शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Monday, September 30, 2013

भक्त मीरा बाई जी जीवन परिचय



ॐ साँई राम जी


















भक्त मीरा बाई जी




राजस्थान की भूमि साहस व शौर्य के लिए प्रसिद्ध है| भारत में हुए साठ प्रतिशत युद्ध इसी राज्य की जमीन पर हुए| युद्धों की इस भूमि पर प्रेम की मूर्ति भी अवतरित हुई जिसका नाम था मीरा! 

परिचय:

मीरा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं| वह श्री कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी| मीरा का जन्म 1498 में हुआ| इनके पिता मेड़ता के राजा थे| जब मीरा बाई बहुत छोटी थी तो उनकी माता ने श्री कृष्ण जी को यू ही उनका दूल्हा बता दिया| इस बात को मीरा जी सच मान गई| उन पर इस बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह श्री कृष्ण जी को ही अपना सब कुछ मान बैठी|

जवानी की अवस्था में पहुँचने पर भी उनके प्रेम में कमी नहीं आई| ओर युवतियों की तरह वह भी अपने पति को लेकर विभिन्न कल्पनाएँ करती| परन्तु उनकी कल्पनाएँ, उनके सपने श्री कृष्ण जी से आरम्भ होकर उन्ही पर ही समाप्त हो जाते|

समय बीतता गया| मीरा जी का प्यार कृष्ण के प्रति और बढता गया| 1516 ई० में मीरा का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से कर दिया गया| वे मीरा के प्रति स्नेह का भाव रखते थे परन्तु मीरा का ह्रदय माखन चोर ने चुरा लिया था| वह अपने विवाह के बाद भी श्री कृष्ण की आराधना न छोड़ सकी| वह कृष्ण को ही अपना पति समझती और वैरागिनो की तरह उनके भजन गाती| मेवाड़ के राजवंश को यह कैसे स्वीकार हो सकता था कि उनकी रानी वैरागिनी की तरह जीवन व्यतीत करे| उन्हें मरने की साजिशे रची जाने लगी| मीरा की भक्ति, प्रेम निश्छल था इसलिए विष भी अमृत हो गया| उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण को ही समर्पित कर दिया| उनका कहना था -



मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई| 


जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई|| 





तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई| 


छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई|| 





मीरा ने गुरु के विषय में कहा है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं की जा सकती| भक्तिपूर्ण व्यक्ति ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है वही सच्चा गुरु है| स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रविदास थे|



नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ| 


मीरा ने गोबिन्द मिल्या जी, गुरु मिलिया रैदास|| 





उन्होंने धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध शूद्र गुरु रविदास की भक्ति की|साधु - संतो की संगत की|

मीरा की मृत्यु के बारे में अलग-अलग मत हैं|

· लूनवा के भूरदान ने मीरा की मौत 1546 में बताई|

· रानीमंगा के भाट ने मीरा की मौत 1548 में बताई|

· डा० शेखावत अपने लेख और खोज के अधार पर मीरा की मौत 1547 में बताते हैं|
हरमेन गोएटस ने मीरा के द्वारका से गायब होने की कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया परन्तु वह मौलिक नहीं| उनके अनुसार वह द्वारका के बाद उत्तर भारत में भ्रमण करती रही| उसने भक्ति व प्रेम का संदेश सब जगह पहुँचाया| चित्तौड़ के शासक कर्मकांड व राजसी वैभव में डूबकर उसे भूल चुके थे| किसी ने उसे ढूँढने का प्रयास नहीं किया| 

अपने पांच वर्ष की अवस्था में मीरा ने गिरधर का वरण किया और उसी दिव्यमूर्ति में विलीन हो गई| धन्य है वह प्रेम की मूर्ति! जिसने दैविक प्रेम का ऐसा उदाहरण दिया कि बड़े-बड़े संत, भक्त की चमक भी धीमी पड़ गई|
साहितिक देन:

मीरा जी ने विभिन्न पदों व गीतों की रचना की| मीरा के पदों मे ऊँचे अध्यात्मिक अनुभव हैं| उनमे समाहित संदेश और अन्य संतो की शिक्षा मे समानता नजर आती हैं| उनके प्रप्त पद उनकी अध्यात्मिक उन्नति के अनुभवों का दर्पण हैं| मीरा ने अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रयोग किया है जैसे -
हिन्दी, गुजरती, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथली और पंजाबी|

भावावेग, भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाहधारा, प्रीतम वियोग की पीड़ा की मर्मभेदी प्रखता से अपने पदों को अलंकृत करने वाली प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के समान शायद ही कोई कवि हो|

Sunday, September 29, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - ज्योति ज्योत समाना



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - ज्योति ज्योत समाना


























श्री गुरु गोबिंद सिंह जी दोनों समय दीवान लगाकर संगत को उपदेश देकर निहाल करते थे| इस समय दो युवक पठान भी दीवान में उपस्थित होकर श्रद्धा भाव से गुरु जी के वचन सुनते|


एक दिन शाम के समय जब गुरु जी अपने तम्बू में विश्राम कर रहे थे तो इनमें से एक पठान गुलखां ने समय ताड़ कर आप जी के पेट में कटार के दो वार कर दिए| गुरु जी ने शीघ्र ही अपने आप को सँभालते हुए उसका सिर एक वार से धड़ से अलग कर दिया| गुलखां का साथी रुस्तमखां जो तम्बू से बाहर खड़ा था उसे पहरेदारों ने मार दिया| इसके पश्चात सिंघो ने नादेड़ नगर से जराह को बुलाकर आपके जख्मों की मरहम पट्टी कराई| तथा रोज ही आप की आरोग्यता के लिए बाणी का पाठ व अरदास करने लगे|

जब गुरु जी के जख्म गहरे होने के कारण ठीक होने की आशा न रही तो सिहों ने बेबस होकर प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! हमें आप किसके पास छोड़ कर सच्च खंड की तैयारी कर रहे हो? आपके पीछे हमारी रखवाली कौन करेगा|

सिहों की प्रार्थना सुनकर गुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश करवाया तथा पांच तैयार सिंह हजूरी में खड़े करके आपने तीन परिक्रमा करके पांच पैसे व नारियल श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आगे रखकर माथा टेक कर वचन किया कि आज से देहधारी गुरु का सिलसिला समाप्त करके इस वाणी को आत्म प्रकाश करने वाली बड़े गुरु साहिब तथा प्रभु के भक्तों ने उच्चारण की हुई है, गुरु नानक साहिब जी की गुरु गद्दी पर स्थापित कर दिया| हमारे बाद यह गुरु युगों-युग अटल रहेगा| जिसने हमारे आत्मिक दर्शन करने हों, वह इस शब्द गुरु के दर्शन करे और जिसने हमारे पांच भूतक शरीर के दर्शन करने हों, तो वह हमारे तैयार बर तैयार खालसे के दर्शन करे|

संवत 1765 वाले दिन कार्तिक सुदी को आप जी ने खालसा पंथ को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख करके यह वचन किया|


दोहरा || 





गुरु ग्रंथ जी मानिओ प्रगट गुरां की देह ||


जो प्रभ को मिलबो चहै खोज शबद में लेह ||




गुरु स्थापना की मर्यादा करके गुरु जी ने सिहों को हुक्म दिया कि हमारा अंगीठा तैयार करो तथा उसके चारों तरफ कनात लगा दो| सिक्खों ने वैसा ही किया|

गुरु जी ने सिहों को बड़ा उदास देखा और प्रेम से वचन किया हे प्यारे सिहों! अकाल पुरख के नियम के अनुसार यह अस्थूल शरीर मिलते और बिछड़ते रहते हैं| इनका प्यार कभी नहीं निभता| श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बाणी हमारा ह्रदय है| रात दिन इनके मिलने से प्रभु के गुणों को अपने मन में जोड़ना| इनकी उपस्थिति में पांच सिंह जो हुक्म करेगें, उसे गुरु का हुक्म मानकर स्वीकार करना|

