शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Sunday, July 31, 2011

दुःख भंजन है तेरा नाम साईं ||

ॐ सांई राम


दुःख भंजन है तेरा नाम साईं,
भगतों के दुःख काटना तेरे काम है साईं,

मुझ को बुला ले अपने शिर्डी धाम साईं,

मैं कहता रहूँ ॐ साईं, राम साईं,

दुःख भंजन है तेरा नाम साईं ||

यह सौँप दिया सारा जीवन,

सांई नाथ तुम्हारे चरणो मेँ।

अब जीत तुम्हारे चरणोँ मेँ,

अब हार तुम्हारे चरणोँ मेँ॥

मैँ जग मेँ रहूँ तो ऐसे रहूँ,

ज्योँ जल मेँ कमल का फूल रहे।

अब सौँप दिया सारा जीवन,

सांई नाथ तुम्हारे चरणो मेँ।






हे शिव शंकर, हे करुना कर सुनिए अरज हमारी॥
भव सागर से पार उतारो, आए शरण तिहारी।


हे शिव शंकर, हे करुना कर सुनिए अरज हमारी॥
चन्द्र ललाट भभुत रमाये, कटी पगाम्बेर धरे।
कर में  डमरू, गले भुजंगा, नंदी खड़ो द्वारे॥
हे गंगाधर, दर्श दिखदो, हे भोले भंडारी।


हे शिव शंकर, हे करुना कर सुनिए अरज हमारी॥
भव सागर से पार उतारो, आए शरण तिहारी।


हे शिव शंकर, हे करुना कर सुनिए अरज हमारी॥
जनम मरण के तुम हो स्वामी, हे शंकर अविनाशी।
कण कण मे है रूप तुम्हारा, हे भोले कैलाशी॥
चरण शरण मे आया जोगी, रखियो लाज हमारी।


हे शिव शंकर, हे करुना कर सुनिए अरज हमारी॥
भव सागर से पार उतारो, आए शरण तिहारी।
हे शिव शंकर, हे करुना कर सुनिए अरज हमारी॥





 

Thursday, July 28, 2011

आँसूओं के सहारे ही सही मेरे नैनों में समाते रहिए

ॐ सांई राम






मेरा हर एक आँसू सांई तुझे ही पुकारे

मेरी पहुँच तुझ तक सिर्फ आँसुओं के सहारे

जब आप की याद सांई सही न जाए

आप को सामने न पा कर दिल मेरा घबराए

तब ज़ुबा, हाथ , पांव सब बेबस होते है

इन्ही का काम सांई आँसू कर देते है

ये आप तक तो नहीं पहुँते पर फिर भी

इस तङप को कुछ शांत कर देते है

जब तक ये बहते है सांई आँखे बंद रहती है

बंद आँखे ही सांई मुझे आप से मिलाती है

बह बह कर सांई जब ये आंसू थक जाते है

कुछ समय सांस लेने खुद ही रूक जाते है,

पर आप की याद कभी नहीं थकती है,

बिना रूके सदा मेरी सांसों के साथ ही चलती है

मुझे मंज़ूर है ये सौदा आप यूँ ही याद आते रहिए

आँसूओं के सहारे ही सही मेरे नैनों में समाते रहिए

जय साईं राम

Wednesday, July 27, 2011

श्री चरणों में भक्ती से

ॐ सांई राम






ॐ शिरडी वासाय विधमहे
सच्चिदानन्दाय धीमही
तन्नो साईं प्रचोदयात॥




पलक उठे जब जब भी अपने,

बाबा जी का दर्शन पाये |

पलक झुके तो मन मन्दिर में,

बाबाजी को बैठा पाये |
मुख से जब कुछ बोलें तो,

साईं नाम ही दोहरायें |

कानों से कुछ सुनना हो तो,

साईं नाद ही सुन पायें |
हाथ उठें तो जुड जायें,

श्री चरणों में भक्ती से |

कारज करते साईं ध्यायें,

बाबा जी की शक्ती से ||




गुरूवार का, मेरे बाबा का दिन आया...

मन में फिर, एक नयी आस ले कर आया...

सच्चे मन से जिस ने बाबा को भी ध्याया....

उसी ने मेरे बाबा को पाया.....ॐ साईं राम जी....






