श्री गुरु अर्जन देव जी - साखियाँ
मूसन का कटा सिर जोड़ना
लाहौर शहर के शाहबाज़पुर गाँव में संमन (पिता) और मूसन (पुत्र) आजीविका के लिए मजदूरी करते थे| एक दिन संगत की देखा देखी गुरु जी को संगत समेत भोजन करने की प्रार्थना की| परन्तु जब उन्होंने देखा कि संगत को खिलने के लिए उनके पास पूरे पैसे नहीं हैं और न ही प्रबंध हो सकता है| तो उन्होंने रात को साहूकार के कोठे की छत फाडकर छेद कर लिया| इस छेद में से मूसन नीचे उतर गया और अपने जरूरत की चीजें घी, शक्कर और आटा आदि अपने पिता को पकडाता रहा|
सब चीजें पकड़ाकर मूसन जैसे ही उपर आने लगा तो घर वालों की नींद खुल गई| उन्होंने मूसन की टाँगे पकड़ ली| मूसन ने अपने पिता से कहना शुरू किया कि पिताजी! आप मेरा सिर काटकर ले जाए| अगर आप ऐसा नहीं करेगें तो लोग मुझे सिर से पहचान लेंगे और कहेंगे कि गुरु के सिख चोर हैं| गुरु के नाम को धब्बा लगवाना ठीक नहीं है|
पिता ने वैसे ही किया जैसे पुत्र ने कहा था| उधर जब साहूकार ने बिना सिर के मुर्दा देखा तो वह यह सोचकर कि कत्ल का इल्जाम मेरे सिर ना लग जाए, भागा-भागा संमन के पास गया| उसने जाकर कहा कि मैं तुम्हें बहुत पैसे दूँगा| इसके लिए तुम्हें मेरे घर से मुर्दा उठाना होगा| इसे ऐसी जगह फैंक आओ जहाँ इसे कोई न देख सके|
संमन शीघ्रता से साहूकार के घर गया और अपने मृत बेटे को उठाकर के आया| उसने उसे अपने घर के पीछे वाले कमरे में सिर जोड़कर कपड़े से ढककर रख दिया| इसके पश्चात वह साहूकार के पास गया और अपनी जरूरत के अनुसार पैसे लेकर, गुरु जी व संगत के लिए खाना बनाने के लिए हलवाई को बुला लाया| सारा लंगर तैयार हो गया| गुरु जी भी संगत सहित आगए| पंगते भी लग गई| सबको खाना परोस दिया गया|
तब गुरु जी ने संमन से पूछा कि मूसन कहाँ है| वह संगत की सेवा में हाजिर क्यों नहीं हुआ? संमन चुप-चाप खड़ा रहा| उसकी चुप्पी को देखकर गुरु जी ने मूसन को आवाज़ लगाई कि आकर संगतो की सेवा करे| गुरु जी की आवाज़ सुनकर मूसन हाज़िर हो गया और के चरणों में माथा टेक हाथ जोड़कर खड़ा हो गया|
गुरु जी बाप-बेटे की गुरु घर के प्रति श्रद्धा देखकर संमन को सम्बोधित करके बोले -
चउबोले महला ५||
संमन जउ इस परेम की दमकिहु होती साट||
रावन हुते सु रंक नहि जिनि सिर दीने काट||१||
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब पन्ना १३६३)
अर्थात - हे संमन सिख! जो प्रेम तुमने दिखलाया है, अगर इस के बदलाव पैसों के साथ हो सकता होता, तो फिर लंका पति रावण कंगाल नहीं था जिसने अपने इष्ट शिव जी को अपना सिर ग्यारह बार काटकर प्रेम भेंट किया था| प्रेम तन और मन माँगता है धन नहीं|
यह वचन करके गुरु जी ने दोनों बाप बेटों को शाबाशी दी|
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