ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 50
काकासाहेब दीक्षित, श्री. टेंबे स्वामी और बालाराम धुरन्धर की कथाएँ ।
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मूल सच्चिरत्र के अध्याय 39 और 50 को हमने एक साथ सम्मिलित कर लिखा है, क्योंकि इन दोनों अध्यायों का विषय प्रायः एक-सा ही है ।
प्रस्तावना
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उन श्री साई महाराज की जय हो, जो बक्तों के जीवनाधार एवं सदगुरु है । वे गीताधर्म का उपदेश देकर हमें शक्ति प्रदान कर रहे है । हे साई, कृपादृष्टि से देखकर हमें आशीष दो । जैसे मलयगिरि में होनेवाला चन्दनवृक्ष समस्त तापों का हरण कर लेता है अथवा जिस प्रकार बादल जलवृष्टि कर लोगों को शीतलता और आनन्द पहुँचाते है या जैसे वसन्त में खिले फूल ईश्वरपूजन के काम आते है, इसी प्रकार श्री साईबाबा की कथाएँ पाठकों तथा श्रोताओं को धैर्य एवं सान्त्वना देती है । जो कथा कहते या श्रवण करते है, वे दोनों ही धन्य है, क्योंकि उनके कहने से मुख तथा श्रवण से कान पवित्र हो जाते है ।
यह तो सर्वमान्य है कि चाहे हम सैकड़ों प्रकार की साधनाएँ क्यों न करे, जब तक सदगुरु की कृपा नहीं होती, तब तक हमेंअपने आध्यात्मिक ध्येय की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसी विषय में यह निम्नलिखित कथा सुनिये ः-
काकासाहेब दीक्षित (1864-1926)
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श्री हरि सीताराम उपनाम काकासाहेब दीक्षित सन् 1864 में वड़नगर के नागर ब्राहमण कुल में खणडवा में पैदा हुए थे । उनकी प्राथमिक शिक्षा खण्डवा और हिंगणघाट में हुई । माध्यमिक सिक्षा नागुर में उच्च श्रेणी में प्राप्त कने के बाद उन्होंने पहले विल्सन तथा बाद में एलफिन्स्टन काँलेज में अध्ययन किया । सन् 1883 में उन्होंने ग्रेज्युएट की डिग्री लेकर कानूनी (L. L. B.) और कानूनी सलाहकार (Solicitor) की परीक्षाएँ पास की और फिर वे सरकारी सालिसिटर फर्म-मेसर्स लिटिल एण्ड कम्पनी में कार्य करने लगे । इसके पश्चात उन्होंने स्वतः की एक साँलिसिटर फर्म चालू कर दी ।
सन् 1909 के पहले तो बाबा की कीर्ति उनके कानों तक नहीं पहुँची थी, परन्तु इसके पश्चात् वे शीघ्र ही बाबा के परम भक्त बन गये । जब वे लोनावला में निवास कर रहे थे तो उनकी अचानक भेंट अपने पुराने मित्र नानासाहेब चाँदोरकर से हुई । दोनों ही इधर-उधर की चर्चाओं में समय बिताते थे । काकासाहेब ने उन्हें बताया कि जब वे लन्दन में थे तो रेलगाड़ी पर चढ़ते समय कैसे उनका पैर फिसला तथा कैसे उसमें चोट आई, इसका पूर्ण विवरण सुनाया । काकासाहेब ने आगे कहा कि मैंने सैकड़ो उपचार किये, परन्तु कोई लाभ न हुआ । नानासाहेब ने उनसे कहा कि यदि तुम इस लँगड़ेपन तथा कष्ट से मुक्त होना चाहते हो तो मेरे सदगुरु श्री साईबाबा की शरण में जाओ । उन्होंने बाबा का पूरा पता बताकर उनके कथन को दोहराया कि मैं अपने भक्त को सात समुद्रों के पास से भी उसी प्रकार खींच लूँगा, जिस प्रकार कि एक चिड़िया को जिसका पैर रस्सी से बँधा हो, खींच कर अपने पास लाया जाता है । उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि तुम बाबा के निजी जन न होगे तो तुम्हें उनके प्रति आकर्षण भी न होगा और न ही उनके दर्शन प्राप्त होंगे । काकासाहेब को ये बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कहा, वे शिरडी जाकर बाबा से प्रार्थना करेंगे कि शारीरिक लँगड़ेपन के बदले उनके चंचल मन को अपंग बनाकर परमानन्द की प्राप्त करा दे ।
