शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Wednesday, December 28, 2011

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 38 & English Chapter-38



ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...



श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 38



बाबा की हंड़ी, नानासाहेब द्अघारा देव-मूर्ति की उपेक्षा, नैवेघ वितरण, छाँछ का प्रसाद ।

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गत अध्याय में चावड़ी के समारोह का वर्णन किया गया है । अब इस अध्याया में बाबा की हंडी तथा कुछ अन्य विषयों का वर्णन होगा ।







प्रस्तावना

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हे सदगुरु साई । तुम धन्य हो । हम तुम्हें नमन करते है । तुमने विश्व को सुख पहुँचाय और भक्तों का कल्याण किया । तुम उदार हृदय हो । जो भक्तगण तुम्हारे अभय चरण-कमलों में अपने को समर्पित कर देते है, तुम उनकी सदैव रक्षा एवं उद्घार किया करते हो । भक्तों के कल्याण और परित्राण के निमित्त ही तुम अवतार लेते हो । ब्रहम के साँचे में शुद्घ आत्मारुपी द्रव्य ढाला गया और उसमें से ढलकर जो मूर्ति निकली, वही सन्तों के सन्त श्री साईबाबा है । साई स्वयं ही आत्माराम और चिरआनन्द धाम है । इस जीवन के समस्त कार्यों को नश्वर जानकर उन्होंने भक्तों को निष्काम और मुक्त किया ।



बाबा की हंड़ी

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मानव धर्म-शास्त्र में भिन्न-भिन्न युगों के लिये भिन्न-भिन्न साधनाओं का उन्नेख किया गया है । सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्घापर में यज्ञ और कलियुग में दान का विशेष माहात्म्य है । सर्व प्रकार के दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है । जब मध्याहृ के समय हमें भोजन प्राप्त नहीं होता, तब हम विचलित हो जाते है । ऐसी ही स्थिति अन्य प्राणियों की अनुभव कर जो किसी भिक्षुक या भूखे को भोजन देता है, वही श्रेष्ठ दानी है । तैत्तिरीयोपनिषद् में लिखा है कि अन्न ही ब्रहमा है और उसीसे सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा उससे ही वे जीवित रहते है और मृत्यु के उपरांत उसी में लय भी हो जाते है । जब कोई अतिथि दोपहर के समय अपने घर आता है तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम उसका अभिन्नदन कर उसे भोजन करावे । अन्य दान जैसे-धन, भूमि और वस्त्र इत्यादि देने में तो पात्रता का विचार करना पड़ता है, परन्तु अन्न के लिये विशेष सोचविचार की आवश्यकता नहीं है । दोपहर के समय कोई भी अपने द्घार पर आवे, उसे शीघ्रभोजन कराना हमारा परम कर्त्व्य है । प्रथमतः लूले, लंगड़े, अन्धे या रुग्ण भिखारियों को, फिर उन्हें, जो हाथ पैर से स्वस्थ है और उनसभी के बाद अपने संबन्धियों को भोजन कराना चाहिये । अन्य सभी की अपेक्षा पंगुओं को भोजन कराने का मह्त्व अधिक है । अन्नदान के बिना अन्य सब प्रकार के दान वैसे ही अपूर्ण है, जैसे कि चन्द्रमा बिना तारे, पदक बिना हार, कलश बिना मन्दिर, कमलरहित तलाब, भक्तिरहित, भजन, सिन्दूररहित सुहागिन, मधुर स्वरविहीन गायन, नमक बिना पकवान । जिस प्रकार अन्य भोज्य पदार्थों में दाल उत्तम समझी जाती है, उसी प्रकार समस्त दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है । अब देखें कि बाबा किस प्रकार भोजन तैयार कराकर उसका वितरण किया करते थे ।