गुरबाणी का पाठ और शास्त्रों का अभ्यास करना| गुरु साहिब का इतिहास सुनना| पांच रहितवान सिहों को मेरा रूप समझना| जो श्रद्धा से पांच सिहों से अरदास कराएगा, उसके सभी मनोरथ पूरे होंगे|

सिहों को धैर्य उपदेश देकर जब आदी रात बीत गई तो आप जी ने पहले "जपुजी साहिब" फिर -


"हरि हरि जन दुइि ऐक हैं || 


बिब बिचार किछु नाहि || 


जल ते उपज तरंगि||




ज्यों जल ही बिखै समाहि ||"





आदि पांच दोहरे पढ़कर अरदास की और इसके पश्चात मखमल का कमर कस्सा करके किरपान, धनुष, तीर तथा हाथ में बंदूक पकड़कर सिख वीरो को हाथ जोड़कर "वाहिगुरू जी का खालसा || वाहिगुरू जी की फतहि ||" बुलाई| इस समय सिक्ख संगत सेजल नेत्रों से आपको नमस्कार करने लगी, तो उनको आपके शरीर की कोई छुह प्राप्त न हुई| मगर शरीर करके आपके दर्शन सबको हो रहे थे| इस कौतक को अनुभव करके सब संगत ने हाथ जोड़कर धरती पर शीश रखकर आप जी को नमस्कार किया|

अन्तिम समय आप जी ने अपने सिहों को कहा कि अब तुम सब अपने-अपने घर चले जाना और जथेदार संतोख सिंह को आज्ञा की कि तुम यहाँ रहकर हमारे स्थान की सेवा करनी| जो धन आ जाए उससे लंगर चलाना|

यह वचन करके आप जी कनात अन्दर चले गए और चिखा ऊपर चौकड़ा मारकर बैठ गए| इसके पश्चात चिखा को अग्नि प्रचंड करा कर ज्योति में ज्योत मिलाकर अनंत में लीन हो गए|







Saturday, September 28, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - सोने का कड़ा गंगा नदी में फैंकना



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ
























सोने का कड़ा गंगा नदी में फैंकना




एक दिन गुरु गोबिंद सिंह जी गंगा में नाव की सैर कर रहे थे| सैर करते हुए आपके हाथ से सोने का कड़ा दरिया में गिर गया| आप जब घर पहुँचे तो माता जी ने आपसे पूछा बेटा! आपका कड़ा कहाँ है? तब आपने माता जी को उत्तर दिया, माता जी! वह दरिया में गिरकर खो गया है|

माता जी फिर से पूछने लगी कि बताओ कहाँ गिरा है? गुरु जी माता जी को लेकर गंगा नदी के किनारे आ गए| उन्होंने अपने दूसरे हाथ का कड़ा भी उतारकर पानी में फैंक कर कहा कि यहाँ गिरा था| आप की यह लापरवाही देख कर माता जी को गुस्सा आया| वह उन्हें घर ले आई|

घर आकर गुरु जी ने माता जी को बताया कि माता जी! इन हाथों से ही अत्याचारियों का नाश करके गरीबों की रक्षा करनी है| इनके साथ ही अमृत तैयार करके साहसहीनों में शक्ति भरकर खालसा साजना है| यदि इन हाथों को माया के कड़ो ने जकड़ लिया, तो फिर यह काम जो अकाल पुरख ने करने की हमें आज्ञा की है वह किस तरह पूरे होंगे? जुल्म को दूर करने के लिए इन हाथों को लोहे जैसे शक्तिशाली मजबूत करने के लिए लोहे का कड़ा पहनना उचित है| अतः खालसा पंथ सजाकर आपने सिखों को लोहे का कड़ा ही पहनने का हुक्म किया, जो जगत प्रसिद्ध है|

गंगा नदी के जिस घाट पर आप जी खेलते व स्नान करते थे, उसका नाम गोबिंद घाट प्रसिद्ध है|







Friday, September 27, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - जेब काटने वाले चोर को शिक्षा



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ























जेब काटने वाले चोर को शिक्षा




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबार में सदा एक मेला सा लगा रहता था| एक दिन चार सिख गुरु जी के पास आए| उन्होंने आकर प्रार्थना की कि किसी ने उनकी जेब काट ली है व पैसे नकदी निकाल लिए हैं| उनकी बात सुनकर गुरु जी ने सिखों को हुक्म दिया कि संगत की भीड़ में एक आदमी जिसने सिर पर लाल पगड़ी बांधी है, कमर पर धोती है तथा उसके हाथ में माला व माथे पर चन्दन का सफ़ेद तिलक लगा हुआ है, उसे पकड़कर हमारे पास ले आओ|

सिखों ने गुरु जी की बात सुनी व गुरु जी की बताई निशानी के अनुसार एक आदमी के हाथ पैर बांधकर गुरु जी के समक्ष ले आए| गुरु जी ने उसकी तलाशी करवाई| चुराया हुआ सारा समान व धन उसके पास से ही निकला| तब गुरु जी ने उस जेब कतरे को कैद में डलवा दिया|

कुछ दिनों के बाद आपने उसे बुलाकर कहा तूने जेब काटने के लिए हमारी आराधना करके प्रण किया था, मैं तीन जेबें काटकर फिर यह काम नहीं करूंगा| परन्तु तूने अपने प्रण से फिर कर चौथी बार जेब क्यों काटी? इसलिए तुम्हें कैद की सजा दी जाती है| परन्तु यदि अब तुम यह प्रण हमारे सामने कर लो कि आगे से कोई ऐसा काम नहीं करोगे, तो तुम्हें छोड़ देते हैं|

उस चोर ने गुरु की बात सुनकर उनसे क्षमा माँगी व यह प्रण किया कि वह आगे से ऐसा कोई काम नहीं करेगा| गुरु जी ने उसे बुलाकर उपदेश दिया व कैद से निकाल दिया|






Thursday, September 26, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - ब्राहमणों की परीक्षा करनी



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ





































ब्राहमणों की परीक्षा करनी




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने ब्राहमणों का चुनाव करने के लिए दूर दूर के क्षेत्रों से जैसे कश्मीर, मथुरा, प्रयाग व काशी आदि दक्षिण पूर्व दिशा से सारे पंडितो को आनंदपुर आने के लिए अपने सिख भेजकर बुलवाया|

बहुत से पंडित एकत्रित हो गए| गुरु जी ने उनके लिए एक ओर लंगर में खीर, पूड़े तथा लड्डू आदि तैयार करवाए| दूसरी ओर गुरु जी ने मासाहारी भोजन तैयार करवाया| इसके पश्चात गुरु जी ने सबको कहा कि जो वैष्णव भोजन खीर पूड़े आदि खायेगा उसे पांच रूपये दक्षिणा मिलेगी तथा जो मांस वाला भोजन खायेगा उसे पांच मोहरे दक्षिणा मिलेगी|

गुरु जी के यह वचन सुनकर बहुत से पंडित मांस खाने वाले लंगर में जाकर बैठ गए| बाकी थोड़े से ही वैष्णव भोजन खीर पूड़े वाले लंगर में रह गए| दोनों लंगर में सबने भोजन खा लिया|

गुरु जी ने मासाहारी ब्राहमणों को सम्बोधित करके कहा कि तुमने लोभवश होकर अपना ब्राहमण धर्म भ्रष्ट किया है| मांस खाना क्षत्रियों का धर्म है ब्राहमणों का नहीं| इस करके तुम्हें पांच-पांच मोहरों की जगह पांच-पांच रूपये दक्षिणा दी जाती है|

इसके पश्चात गुरु जी ने वैष्णवों को कहा कि तुमने लोभवश होकर अपना ब्राहमण धर्म नहीं छोड़ा जो कि लोक व परलोक में सहायक होता है| तुम्हें शाबाश है| उनको गुरु जी ने प्रसन्न होकर पांच - पांच मोहरे दक्षिणा दी| आपने बड़े ही सत्कार से उनको विश्राम कराया|






Wednesday, September 25, 2013

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 42 - महासमाधि की ओर



ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...