श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 14

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 14------------------------

नांदेड के रतनजी वाडिया, संत मौला साहेब, दक्षिणा मीमांसा ।

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श्री साईबाबा के वचनों और कृपा द्घारा किस प्रकार असाध्य रोग भी निर्मूल हो गये, इसका वर्णन पिछले अध्याय में किया जा चुका है । अब बाबा ने किस प्रकार रतन जी वाडिया को अनुगृहीत किया तथा किस प्रकार उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, इसका वर्णन इस अध्याय में होगा । इस संत की जीवनी सर्व प्रकार से प्राकृतिक और मधुर हैं । उनके अन्य कार्य भी जैसे भोजन, चलना-फिरना तथा स्वाभाविक अमृतोपदेश बड़े ही मधुर हैं । वे आनन्द के अवतार है । इस परमानंद का उन्होंने अपने भक्तों को भी रसास्वादन कराय और इसीलिये उन्हें उनकी चिरस्मृति बनी रही । भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म और कर्तव्यों की अनेक कथाएँ भक्तों को उनके द्घारा प्राप्त हुई, जिससे वे सत्व मार्ग का अवलम्बन करें और वे सदैव जागरुक रहकर अपने जीवन का परम लक्ष्, आत्मानुभूति (या ईश्वरदर्शन) अवश्य प्राप्त करें । पिछले जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही यह देह प्राप्त हुई है और उसकी सार्थकता तभी है, जब उसकी सहायता से हम इस जीवन में भक्ति और मोश्र प्राप्त कर सकें। हमें अपने अन्त और जीवन के लक्ष्य के हेतु सदैव सावधान तथा तत्पर रहना चाहिए । यदि तुम नित्य श्री साई की लीलाओं का श्रवण करोगे तो तुम्हें उनाक सदैव दर्शन होता रहेगा । दिनरात उनका हृदय में स्मपण करते रहो । इस प्रकार आचरण करने से मन की चंचलता शीघ्र नष्ट हो जायेगी । यदि इसका निरंतर अभ्यास किया गया तो तुम्हें चैतन्य-घन से अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी ।