कुछ दिनों के पश्चात् ही बम्बई विधान सभा (Legislative Assembly) के चुनाव में मत प्राप्त करने के सम्बन्ध में काकासाहेब दीक्षित अहमदनगर गये और सरदार काकासाहेब मिरीकर के यहां ठहरे । श्री. बालासाहेब मिरीकर जो कि कोपरगाँव के मामलतदार तथा काकासाहेब मिरीकर के सुपत्र थे, वे भी इसी समय अश्वप्रदर्शनी देखने के हेतु अहमदनगर पधारे थे । चुनाव का कार्य समाप्त होने के पश्चात काकासाहेब दीक्षित शिरडी जाना चाहते थे । यहाँ पिता और पुत्र दोनों ही घर में विचार कर रहे थे कि काकासाहेब के साथ भेजने के लिये कौन सा व्यक्ति उपयुक्त होगा और दूसरी ओर बाबा अलग ही ढंग से उन्हें अपने पास बुलाने का प्रबन्ध कर रहे थे । शामा के पास एक तार आया कि उनकी सास की हालत अधिक शोचनीय है और उन्हें देखने को वे शीघ्र ही अहमदनगर को आये । बाबा से अनुमति प्राप्त कर शामा ने वहां जाकर अपनी सास को देखा, जिनकी स्थिति में अब पर्याप्त सुधार हो चुका था । प्रदर्शनी को जाते समय नानासाहेब पानसे तथा अप्पासाहेब दीक्षित से भेंट करने तथा उन्हें अपने साथ शिरडी ले जाने को कहा । उन्होंने शामा के आगमन की सूचना काकासाहेब दीक्षित और मिरीकर को भी दे दी । सन्ध्या समय शामा मिरीकर के घर आये । मिरीकर ने शामा का काकासाहेब दीक्षित से परिचय कर दिया और फिर ऐसा निश्चित हुआ कि काकासाहेब दीक्षित उनके साथ रात 10 बजे वाली गाड़ी से कोपरगाँव को रवाना हो जाये । इस निश्चय के बाद ही एक विचित्र घटना घटी । बालासाहेब मिरीकर ने बाबा के एक बड़े चित्र पर से परदा हटाकर काकासाहेब दीक्षित को उनके दर्शन कराये तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिनके दर्शनार्थ मैं शिरडी जाने वाला हूँ, वे ही इस चित्र के रुप में मेरे स्वागत हेतु यहाँ विराजमान है । तब अत्यन्त द्रवित होकर वे बाबा की वन्दना करने लगे । यह चित्र मेघा का था और काँच लगाने के लिये मिरीकर के पास आया था । दूसरा काँच लगवा कर उसे काकासाहेब दीक्षित तथा शामा के हाथ वापस शिरडी भेजने का प्रबन्ध किया गया । 10 बजे से पहले ही स्टेशन पर पहुँचकर उन्होंने द्घितीय श्रेणी का टिकट ले लिया । जब गाड़ी स्टेशन पर आई तो द्घितीय श्रेणी का डिब्बा खचाखच भरा हुआ था । उसमें बैठने को तिलमात्र भी स्थान न था । भाग्यवश गार्डसाहेब काकासाहेब दीक्षित की पहिचान के निकल आये और उन्होंने इन दोनों को प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठा दिया । इस प्रकार सुविधापू4वक यात्रा करते हुए वे कोपरगाँव स्टेशन पर उतरे । स्टेशन पर ही शिरडी को जाने वाले नानासाहेब चाँदोरकर को देखकर उनके हर्ष का पारावार न रहा । शिरडी पहुँचकर उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन किये । तब बाबा कहने लगे कि मैं बड़ी देर से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर राह था । शामा को मैंने ही तुम्हें लाने के लिये भेज दिया था । इसके पश्चात् काकासाहेब ने अनेक वर्ष बाबा की संगति में व्यतीत किये । उन्होंने शिरडी में एक वाड़ा (दीक्षित वाडा) बनवाया, जो उनका प्रायः स्थायी घर हो गया । उन्हें बाबा से जो अनुभव प्राप्त हुए, वे सब स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं दिये जा रहे है । पाठकों से प्रार्थना है कि वे श्री साईलीला पत्रिका के विशेषांक (काकासाहेब दीक्षित) भाग 12 के अंक 6-9 तक देखे । उनके केवल एक दो अनुभव लिखकर हम यह कथा समाप्त करेंगे । बाबा ने उन्हें आश्वासन दिया था कि अनत समय आने पर बाबा उन्हें विमान में ले जायेंगे, जो सत्य निकला । तारीख 5 जुलाई, 1926 को वे हेमाडपंत के साथ रेल से यात्रा कर रहे थे । दोनों में साईबाबा के विषय में बाते हो रही थी । वे श्री साईबाबा के ध्यान में अधिक तल्लीन हो गये, तभी अचानक उनकी गर्दन हेमाडपंत के कन्धे से जा लगी । और उन्होंने बिना किसी कष्ट तथा घबराहट के अपनी अंतिम श्वास छो़ड़ दी ।