श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 42 - महासमाधि की ओर







-------------------------------------



भविष्य की आगाही – रामचन्द्र दादा पाटील और तात्या कोते पाटील की मृत्यु टालना – लक्ष्मीबाई शिन्दे को दान – अन्तिम क्षण ।



बाबा ने किस प्रकार समाधि ली, इसका वर्णन इस अध्याय में किया गया है ।



प्रस्तावना

................

गत अध्यायों की कथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि गुरुकृपा की केवल एक किरण ही भवसागर के भय से सदा के लिये मुक्त कर देती है तथा मोक्ष का पथ सुगम करके दुःख को सुख में परिवर्तित कर देती है । यदि सदगुरु के मोहविनाशक पूजनीय चरणों का सदैव स्मरण करते रहोगे तो तुम्हारे समस्त कष्टों और भवसागर के दुःखों का अन्त होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा हो जायेगा । इसीलिये जो अपने कल्याणार्थ चिन्तित हो, उन्हें साई समर्थ के अलौकिक मधुर लीलामृत का पान करना चाहिये । ऐसा करने से उनकी मति शुद्घ हो जायेगी । प्रारम्भ में डाँक्टर पंडित का पूजन तथा किस प्रकार उन्होंने बाबा को त्रिपुंड लगाया, इसका उल्लेख मूल ग्रन्थ में किया गया है । इस प्रसंग का वर्णन 11 वें अध्याय में किया जा चुका है, इसलिये यहाँ उसका दुहराना उचित नहीं है ।










भविष्य की आगाही

......................

पाठको । आपने अभी तक केवल बाबा के जीवन-काल की ही कथायें सुनी है । अब आप ध्यानपूर्वक बाबा के निर्वाणकाल का वर्णन सुनिये । 28 सितम्बर, सन् 1918 को बाबा को साधारण-सा ज्वर आया । यह ज्वर 2-3 दिन ततक रहा । इसके उपरान्त ही बाबा ने भोजन करना बिलकुल त्याग दिया । इससे उनका शरीर दिन-प्रतिदिन क्षीण एवं दुर्बल होने लगा । 17 दिनों के पश्चात् अर्थात् 18 अक्टूबर, सन् 1918 को 2 बजकर 30 मिनट पर उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया । (यह समय प्रो. जी. जी. नारके के तारीख 5-11-1918 के पत्र के अनुसार है, जो उन्होंने दादासाहेब खापर्डे को लिखा था और उस वर्ष की साईलीलापत्रिका के 7-8 पृष्ठ (प्रथम वर्ष) में प्रकाशित हुआ था) । इसके दो वर्ष पूर्व ही बाबा ने अपने निर्वाण के दिन का संकेत कर दिया था, परन्तु उस समय कोई भी समझ नहीं सका । घटना इस प्रकार है । विजया दशमी के दिन जब लोग सन्ध्या के समय सीमोल्लंघनसे लौट रहे थे तो बाबा सहसा ही क्रोधित हो गये । सिर पर का कपड़ा, कफनी और लँगोटी निकालकर उन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े करके जलती हुई धूनी में फेंक दिये । बाबा के द्घारा आहुति प्राप्त कर धूनी द्घिगुणित प्रज्वलित होकर चमकने लगी और उससे भी कहीं अदिक बाबा के मुख-मंडल की कांति चमक रही थी । वे पूर्ण दिगम्बर खड़े थे और उनकी आँखें अंगारे के समान चमक रही थी । उन्होंने आवेश में आकर उच्च स्वर में कहा कि लोगो । यहाँ आओ, मुझे देखकर पूर्ण निश्चय कर लो कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान । सभी भय से काँप रहे थे । किसी को भी उनके समीप जाने का साहस न हो रहा था । कुछ समय बीतने के पश्चात् उनके भक्त भागोजी शिन्दे, जो महारोग से पीड़ित थे, साहस कर बाबा के समीप गये और किसी प्रकार उन्होंने उन्हें लँगोटी बाँध दी और उनसे कहा कि बाबा । यह क्या बात है । देव आज दशहरा (सीमोल्लंघन) का त्योहार है । तब उन्होंने जमीन पर सटका पटकते हुए कहा कि यह मेरा सीमोल्लंघन है । लगभग 11 बजे तक भी उनका क्रोध शान्त न हुआ और भक्तों को चावड़ी जुलूस निकलने में सन्देह होने लगा । एक घण्टे के पश्चात् वे अपनी सहज स्थिति में आ गये और सदी की भांति पोशाक पहनकर चावड़ी जुलूस में सम्मिलित हो गये, जिसका वर्णन पूर्व में ही किया जा चुका है । इस घटना द्घारा बाबा ने इंगित किया कि जीवन-रेखा पार करने के लिये दशहरा ही उचित समय है । परन्तु उस समय किसी को भी उसका असली अर्थ समझ में न आया । बाबा ने और भी अन्य संकेत किये, जो इस प्रकार है :-







रामचन्द्र दादा पाटील की मृत्यु टालना

.....................................

कुछ समय के पश्चात् रामचन्द्र पाटील बहुत बीमार हो गये । उन्हें बहुत कष्ट हो रहा था । सब प्रकार के उपचार किये गये, परन्तु कोई लाभ न हुआ और जीवन से हताश होकर वे मृत्यु के अंतिम क्षणों की प्रतीक्षा करने लगे । तब एक दिन मध्याहृ रात्रि के समय बाबा अनायास ही उनके सिरहाने प्रगट हुए । पाटील उनके चरणों से लिपट कर कहने लगे कि मैंने अपने जीवन की समस्त आशाये छोड़ दी है । अब कृपा कर मुझे इतना तो निश्चित बतलाइये कि मेरे प्राण अब कब निकलेंगे । दया-सिन्धु बाबा ने कहा कि घबराओ नहीं । तुम्हारी हुँण्डी वापस ले ली गई है और तुम शीघ्र ही स्वस्थ हो जाओगे । मुझे तो केवल तात्या का भय है कि सन् 1918 में विजया दशमी के दिन उसका देहान्त हो जायेगा । किन्तु यह भेद किसी से प्रगट न करना और न ही किसी को बतलाना । अन्यथा वह अधिक बयभीत हो जायेगा । रामचन्द्र अब पूर्ण स्वस्थ हो गये, परन्तु वे तात्या के जीवन के लिये निराश हुए । उन्हें ज्ञात था कि बाबा के शब्द कभी असत्य नहीं निकल सकते और दो वर्ष के पश्चात ही तात्या इस संसर से विदा हो जायेगा । उन्होंने यह भेद बाला शिंपी के अतिरिक्त किसी से भी प्रगट न किया । केवल दो ही व्यक्ति – रामचन्द्र दादा और बाला शिंपी तात्या के जीवन के लिये चिन्ताग्रस्त और दुःखी थे ।



रामचन्द्र ने शैया त्याग दी और वे चलने-फिरने लगे । समय तेजी से व्यतीत होने लगा । शके 1840 का भाद्रपद समाप्त होकर आश्विन मास प्रारम्भ होने ही वाला था कि बाबा के वचन पूर्णतः सत्य निकले । तात्या बीमार पड़ गये और उन्होंने चारपाई पकड़ ली । उनकी स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि अब वे बाबा के दर्शनों को भी जाने में असमर्थ हो गये । इधर बाबा भी ज्वर से पीड़ित थे । तात्या का पूर्ण विश्वास बाबा पर था और बाबा का भगवान श्री हरि पर, जो उनके संरक्षक थे । तात्या की स्थिति अब और अधिक चिन्ताजनक हो गई । वह हिलडुल भी न सकता था और सदैव बाबा का ही स्मरण किया करता था । इधर बाबा की भी स्थिति उत्तरोत्तर गंभीर होने लगी । बाबा द्घार बतलाया हुआ विजया-दसमी का दिन भी निकट आ गया । तब रामचन्द्र दादा और बाला शिंपीबहुत घबरा गये । उनके शरीर काँप रहे थे, पसीने की धारायें प्रवाहित हो रही थी, कि अब तात्या का अन्तिम साथ है । जैसे ही विजया-दशमी का दिन आया, तात्या की नाड़ी की गति मन्द होने लगी और उसकी मृत्यु सन्निकट दिखलाई देने लगी । उसी समय एक विचित्र घटना घटी । तात्या की मृत्यु टल गई और उसके प्राण बच गये, परन्तु उसके स्थान पर बाबा स्वयं प्रस्थान कर गये और ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे कि परस्पर हस्तान्तरण हो गया हो । सभी लोग कहने लगे कि बाबा ने तात्या के लिये प्राण त्यागे । ऐसा उन्होंने क्यों किया, यह वे ही जाने, क्योंकि यह बात हमारी बुद्घि के बाहर की है । ऐसी भी प्रतीत होता है कि बाबा ने अपने अन्तिम काल का संकेत तात्या का नाम लेकर ही किया था ।