नांदेड के रतनजी

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अब हम इस अध्याया की मूल कथा का वर्णन करते है । नांदेड़ (निजाम रियासत) में रतनजी शापुरजी वाडिया नामक एक प्रसिदृ व्यापारी रहते थे । उन्होंने व्यापार में यथेष्ठ धनराशि संग्रह कर ली थी । उनके पासा अतुलनीय सम्पत्ति, खेत और चरोहर तथा कई प्रकार के पशु, घोडे़, गधे, खच्चर आदि और गाडि़याँ भी थी । वे अत्यन्त भाग्यशाली थे । यघपि बाहृ दृष्टि से वे अधिक सुखी और सन्तुष्ट प्रतीत होते थे, परन्तु भावार्थ में वे वैसे न थे । विधाता की रचना कुछ ऐसी विचित्र है कि इस संसार में पूर्ण सुखी कोई नहीं और धनाढ्य रतनजी भी इसके अपवाद न थे । वे परोपकारी तथा दानशील थे । वे दीनों को भोजन और वस्त्र वितरण करते तथा सभी लोगों की अनेक प्रकार से सहायता किया करते थे । उन्हें लोग अत्यन्त सुखी समझते थे । किन्तु दीर्घ काल तक संतान न होने के कारण उनके हृदय में संताप अधिक था । जिस प्रकार प्रेम तथा भक्तिरहित कीर्तन, वाघरहित संगीत, यज्ञोपवीतरहित ब्राहृमण, व्यावहारिक ज्ञानरहित कलाकार, पश्चातापरहित तीर्थयात्रा और कंठमाला (मंगलसूत्र) रहित अलंकार, उत्तम प्रतीत नहीं होते, उसी प्रकार संतानरहित गृहस्थ का घर भी सूना ही रहता है । रतनजी सदैव इसी चिन्ता में निमग्न रहते थे । वे मन ही मन कहते, क्या ईश्वर की मुझ पर कभी दया न होगी । क्या मुझे कभी पुत्र की पुत्र की प्राप्ति न होगी । इसके लिये वे सदैव उदास रहते थे । उन्हें भोजन से भी अरुचि हो गई । पुत्र की प्राप्ति कब होगी, यही चिन्ताउनहें सदैव घेरे रहती थी । उनकी दासगणू महाराज पर दृढ़ निष्ठा थी । उन्होंने अपना हृदय उनके सम्मुख खोल दिया, तब उन्होंने श्रीसाई सार्थ की शरण जाने और उनसे संता-प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने का परामर्श दिया । रतनजी को भी यह विचार रुचिकर प्रतीत हुआ और उन्होंने शिरडी जाने का निश्चय किया । कुछ दिनों के उपरांत वे शिरडी आये और बाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे । उन्होंने एक सुन्दर हार बाबा को पहना कर बहुत से फल-फूल भेंट किये । तत्पश्चात् आदर सहित बाबा के पास बैठकर इस प्रकार प्रार्थना करने लगे, अनेक आपत्तिग्रस्त लोग आप के पास आते है और आप उनके कष्ट तुरंत दूर कर देते है । यही कीर्ति सुनकर मैं भी बड़ी आशा से आपके श्रीचरणों में आया हूँ । मुझे बड़ा भरोसा हो गया है, कृपया मुझे निराश न कीजिये । श्रीसाईबाबा ने उनसे पाँच रुपये दक्षिणा माँगी, जो वे देना ही चाहते थे । परन्तु बाबा ने पुनः कहा, मुझे तुमसे तीन रुपये चौदह आने पहने ही प्राप्त हो चुके है । इसलिये केवल शेष रुपये ही दो । यह सुनकर रतनजी असमंजस में पड़ गये । बाबा के कथन का अभिप्राय उनकी समझ में न आया । वे सोचने लगे कि यह शिरडी आने का मेरा प्रथम ही अवसर है और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इन्हें तीन रुपये चौदह आने पहले ही प्राप्त हो चुके है । वे यह पहेली हल न कर सकें । वे बाबा के चरणों के पास ही बैठे रहे तथा उन्हें शेष दक्षिणा अर्पित कर दी । उन्होंने अपने आगमन का हेतु बतलाया और पुत्र-प्राप्ति की प्रार्थना की । बाबा को दया आ गई । वे बोले, चिन्ता त्याग दे, अब तुम्हारे दुर्दिन समाप्त हो गये है । इसके बाद बाबा ने उदी देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रखकर कहा, अल्ल्ह तुम्हारी इच्छा पूरी करेगा । बाबा की अनुमति प्राप्त कर रतनजी नांदेड़ लौट आये और शिरडी में जो कुछ हुआ, उसे दासगणू को सुनाया । रतनजी ने कहा, सब कार्य ठीक ही रहा । बाबा के शुभ दर्शन हुए, उनका आशीर्वाद और प्रसाद भी प्राप्त हुआ, परन्तु वहाँ की एक बात समझ में नहीं आई । वहाँ पर बाबा ने कहा था कि मुझे तीन रुपये चौदह आने पहले ही प्राप्त हो चुके हैं । कृपया समझाइये कि इसका क्या अर्थ है इससे पूर्व मैं शिरडी कभी भी नहीं गया । फिर बाबा को वे रुपये कैसे प्राप्त हो गये, जिसका उन्होंने उल्लेख किया । दासगणू के लिये भी यह एक पहेली ही थी । बहुत दिनों तक वे इस पर विचार करते रहे । कई दिनों के पश्चात उन्हें स्मरण हुआ कि कुछ दिन पहले रतनजी ने एक यवन संत मौला साहेब को अपने घर आतिथ्य के लिये निमंत्रित किया था तथा इसके निमित्त उन्होंने कुछ धन व्यय किया था । मौला साहेब नांदेड़ के एक प्रसिदृ सन्त थे, जो कुली का काम किया करते थे । जब रतनजी ने शिरडी जाने का निश्चय किया था, उसके कुछ दिन पूर्व ही मौला साहेब अनायास ही रतनजी के घर आये । रतनजी उनसे अच्छी तरह परिचित थे तथा उनसे प्रेम भी अधिक किया करते थे । इसलिये उनके सत्कार में उन्होने एक छोटे से जलपान की व्यवस्थ की थी । दासगणू ने रतनजी से आतिथ्य के खर्च की सूची माँगी और यह जालकर सवबको आश्चर्य हुआ कि खर्चा ठीक तीन रुपये चौदह आने ही हुआ था, न इससे कम था और न अधिक । सबको बाबा की त्रिकालज्ञता विदित हो गई । यघपि वे शिरडी में विराजमान थे, परन्तु शिरडी के बाहर क्या हो रहा है, इसका उन्हें पूरा-पूरा ज्ञान था । यथार्थ में बाबा भूत, भविष्यत् और वर्तमान के पूर्ण ज्ञाता और प्रत्येक आत्मा तथा हृदय के साथ संबंध थे । अन्यथा मौला साहेब के स्वागतार्थ खर्च की गई रकम बाबा को कैसे विदित हो सकती थी । रतनजी इस उत्तर से सन्तुष्ट हो गये और उनकी साईचरणों में प्रगाढ़ प्रीति हो गई । उपयुक्त समय के पश्चात उनके यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ, जिससे उनके हर्ष का पारावार न रहा । कहते है कि उनके यहाँ बारह संताने हुई, जिनमें से केवल चर शेष रहीं ।


