म्हालसापति दाहिनी ओर चले । देखो तो, कैसे सुन्दर समारोह की शोभा तथा भक्ति का दर्शन हो रहा है । इस दृश्य की झाँकी पाने के लिये ही सहस्त्रों नर-नारी, क्या अमीर और क्या फकी, सभी वहाँ एकत्रित थे । अब बाबा मंद-मंद गति से आगे बढ़ने लगे और उनके दोनों ओर भक्तगम भक्तिभाव सहित, संग-संग चले लगे और चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण दिखाई पड़ने लगा । सम्पूर्ण वायुमंडल भी खुशी से झूम उठा और इस प्रकार समारोह चावड़ी पहुँचा । अब वैसा दृश्य भविष्य में कोई न देख सकेगा । अब तो केवल उसकी याद करके आँखों के सम्मुख उस मनोरम अतीत की कल्पना से ही अपने हृदय की प्यास शान्त करनी पड़ेगी ।










चावड़ी की सजावट भी अति भी अति उत्तम प्रकार से की गई थी । उत्तम बढ़िया चाँदनी, शीशे और भाँति-भाँति के हाँड़ी-लालटेन (गैस बत्ती) लगे हुए थे । चावड़ी पहुँचने पर तात्या पाटील आगे बढ़े और आसन बिछाकर तकिये के सहारे उन्होंने बाबा को बैठाया । फिर उनको एक बढ़िया अँगरखा पहिनाया और भक्तों ने नाना प्रकार से उनकी पूजा की, उन्हें स्वर्ण-मुकुट धारण कराया, तथा फूलों और जवाहरों की मालाएँ उनके गले में पहिनाई । फिर ललाट पर कस्तूरी का वैष्णवी तिलक तथा मध्य में बिन्दी लगाकर दीर्घ काल तक उनकी ओर अपलक निहारते रहे । उनके सिर का कपड़ा बदल दिया गया और उसे ऊपर ही उठाये रहे, क्योंकि सभी शंकित थे कि कहीं वे उसे फेक न दे, परन्तु बाबा तो अन्तर्यामी थे और उन्होंने भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने दिया । इन आभूषणों से सुसज्जित होने के उपरान्त तो उनकी शोभा अवर्णनीय थी ।





नानासाहेब निमोणकर ने वृत्ताकार एक सुन्दर छत्र लगाया, जिसके केंद्र में एक छड़ी लगी हुई थी । बापूसाहेब जोग ने चाँदी की एक सुन्दर थाली में पादप्रक्षालन किया और अघ्र्य देने के पश्चात् उत्तम विधि से उनका पूजन-अर्चन किया और उनके हाथों में चन्दन लगाकर पान का बीड़ा दिया । उन्हें आसन पर बिठलाया गया । फिर तात्या पाटील तथा अन्य सब भक्त-गण उनके श्री-चरणों पर अपने-अपने शीश झुकाकर प्रणाम करने लगे । जब वे तकिये के सहारे बैठ गये, तब भक्तगण दोनों ओर से चँवर और पंखे झलने लगे । शामा ने चिलम तैयार कर तात्या पाटील को दी । उन्होंने एक फूँक लगाकर चिलम प्रज्वलित की और उसे बाबा को पीने को दिया । उनके चिलम पी लेने के पश्चात फिर वह भगत म्हालसापति को तथा बाद में सब भक्तों को दी गई । धन्य है वह निर्जीव चिलम । कितना महान् तप है उसका, जिसने कुम्हार द्घार पहिले चक्र पर घुमाने, धूप में सुखाने, फिर अग्नि में तपाने जैसे अनेक संस्कार पाये । तब कहीं उसे बाबा के कर-स्पर्श तथा चुम्बन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । जब यह सब कार्य समाप्त हो गया, तब भक्तगण ने बाबा को फूलमालाओं से लाद दिया और सुगन्धित फूलों के गुलदस्ते उन्हें भेंट किये । बाबा तो वैराग्य के पूर्ण अतार थे और वे उन हीरे-जवाहरात व फूलों के हारों तथा इस प्रकार की सजधज में कब अभिरुचि लेने वाले थे । परन्तु भक्तों के सच्चे प्रेमवश ही, उनके इच्छानुसार पूजन करने में उन्होंने कोई आपत्ति न की । अन्त में मांगलिक स्वर में वाघ बजने लगे और बापूसाहेब जोग ने बाबा की यथाविधि आरती की । आरती समाप्त होने पर भक्तों ने बाबा को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर सब एक-एक करके अपने घर लौटने लगे । तब तात्या पाटील ने उन्हें चिनम पिलाकर गुलाब जल, इत्र इत्यादि लगाया और विदा लेते समय एक गुलाब का पुष्प दिया । तभी बाबा प्रेमपूर्वक कहने लगे के तात्या, मेरी देखभाल भली भाँति करना । तुम्हें घर जाना है तो जाओ, परन्तु रात्रि में कभी-कभी आकर मुझे देख भी जाना । तब स्वीकारात्मक उत्तर देकर तात्या पाटील चावड़ी से अपने घर चले गये । फिर बाबा ने बहुत सी चादरें बिछाकर स्वयं अपना बिस्तर लगाकर विश्राम किया ।