दूसरे दिन 16 अक्टूबर को प्रातःकाल बाबा ने दासगणू को पंढरपुर में स्वप्न दिया कि मसजिद अर्रा करके गिर पड़ी है । शिरडी के प्रायः सभी तेली तम्बोली मुझे कष्ट देते थे । इसलिये मैंने अपना स्थान छोड़ दिया है । मैं तुम्हें यह सूचना देने आया हूँ कि कृपया शीघ्र वहाँ जाकर मेरे शरीर पर हर तरह के फूल इकट्ठा कर चढ़ाओ । दासगणू को शिरडी से भी एक पत्र प्राप्त हुआ और वे अपने शिष्यों को साथ लेकर शिरडी आये तथा उन्होंने बाबा की समाधि के समक्ष अखंड कीर्तन और हरिनाम प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने स्वयं फूलो की माला गूँथी और ईश्वर का नाम लेकर समाधि पर चढ़ाई । बाबा के नाम पर एक वृहद भोज का भी आयोजन किया गया ।












लक्ष्मीबाई को दान

.........................

विजयादशमी का दिन हिन्दुओं को बहुत शुऊ है और सीमोल्लंघन के लिये बाबा द्घार इस दिन का चुना जाना सर्वथा उचित ही है । इसके कुछ दिन पूर्व से ही उन्हें अत्यन्त पीड़ा हो रही थी, परन्तु आन्तरिक रुप में वे पूर्ण सजग थे । अन्तिम क्षण के पूर्व वे बिना किसी की सहायता लिये उठकर सीधे बैठ गये और स्वस्थ दिखाई पड़ने लगे । लोगों ने सोचा कि संकट टल गया और अब भय की कोई बात नहीं है तथा अब वे शीघ्र ही नीरोग हो जायेंगे । परन्तु वे तो जानते थे कि अब मैं शीघ्र ही विदा लेने वाला हूँ और इसलिये उन्होंने लक्ष्मीबाई शिन्दे को कुछ दान देने की इच्छा प्रगट की ।



समस्त प्राणियों में बाबा का निवास

...................................

लक्ष्मीबाई एक उच्च कुलीन महिला थी । वे मसजिद में बाबा की दिन-रात सेवा किया करती थी । केवल भगत म्हालसापति तात्या और लक्ष्मीबाई के अतिरिक्त रात को मसजिद की सीढ़ियों पर कोई नहीं चढ़ सकता था । एक बार सन्ध्या समय जब बाबा तात्या के साथ मसजिद में बैठे हुए थे, तभी लक्ष्मीबाई ने आकर उन्हे नमस्कार किया । तब बाबा कहने लगे कि अरी लक्ष्मी, मैं अत्यन्त भूखा हूँ । वे यह कहकर लौट पड़ी कि बाबा, थोड़ी देर ठहरो, मैं अभी आपके लिये रोटी लेकर आती हूँ । उन्होंने रोटी और साग लाकर बाबा के सामने रख दिया, जो उन्होंने एक भूखे कुत्ते को दे दिया । तब लक्ष्मीबाई कहने लगी कि बाबा यह क्या । मैं तो शीघ्र गई और अपने हाथ से आपके लिये रोटी बना लाई । आपने एक ग्रास भी ग्रहम किये बिना उसे कुत्ते के सामने डाल दिया । तब आपने व्यर्थ ही मुझे यह कष्ट क्यों दिया । बाबा न उत्तर दिया कि व्यर्थ दुःख न करो । कुत्ते की भूख शान्त करना मुझे तृप्त करने के बराबर ही है । कुत्ते की भी तो आत्मा है । प्राणी चाहे भले ही भिन्न आकृति-प्रकृति के हो, उनमें कोई बोल सकते है और कोई मूक है, परन्तु भूख सबकी एक सदृश ही है । इसे तुम सत्य जानो कि जो भूखों को भोजन कराता है, वह यथार्थ में मुझे ही भोजन कराता है । यह एक अकाट्य सत्य है । इस साधारम- सी घटना के द्घारा बाबा ने एक महान् आध्यात्मिक सत्य की शिक्षा प्रदान की कि बिना किसी की भावनाओं को कष्ट पहुँचाये किस प्रकार उसे नित्य व्यवहार में लाया जा सकता है । इसके पश्चात् ही लक्ष्मीबाई उन्हें नित्य ही प्रेम और भक्तिपूर्वक दूध, रोटी व अन्य भोजन देने लगी, जिसे वे स्वीकार कर बड़े चाव से खाते थे । वे उसमें से कुछ खाकर शेष लक्ष्मीबाई के द्घारा ही राधाकृष्ण माई के पास भेज दिया करते थे । इस उच्छिष्ट अन्न को वे प्रसाद स्वरुप समझ कर प्रेमपूर्वक पाती थी । इस रोटी की कथा को असंबन्ध नहीं समझा चाहिये । इससे सिदृ होता है कि सभी प्राणियों में बाबा का निवास है, जो सर्वव्यापी, जन्म-मृत्यु से परे और अमर है । बाबा ने लक्ष्मीबाई की सेवाओं को सदैव स्मरण रखा । बाबा उनको भुला भी कैसे सकते थे । देह-त्याग के बिल्कुल पूर्व बाबा ने अपनी जेब में हाथ डाला और पहले उन्होंने लक्ष्मी को पाँच रुपये और बाद में चार रुपये, इस प्रकार कुल नौ रुपये दिये । यह नौ की संख्या इस पुस्तक के अध्याय 21 में वर्णित नव विधा भक्ति की घोतक है अथवा यह सीमोल्लंघन के समय दी जाने वाली दक्षिणा भी हो सकती है । लक्ष्मीबाई एक सुसंपन्न महिला थी । अतएव उन्हें रुपयों की कोई आवश्यकता नहीं थी । इस कारण संभव है कि बाबा ने उनका ध्यान प्रमुख रुप से श्री मदभागवत के स्कन्ध 11, अध्याय 10 के श्लोंक सं. 6 की ओर आकर्षित किया हो, जिसमे उत्कृष्ट कोटि के भक्त के नौ लक्षणों का वर्णन है, जिनमें से पहले 5 और बाद मे 4 लक्षणों का क्रमशः प्रथम और द्घितीय चरणों में उल्लेख हुआ है । बाबा ने भी उसी क्रम का पालन किया (पहले 5 और बाद में 4, कुल 9) केवल 9 रुपये ही नहीं बल्कि नौ के कई गुने रुपये लक्ष्मीबाई के हाथों में आये-गये होंगे, किन्तु बाबा के द्घारा प्रद्त्त यह नौ (रुपये) का उपहार वह महिला सदैव स्मरण रखेगी ।










अंतिम क्षण

..........