इस अध्याय के नीचे लिखा है कि बाबा ने रावबहादुर हरी विनायक साठे को उनकी पहली पत्नी की मृत्यु के पश्चात् दूसरा ब्याह करने पर पुत्ररत्न की प्राप्ति बतलाई । रावबहादुर साठे ने द्घितीय विवाह किया । प्रथम दो कन्यायें हुई, जिससे वे बड़े निराश हुए, परन्तु तृतीय बार पुत्र प्राप्त हुआ । इस तरह बाबा के वचन सत्य निकले और वे सन्तुष्ट हो गये ।

दक्षिणा मीमांसा

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दक्षिणा के सम्बन्ध में कुछ अन्य बातों का निरुपण कर हम यह अध्याय समाप्त करेंगें । यह तो विदित ही है कि जो लोग बाबा के दर्शन को आते थे, उनसे बाबा दक्षिणा लिया करते थे । यहाँ किसी को भी शंका उत्पन्न हो सकती है कि जब बाबा फकीर और पूर्ण विरक्त थे तो क्या उनका इस प्रकार दक्षिणा ग्रहण करना और कांचन को महत्व देना उचित था । अब इस प्रश्न पर हम विस्तृत रुप से विचार करेंगें ।

बहुत काल तक बाबा भक्तों से कुछ भी स्वीकार नहीं करते थे । वे जली हुई दियासलाइयाँ एकत्रित कर अपनी जेब में भर लेते थे । चाहे भक्त हो या और कोई, वे कभी किसी से कुछ भी नहीं माँगते थे । यदि किसी ने उनके सामने एक पैसा रख दिया तो वे उसे स्वीकार करके उससे तम्बाखू अथवा तेल आदि खरीद लिया करते थे । वे प्रायः बीडी या चिलम पिया करते थे । कुछ लोगों ले सोचा कि बिना कुछ भेंट किये सन्तों के दर्शन उचित नही है । इसलिये वे बाबा के सामने पैसे रखने लगे । यदि एक पैसा होता तो वे उसे जेब में रख लेते और यदि दो पैसे हुए तो तुरन्त उसमें से एक पैसा वापस कर देते थे । जब बाबा की कीर्ति दूर-दूर तक फैली और लोगों के झुण्ड के झुणड बाबा के दर्शनार्थ आने लगे, तब बाबा ने उनसे दक्षिणा लेना आरम्भ कर दिया । श्रुति कहती है कि स्वर्ण मुद्रा के अभाव में भगवतपूजन भी अपूर्ण है । अतः जब ईश्वर-पूजन में मुद्रा आवश्यक है तो सन्तपूजन में क्यों न हो । इसलिये शास्त्रों में कहा है कि ईश्वर, राजा, सन्त या गुरु के दर्शन, अपनी सामर्थ्यानुसार बिना कुछ अर्पण किये, कभी न करना चाहिये । उन्हों क्या भेंट दी जाये । अधिकतर मुद्रा या धन । इस सम्बन्ध में उपनिषदों में वर्णत नियमों का अवलोकन करें । बृहदारण्यक उपनिषद् में बताया गया है कि दक्ष प्रजापति ने देवता, मनुष्य और राक्षसों के सामने एक अक्षर द का उच्चारण किया । देवताओं ने इसका अर्थ लगाया कि उन्हें दम अर्थात् आत्म-नियंत्रण का अभ्यास करना चाहिये । मनुष्यों ने समझा कि उन्हें दान का अभ्यास करना चाहिये तथा राक्षसों ने सोचा कि हमें दया का अभ्यास करना चाहिण । मनुष्यों को दान की सलाह दी गई । तैतिरीय उपनिषद में दान व अन्य सत्व गुणों को अभ्यास में लाने की बात कही गयी है । दान के संबंध में लिखा है – विश्वासपू्रर्वक दान करो, उसेक बिना दान व्यर्थ है । उदार हृदय तथा विनम्र बनकर, आदर और सहानुभूतिपूर्वक दान करो । भक्तों को कांचन-त्याग का पाठ पढ़ाने तथा उनकी आसक्ति दूर करने और चित्त शुदृ कराने के लिए ही बाबा सबसे दक्षिणा लिया करते थे । परन्तु उनकी एक विशेषता भी थी । बाबा कहा करते थे कि जो कुछ भी मैं स्वीकार करता हूँ, मुझे उसके शत गुणों से अधिक वापस करना पडता है । इसके अने प्रमाण हैं ।