श्री. टेंबे स्वामी
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अब हम द्घितीय कथा पर आते है, जिससे स्पष्ट होता है कि सन्त परस्पर एक दूसरे को किस प्रकार भ्रतृवत् प्रेम किया करते है । एक बार श्री वासुदेवानन्द सरस्वती, जो श्री. टेंबे स्वामी के नाम से प्रसिदृ है, ने गोदावरी के तीर पर रामहेन्द्री में आकर डेरा डाला । वे भगवान दत्तात्रेय के कर्मकांडी, ज्ञानी तात योगी भक्त थे । नाँदेड़ (निजाम स्टेट) के एक वकील अपने मित्रों के सहित उनसे भेंट करने आये और वार्तालाप करते-करते श्री साईबाबा की चर्चा भी निकल पड़ी । बाबा का नाम सुनकर स्वामी जी ने उन्हें करबदृ प्रणाम किया और पुंडलीकराव (वकील) को एक श्रीफल देकर उन्होंने कहा कि तुम जाकर मेरे भ्राता श्री साई को प्रणाम कर कहना कि मुझे न बिसरे तथा सदैव मुझ पर कृपा दृष्टि रखें । उन्होंने यह भी बतलाया कि सामान्यतः एक स्वामी दूसरे को प्रणाम नहीं करता, परन्तु यहाँ विशेष रुप से ऐसा किया गया है । श्री. पुंडलीकराव ने श्रीफल लेकर कहा कि मैं इसे बाबा को दे दूँगा तथा आपका सन्देश भी उचित था । स्वामी ने बाबा को जो भाई शब्द से सम्बोधित किया था, वह बिकुल ही उचित था । उधर स्वामी जी अपनी कर्मकांडी पदृति के अनुसार दिनरात अग्नहोत्र प्रज्वलित रखते थे और इधर बाबा की धूनी दिन रात मसजिद में जलती रहती थी
एक मास के पश्चात ही पुंडलीकराव अन्य मित्रों सहित श्रीफल लेकर शिरडी को रवाना हुये । जब वे मनमाड पहुँचे तो प्यास लगने के कारम एक नाले पर पानी पीने गये । खाली पेट पानी न पीना चाहिये, यह सोचकर उन्होंने कुछ चिवड़ा खाने को निकाल, जो खाने में कुछ अधिक तीखा-सा प्रतीत हुआ । उसका तीखापन कम करने के लिये किसी ने नारियल फोड़ कर उसमें खोपरा मिला दिया और इस तरह उन लोगों ने चिवड़ा स्वादिष्ट बनाकर खाया । अभाग्यवश जो नारियल उनके हाथ से फूटा, वह वही था, जो स्वामीजी ने पुंजलीकराव को भेंट में देने को दिया था । शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्हें नारियल की स्मृति हो आई । उन्हें यह जानकर बड़ा ही दुख हुआ कि भेंट स्वरुप दिये जाने वाला नारियल ही फोड़ दया गया है । डरते-डरते और काँपते हुए वे शिरडी पहुँचे और वहाँ जाकर उन्होंने बाबा के दर्शन किये । बाबा को तो यहाँ नारियल के सम्बन्ध में स्वामी से बेतार का तार प्राप्त हो चुका था । इसीलिये उन्होंने पहले से ही पुंडलीकराव से प्रश्न किया कि मेरे भाई की भेजी हुई वस्तु लाओ । उन्होंने बाबा के चरण पकड़ कर अपना अपराध स्वीकार करते हुये अपनी चूक के लिये उनसे क्षमा याचना की । वे उसके बदले में दूसरा नारियल देने को तैयार थे, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए उसे अस्वीकार कर दिया कि उस नारियल का मूल्य इस नारियल से कई गुना अधिक था और उसकी पूर्ति इस साधारण नारियल से नहीं हो सकती । फिर वे बोले कि अब तुम कुछ चिन्ता न करो । मेरी ही इच्छा से वह नारियल तुम्हें दिया गया तथा मार्ग में फोड़ा गया है । तुम स्वयं में कर्तापन की भावना क्यों लाते हो । कोई भी श्रेष्ठ या कनिष्ठ कर्म करते समय अपने को कर्ता न जानकर अभिमान तता अहंकार से परे होकर ही कार्य करो, तभी तुम्हारी द्रुत गति से प्रगति होगी । कितना सुन्दर उनका यह आध्यात्मिक उपदेश था ।