बाबा सदैव सजग और चैतन्य रहते थे और उन्होंने अन्तिम समय भी पूर्ण सावधानी से काम लिया । अपने भक्तों के प्रति बाबा का हृदय प्रेम, ममता यामोह से ग्रस्त न हो जाय, इस कारण उन्होंने अन्तिम समय सबको वहाँ से चले जाने का आदेश दिया । चिन्तमग्न काकासाहेब दीक्षित, बापूसाहेब बूटी और अन्य महानुभाव, जो मसजिद में बाबा की सेवा में उपस्थित थे, उनको भी बाबा ने वाड़े में जाकर भोजन करके लौट आने को कहा । ऐसी स्थिति में वे बाबा को अकेला छोड़ना तो नहीं चाहते थे, परन्तु उनकी आज्ञा का उल्लंघन भी तो नहीं कर सकते थे । इसलिये इच्छा ना होते हुए भी उदास और दुःखी हृदरय से उन्हें वाड़े को जाना पड़ा । उन्हें विदित था कि बाबा की स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है और इस प्रकार उन्हें अकेले छोड़ना उचित नहीं है वे भोजन करने के लिये बैठे तो, परन्तु उनके मन कहीं और (बाबा के साथ) थे । अभी भोजन समाप्त भी न हो पाया था कि बाबा के नश्वर शरीर त्यागने का समाचार उनके पास पहुँचा और वे अधपेट ही अपनी अपनी थाली छोड़कर मसजिद की ओर भागे और जाकर देखा कि बाबा सदा के लिये बयाजी आपा कोते की गोद में विश्राम कर रहे है । न वे नीचे लुढ़के और न शैया पर ही लेटे, अपने ही आसन पर शान्तिपूर्वक बैठे हुए और अपने ही हाथों से दान देते हुए उन्होंने यह मानव-शरीर त्याग दिया । सन्त स्वयं ही देह धारण करते है तथा कोई निश्चित ध्येय लेकर इस संसार में प्रगट होते है ओर जब देह पूर्ण हो जाता है तो वे जिस सरलता और आकस्मिकता के साथ प्रगट होते है, उसी प्रकार लुप्त भी हो जाया करते है ।





।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।




*********************************************************************************




For Daily SAI SANDESH Click at our Group address : http://groups.google.com/group/shirdikesaibaba/boxsubscribe?p=FixAddr&email 
Current email address : 
shirdikesaibaba@googlegroups.com 

Visit us at :







Tuesday, September 24, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - गधे को शेर की पौशाक पहना कर सिखों को शिक्षा



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ










































गधे को शेर की पौशाक पहना कर सिखों को शिक्षा

एक दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्खों को शिक्षा देने के लिए शेर की खाल रात के समय एक गधे को पहना दी| उस गधे को बाहर खेतों में छोड़ दिया| हरे खेत खाकर गधा बहुत मस्त हो गया|

एक दिन रात के समय वह अपने ही मालिक कुम्हार के घर आकर खड़ा हो गया| कुछ देर बाद कुम्हार के गधे हींगे तो वह भी बाहर से हींगने लगा| कुम्हार ने जब उसकी यह आवाज़ सुनी तो गधे से ऊपर से शेर की खाल उतार दी|उसे दो चार डंडे भी मारे और दूसरे गधों के साथ बांध दिया| यह बात सारे लोगों में फ़ैल गई कि जिसको शेर समझकर उससे डरते थे, वह कुम्हार का गधा था| जिस पर से खाल उतरकर कुम्हार ने उसपर छट लाद दी है|

यह बात सुनकर गुरु जी ने सिक्खों को बताया कि यह तुम्हें बाणा उदहारण के द्वारा समझाया है कि जिस तरह एक गधा शेर का बाणा धारण करके लोगों के खेत खाता रहा और उसे शेर समझकर उसके पास कोई न गया| परन्तु जब वह अपने भाईयों से मिलकर अपनी भाषा बोला तो उसको कुम्हार ने डंडे मारकर आगे लगा लिया और पीठ पर छट लादकर अन्य गधों के साथ बांध दिया| इसी तरह सिक्खी बाणा है, जो इसको धारण करके इसपर कायम रहेगा, उससे सारे लोग भय खायेंगे| परन्तु जो सिक्खी बाणे पर असूलों को त्याग देगा, उसपर सब कोई अपने हुक्म की छट लादेगा और खरी खोटी बोली के डंडे मारेगा|

यह दृष्टांत सुनकर सारे सिक्खों ने प्रण किया कि वह कभी भी सिक्खी बाणे और असूलों का त्याग नहीं करेंगे|






Monday, September 23, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - लंगर की परीक्षा करनी



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ








































लंगर की परीक्षा करनी




आनंदपुर में सिक्ख संगत ने अपने अपने डेरों में लंगर लगाए हुए थे| गुरू जी ने जब इनकी शोभा सुनी कि गुरु की नगरी में आने वाला कोई भी रोटी से भूखा नहीं रहता तो एक दिन रात के समय गुरु जी आप एक गरीब सिक्ख का वेष धारण करके इनकी परीक्षा लेने चल पड़े|

एक सिक्ख के डेरे पर जाकर आपने कहा हमें जल्दी भोजन दो, भूख लगी है| उसने कहा कुछ देर बैठ जाओ भोजन तैयार हो रहा है, मिल जाएगा|

उससे हटकर आप जी दूसरे सिक्ख के डेरे गए और वहाँ भी भोजन माँगा| परन्तु उसने कहा दाल भाजी तैयार हो रही है, फिर आकर भोजन छक लेना|

फिर इसके पश्चात गुरु जी तीसरे व चौथे सिक्ख के डेरे भोजन के लिए गए| तो एक ने कहा "आनन्द साहिब" का पाठ तथा अरदास करके लंगर बटेगा| दूसरे ने कहा सारी संगत एकत्रित हो जाए, तो पंक्ति लगाकर लंगर बाँटा जाएगा, आप बैठ जाओ|

इसके पश्चात आप जी भाई नन्द लाल जी के डेरे भोजन के लिए गए| आप ने वहाँ जाकर भी भोजन माँगा| भाई के पास जो कुछ तैयार था गुरु जी के आगे लाकर रख दिया| गुरु जी छक कर बहुत प्रसन्न हुए और अपने महलों में आ गए|

दूसरे दिन जब सिक्खों के लंगर की बातें चली तो गुरु जी ने अपनी रात की सारी वार्ता सुनाकर बताया की हमे केवल भाई नन्द लाल के लंगर से ही भोजन मिला है| बाकी सबने कोई ना कोई बात करके हमें लंगर नहीं छकाया| जो सिक्ख भूखे को शीघ्र ही भोजन देने का यत्न करता है, वही सिक्ख हमें प्यारा है| भूखे को रोटी-पानी देने के लिए कोई समय नहीं विचारना चाहिए| जिस अन्न के दाने से प्राण बच जाते है, उसका पुण्य फल सभी दानों से अधिक है|

सतिगुरु जी की तरफ से अन्न दान महिमा सुनकर सबने प्रण कर लिया कि आगे से किसी को भूखा नहीं भेजा जाएगा|





Sunday, September 22, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - शुद्ध गुरुबाणी पढ़ने का महत्व



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ






































शुद्ध गुरुबाणी पढ़ने का महत्व




एक दिन एक सिक्ख श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की शरण में "दखणी ओंकार" का पाठ पढ़ रहा था| गुरु जी उसकी मीठी व सुन्दर आवाज़ के साथ बाणी का पाठ बड़े प्रेम से सुन रहे थे| परन्तु जब उसने यह चरण -

करते की मिति करता जाणै के जाणै गुरु सूरा ||

पढ़ी तो आपने एक सेवादार को कहा कि इसके मुँह के ऊपर थपड़ मारो व इसे दूर ले जाओ| जब यह बात हुई तो संगत ने बड़े हैरान होकर प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! इस सिक्ख से आपने इस तरह क्यों किया है? यह तो बड़े प्रेम से गुरुबाणी पढ रहा था|

गुरु जी ने उत्तर दिया यह सिक्ख बाणी का पाठ गल्त कर रहा था| इससे यह व्यवहार इस लिए किया गया है क्योंकि यह पढ़ रहा था -

करते की मिति करता जाणै के जाणै गुरु सूरा ||

जिसका गल्त अर्थ यह बनता है कि कर्ते की महिमा कर्ता ही जनता है, गुरु शूरवीर क्या जान सकता है| सवाल यह है कि यदि करते की मिति को गुरु नहीं जान सकता, तो फिर उस गुरु ने सिक्ख को क्या उपदेश देना है|