एक घटना

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श्री गणपतराव बोडस, प्रसिदृ कलाकार, अपनी आत्म-कथा में लिखतते है कि बाबा के बार-बार आग्रह करने पर उन्होने अपने रुपयों की थैली उनके सामने उँडेल दी । श्री बोडस लिखते है कि इसका परिणाम यह हुआ कि जीवन में फिर उन्हें धन का कभी अभाव न हुआ तथा प्रचुर मात्रा में लाभ ही होता रहा है । इसका एक भिन्न अर्थ भी है । अनेकों बार बाबा ने किसी प्रकार की दक्षिणा स्वीकार भी नहीं की । इसके दो उदाहरण है । बाबा ने प्रो.सी.के. नारके से 15 रुपये दक्षिणा माँगी । वे प्रत्युत्तर में बोले कि मेरे पास तो एक पाई नहीं है । तब बाबा ने कहा कि मैं जानता हूँ, तुम्हारे पास कोई द्रव्य नहीं है, परन्तु तुम योगवासिष्ठ का अध्ययन तो करते हो, उसमें से ही दक्षिणा दो । यहाँ दक्षिणा का अर्थ है – पुस्तक से शक्षा ग्रहण कर हृदयगम करना, जो कि बाबा का निवासस्थान हैं ।


एक दूसरी घटना में उन्होंने एक महिला श्री मती आर.ए. तर्खड से 6 रुपये दक्षिणा माँगी । महिला बहुत दुःखी हुई, क्योंकि उनके पास देने को कुछ भी न था । उनके पति ने उन्हें समझाया कि बाबा का अर्थ तो षडि्पुओं से है, जिन्हे बाबा को समर्पित कर देना चाहिए । बाबा इस अर्थ से सहमत हो गये । यह ध्यान देने योग्य है कि बाबा के पास दक्षिणा के रुप में बहुत-सा द्रव्य एकत्रित हो जाता था । सब द्रव्य वे उसी दिन व्यय कर देते और दूसरे दिन फर सदैव की भाँति निर्धन बन जाते थे । जब उन्होंने महासमाधि ली तो 10 वर्ष तक हजारों रुपया दक्षिणा मिलने पर भी उनके पास स्वल्प राशि ही शेष थी ।

संक्षेप में दक्षिणा लेने का मुख्य ध्येय तो भक्तों को केवल शुद्घीकरण का पाठ ही सिखाना था ।

दक्षिणा का मर्म

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ठाणे के श्री. बी. व्ही. देव, (सेवा-नीवृत्त प्रान्त मामलतदार, जो बाबा के परमा भक्त थे) ने इस विषय पर एक लेख (साई लीला पत्रिका, भाग 7 पृष्ठ 626) अन्य विषयों सहित प्रकाशित किया है, जो निम्न प्रकार है – बाबा प्रत्येक से दक्षिणा नहीं लेते थे । यदि बाबा के बिना माँगे किसी ने दक्षिणा भेंट की तो वे कभी तो स्वीकार कर लेते थे । कभी अस्वीकार भी कर देते थे । वे केवल भक्तों से ही कुछ माँगा करते थे । उन्होने उन लोगों से कभी कुछ न माँगा, जो सोचते थे कि बाबा के माँगने पर ही दक्षिणा देंगे । यदि किसी ने उनकी इच्छा के विरुदृ दक्षिणा दे दी तो वे वहाँ से उसे उठाने को कह देते थे । वे यथायोग्य राशि भक्तों की इच्छा, भक्ति और सुविधा के अनुसार ही उनसे माँगा करते था । स्त्री और बालकों से भी वे दक्षिणा ले लेते थे । उन्होंने सभी धनाढयों या निर्धनों से कभी दक्षिणा नहीं माँगी । बाबा के माँगने पर भी जिन्होंने दक्षिणा न दी उनसे वे कभी क्रोधित नहीं हुए । यदि किसी मित्र द्घारा उन्हें दक्षिणा भिजवाई गई होती और उसका स्मरण न रहता तो बाबा किसी न किसी प्रकार उसे स्मरण कराकर वह दक्षिणा ले लेते थे । कुछ अवसरों पर वे दक्षिणा की राशि में से कुछ अंश लौटा भी देते और देने वालों को सँभाल कर रखने या पूजन में रखने के लिये कह देते थे । इससे दाता या भक्त को बहुत लाभ पहुँचता था । यदि किसी ने अपनी इच्छित राशि से अधिक भेंट की तो वे वह अधिक राशि लौटा देते थे । किसी-किसी से तो वे उसकी इच्छित राशि से भी अधिक माँग बैठते थे और यदि उसके पास नहीं होती तो दूसरे से उधार लेने या दूसरों से माँगने को भी कहते थे । किसी-किसी से तो दिन में 3-4 बार दक्षिणा माँगा करते थे । दक्षिणा में एकत्रित राशि में से बाबा अपने लिये बहुत थोड़ा खर्च किया करते थे । जैसे- जिलम पीने की तंबाखू और धूनी के लिए लकडियाँ मोल लेने के लिये आदि । शेष अन्य व्यक्तियों को विभिन्न राशियों में भिक्षास्वरुप दे देते थे । शिरडी संस्थान की समस्त सामग्रियाँ राधाकृष्णमाई की प्रेरणा से ही धनी भक्तों ने एकत्र की थी । अधिक मूल्यवाले पदार्थ लाने वालों से बाबा अति क्रोधित हो जाते और अपशब्द कहने लगते । उन्होंने श्री नानासाहेब चाँदोरकर से कहा कि मेरी सम्पत्ति केवल एक कौपीन और टमरेल हैं । लोग बिना कारण ही मूल्यवान पदार्थ लाकर मुझे दुःखित करते है । कामिनी और कांचन मार्ग में दो मुखय बाधायें हौ और बाबा ने इसके लिए दो पाठशालाये खोली थी । यथा – दक्षिणा ग्रहण करना और राधाकृष्णमाई के यहाँ भेजना – इस बात की परीक्षा करने के लिये कि क्या उनके भक्तों ने इन आसक्तियों से छुटकारा पा लिया है या नहीं । इसीलिये जब कोई आता तो वे उनसे शाला में (राधाकृष्णमाई के घर) जाने को कहते । यदि वे इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गये अर्थात् यह सिदृ हुआ कि वे कामिनी और कांचन की आसक्ति से विरक्त है तो बाबा की कृपा और आशीर्वाद से उनकी आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही हो जाती थी । श्री देव ने गीता और उपनिषद् से घटनाएँ उदृत की है और कहते है कि किसी तीर्थस्थान में किसी पूज्य सन्त को दिया हुआ दान दाता को बहुत कल्याँकारी होता है । शिरडी और शिरडी के प्रमुख देवता साईबाबा से पवित्र और है ही क्या ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा

किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है



Shree Sai Sacharitra Chapter-14

ॐ सांई राम





Ruttonji Wadia of Nanded - Saint Moulisaheb - Dakshina Mimansa.

In the last Chapter, we described how Baba's word and grace cured many incurable diseases. Now, we shall describe, how Baba blessed Mr. Ruttonji Wadia with an issue.

The life of this Saint is naturally sweet in and out. His various doings, eating, walking and His natural sayings are also sweet. His life is Bliss incarnate. Sai gave it out as a means of His devotee's remembrance to Him. He gave them various stories of duty and action, which ultimately led them to true religion. His object may be that people should live happily in this world, but they should be ever cautious and gain the object of their life, viz. self-realization. We get human body as a result of merits in past births and it is worth-while that with its aid, we should attain devotion and liberation in this life. So we should never be lazy, but always be on the alert to gain our end and aim of life.

If you daily hear the Leelas (stories) of Sai, you will always see Him. Day and night you will remember Him in your mind, When you assimilate Sai in this way, your mind will lose its fickleness and if you go on in this manner, it will finally be merged in pure Consciousness.

Ruttonji of Nanded :

Now let us come to the main story of this Chapter. In Nanded, in the Nizam state, there lived a Parsi mill-contractor and trader, by name Ruttonji Shapurji Wadia. He had amassed a large amount of money and had acquired fields and lands. He had got cattle, horses and conveyances and was very prosperous. To all outward appearances he looked very happy and contented, but inwardly, and really he was not so. Providential dispensation is such, that no one in this world is completely happy and rich; Ruttonji was no exception to this. He was liberal and charitable, gave food and clothing to the poor and helped all in various ways. The people took him to be a good and happy man, but Ruttonji thought himself miserable as he had no issue, male or female, for a long time. As Kirtan (singing glories of the Lord) without love or devotion, music of singing without rhythmical accompaniments, Brahmin without the sacred thread, proficiency in all arts without commonsense, pilgrimage without repentance and ornamentation without a necklace, are ugly and useless, so is the house of a man or house-holder without a male issue. Ruttonji always brooded on this matter and said in his mind, "Would God be ever pleased to grant me a son?" He thus looked morose, had no relish for his food. Day and night, he was enveloped with anxiety whether he would ever be blessed with a son. He had a great regard for Dasganu Mahajat. He saw him and opened his heart before him. Dasganu advised him to go to Shirdi, take Baba's darshan, fall at His Feet and seek His blessing and pray for issue. Ruttonji liked the idea, and decided to go to Shirdi. After some days he went to Shirdi, took Baba's darshana and fell at His Feet. Then opening a basket, he took out a beautiful garland of flowers and placed it around Baba's neck and offered Him a basket of fruits. With great respect he then sat near Baba, and prayed to Him saying- "Many persons who find themselves in difficult situations come to You, and You relieve them immediately. Hearting this, I have sought anxiously Your Feet; please, therefore, do not disappoint me." Sai Baba then asked him for Daksbina of Rs. five which Ruttonji intended to give, but added, that He has already received Rs. 3-14-0 from him, and that he should pay the balance only. Hearing this, Ruttonji was rather puzzled. he could not make out what Baba meant. That was the first time, he thought, that he went to Shirdi and how was it that Baba said that He had formerly got Rs. 3-14-0 from him? He cold not solve the riddle. But he sat at Baba's Feet and gave the balance of the Dakshina asked for, explained to Baba fully, as to why he came and sought His help, and prayed that Baba should bless him with a son. Baba was moved and told him not to be worried, and that that time his bad days had ended. He then gave him Udi, placed His hand on his head and blessed him saying that Allah (God) would satisfy his heart's desire.

