शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Thursday, January 3, 2013

श्रीमद् भगवद् गीता -- अध्याय -(3)










ॐ सांई राम

 












कर्तव्य व कर्म का महत्व (अध्याय 3)






अर्जुन बोले:






शलोक 1






ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।

तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३- १॥






हे केशव, अगर आप बुद्धि
को कर्म से अधिक मानते हैं तो मुझे इस घोर कर्म में
क्यों न्योजित कर रहे हैं॥






शलोक 2






व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३- २॥






मिले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुद्धि शंकित हो रही है। इसलिये मुझे वह एक रस्ता
बताईये जो निष्चित प्रकार से मेरे लिये अच्छा हो॥






शलोक 3






श्रीभगवान बोले:






लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३- ३॥






हे नि़ष्पाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो
प्रकार की निष्ठाऐं पहले बताई गयीं थीं। ज्ञान योग सन्यास से जुड़े लोगों के लिये
और कर्म योग उनके लिये जो कर्म योग से जुड़े हैं॥






शलोक 4






न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३- ४॥






कर्म का आरम्भ न करने से मनुष्य नैष्कर्म सिद्धी नहीं प्राप्त कर सकता अतः
कर्म योग के अभ्यास में कर्मों का करना जरूरी है। और न ही केवल त्याग कर देने से
सिद्धी प्राप्त होती है॥






शलोक 5






न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३-
५॥






कोई भी एक क्षण के लिये भी कर्म किये बिना नहीं बैठ सकता। सब प्रकृति से पैदा हुऐ
गुणों से विवश होकर कर्म करते हैं॥






शलोक 6






कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स
उच्यते॥३- ६॥






कर्म कि इन्द्रीयों को तो रोककर, जो मन ही मन विषयों के बारे में सोचता है उसे मिथ्या अतः ढोंग आचारी कहा
जाता है॥






शलोक 7






यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३- ७॥






हे अर्जुन, जो अपनी इन्द्रीयों और मन को
नियमित कर कर्म का आरम्भ करते हैं
, कर्म योग का आसरा लेते
हुऐ वह कहीं बेहतर हैं॥






शलोक 8






नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३- ८॥






जो तुम्हारा काम है उसे तुम करो क्योंकि कर्म से ही अकर्म पैदा होता है, मतलब कर्म योग द्वारा कर्म करने से ही कर्मों से छुटकारा
मिलता है। कर्म किये बिना तो यह शरीर की यात्रा भी संभव नहीं हो सकती। शरीर है तो
कर्म तो करना ही पड़ेगा॥








श्रीभगवान बोले:






यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३- ९॥






केवल यज्ञा समझ कर तुम कर्म करो हे कौन्तेय वरना इस लोक में कर्म बन्धन का कारण
बनता है। उसी के लिये कर्म करते हुऐ तुम संग से मुक्त रह कर समता से रहो॥






शलोक 10






सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३- १०॥






यज्ञ के साथ ही बहुत पहले प्रजापति ने प्रजा की सृष्टि की और कहा की इसी प्रकार
कर्म यज्ञ करने से तुम बढोगे और इसी से तुम्हारे मन की कामनाऐं पूरी होंगी॥






शलोक 11






देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३- ११॥






तुम देवताओ को प्रसन्न करो और देवता तुम्हें प्रसन्न करेंगे, इस प्रकार परस्पर एक दूसरे का खयाल रखते तुम परम श्रेय को

प्राप्त करोगे॥






And may
you cherish gods by yagya and may gods foster you, for this is the means by
which you will finally achieve the ultimate state.