सो भाई सिक्खों! गुरु जी की बाणी के शुद्ध पाठ उच्चारण का बहुत बड़ा महत्व है| इसका शुद्ध पाठ किया करो| इस चरण का शुद्ध पाठ यह है कि -
"के जाणै गुरु सूरा" - जिसका अर्थ है - कर्ते की महिमा कर्ता आप ही जानता है या शूरवीर गुरु जानता है|

आप जी के यह वचन सुनकर सारे सिक्खों ने शुद्ध पाठ करने का प्रण किया|





Saturday, September 21, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - आज्ञा मानने की व्याख्या



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ

































आज्ञा मानने की व्याख्या




एक दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी दीवान की ओर आ रहे थे कि रास्ते में एक सिक्ख दीवार पर लेप कर रहा था| दीवार के ऊपर लेप मारते समय उससे गुरु जी के पाजामे के ऊपर चिकड़ के छींटे पड़ गए|

गुरु जी ने सेवकों से कहा इस लिपाई करने वाले को जोर से थप्पड़ मारो| यह बात सुनकर कई सिक्खों ने जोर से थप्पड़ लगा दिए| बहुत थप्पड़ों की मार से वह गरीब सिक्ख बेहोश हो गया| उसकी यह दशा देखकर गुरु जी ने अपने सेवकों को कहा मैंने एक सिक्ख को थप्पड़ मारने की आज्ञा दी थी| परन्तु आप सब ने हो इस गरीब को एक एक थप्पड़ मारकर बेहोश कर दिया है|

सिक्खों ने कहा महाराज! हमने तो आपका हुक्म माना है| गुरु जी ने कहा यदि हमारा हुक्म मानते हो तो इस सिक्ख को कोई अपनी लड़की का रिश्ता दे दो| गुरु जी का यह वचन सुनकर सभ चुप हो गए| सबको चुप देखकर गुरु जी ने कहा, गुरु का हुक्म तब ही यथार्थ है यदि गुरु के सारे हुक्म माने जाए| परन्तु तुमसे सिक्खी दूर है| आसान हुक्म मान लेते हो तथा कठिन समय चुप धारण कर लेते हो|

गुरु जी के यह वाक्य सुनकर कंधार के एक सिक्ख अजायब सिंह ने अपनी लड़की का रिश्ता उस गरीब सिक्ख को दे दिया तथा गुरु की अटूट खुशी प्राप्त की|




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - चरण पाहुल तथा खंडे के अमृत की शक्ति



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ








































चरण पाहुल तथा खंडे के अमृत की शक्ति




सिक्खों ने पांच प्रकार की सिक्खी का उल्लेख सुनकर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी से प्रार्थना कि महाराज! हमें पाहुल व अमृत का उल्लेख बताओ| गुरु जी ने फरमाया कि भाई! तंत्र-मन्त्र आदि कार्य कि सिद्धि के लिए प्रसिद्ध है,परन्तु वाहिगुरू-मन्त्र जो चारों वर्णों को एक करने वाला है,इससे सभी सिद्ध हो जाते है| लोहे का शस्त्र (खंडा), जल तथा मिष्ठान से तैयार किया हुआ अमृत एक बड़ा तन्र्त्र है, जो स्त्री व पुरुष को बलवान बना देता है|

श्री गुरु नानक देव जी से लेकर अब तक गुरु घर में चरण पाहुल की मर्यादा थी| जिससे सिक्ख की गुरु चरणों में बहुत प्रीति होती है| चरण धोकर उसके ऊपर गुरु मन्त्र पड़कर सिक्ख को पिला देना व भजन करने का उपदेश देना, इस विधि से केवल मन्त्र के बल से सतो गुणी चरणामृत बनता है|

परन्तु जल तथा मिष्ठान्न लोहे के बाटे में डाल कर उसमें लोहे का खंडा घुमा कर अमृत तैयार किया जाता है| यह तंत्र है, जिसमें बिजली की तरह ऐसी शक्ति पैदा होती है, जो अमृत पान करने वाले के अंदर वीर रस व धर्म की दृढ़ता भर देती है, इस अमृत को तैयार करते समय जो जो गुरुबाणी का पाठ एक मन होकर सिंह करते है, वह मन्त्र है| गुरुसिख को जो पाँच ककार धारण कराये जाते है, वह यंत्र है|

इन तीनों तंत्र, मन्त्र व यंत्र के इकठ में एक त्रिगुणी बलवान शक्ति पैदा हो जाती है| इस लिए खंडे का अमृत चरणामृत से कई प्रकार से बढकर शक्ति रखता है|



Friday, September 20, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - अरदास की महत्ता



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ






































अरदास की महत्ता




एक दिन उजैन शहर के रहने वाले एक सिक्ख बशंबर दास ने गुरु जी के आगे प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! मुझे धन कि बख्शिश करो| मेरे घर बड़ी गरीबी है|

सतिगुरु जी ने फ़रमाया कि भाई! सिक्ख को हर कार्य के प्रारम्भ के समय कड़ाह प्रसाद करके उसे पवित्र चौंकी पर रख कर ऊपर साफ़ कपड़े से ढक कर पास बैठ कर पूरी पवित्रता से जपुजी साहिब का पाठ करना या करवाना चाहिए| इसके पश्चात कार्य कि सफलता के लिए खड़े होकर हाथ जोड़कर नम्रता से अरदास करनी अथवा करवानी चाहिए| फिर जो भी कार्य होगा अवश्य सिद्ध होगा|

घर जाकर भी तुम इस तरह कि ही अरदास करवाना , तेरे घर बहुत धन और सुख सम्पदा कि बख्शिश होगी| हे बशंबर दास! हरेक सिक्ख कि यह अरदास होनी चाहिए|

बशंबर दास ने कहा,गुरु जी! महलों और दुशालों में रहते अथवा अति गरीबी के समय हर हालात में आप जी के चरणों का भरोसा मेरे ह्रदय में ज्यों का त्यों बना रहे| मेरा मन सिक्खी भरोसे से न डोले|



Thursday, September 19, 2013

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - पूर्ण सिक्ख के लक्षण व सिक्खी धारण योग्य बातें



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ

































पूर्ण
सिक्ख के लक्षण व सिक्खी धारण योग्य बातें




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने वचन किया कि हे सिक्खो! जिस का जीवन धर्म के लिए है और अपना आचरण गुर-मर्यादा के अनुसार रखता है, वही पूरण सिक्ख है|

गुरु जी आगे कहने लगे कि सिक्ख अपनी कमाई में से गुरु के निमित दशवंध दे|सिक्खी की रहत में रहे, स्नान और ध्यान स्मरण में लग कर समय व्यतीत करे| परायी स्त्री व पराये धन का त्याग करे| गुरुबाणी का पाठ करे, गुरु पर विश्वास रखे|

सिक्ख के धारण योग्य बातें:
१. सिक्ख भ्रम न करे|
२. सम्बन्धी के मरने पर रोना पीटना न करे|
३. नीच चंडाल को और वैश्या स्त्री को कर्ज न दे| खोटे पुरुष के साथ कभी प्रीति ना करे|
४. वाहिगुरू की ओर से विमुख होकर आंहे न भरे|
५. गुरूद्वारे जाते समय नाख्नों तक सारे पैर धोकर अंदर जाए|
६. रोटी खाने के बाद पेट ना बजाये|
७. चलते-चलते खाना व शौच न करे|
८. अन्न खा कर उसकी निंदा ना करे|
९. बदचलण पुरुष व स्त्री से प्रीति न करे|
१०. धर्म पुस्तकों को पढकर व सुन कर अपना अंहकार दूर करे|
११. जीवन की जुमेवारियो को धैर्य से निभाए|
१२. खोटा हठ, खोटा भोजन में अपना बडप्पन न करे|
१३. खाता-पीता मन को प्रभू की याद में लगाये|

जो सिक्ख अपने व्यवहार तथा खाने-पीने को शुद्ध रखता है, उसका घर धन से भरपूर रहता है|




Wednesday, September 18, 2013

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 41



ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...