Then after taking Baba's leave, Ruttonji returned to Nanded and told Dasganu everything that took place at Shirdi, He said that everything went on well there, that he got Baba's darshan and blessing with Prasad, but there was one thing which he could not understand. Baba said to him that he had got Rs.3-14-0 before. Please explain as to what Baba meant by this remark. He said to Dasganu, "I never went to Shirdi before, and how cold I give Him the sum to which Baba referred?" To Dasganu also, it was a puzzle, and he pondered much over it for a long time. Some time afterwards it struck him that Ruttonji had received some days ago a Mahomedan Saint, by name Moulisaheb, in his house and had spent some money for his reception. This Moulisaheb was coolie-saint wellknown to the people of Nanded. When Ruttonji decided to go the Shirdi, this Molisaheb accidentally came to Ruttonji's house. Ruttonji knew him and loved him. So he gave a small party in his honour. Dasganu got from Ruttonji the yadi or memo of expenses of this reception, and everybody was wonderstruck to see, that the expenses amounted to exactly Rs.3-14-0, nothing more, nothing less. They all came to know, that Baba was omniscient, that thought He lived in Shirdi, He knew what happened outside far away from Shirdi. In fact He knew the past, present and future, and could identify Himself heart and soul with anybody. In this particular instance how could He know the reception given to Moulisaheb, and the amount spent therefore, unless He could identify Himself with him, and be One with him?

Ruttonji was satisfied with this explanation and his faith in Baba was confirmed and increased. In due time afterwards, he was blessed with a son and his joy knew no bounds. It is said that he had in all a dozen (12) issues out of which only four survived.

In a foot-note towards the end of this Chapter,it is stated that Baba told Rao Bahadur Hari Vinayak Sathe, after the death of his first wife, to remarry and that he would get a son. R.B. Sathe married second time. The first two issues by this wife were daughters and he, therefore, felt very despondent. But the third issue was a son. Baba's word did turn out true and he was satisfied.

Dakshina - Mimansa

Now we shall close this Chapter with a few remarks about Dakshina. It is a well-known fact that Baba always asked for Dakshina from people who went to see Him. Somebody may ask a question, "If Baba was a Fakir and perfectly non-attached, why should he ask for Dakshina and care for money?" We shall consider this question broadly now.

First for a long time, Baba did not accept anything. He stored burnt matches and filled His pocket with them. He never asked anything from anybody--whether he be a devotee or otherwise. If anybody placed before Him a pice or two, He purchased oil or tobacco. He was fond of tobacco, for He always smoked a bidi or Chilim (an earthen pipe). Then some persons thought that they could not see the Saints empty-handed, and they, therefore, placed some copper coins before Baba. If a pice was placed before Him. He used to pocket it; if it was a two pice coin, it was returned immediately. Then after Baba's fame had spread far and wide, people began to flock in numbers; and Baba began to ask Dakshina from them. It is said in the Shruti (veda) that Puja of the Gods is not complete, unless a golden coin was offered. If a coin was necessary in the Puja of the Gods, why should it be not so in the Puja of the Saints also? Ultimately, the Shastras laid it down that, when one goes to see God, King, Saint or Guru, he should not go empty-handed. He should offer something, preferably coin or money. In this connection we may notice the precepts recommended by the Upanishads. The Brihadaranyak Upanishad says that the Lord Prajapati advised the Gods, men and demons by one letter "Da". The Gods understood by this letter that they should practice (1) "Dama" i.e. self-control; the men thought or understood that they should practice (2) "Dana" i.e. charity; the demons understood that they should practice (3) "Daya" i.e. compassion. To men Charity or giving was recommended. The teacher in the Taittiriya Upanishad exhorts his pupils to practise charity and other virtues. Regarding charity he says, "Give with faith, give with magnanimity, i.e. liberally, give with modesty, with awe and with sympathy. In order to teach the devotees the lesson of charity and to remove their attachment to money and thus to purify their minds, Baba extracted Dakshina from them; but there was this peculiarity, as Baba said, that He had to give back hundred times more of what He received. There are many instances, in which this has happened. To quote an instance, Mr. Ganpatrao Bodas, the famous actor, says in his Marathi autobiography, that on Baba's pressing him often and often for Dakshina, he emptied his money-bag before Him. The result of this was, as Mr. Bodas says, that in later life he never lacked money, as it came to him abundantly.