बालाराम धुरन्धर
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सान्ताक्रूज, बम्बई के श्री. बालाराम धुरन्धर प्रभु जाति के एक सज्जन थे । वे बम्बई के उच्च न्यायालय में एडवोकेट थे तथा किसी समय शासकीय विधि विघालय (Govt. Law School) और बम्बई के प्राचार्य (Principal) भी थे । उनका सम्पूर्ण कुटुम्ब सात्विक तथा धार्मिक था । श्री बालाराम ने अपनी जाति की योग्य सेवा की और इस सम्बन्ध में एक पुस्तक भी प्रकाशित कराई । इसके पश्चात् उनका ध्यान आध्यात्मिक और धार्मिक विषयों पर गया । उन्होंने ध्यानपूर्वक गीता, उसकी टीका ज्ञानेश्वरी तथा अन्य दार्शनिक ग्रन्थों पर अध्ययन किया । वे पंढरपुर के भगवान विठोबा के परम भक्त ते । सन् 1912 में उन्हें श्री साईबाबा के दर्शनों का लाभ हुआ । छः मास पूर्व उनके भाई बाबुलजी और वामनराव ने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये थे और उन्होंने घर लौटकर अपने मधुर अनुभव भी श्री. बालाराम व परिवार के अन्य लोगों को सुनाये । तब सब लोगों ने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । यहाँ शिरडी में उनके पहुँचने के पूर्व ही बाबा ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि आज मेरे बहुत से दरबारीगण आ रहे है । अन्य लोगों द्घारा बाबा के उपरोक्त वचन सुनकर धुरन्धर परिवार को महान् आश्चर्य हुआ । उन्होंने अपनी यात्रा के सम्बन्ध में किसी को भी इसकी पहले से सूचना न दी थी । सभी ने आकर उन्हें प्रणाम किया और बैठकर वार्तालाप करने लगे । बाबा ने अन्य लोगों को बतलाया कि ये मेरे दरबारीगण है, जिनके सम्बन्ध में मैंने तुमसे पहले कहा था । फिर धुरन्धर भ्राताओं से बोले कि मेरा और तुम्हारा परिचय 60 जन्म पुराना है । सभी नम्र और सभ्य थे, इसलिये वे सब हाथ जोड़े हुए बैठे-बैठे बाबा की ओर निहारते रहे । उनमें सब प्रकार के सात्विक भाव जैसे अश्रुपात, रोमांच तथा कण्ठावरोध आदि जागृत होने लगे और सबको बड़ी प्रसननता हुई । इसके पश्चात वे सब अपने निवासस्थान पर भोजन को गये और भोजन तथा थोड़ा विश्राम लेकर पुनः मसजिद में आकर बाबा के पांव दबाने लगे । इस समय बाबा चिलम पी रहे थे । उन्होंने बालाराम को भी चिलम देकर एक फूँक लगाने का आग्रह किया । यघपि अभी तक उन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया था, फिर भी चिलम हाथ में लेकर बड़ी कठिनाई से उन्होंने एक फूँक लगाई और आदरपूर्वक बाबा को लौटा दी । बालाराम के लिये तो यह अनमोल घडी थी । वे 6 वर्षों से श्वास-रोग से पीड़ित थे, पर चिलम पीते ही वे रोगमुक्त हो गये । उन्हें फिर कभी यह कष्ट न हुआ । 6 वर्षों के पश्चात उन्हें एक दिन पुनः श्वास रोग का दौरा पड़ा । यह वही महापुण्यशाली दिन था, जब कि बाबा ने महासमाधि ली । वे गुरुवार के दिन शिरडी आये थे । भाग्यवश उसी रात्रि को उन्हें चावड़ी उत्सव देखने का अवसर मिल गया । आरती के समय बालाराम को चावड़ी में बाबा का मुखमंडल भगवान पंडुरंग सरीखा दिखाई पड़ा । दूसरे दिन कांकड़ आरती के समय उन्हें बाबा के मुखमंडल की प्रभा अपने परम इष्ट भगवान पांडुरंग के सदृश ही पुनः दिखाई दी ।
श्री बालाराम धुरन्धर ने मराठी में महाराष्ट्र के महान सन्त तुकाराम का जीवन चरित्र लिखा है, परन्तु खेद है कि पुस्तक प्रकाशित होने तक वे जीवित न रह सके । उनके बन्धुओं ने इस पुस्तक को सन् 1928 में प्रकाशित कराया । इस पुस्तक के प्रारम्भ में पृष्ठ 6 पर उनकी जीवनी से सम्बन्धित एक परिक्षेपक में उनकी शिरडी यात्रा का पूरा वर्णन है ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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Chapter L