शलोक 12






इष्टान्भोगान्हि वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव
सः॥३- १२॥






यज्ञों से संतुष्ट हुऐ देवता तुम्हें मन पसंद भोग प्रदान करेंगे। जो उनके दिये
हुऐ भोगों को उन्हें दिये बिना खुद ही भोगता है वह चोर है॥






शलोक 13






यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात्॥३-
१३॥






जो यज्ञ से निकले फल का आनंद लेते हैं वह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं लेकिन
जो पापी खुद पचाने को लिये ही पकाते हैं वे पाप के भागीदार बनते हैं॥






शलोक 14






अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३- १४॥






जीव अनाज से होते हैं। अनाज बिरिश से होता है। और बिरिश यज्ञ से होती है। यज्ञ
कर्म से होता है॥ (यहाँ प्राकृति के चलने को यज्ञ कहा गया है)






शलोक 15






कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे
प्रतिष्ठितम्॥३- १५॥






कर्म ब्रह्म से सम्भव होता है और ब्रह्म अक्षर से होता है। इसलिये हर ओर स्थित
ब्रह्म सदा ही यज्ञ में स्थापित है।






शलोक 16






एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३- १६॥






इस तरह चल रहे इस चक्र में जो हिस्सा नहीं लेता, सहायक नहीं होता, अपनी ईन्द्रीयों में डूबा हुआ वह
पाप जीवन जीने वाला
, व्यर्थ ही, हे
पार्थ
, जीता है॥






शलोक 17






यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३-
१७॥






लेकिन जो मानव खुद ही में स्थित है, अपने आप में ही तृप्त है, अपने आप में ही सन्तुष्ट है,
उस के लिये कोई भी कार्य नहीं बचता॥






But there
remains nothing more to do for the man who rejoices in his Self, finds
contentment in his Self, and feels adequate in his Self.






शलोक 18






नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३- १८॥






न उसे कभी किसी काम के होने से कोई मतलब है और न ही न होने से। और न ही वह
किसी भी जीव पर किसी भी मतलब के लिये आश्रय लेता है॥






शलोक 19






तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३- १९॥






इसलिये कर्म से जुड़े बिना सदा अपना कर्म करते हुऐ समता का अचरण करो॥ बिना जुड़े
कर्म का आचरण करने से पुरुष परम को प्राप्त कर लेता है॥






शलोक 20






कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३- २०॥






कर्म के द्वारा ही जनक आदि सिद्धी में स्थापित हुऐ थे। इस लोक समूह, इस संसार के भले के लिये तुम्हें भी कर्म करना चाहिऐ॥






शलोक 21






यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३- २१॥






क्योंकि जो ऐक श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वही करते हैं। वह जो करता है उसी को प्रमाण मान कर अन्य लोग
भी पीछे वही करते हैं॥






शलोक 22






न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३- २२॥






हे पार्थ, तीनो लोकों में मेरे लिये
कुछ भी करना वाला नहीं है। और न ही कुछ पाने वाला है लेकिन फिर भी मैं कर्म में
लगता हूँ॥






शलोक 23






यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३-
२३॥






हे पार्थ, अगर मैं कर्म में नहीं लगूँ
तो सभी मनुष्य भी मेरे पीछे वही करने लगेंगे॥






शलोक 24






उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥३- २४॥






अगर मै कर्म न करूँ तो इन लोकों में तबाही मच जायेगी और मैं इस प्रजा का नाशकर्ता
हो जाऊँगा॥






श्रीभगवान बोले:






सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥३-
२५॥






जैसे अज्ञानी लोग कर्मों से जुड़ कर कर्म करते हैं वैसे ही ज्ञानमन्दों को चाहिये
कि कर्म से बिना जुड़े कर्म करें। इस संसार चक्र के लाभ के लिये ही कर्म करें।






शलोक 26






न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥३-
२६॥






जो लोग कर्मो के फलों से जुड़े है, कर्मों से जुड़े हैं ज्ञानमंद उनकी बुद्धि को न छेदें। सभी कामों को
कर्मयोग बुद्धि से युक्त होकर समता का आचरण करते हुऐ करें॥






शलोक 27






प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥३- २७॥






सभी कर्म प्रकृति में स्थित गुणों द्वारा ही किये जाते हैं। लेकिन अहंकार से विमूढ
हुआ मनुष्य स्वय्म को ही कर्ता समझता है॥






शलोक 28






तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥३- २८॥






हे महाबाहो, गुणों और कर्मों के विभागों
को सार तक जानने वाला
, यह मान कर की गुण ही गुणों से वर्त
रहे हैं
, जुड़ता नहीं॥