अब हम भी विश्राम करें और इस अध्याय को समाप्त करते हुये हम पाठकों से प्रार्थना करते है कि वे प्रतिदिन शयन के पूर्व श्री साईबाबा और चावड़ी समारोह का ध्यान अवश्य कर लिया करें ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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Tuesday, August 20, 2013

श्री गुरु हरिराय जी – साखियाँ - भाई भगतु व भाई फेरु की वार्ता




श्री गुरु हरिराय जी – साखियाँ




































































भाई भगतु व भाई फेरु की
वार्ता




भाई भगतु गुरु घर का सेवक था| जब गुरु हरि राय जी गुरु गद्दी पर बैठे तो कुछ समय बाद भगतु जी ने प्रार्थना की कि महाराज! सेवा के बिना मनुष्य की आयु बेकार है इसलिए मुझे कोई सेवा दो| गुरु जी हँस कर कहने लगे कि अब आप बहुत वृद्ध हो गए हो| अपने मनोरंजन के लिए कोई चरखा लाओ|

भगतु कहने लगे महाराज! जैसे आपकी इच्छा है वैसे सेवा बक्शो| परन्तु मुझे सेवा जरूर दो| गुरु जी प्रसन्न होकर कहने लगे तुम गुरु के लंगर के लिए खेती कराओ| गुरु की आज्ञा आते ही भगतु जी ने कर्मचारी और बैल तैयार करवाकर धरती जो जोता और बीज डाल दिया और संभाल करनी शुरू कर दी|

एक दिन खेत में काम करने वाले वालों ने कहा,भाई जी! रोटी हमें घी के साथ अच्छी तरह से दो| हम और भी अधिक उत्साह से काम करेंगे| भाई जी ने जब उनकी बात सुनी तो इधर उधर देखने लगे| उधार से एक फेरी वाला जा रहा था जिसके पास नमक,मिर्च,गुड़,घी इत्यादि था| उसको बुलाकर भाई जी कहने लगे इनको रोटी के साथ जितना घी चाहिए उतना दे दो| इस घी का मूल्य हमसे कल ले लेना| तब फेरी वाले ने काम करने वालो को अपनी कुपी में से एक एक पली घी दे दिया|

फेरी वाले ने घर जाकर घी वाली कुपी जिसमे थोड़ा सा घी बचा था, खूंटी पर टांग दिया| सुबह उठकर जब कुप्पी को तोलकर देखने लगा कि श्रमिकों को कितना घी खिलाया है| जिसके पैसे भगतु से लेने हैं| उसने जैसे ही कुप्पी को देखा व घी से लबा लब भरी हुई थी| यह कौतक देखकर फेरी वाला भगतु जी के पास गया और उनके पैरों में माथा टेका और कहने लगा कि मुझे अपना सिख बनाओ| भाई भगतु ने जब उसकी श्रद्धा देखी तो व उसे गुरु दरबार पर ले गया| भाई भगतु को देखकर गुरु जी कहने लगे परोपकारी भगतु किसको साथ लायेहो? भाई भगतु ने सारी बात बताई और यह भी कहा कि यह आपका सिख बनना चाहता है|

गुरु जी फेरी वाले से पूछने लगे कि आपका क्या नाम है और क्या करते हो| उसने कहा महाराज! मेरा नाम संगत है मैं फेरी लगाने का काम करता हूँ| गुरु जी ने वचन किया कि तू फेरी करता हुआ हमारी शरण में आया है इसलिए आज से तेरा नाम फेरु है| गुरु जी ने उसको अपना चरणामृत देकर सिख बना लिया और वचन किया फेरी का काम छोडकर सतिनाम का सिमरन किया और देग चलाया करो तुम्हें कभी कमी नहीं आएगी| इस प्रकार फेरु जी ने गुरु जी का वचन मानकर अपना ध्यान सतिनाम की याद में लगा दिया और तन मन से देग की कार चलाने लग गए|



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