Stories of
(1) Kakasaheb Dixit (2) Shri Tembye Swami (3)Balaram Dhurandhar.
Chapter 50 of the original
Satcharita has been incorporated in Chapter 39, as it dealt with the same
subject matter. Now, Chapter 51 of the Satcharita has been treated here as
Chapter 50. This Chapter gives the stories of (1) Kakasaheb Dixit (2) Shri
Tembye Swami (3) Balaram Dhurandhar.
Preliminary
Victory be
unto Sai Who is the main-stay of the Bhaktas, Who is our Sadguru, Who expounds
the meaning of the Gita and Who gives us all powers. Oh Sai, look favourably on
us and bless us all.
The sandal-wood trees, grow on the
mountains and ward off heat. The clouds, pour their rain-water and thereby,
cool and refresh all the people. The flowers, blossom in the spring and, enable
us to worship God, therewith. So the stories of Sai Baba come forth, in order
to give solace and comfort to the readers. Both, those, who tell; and those who
hear the stories of Baba, are blessed and holy, as also the mouths of the
former and the ears of the latter.
It is well-established fact, that though we try hundreds of means or sadhanas,
we do not attain the spiritual goal of life, unless a Sadguru blesses us with
his grace. Hear the following story in illustration of this statement
Kakasaheb Dixit (1864-1926)
Mr. Hari Sitaram alias Kakasaheb Dixit was born in 1864 A.D., in a Vadnagara
Nagar - Brahmin-family, at Khandwa(C.P). His primary education was done at
Khandwa, Hinganghat, and secondary education at
in the
he passed his LL.B. and solicitor's examination; and then served in the firm of
the Govt. Solicitors, Messrs Little and Co., and then, after sometime started a
solicitors' firm of his own.
Before 1909 A.D., Sai Baba's name was not familiar to Kakasaheb, but after
that he soon becomes His great devotees. While he was staying at Lonavla, he
happened to see his old friend. Mr. Nanasaheb Chandorkar. Both spent some time,
in talking about many things. Kakasaheb described to him, how when he was
boarding a train in
he met with an accident, in which his foot slipped and was injured. Hundreds of
remedies gave him no relief. Nanasaheb then told him that if he wished to get
rid of the pain and lameness of his leg, he should go to his Sadguru-Sai Baba.
He also gave him all the particulars of Sai Baba and mentioned to him Sai
Baba's dictum "I draw to Me My man fram far off, or even across the seven
seas, like a sparrow with a string fastened to its feet." He also made it
clear to him that if he be not Baba's man, he would not be attracted to Him and
given a darshan. Kakasaheb was pleased to hear all this, and said to Nanasaheb
that he would go to Baba, see Him and pray to Him to cure not so much his lame
leg, but bring round his lame, fickle mind and give him eternal Bliss.