शलोक 29






प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।

तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥३-
२९॥






प्रकृति के गुणों से मूर्ख हुऐ, गुणों के कारण हुऐ उन कर्मों से जुड़े रहते है। सब जानने वाले को चाहिऐ कि
वह अधूरे ज्ञान वालों को विचलित न करे॥






शलोक 30






मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३-
३०॥






सभी कर्मों को मेरे हवाले कर, अध्यात्म
में मन को लगाओ। आशाओं से मुक्त होकर
, "मै" को भूल
कर
, बुखार मुक्त होकर युद्ध करो॥






शलोक 31






यह में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि
कर्मभिः॥३- ३१॥






मेरे इस मत को, जो मानव श्रद्धा और बिना दोष
निकाले सदा धारण करता है और मानता है
, वह कर्मों से मु्क्ती
प्राप्त करता है॥






शलोक 32






यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम्।

सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३- ३२॥






जो इसमें दोष निकाल कर मेरे इस मत का पालन नहीं करता, उसे तुम सारे ज्ञान से वंचित, मूर्ख हुआ
और नष्ट बुद्धी जानो॥






शलोक 33






सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३- ३३॥






सब वैसा ही करते है जैसी उनका स्वभाव होता है, चाहे वह ज्ञानवान भी हों। अपने स्वभाव से ही सभी प्राणी होते हैं फिर सयंम
से क्या होगा॥






शलोक 34






इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३- ३४॥






इन्द्रियों के लिये उन के विषयों में खींच और घृणा होती है। इन दोनो के वश में
मत आओ क्योंकि यह रस्ते के रुकावट हैं॥






शलोक 35






श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३- ३५॥






अपना काम ही अच्छा है, चाहे उसमे कमियाँ भी हों,
किसी और के अच्छी तरह किये काम से। अपने काम में मृत्यु भी होना
अच्छा है
, किसी और के काम से चाहे उसमे डर न हो॥






शलोक 36



अर्जुन बोले:






अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३- ३६॥






लेकिन, हे वार्ष्णेय, किसके जोर में दबकर पुरुष पाप करता है, अपनी मरजी के
बिना भी
, जैसे कि बल से उससे पाप करवाया जा रहा हो॥








श्रीभगवान बोले (THE LORD SAID):






काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।

महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३- ३७॥






इच्छा और गुस्सा जो रजो गुण से होते हैं, महा विनाशी, महापापी इसे तुम यहाँ दुश्मन जानो॥






शलोक 38






धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥३- ३८॥






जैसे आग को धूआँ ढक लेता है, शीशे को
मिट्टी ढक लेती है
, शिशू को गर्भ ढका लेता है, उसी तरह वह इनसे ढका रहता है॥ (क्या ढका रहता है, अगले
श्लोक में है )






शलोक 39






आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३- ३९॥






यह ज्ञान को ढकने वाला ज्ञानमंद पुरुष का सदा वैरी है, इच्छा का रूप लिऐ, हे कौन्तेय, जिसे पूरा करना संभव नहीं॥






शलोक 40






इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥३- ४०॥






इन्द्रीयाँ मन और बुद्धि इसके स्थान कहे जाते हैं। यह देहधिरियों को मूर्ख बना
उनके ज्ञान को ढक लेती है॥






शलोक 41






तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥३-
४१॥






इसलिये, हे भरतर्षभ, सबसे पहले तुम अपनी इन्द्रीयों को नियमित करो और इस पापमयी, ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाली इच्छा का त्याग करो॥






शलोक 42






इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥३-
४२॥






इन्द्रीयों को उत्तम कहा जाता है, और इन्द्रीयों से उत्तम मन है, मन से ऊपर बुद्धि है
और बुद्धि से ऊपर आत्मा है॥






शलोक 43






एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥३- ४३॥






इस प्रकार स्वयंम को बुद्धि से ऊपर जान कर, स्वयंम को स्वयंम के वश में कर, हे महाबाहो, इस इच्छा रूपी शत्रु, पर जीत प्राप्त कर लो, जिसे जीतना कठिन है॥






 














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