हम पहले ही उल्लेख कर चुके है कि बाबा अल्पाहारी थे और वे थोड़ा बहुत जो कुछ भी खाते थे, वह उन्हें केवल दो गृहों से ही भिक्षा में उपलब्ध हो जाया करता था । परन्तु जब उनके मन में सभी भक्तों को भोजन कराने की इच्छा होती तो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक संपूर्ण व्यवस्था वे स्वयं किया करते थे । वे किसी पर निर्भर नहीं रहते थे और न ही किसी को इस संबंध में कष्ट ही दिया करते थे । प्रथमतः वे स्वयं बाजार जाकर सब वस्तुएं – अनाज, आटा, नमक, मिर्ची, जीरा खोपरा और अन्य मसाले आदि वस्तुएँ नगद दाम देकर खरीद लाया करते थे । यहाँ तक कि पीसने का कार्य भी वे स्वयं ही किया करते थे । मसजिद के आँगन में ही एक भट्टी बनाकर उसमें अग्नि प्रज्वलित करके हंडी के ठीक नाप से पानी भर देते थे । हंडी दो प्रकार की थी – एक छोटी और दूसरी बड़ी । एक में सौ और दूसरी में पाँच सौ व्यक्तियों का भोजन तैयार हो सकता था । कभी वे मीठे चावल बनाते और कभी मांसमिश्रित चावल (पुलाव) बनाते थे । कभी-कभी दाल और मुटकुले भी बना लेते थे । पत्थर की सिल पर महीन मसाला पीस कर हंडी में डाल देते थे । भोजन रुचिकर बने, इसका वे भरसक प्रयत्न किया करते थे । ज्वार के आटे को पानी में उबाल कर उसमें छाँछ मिलाकर अंबिल (आमर्टी) बनाते और भोजन के साथ सब भक्तों को समान मात्रा में बाँट देते थे । भोजन ठीक बन रहा है या नहीं, यह जानने के लिये वे अपनी कफनी की बाँहें ऊपर चढ़ाकर निर्भय हो उतबलती हंडी में हाथ डाल देते और उसे चारों ओर घुमाया करते थे । ऐसा करने पर भी उनके हाथ पर न कोई जलन का चिन्ह और न चेहरे पर ही कोई व्यथा की रेखा प्रतीत हुआ करती थी । जब पूर्ण भोजन तैयार हो जाता, तब वे मसजिद सम बर्तन मँगाकर मौलवी से फातिहा पढ़ने को कहते थे, फिर वे म्हालसापति तथा तात्या पाटील के प्रसाद का भाग पृथक् रखकर शेष भोजन गरीब और अनाथ लोगों को खिलाकर उन्हें तृप्त करते थे । सचमुच वे लोग धन्य थे । कितने भाग्यशाली थे वे, जिन्हें बाबा के हाथ का बना और परोसा हुआ भोजन खाने को प्राप्त हुआ ।



यहाँ कोई यह शंका कर सकता है कि क्या वे शाकाहारी और मांसाहारी भोज्य पदार्थों का प्रसाद सभी को बाँटा करते थे । इसका उत्तर बिलकुल सीधा और सरल है । जो लोग मांसाहारी थे, उन्हें हण्डी में से दिया जाता था तथा शाकाहारियों को उसका स्पर्श तक न होने देते थे । न कभी उन्होंने किसी को मांसाहार का प्रोत्साहन ही दिया और न ही उनकी आंतरिक इच्छा थी कि किसी को इसके सेवन की आदत लग जाये । यह एक अति पुरातन अनुभूत नियम है कि जब गुरुदेव प्रसाद वितरण कर रहे हो, तभी यदि शिष्य उसके ग्रहण करने में शंकित हो जाय तो उसका अधःपतन हो जाता है । यह अनुभव करने के लिये कि शिष्य गण इस नियम का किस अंश तक पालन करते है, वे कभी-कभी परीक्षा भी ले लिया करते थे । उदाहरँणार्थ एक एकादशी के दिन उन्होंने दादा केलकर को कुछ रुपये देकर कुछ मांस खरीद लाने को कहा । दादा केलकर पूरे कर्मकांडी थे और प्रायः सभी नियमों का जीवन में पालन किया करते थे । उनकी यह दृढ़ भावना थी कि द्रव्य, अन्न और वस्त्र इत्यादि गुरु को भेंट करना पर्याप्त नहीं है । केवल उनकी आज्ञा ही शीघ्र कार्यान्वित करने से वे प्रसन्न हो जाते है । यही उनकी दक्षिणा है । दादा शीघ्र कपडे पहिन कर एक थैला लेकर बाजार जाने के लिये उघत हो गये । तब बाबा ने उन्हें लौटा लिया और कहा कि तुम न जाओ, अन्य किसी को भेज दो । दादा ने अपने नौकर पाण्डू को इस कार्य के निमित्त भेजा । उसको जाते देखकर बाबा ने उसे भी वापस बुलाने को कहकर यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया ।



ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उन्होंने दादा से कहा कि देखो तो नमकीन पुलाव कैसा पका है । दादा ने यों ही मुंह देखी कह दिया कि अच्छा है । तब वे कहने लगे कि तुमने न अपनी आँखों से ही देखा है और न जिहा से स्वाद लिया, फिर तुमने यह कैसे कह दिया कि उत्तम बना है । थोड़ा ढक्कन हटाकर तो देखो । बाबा ने दादा की बाँह पकड़ी और बलपूर्वक बर्तन में डालकर बोले – थोड़ासा इसमें से निकालो और अपना कट्टरपन छोड़कर चख कर देखो । जब माँ का सच्चा प्रेम बच्चे पर उमड़ आता है, तब माँ उसे चिमटी भरती है, परन्तु उसका चिल्लाना या रोना देखकर वह उसे अपने हृदय से लगाती है । इसी प्रकार बाबा ने सात्विक मातृप्रेम के वश हो दादा का इस प्रकार हाथ पकड़ा । यथार्थ में कोई भी सन्त या गुरु कभी भी अपने कर्मकांडी शिष्य को वर्जित भोज्य के लिये आग्रह करके अपनी अपकीर्ति कराना पसन्द न करेगा ।



इस प्रकार यह हंडी का कार्यक्रम सन् 1910 तक चला और फिर स्थगित हो गया । जैसा पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, दासगणू ने अपने कीर्तन द्घारा समस्त बम्बई प्रांत में बाबा की अधिक कीर्ति फैलई । फलतः इस प्रान्त से लोगों के झुंड के झुंड शिरडी को आने लगे और थोड़े ही दिनों में शिरडी पवित्र तीर्थ-क्षेत्र बन गया । भक्तगण बाबा को नैवेघ अर्पित करने के लिये नाना प्रकारके स्वादिष्ट पदार्थ लाते थे, जो इतनी अधिक मात्रा में एकत्र हो जाता था कि फकीरों और भिखारियों को सन्तोषपूर्वक भोजन कराने पर भी बच जाता था । नैवेघ वितरण करने की विधि का वर्णन करने से पूर्व हम नानासाहेब चाँदोरकर की उस कथा का वर्णन करेंगे, जो स्थानीय देवी-देवताओं और मूर्तियों के प्रति बाबा की सम्मान-भावना की घोतक है ।



नानासाहेब द्घारा देव-मूर्ति की उपेक्षा

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कुछ व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार बाबा को ब्राहमण तथा कुछ उन्हें यवन समझा करते थे, परन्तु वास्तव में उनकी कोई जाति न थी । उनकी और ईश्वर की केवल एक जाति थी । कोई भी निश्चयपूर्वक यह नहीं जानता कि वे किस कुल में जनमें और उनके मातापिता कौन थे । फिर उन्हें हिन्दू या यवन कैसे घोषित किया जा सकता है । यदि वे यवन होते तो मसजिद में सदैव धूनी और तुलसी वृन्दावन ही क्यों लागते और शंख, घण्टे तथा अन्य संगीत वाघ क्यों बजने देते । हिन्दुओं की विविध प्रकार की पूजाओं को क्यों स्वीकार करते । यदि सचमुच यवन होते तो उनके कान क्यों छिदे होते तथा वे हिन्दू मन्दिरों का स्वयं जीर्णोद्घार क्यों करवाते । उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तियों तथा देवी-देवताओ की जरा सी उपेक्षा भी कभी सहन नहीं की ।



एक बार नानासाहेब चाँदोरक अपने साढू (साली के पति) श्री बिनीवले के साथ शिरडी आये । जब वे मसजिद में पहुँचे, बाबा वार्तालाप करते हुए अनायास ही क्रोधित होकर कहने लगे कि तुम दीर्घकाल से मेरे सान्ध्य में हो, फिर भी ऐसा आचरण क्यों करते हो । नानासाहेब प्रथमतः इन शब्दों का कुछ भी अर्थ न समझ सके । अतः उन्होंने अपना अपराध समझाने की प्रार्थना की । प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि तुम कब कोपरगाँव आये और फिर वहाँ से कैसे शिरडी आ पहुँचे । तब नानासाहेब को अपनी भूल तुरन्त ही ज्ञात हो गयी । उनका यह नियम था कि शिरडी आने से पूर्व वे कोपरगाँव में गोदावरी के तट पर स्थित श्री दत्त का पूजन किया करते थे । परन्तु रिश्तेदार के दत-उपासक होने पर भी इस बार विलम्ब होने के भय से उन्होंने उनको भी दत्त मंदिर में जाने से हतोत्साहित किया और वे दोनों सीधे शिरडी चले आये थे । अपना दोष स्वीकार कर उन्होंने कहा कि गोदावरी स्नान करते समय पैर में एक बड़ा काँटा चुभ जाने के कारण अधिक कष्ट हो गया था । बाबा ने काह कि यह तो बहुत छोटासा दंड था और उन्हें भविष्य में ऐसे आचरण के लिये सदैव सावधान रहने की चेतावनी दी ।