Some time after, Kakasaheb went to Ahmednagar; and stayed with sirdar
Kakasaheb Mirikar in connection with securing votes for a seat, in the Bombay
Legislative Council. Mr. Balasaheb Mirikar, son of Kakasaheb Mirikar, who was a
Mamalatdar of Kopergaon, also came at that time to Ahmendnagar in connection
with a Horse-Exhibition there. After the election business was over, Kakasaheb
Dixit wanted to go to Shirdi and both the Mirikars, father and son were also
thinking in their house about a fit and proper person, as a guide, with whom he
should be sent there. There Sai Baba was arranging things for his reception.
Shama got a telegram from his father-in-law at Ahemdnagar, stating that his
wife was seriously ill, and that he should come to see her with his wife. Shama
with Baba's permission went there, and saw his mother-in-law and found her
improving and better. Nanasaheb Panshe and Appasaheb Gadre happened to see
Shama, on their way to the Exhibition Dixit there and take him to Shirdi along
with him. Kakasaheb Dixit and the Mirikars were also informed of Shama's
arrival. In the evening Shama came to Mirikars, who introduced him to
Kakasaheb. They arranged that Shama should leave for Kopergaon with Kakasaheb
by the
train. After this was settled, a curious thing happened. Balasaheb Mirikar
threw aside the veil or covering on Baba's big portrait and showed the same to
Kakasaheb. He was surprised to see that He, Whom he was going to meet at
Shirdi, was already there in the form of His portrait to greet him, at this
juncture. He was much moved and made his prostration before the portarit. This
portrait belonged to Megha. The glass over it was broken and it was sent to
Mirikars for repairs. The necessary repairs had been already made; and it was
decided to return the portarit with Kakasaheb and Shama.
Before ten O'Clock, they went to the station and booked their passage; but
when the train arrived, they found that the second class was overcrowded; and
then there was no room for them. Fortunately, the guard of the train turned out
to be an acquaintance of Kakasaheb; and he put them up in the first class. Thus
they travelled comfortably and alighted at Kopergaon. Their joy knew no bounds
when they saw there Nanasaheb Chandorkar, who was also bound for Shirdi.
Kakasaheb and Nanasaheb embraced each other, and then after bathing in the
sacred
After coming there and getting Baba's darshan, Kakasaheb's mind was melted, his
eyes were full of tears and he was overflowing with joy. Baba said to him, that
he also was waiting for him; and had sent Shama ahead to receive him.
Kakasaheb then passed many happy years in Baba's company. He buit a Wada in
Shirdi which he made as his, more or less, permanent home. The experiences he
got from Baba are so manifold, that it is not possible to relate them all here.
The readers are advised to read a special (Kakasaheb Dixit) No. of 'Shri Sai
Leela' magazine, Vol 12, No. 6-9. we close this account with the mention of one
fact only. Baba had comforted hi by saying that in the end "He will take
him in air coach (Viman)", (i.e., secure him a happy death). This came out
true. On
A.D.
Sai Baba. He seemed deeply engrossed in Sai Baba. All of a sudden he threw his
neck on Hemadpant's shoulder, and breathed his last with no trace of pain and
uneasiness.
Shri Tembye Swami
We come to the next story, which shows how Saints love aech other with
fraternal affection. Once Shri Vasudevanand Saraswati, known as Shri Tembye
Swami encamped, at Rajamahendri (Andhra Country), on the banks of
Bhakta of the God Dattatreya. One, Mr. Pundalikrao, pleader of Nanded (
went to see him, with some friends. While they were talking with him, the names
of Shirdi and Sai Baba were casually mentioned. Hearing Baba's name, the Swami
bowed with his hands; and taking a coconut gave it to Pundalikrao, and said to
him, "Offer this to my brother Sai, with my pranam and request Him not to
forget me, but ever love me." He also added that the Swamis do not
generally bow to others, but in this case an exception had to be made. Mr.
Pundalikrao consented to take the fruit and his message to Baba. The Swami was
right in calling Baba a brother, for as he maintained an Agnihotra (Sacred
fire) day and night, in his orthodox fashion; Baba too kept His Agnihotra,
i.e., Dhuni ever burning in the Masjid.