श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 41 - चित्र की कथा, चिंदियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी के पठन की कथा ।















गत अध्याय में वर्णित घटना के नौ वर्ष पश्चात् अली मुहम्मद हेमाडपंत से मिले और वह पिछली कथा निम्निखित रुप में सुनाई ।



एक दिन बम्बई में घूमते-फिरते मैंने एक दुकानदार से बाबा का चित्र खरीदा । उसे फ्रेम कराया और अपने घर (मध्य बम्बई की बस्ती में) लाकर दीवाल पर लगा दिया । मुझे बाबा से स्वाभाविक प्रेम था । इसलिये मैं प्रतिदिन उनका श्री दर्शन किया करता था । जब मैंने आपको (हेमाडपंत को) वह चित्र भेंट किया, उसके तीन माह पूर्व मेरे पैर में सूजन आने के कारण शल्यचिकित्सा भी हुई थी । मैं अपने साले नूर मुहम्मद के यहाँ पड़ा हुआ था । खुद मेरे घर पर तीन माह से ताला लगा था और उस समय वहाँ पर कोई न था । केवल प्रसिदृ बाबा अब्दुल रहमान, मौलाना साहेब, मुहम्मद हुसेन, साई बाबा ताजुद्दीन बाबा और अन्य सन्त चित्रों के रुप में वही विराजमान थे, परन्तु कालचक्र ने उन्हें भी वहाँ न छोड़ा । मैं वहाँ (बम्बई) बीमार पड़ा हुआ था तो फिर मेरे घर में उन लोगों (फोटो) को कष्ट क्यों हो । ऐसा समझ में आता है कि वे भी आवागमन (जन्म और मृत्यु) के चक्कर से मुक्त नहीं है । अन्य चित्रों की गति तो उनके ओभाग्यनुसार ही हुई, परन्तु केवल श्री साईबाबा का ही चित्र कैसे बच निकला, इसका रहस्योदघाटन अभी तक कोई नहीं कर सका है । इससे श्री साईबाबा की सर्वव्यापकता और उनकी असीम शक्ति का पता चलता है ।








कुछ वर्ष पूर्व मुझे मुहम्मद हुसेन थारिया टोपण से सन्त बाबा अब्दुल रहमान का चित्र प्राप्त हुआ था, जिसे मैंने अपने साले नूर मुहम्मद पीरभाई को दे दिया, जो गत आठ वर्षों से उसकी मेज पर पड़ा हुआ था । एक दिन उसकी दृष्टि इस चित्र पर पड़ी, तब उसने उसे फोटोग्राफर के पास ले जाकर उसकी बड़ी फोटो बनवाई और उसकी कापियाँ अपने कई रिश्तेदारों और मित्रों में वितरित की । उनमें से एक प्रति मुझे भी मिली थी, जिसे मैंने अपने गर की दीवाल पर लगा रखा था । नूर मुहम्मद सन्त अब्दुल रहमान के शिष्य थे । जब सन्त अब्दुल रहमान साहेब का आम दरबार लगा हुआ था, तभी नूर मुहम्मद उन्हें वह फोटो भेंट करने के हेतु उनके समक्ष उपस्थित हुए । फोटो को देखते ही वे अति क्रोधित हो नूर मुहम्मद को मारने दौड़े तथा उन्हें बाहर निकाल दिया । तब उन्हें बड़ा दुःख और निराशा हुई । फिर उन्हें विचार आया कि मैंने इतना रुपया व्यर्थ ही खर्च किया, जिसका परिणाम अपने गुरु के क्रोध और अप्रसन्नता का कारण बना । उनके गुरु मूर्ति पूजा के विरोधी थे, इसलिये वे हाथ में फोटो लेकर अपोलो बन्दर पहुँचे और एक नाव किराये पर लेकर बीच समुद्र में वह फोटो विसर्जित कर आये । नूर मुहम्मद ने अपने सब मित्रों और सम्बन्धियों से भी प्रार्थना कर सब फोटो वापस बुला लिये (कुल छः फोटो थे) और एक मछुए के हाथ से बांद्रा के निकट समुद्र में विसर्जित करा दिये ।



इस समय मैं अपने साले के घर पर ही था । तब नूर मुहम्मद ने मुझसे कहा कि यदि तुम सन्तों के सब चित्रों को समुद्र में विसर्जित करा दोगे तो तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओगे । यह सुनकर मैंने मैनेजर मैहता को अपने घर भेजा और उसके द्घारा घर में लग हुए सब चित्रों को समुद्र में फिकवा दिया । दो माह पश्चात जब मैं अपने घर वापस लौटा तो बाबा का चित्र पूर्ववत् लगा देखकर मुझे महान् आश्चर्य हुआ । मं समज न सका कि मेहता ने अन्य सब चित्र तो निकालकर विसर्जित कर दिये, पर केवल यही चित्र कैसे बच गया । तब मैंने तुरन्त ही उसे निकाल लिया और सोचने लगा कि कहीं मेरे साले की दृष्टि इस चित्र पर पड़ गई तो वह इसकी भी इति श्री कर देगा । जब मैं ऐसा विचार कर ही रहा था कि इस चित्र को कौन अच्छी तरह सँभाल कर रख सकेगा, तब स्वयं श्री साईबाबा ने सुझाया कि मौलाना इस्मू मुजावर के पास जाकर उनसे परामर्श करो और उनकी इच्छानुसार ही कार्य करो । मैंने मौलाना साहेब से भेंट की और सब बाते उन्हें बतलाई । कुछ देर विचार करने के पस्चात् वे इस निर्णय पर पहुँचे कि इस चित्र को आपको (हेमाडपंत) ही भेंट करना उचित है, क्योकि केवल आप ही इसे उत्तम प्रकार से सँभालने के लिये सर्वथा सत्पात्र है । तब हम दोनों आप के घर आये और उपयुक्त समय पर ही यतह चित्र आपको भेंट कर दिया । इस कथा से विदित होता है कि बाबा त्रिकालज्ञानी थे और कितनी कुशलता से समस्या हल कर भक्तों की इच्छायें पूर्ण किया करते थे । निम्नलिखित कथा इस बात का प्रतीक है कि आध्यात्मिक जिज्ञासुओं पर बाबा किस प्रकार स्नेह रखते तथा किस प्रकार उनके कष्ट निवारण कर उन्हें सुख पहुँचाते थे ।



चिन्दियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी का पठन

........................................

श्री. बी. व्ही. देव, जो उस समय डहाणू के मामलेदार थे, को दीर्घकाल से अन्य धार्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ ज्ञानेश्वरी के पठन की तीव्र इच्छा थी । (ज्ञानेश्वरी भगवदगीता पर श्री ज्ञानेश्वर महाराज द्घारा रचित मराठी टीका है ।) वे भगवदगीता के एक अध्याय का नित्य पाठ करते तथा थोड़े बहुत अन्य ग्रन्थों का भी अध्ययन करते थे । परन्तु जब भी वे ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो उनके समक्ष अनेक बाधाएँ उपस्थित हो जाती, जिससे वे पाठ करने से सर्वथा वंचित रह जाया करते थे । तीन मास की छुट्टी लेकर वे शिरडी पधारे और तत्पश्चात वे अपने घर पौड में विश्राम करने के लिये भी गये । अन्य ग्रन्थ तो वे पढ़ा ही करते थे, परन्तु जब ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो नाना प्रकार के कलुषित विचार उन्हें इस प्रकार घेर लेते कि लाचार होकर उसका पठन स्थगित करना पड़ता था । बहुत प्रयत्न करने पर भी जब उनको केवल दो चार ओवियाँ पढ़ना भी दुष्कर हो गया, तब उन्होंने यह निश्चय किया कि जब दयानिधि श्री साई ही कृपा करके इस ग्रन्थ के पठन की आज्ञा देंगे, तभी उसकी श्रीगणेश करुँगा । सन् 1914 के फरवरी मास में वे सहकुटुम्ब शिरडी पधारे । तभी श्री. जोग ने उनसे पूछा कि क्या आप ज्ञानेश्वरी का नित्य पठन करते है । श्री. देव ने उत्तर दिया कि मेरी इच्छा तो बहुत है, परन्तु मैं ऐसा करने में सफलता नहीं पा रहा हूँ । अब तो जब बाबा की आज्ञा होगी, तभी प्रारम्भ करुँगा । श्री, जोग ने सलाह दी कि ग्रन्थ की एक प्रति खरीद कर बाबा को भेंट करो और जब वे अपने करकमलों से स्पर्श कर उसे वापस लौटा दे, तब उसका पठन प्रारम्भ कर देना । श्री. देव ने कहा कि मैं इस प्रणाली को श्रेयस्कर नहीं समझता, क्योंकि बाबा तो अन्तर्यामी है और मेरे हृदय की इच्छा उनसे कैसे गुप्त रह सकती है । क्या वे स्पष्ट शब्दों में आज्ञा देकर मेरी मनोकामना पूर्ण न करेंगें ।