नैवेघ-वितरण

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अब हम नैवेघ-वितरण का वर्णन करेंगे । आरती समाप्त होने पर बाबा से आर्शीवाद तथा उदी प्राप्त कर जब भक्तगण अपने-अपने घर चले जाते, तब बाबा परदे के पीछे प्रवेश कर निम्बर के सहारे पीठ टेककर भोजन के लिये आसन ग्रहण करते थे । भक्तों की दो पंक्तियाँ उनके समीप बैठा करती थी । भक्तगण नाना प्रकार के नैवेघ, पीरी, माण्डे, पेड़ा बर्फी, बांसुदीउपमा (सांजा) अम्बे मोहर (भात) इत्यादि थाली में सजा-सजाकर लाते और जब तक वे नैवेघ स्वीकार न कर लेते, तब तक भक्तगण बाहर ही प्रतीक्षा किया करते थे । समस्त नैवेघ एकत्रित कर दिया जाता, तब वे स्वयं ही भगवान को नैवेघ अर्पण कर स्वयं ग्रहण करते थे । उसमें से कुछ भाग बाहर प्रतीक्षा करने वालों को देकर शेष भीतर बैठे हुए भक्त पा लिया करते थे । जब बाबासबके मध्य में आ विराजते, तब दोनों पंक्तियों में बैठे हुए भक्त तृप्त होकर भोजन किया करते थे । बाबा प्रायः शामा और निमोणकर से भक्तों को अच्छी तरह भोजन कराने और प्रत्येक की आवश्यकता का सावधानीपूर्वक ध्यान रखने को कहते थे । वे दोनों भी इस कार्य को बड़ी लगन और हर्ष से करते थे । इस प्रकार प्राप्त प्रत्येक ग्रास भक्तों को पोषक और सन्तोषदायक होता था । कितना मधुर, पवित्र, प्रेमरसपूर्ण भोजन था वह । सदा मांगलिक और पवित्र ।



छाँछ (मठ्ठा) का प्रसाद

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इस सत्संग में बैठकर एक दिन जब हेमाडपंत पूर्णतः भोजन कर चुके, तब बाबा ने उन्हें एक प्याला छाँछ पीने को दिया । उसके श्वेत रंग से वे प्रसन्न तो हुए, परन्तु उदर में जरा भी गुंजाइश न होने के कारण उन्होंने केवल एक घूँट ही पिया । उनका यह उपेक्षात्मक व्यवहार देखकर बाबा ने कहा कि सब पी जाओ । ऐसा सुअवसर अब कभी न पाओगे । तब उन्होंने पूरी छाँछ पी ली, किन्तु उन्हे बाबा के सांकेतिक वचनों का मर्म शीघ्र ही विदित हो गया, क्योंकि इस घटना के थोड़े दिनों के पश्चात् ही बाबा समाधिस्थ हो गये ।



पाठकों । अब हमें अवश्य ही हेमाडपंत के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये, क्योंकि उन्होंने तो छाँछ का प्याला पिया, परन्तु वे हमारे लिये यथेष्ठ मात्रा में श्री साई-लीला रुपी अमृत दे गये । आओ, हम उस अमृत के प्याले पर प्याले पीकर संतुष्ट और सुखी हो जाये ।



।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।




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Baba's Handi - Disrespect of Shrine - Kala or Hodge-Podge - Cup of Butter-Milk.



In the last chapter we described Baba's Chavadi procession. In this we take up Baba's Handi (cooking pot) and some other subjects.



Preliminary



Oh, blessed Sad-guru Sai, we bow to You, Who have given happiness to the whole world, accomplished the welfare of the devotees and have removed the affliction of those who have resorted to Your Feet. Being very liberal and being the protector and saviour of the Bhaktas who surrender themselves to You, You incarnate yourself in this world to oblige the people and do them good. The liquid essence of Pure Self was poured into the mould of Brahma and out of this has come out the crest-jewel of the saints-Sai. This Sai is Atmarama Himself. He is the abode of perfect divine bliss. Having Himself attained all objects of life, He made His devotees desirelss and free.