There were also secondary meanings of Dakshina, in many cases, in which Baba did not want any pecuniary amount. To quote two instances - (1) Baba asked Rs.15/- as Dakshina from Pro. G.G.Narke, who replied that he did not have even a pie. Then Baba said, "I know you have no money; but you are reading Yoga-Vashistha. Give Me Dakshina from that." Giving Dakshina in this case meant - `Deriving lessons from the book and lodging them in the heart where Baba resides'. (2) In the second case Baba asked a certain lady (Mrs. R. A. Tarkhad) to give Rs.6/- as Dakshina. The lady felt pained, as she had nothing to give. Then her husband explained to her that Baba wanted six inner enemies (lust, anger, avarice etc.) to be surrendered to Him. Baba agreed with this explanation.

It is to be noted, that though Baba collected a lot of money by Dakshina, He would distribute the whole amount the same day, and the next morning He would become a poor Fakir as usual. When Baba took His Mahasamadhi, after receiving thousands and thousands of Rupees as Dakshina for about ten years, He had only a few Rupees in His possession.

In short, Baba's main object in taking Dakshina, from His devotees was to teach them the lessons of Renunciation and Purification.

Post-script

Mr. B. V. Deo of Thana, retired Mamlatdar, and a great devotee of Baba, has written an article on this subject (Dakshina) in "Shri Sai Leela" magazine, Vol.VII, P.6-26, in which he says amongst other things, as follows:-

"Baba did not ask Dakshina from all. If some gave Dakshina without being asked, He sometimes accepted it; and at other times He refused it. He asked it from certain devotees only. He never demanded it, from those devotees, who thought in their minds that Baba should ask them for it, and then they should pay it. If anybody offered it against His wish, He never touched it, and if he kept it there, He asked him to take it away. He asked for small or big amounts from devotees, according to their wish, devotion and convenience. He asked it, even from women and children. He never asked all the rich for it, nor from all the poor."

"Baba never got angry with those from whom He asked Dakshina, and who did not give it. If any Dakshina was sent, through some friend, who forgot to hand over the same to Baba, He reminded him somehow of it and made him pay it. On some occasons, Baba used to return some sum from the amount tendered as Dakshina, and ask the donor to guard it or keep it in his shrine for worship. This procedure benefited the donor or devotee immensely. If anybody offered more than he originally intended to give, He returned the extra amount. Sometimes, He asked more Dakshina from some, than what they originally intended to give and, if they had no money, asked them to get or borrow from others. From some, He demanded Dakshina three or four times a day."

"Out of the amount collected as Dakshina, Baba spent very little for His own sake, viz., for buying Chilim (clay pipe) and fuel for His Dhuni (sacred fire), and all the rest, He distributed as charity in varying proportions to various persons. All the paraphenalia of the Shirdi Sansthan was brought, by various rich devotees at the instance and suggestion of Radha-Krishna-Mai. Baba always used to get wild and scolded those, who brought costly and rich articles. He said to Mr. Nanasaheb Chandorkar, that all His property consisted of one koupin (codpiece), one stray piece of cloth, one Kafni and a tumrel (tinpot), and that all the people troubled Him by bringing all these unnecessary, useless and costly articles."

Woman and wealth are the two main obstacles in the way of our Pramartha (spiritual life); and Baba and provided in Shirdi two institutions, viz., Dakshina and Radha-Krishna-Mai. Whenever they came to Him, He demanded Dakshina from them, and asked them to go to the 'SCHOOL' (Radha-Krishna-Mai's house). If they stood these two tests well, i.e. if they showed that they were free from attachment for woman and wealth, their progress in spirituality was rapid and assured by Baba's grace and blessings.

Mr. Deo has also quoted passanges from the Gita and Upanishads; and shown that charity given in a holy place and to a holy personage, conduces to the donors' welfare to a great degree. What is more holy than Shirdi and its Presiding Deity -- Sai Baba?

Bow to Shri Sai - Peace be to all

Tuesday, July 26, 2011

Guru Purnima Festival Pictures from Shirdi

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