श्री. देव ने जाकर बाबा के दर्शन किये और एक रुपया दक्षिणा भेंट की । तब बाबा ने उनसे बीस रुपये दक्षिणा और माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दिया । रात्रि के समय श्री. देव ने बालकराम से भेंट की और उनसे पूछा आपने किस प्रकार बाबा की भक्ति तथा कृपा प्राप्त की है । बालकराम ने कहा मैं दूसरे दिन आरती समाप्त होने के पश्चात् आपको पूर्ण वृतान्त सुनाऊँगा । दूसरे दिन जब श्री. देवसाहब दर्शनार्थ मसजिद में आये तो बाबा ने फिर बीस रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष भेंट कर दी । मसजिद में भीड़ अधिक होने के कारण वे एक ओर एकांत में जाकर बैठ गये । बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने समीप बैठा लिया । आरती समाप्त होने के पश्चात जब सब लोग अपने घर लौट गये, तब श्री. देव ने बालकराम से भेंट कर उनसे उनका पूर्व इतिहास जानने की जिज्ञासा प्रगट की तथा बाबा द्घारा प्राप्त उपदेश और ध्यानादि के संबंध में पूछताछ की । बालकराम इन सब बातों का उत्तर देने ही वाले थे कि इतने में चन्द्रू कोढ़ी ने आकर कहा कि श्री. देव को बाबा ने याद किया है । जब देव बाबा के पास पहुँचे तो उन्होंने प्रश्न किया कि वे किससे और क्या बातचीत कर रहे थे । श्री. देव ने उत्तर दिया कि वे बालकराम से उनकी कीर्ति का गुणगान श्रवण कर रहे थे । तब बाबा ने उनसे पुनः 25 रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी । फिर बाबा उन्हें भीतर ले गये और अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात् उन पर दोषारोपण करते हुए कहा कि मेरी अनुमति के बिना तुमने मेरी चिन्दियों की चोरी की है । श्री. देव ने उत्तर दिया भगवन । जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है । परन्तु बाबा कहाँ मानने वाले थे । उन्होंने अच्छी तरह ढँढ़ने को कहा । उन्होंने खोज की, परन्तु कहीं कुछ भी न पाया । तब बाबा ने क्रोधित होकर कहा कि तुम्हारे अतिरिक्त यहाँ और कोई नहीं हैं । तुम्ही चोर हो । तुम्हारे बाल तो सफेद हो गये है और इतने वृदृ होकर भी तुम यहां चोरी करने को आये हो । इसके पश्चात् बाबा आपे से बाहर हो गये और उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गई । वे बुरी तरह से गालियाँ देने और डाँटने लगे । देव शान्तिपूर्वक सब कुछ सुनते रहे । वे मार पड़ने की भीआशंका कर रहे थे कि एक घण्टे के पश्चात् ही बाबा ने उनसे वाड़े में लौटने को कहा । वाड़े को लौटकर उन्होंने जो कुछ हुआ था, उसका पूर्ण विवरण जोग और बालकराम को सुनाया । दोपहर के पश्चात बाबा ने सबके साथ देव को भी बुलाया और कहने लगे कि शायद मेरे शब्दों ने इस वृदृ को पीड़ा पहुँचाई होगी । इन्होंने चोरी की है और इसे ये स्वीकार नहीं करते है । उन्होंने देव से पुनः बारह रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने एकत्र करके सहर्ष भेंट करते हुए उन्हें नमस्कार किया । तब बाबा देव से कहने लगे कि तुम आजकल क्या कर रहे हो । देव ने उत्तर दिया कि कुछ भी नहीं । तब बाबा ने कहा प्रतिदिन पोथी (ज्ञानेश्वरी) का पाठ किया करो । जाओ, वाडें में बैठकर क्रमशः नित्य पाठ करो और जो कुछ भी तुम पढ़ो, उसका अर्थ दूसरों को प्रेम और भक्तिपूर्वक समझाओ । मैं तो तुम्हें सुनहरा शेला (दुपट्टा) भेंट देना चाहता हूँ, फिर तुम दूसरों के समीप चिन्दियों की आशा से क्यों जाते हो । क्या तुम्हें यह शोभा देता है ।










पोथी पढ़ने की आज्ञा प्राप्त करके देव अति प्रसन्न हुए । उन्होंने सोचा कि मुझे इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो गई है और अब मैं आनन्दपूर्वक पोथी (ज्ञानेश्वरी) पढ़ सकूँगा । उन्होंने पुनः साष्टांग नमस्कार किया और कहा कि हे प्रभु । मैं आपकी शरण हूँ । आपका अबोध शिशु हूँ । मुझे पाठ में सहायता कीजिये । अब उन्हें चिन्दियों का अर्थ स्पष्टतया विदित हो गया था । उन्होंने बालकराम से जो कुछ पूछा था, वह चिन्दी स्वरुप था । इन विषयों में बाबा को इस प्रकार का कार्य रुचिकर नहीं था । क्योंकि वे स्वंय प्रत्येक शंका का समाधान करने को सदैव तैयार रहते थे । दूसरों से निरर्थक पूछताछ करना वे अच्छा नहीं समझते थे, इसलिये उन्होंने डाँटा और क्रोधित हुए । देव ने इन शब्दों को बाबा का शुभ आर्शीवाद समझा तथा वे सन्तुष्ट होकर घर लौट गये ।

यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती । अनुमति देने के पश्चात् भी बाबा शान्त नहीं बैठे तथा एक वर्ष के पश्चात ही वे श्री. देव के समीप गये और उनसे प्रगति के विषय में पूछताछ की । 2 अप्रैल, सन् 1914 गुरुवार को सुबह बाबा ने स्वप्न में देव से पूछा कि क्या तुम्हें पोथी समझ में आई । जब देव ने स्वीकारात्मक उत्तर न दिया तो बाबा बोले कि अब तुम कब समझोगे । देव की आँखों से टप-टप करके अश्रुपात होने लगा और वे रोते हुए बोले कि मैं निश्चयपूर्वक कह रहा हूँ कि हे भगवान् । जब तक आपकी कृपा रुपी मेघवृष्टि नहीं होती, तब तक उसका अर्थ समझना मेरे लिये सम्भव नहीं है और यह पठन तो भारस्वरुप ही है । तब वे बोले कि मेरे सामने मुझे पढ़कर सुनाओ । तुम पढ़ने में अधिक शीघ्रता किया करते हो । फिर पूछने पर उन्होंने अध्यात्म विषयक अंश पढ़ने को कहा । देव पोथी लाने गयेऔर जब उन्होंने नेत्र खोले तो उनकी निद्रा भंग हो गई थी । अब पाठक स्वयं ही इस बात का अनुमान कर लें कि देव को इस स्वप्न के पश्चात् कितना आनंद प्राप्त हुआ होगा ।



(श्री. देव अभी (सन् 1944) जीवित है और मुझे गत 4-5 वर्षों के पूर्व उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।



जहाँ तक मुझे पता चला है, वह यही है कि वे अभी भी ज्ञानेश्वरी का पाठ किया करते है । उनका ज्ञान अगाध और पूर्ण है । यह उनके साई लीला के लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है) । (ता. 19.10.1944)




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।



*******************************************************************************







For Donation