Baba's Handi



Different sadhanas (means of accomplishments) are prescribed in our scriptures for different ages. Tapa (Penance) is recommended for Krita age, Jnana (Knowledge) for Treta age, Yajna (Sacrifice) for Dwapara age and Dana (Charity) for Kali (present) age. Of all the charities, giving food is the best one. We are much perturbed when we get no food at noon. Other beings feel similarly under similar circumstances. Knowing this, he who gives food to the poor and hungry, is the best donor or charitable person. The Taittiriya Upanishad says that "Food is Brahma; from food all the creatures are born and having been born, by food they live, and having departed, into food again they enter." When an Atithi (uninvited guest) comes to our door at noon, it is our bounden duty to welcome him by giving him food. Other kinds of charities, viz., giving away wealth, property and clothes etc., require some discrimination, but in the matter of food, no such consideration is necessary. Let anybody come to our door at noon, he should be served forthwith; and if lame, crippled, blind and diseased paupers come, they should be fed first and the able-bodied persons and our relations afterwards. The merit of feeding the former is much greater than that of feeding the latter. Other kinds of charities are imperfect without this Anna-dana (giving of food) as stars are without the moon, a necklace without its central medal, a crown without pinnacle, a tank without a lotus, bhajan without love, a married lady without the kumkum-mark, singing without a sweet voice or butter-milk without salt. Just as varan (Pulse-soup) excels all other dishes, Anna-dana is the best of all merits. Now let us see how Baba prepared food and distributed it.



It has been stated before that Baba required very little food for Himself and what little He wanted, was obtained by begging from a few houses. But when He took it into His mind to distribute food to all, He made all preparations from beginning to end, Himself. He depended on nobody and troubled none in this matter. First He went to the bazar and bought all the things, corn, flour, spices etc., for cash. He did also the grinding. In the open courtyard of the Masjid, He arranged a big hearth and after lighting a fire underneath kept a Handi over it with a proper measure of water. There were two kinds of Handi, one small and the other big. The former provided food for 50 persons, the later for 100. Sometimes He cooked 'Mitthe Chaval' (sweet rice), and at other times 'pulava' with meat. At times in the boiling varan (soup), He let in small balls of thick or flat breads of wheat flour. He pounded the spices on a stone-slab, and put the thin pulverized spices into the cooking-pot. He took all the pains to make the dishes very palatable. He prepared 'Ambil' by boiling jawari-flour in water and mixing it with butter-milk. With the food He distributed this Ambil to all alike. To see whether the food was properly cooked or not, Baba rolled up the sleeve of His Kafni and put His bare arm in the boiling cauldron without the least fear, and churned (moved) the whole mass from side to side and up and down. There was no mark of burn on His arm, nor fear on His face. When the cooking was over, Baba got the pots in the Majid, and had them duly consecrated by the moulvi. First He sent part of the food as prasad to Mhalasapati and Tatya Patil and then He served the remaining contents with His own hand to all the poor and helpless people to their hearts' content. Really blessed and fortunate must be those people who got food prepared by Baba and served by Him.



Somebody may raise a doubt here and ask - "Did Baba distribute vegetable and animal food as prasad alike to all His devotees?" The answer is plain and simple. Those who were accustomed to (take) animal food were given food from the Handi as prasad and those who were not so accustomed, were not allowed to touch it. He never created in them any wish or desire to indulge in this food. There is a principle well established that when a Guru himself gives anything as prasad, the disciple who thinks and doubts whether it is acceptable or otherwise, goes to peridition. In order to see how any disciple has imbibed this principle, Baba at times proposed tests. For instance, on an Ekadashi day He gave some rupees to Dada Kelkar and asked him to go in person to Koralha to get mutton from there. This Dada Kelkar was an orthodox Brahmin and kept all orthodox manners in his life. He knew that offering wealth, grain and clothes etc., to a Sad-guru was not enough but that implicit obedience to and prompt compliance with His order was the real Dakshina that pleased Him most. So Dada Kelkar dressed himself and started for the place. Then Baba called him back and said, "Don't go yourself, but send somebody." Then Dada sent servant Pandu for the purpose. Seeing him starting, Baba asked Dada to call him back and cancelled that programme. On another occation Baba asked Dada just to see how the saltish `Pulava' (mutton dish) was done. The latter said casually and formally that it was alright. Then Baba said to him - "Neither you have seen it with your eyes, nor tasted in with your tongue, then how could you say that it was good? Just take out the lid and see." Saying this Baba caught his arm and thrust it into the pot and added, "Draw out your arm and taking a ladle, put some quantity in the dish without caring for your orthodoxy and without blustering." When a wave of real love rises in a mother's mind, she pinches her child with her hand and when it begins to cry and shout, she hugs it close to her bosom. Similarly Baba, in a true motherly way pinched Dada Kelkar in this fashion. Really no saint or guru will ever force his orthodox disciple to eat forbidden food and defile himself thereby.