After one month Pundalikrao and others left for Shirdi with the coconut, and
reached Manmad, and as they felt thirsty they went to a rivulet for drinking
water. As water should not be drunk on an empty stomach, they took out some
refreshments, i.e., Chivda (flattened rice mixed with spice). The Chivda tasted
pungent and in order to soften it, some one suggested and broke the coconut and
mixed its scrapings with it. Thusthey made the Chivda mare tasty and palatable.
Unfortunately the fruit broken, turned out to be the same, that was entrusted
to Pundalikrao. As they neared Shirdi, Pundalikrao remembered the trust, i.e.,
the coconut and was very sorry to learn that it was broken and utilized.
Fearing and trembling, he came to Shirdi and saw Baba. Baba had already
received a wireless message, regarding the coconut, from the Tembye Swami, ad
Himself asked Pundalikrao first to give the things sent by His brother. He held
fast Baba's Feet, confessed his guilt and negligence, repented and asked for
Baba's pardon. He offered to give another fruit as a substitute, but Baba
refused to accept it saying that the worth of that coconut was by far, many
times more, than an ordinary one and that it could not be replaced by another
one. Baba also added- "Now you need not worry yourself any more about the
matter. It was on account of my wish that the coconut was entrusted to you, and
ultimately broken on the way; why should you take the responsibility of the
actions on you? Do not entertain the sense of doership in doing good, as well
as for bad deeds; be entirely prideless and egoless in all things and thus your
spiritual progress will be rapid." What a beautiful spiritual instruction
Baba gave!
Balaram Dhurandhar (1878-1925)
Mr. Balaram Dhurandhar belonged to the Pathare Prabhu community, of Santacruz,
an advocate of the Bombay High Court and sometime Principal of the
whole Dhurandhar family was pious and religious. Mr. Balaram served his
community, and wrote and published an account of it. He then turned his
attention to spiritual and religious matters. He studied carefully Gita, and
its commentary Jnaneshwari; and other philosiphical and other metaphysical
works. He was a devotee of Vithoba of Pandharpur. he came in contact with Sai
Baba in 1912 A.D.. Six months previous, his brothers Babulji and Vamanrao came
to Shirdi and took Baba's darshan. They returned home, and mentioned their
sweet experiences to Balaram and other members. Then they all decided to see
Sai Baba. Before they came to Shirdi, Baba declared openly that - "To-day
many of my Darbar people are coming." The Dhurandhar brothers were
astonished to hear this remark of Baba, from others; as they had not given any
previous intimation of their trip. All the other people prostrated themselves
before Baba, and sat talking to Him. Baba said to them- "These are my
Darbar people to whom I referred before" and said to the Dhurandhar
brothers- "We are acquainted with each other for the last sixty
generations." All the brothers were meek and modest, they stood with
joined hands, staring at Baba's Feet. All the Sattwic emotions such as tears,
horripilation, choking, etc., moved them and they were all happy. Then they
went to their lodging, took their meals and after taking a little rest again
came to the Masjid. Balaram sat near Baba, messaging His Legs. Baba Who was
smoking a chillam advanced it towards him and beckoned him to smoke it. Balaram
was not accustomed to smoking, still he accepted the pipe, smoked it with great
difficulty; and returned it reverentially with a bow. This was the most
auspicious moment for Balaram. He was suffering from Asthma for six years. This
smoke completely cured him of the disease, which never troubled him again. Some
six years later, on a particular day, he again got an attack of Asthma. This
was precisely the time when Baba took his Mahasamadhi.
The day of this visit was a Thursday; and the Dhurandhar brothers had the
good fortune of witnessing the Chavadi, Balaram saw the lusture of pandurang on
Baba's face and next morning at the Kakad-Arti time, the same phenomenon - the
same lusture of his Beloved Deity- Pandurang was visible again on Baba's face.
Mr. Balaram Dhurandhar wrote, in Marathi, the life of the Maharashtra Saint
Tukaram, but did not survive to see its publication. It was published, later
on, by his brothers in 1928. In a short note on Balaram's life given in the
beginning of the book, the above account of Balaram's visit has been fully
corroborated therein (Vide page 6 of the book).
Bow to Shri Sai - Peace be to all
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