The Handi business went on for some time till 1910 and was stopped thereafter. As stated before, Das Ganu spread the fame of Baba by his kirtans far and wide in the Bombay Presidency and people from that part of the country began to flock to Shirdi, which became in a few days a place of pilgrimage. The devotees brought with them various articles for presentation and offered various dishes of food as naivedya. The quantity of naivedya offered by them was so much that the fakirs and paupers could feed themselves to their hearts' content, leaving some surplus behind. Before stating how naivedya was distributed, we shall refer to Nanasaheb Chandorkar's story showing Baba's regard and respect for local Shrines and deities.



Nanasaheb's Disrespect of a Shrine



By drawing inferences or guessing in their own way some people said that Sai was a Brahmin, and some that He was a Moslem. Really He belonged to no caste. No one knew definitely when He was born and in what community and who were His parents. Then how could He be a Moslem or Brahmin? If He were a Moslem, how could He keep Dhuni fire ever burning in the Masjid, how could there be a Tulsi Vrindavan there, how could He allow the blowing of conches and ringing of bells and the playing of the musical instruments, how could He allow all the different forms of Hindu worship, there? Had He been a Moslem, could He have pierced ears and could He have been spent money from His pocket for repairing Hindu temples? On the contrary He never tolerated the slightest disrespect to Hindu Shrines and deities.



Once Nanasaheb Chandorkar came to Shirdi with his 'Sadu' - husband of his sister-in-law, Mr.Biniwalle. When they went to the Masjid and sat before Baba talking, the latter suddenly got angry with Nanasaheb and said - "You are so long in My company and how do you behave like this?" Nanasaheb then at first did not understand anything and humbly requested Baba to explain. Baba asked him when he came to Kopergaon and how he came to Shirdi from thence. Nanasaheb then at once realized his mistake. He usually worshipped the Shrine of Datta, on the banks of the Godavari at Kopergaon on his way to Shirdi, but this time he dissuaded his relation who was a Datta Bhakta from going to that Shrine, to avoid delay and drove straight. He confessed all this to Baba and told Him that while bathing in the Godavari, a big thorn went into his foot and gave him much trouble. Baba said that, that was the slight punishment be met and warned him to be more careful in future.



Kala (hodge-podge)



To revert to the distribution of the naivedya. - After the arati was over and after Baba sent away all the people with Udi and blessings, He went inside and sat with his back to the Nimbar for meals, with two rows of the Bhaktas, one on each side. The Bhaktas who brought naivedya thrust inside their dishes containing a variety of food such as Puris, Mande, Polis, Basundi, Sanza, fine rice etc., and kept waiting outside for prasad consecrated by Baba. All the foods were mixed in a hotch-potch and placed before Baba. He offered it all to God and consecrated it. Then portions of the same were given to the persons waiting outside and the rest was served to the inner party with Baba at the centre. The Bhaktas sitting in two rows then dined to their hearts' content. Baba asked Shama and Nanasaheb Nimonkar daily to serve the consecrated food to all the persons sitting inside and look to their individual needs and comforts. This they did very carefully and willingly. Every morsel of the food thus partaken gave them nutrition and satisfaction. Such sweet, lovely and consecrated food it was! Ever auspicious and every holy!



Cup of Butter-Milk



Once Hemadpant had eaten his full in this company, when Baba offered him a cup of butter-milk. Its white appearance pleased him, but he was afraid that there was no space inside for it. He, however, took a sip which proved very tasty. Seeing his faltering attitude, Baba said - "Drink it all, you won't get any such opportunity hereafter." He drank it off then, but found that Baba's words were prophetic, for He passed away soon.



Now, readers, we have certainly to thank Hemadpant. He drank the cup of butter-milk, but has supplied us with sufficient quantity of nectar in the form of Baba's Leelas. Let us drink cups and cups of this nectar and be satisfied and happy.




Bow to Shri Sai - Peace be to all


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