ॐ श्री साँई राम जी
भक्त सुदामा
प्रभु के भक्तों की अनेक कथाएं हैं, सुनते-सुनते आयु बीत जाती है पर कथाएं समाप्त नहीं होतीं| सुदामा श्री कृष्ण जी के बालसखा हुए हैं| उनके बाबत भाई गुरदास जी ने एक पउड़ी उच्चारण की है -
बिप सुदामा दालदी बाल सखाई मित्र सदाऐ |
लागू होई बाहमणी मिल जगदीस दलिद्र गवाऐ |
चलिया गिणदा गट्टीयां क्यों कर जाईये कौण मिलाऐ |
पहुता नगर दुआरका सिंघ दुआर खोलता जाए |
दूरहुं देख डंडउत कर छड सिंघासन हरि जी आऐ |
पहिले दे परदखना पैरीं पै के लै गल लाऐ |
चरणोदक लै पैर धोइ सिंघासन ऊपर बैठाऐ |
पुछे कुसल पिआर कर गुर सेवा की कथा सुनाऐ |
लै के तंदुल चबिओने विदा करै आगे पहुंचाऐ |
चार पदारथ सकुच पठाए |९|९०|
भाई गुरदास जी के कथन अनुसार सुदामा गोकुल नगरी का एक ब्राह्मण था| वह बड़ा निर्धन था| वह श्री कृष्ण जी के साथ एक ही पाठशाला में पढ़ा करता था| उस समय वह बच्चे थे| बचपन में कई बच्चों का आपस में बहुत प्यार हो जाता है, वे बच्चे चाहे गरीब हो या अमीर, अमीरी और गरीबी का फासला बचपन में कम होता है| सभी बच्चे या विद्यार्थी शुद्ध हृदय के साथ मित्र और भाई बने रहते हैं|
सुदामा और कृष्ण जी का आपस में अत्यन्त प्रेम था, वह सदा ही इकट्ठे रहते| जिस समय उनका गुरु उनको किसी कार्य के लिए भेजता तो वे इकट्ठे चले जाते, बेशक नगर में जाना हो या किसी जंगल में लकड़ी लेने| दोनों के प्रेम की बहुत चर्चा थी|
सुदामा जब पढ़ने के लिए जाता था तो उनकी माता उनके वस्त्र के पलड़े में थोड़े-से भुने हुए चने बांध दिया करती थी| सुदामा उनको खा लेता था, ऐसा ही होता रहा|
एक दिन गुरु जी ने श्री कृष्ण और सुदामा दोनों को जंगल की तरफ लकड़ियां लेने भेजा| जंगल में गए तो वर्ष शुरू हो गई| वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए| बैठे-बैठे सुदामा को याद आया कि उसके पास तो भुने हुए चने हैं, वह ही खा लिए जाए| वह श्री कृष्ण से छिपा कर चने खाने लगा| उसे इस तरह देख कर श्री कृष्ण जी ने पूछा-मित्र! क्या खा रहे हो?
सुदामा से उस समय झूठ बोला गया| उसने कहा-सर्दी के कारण दांत बज रहे हैं, खा तो कुछ नहीं रहा, मित्र!
उस समय सहज स्वभाव ही श्री कृष्ण जी के मुख से यह शब्द निकल गया -'सुदामा! तुम तो बड़े कंगाल हो, चनों के लिए अपने मित्र से झूठ बोल दिया|'
यह कहने की देर थी कि सुदामा के गले दरिद्र और कंगाली पड़ गई, कंगाल तो वह पहले ही था| मगर अब तो श्री कृष्ण ने वचन कर दिया था| यह वचन जानबूझ कर नहीं सहज स्वभाव ही श्री कृष्ण के मुख से निकल गया, पर सत्य हुआ| सुदामा और अधिक कंगाल हो गया|
पाठशाला का समय खत्म हो गया और सुदामा अपने घर चला गया| विवाह हुआ, बच्चे हुए तथा उसके पश्चात माता-पिता का देहांत हो गया| कंगाली दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी, कोई फर्क न पड़ा| दिन बीतने लगे| श्री कृष्ण जी राजा बन गए, उनकी महिमा बढ़ गई| वह भगवान रूप में पूजा जाने लगे तो सुदामा बड़ा खुश हो का अपनी पत्नी को बताया करता कि हम दोनों का परस्पर अटूट प्रेम होता था|
उसकी पत्नी कहने लगी -'यदि आपके ऐसे मित्र हैं और आप में इतना प्रेम था तो आप उनके पास जाओ और अपना हाल बताओ| हो सकता है कि कृपा तथा दया करके हमारी कंगाली दूर कर दें|'
अपनी पत्नी की यह बात सुन कर सुदामा ने कहा -'जाने के लिए तो सोचता हूं, पर जाऊं कैसे, श्री कृष्ण के पास जाने के लिए भी तो कुछ न कुछ चाहिए, आखिर हम बचपन के मित्र हैं|'
आखिर उसकी पत्नी ने बहुत ज़ोर दिया तो एक दिन सुदामा अपने मित्र श्री कृष्ण कि ओर चल पड़ा| उसकी पत्नी ने कुछ चावल, तरचौली उसको एक पोटली में बांध दिए| सुदामा मन में विचार करता कि मित्र को कैसे मिलेगा? क्या कहेगा? द्वारिका नगरी में पहुंच कर वह श्री कृष्ण जी का दरबार लगता था| प्रभु वहां इंसाफ और न्याय करते थे| सुदामा ने डरते और कांपते हुए द्वारपाल को कहा - 'मैंने राजा जी को मिलना है|'
द्वारपाल-'क्या नाम बताऊं जा कर?'
सुदामा-उनको कहना सुदामा ब्राह्मण आया है, आपके बचपन का मित्र| द्वारपाल यह संदेश ले कर अंदर चला गया| जब उसने श्री कृष्ण जी को संदेश दिया तो वह उसी पल सिंघासन से उठ कर नंगे पांव बाहर को भागे तथा बाहर आ कर सुदामा को गले लगा लिया| कुशलता पूछी तथा बड़े आदर और प्रेम से उसे अपने सिंघासन पर बिठाया और उसके पैर धोए| पास बिठा कर व्यंग्य के लहजे में कहा - लाओ मेरी भाभी ने मेरे लिए क्या भेजा है?
यह कह कर श्री कृष्ण ने सुदामा के वस्त्रों से बंधी हुई पोटली खोल ली और फक्के मार कर चबाने लगे| चबाते हुए वर देते गए तथा कहते रहे, "वाह! कितनी स्वादिष्ट है तरचौली! कितनी अच्छी है भाभी!"
सुदामा प्रसन्न हो गया| श्री कृष्ण ने मित्र को अपने पास रखा तथा खूब सेवा की गई| बड़े आदर से उसको भेजा| विदा होते समय न तो सुदामा ने श्री कृष्ण से अपनी निर्धनता बताते हुए कुछ मांगा तथा न ही मुरली मनोहर ने उसे कुछ दिया| सुदामा जिस तरह खाली हाथ दरबार की तरफ गया था, वैसे ही खाली हाथ वापिस घर को चल पड़ा| मार्ग में सोचता रहा कि घर जाकर अपनी पत्नी को क्या बताऊंगा? मित्र से क्या मांग कर लाया हूं|
सुदामा गोकुल पहुंचा| जब वह अपने मुहल्ले में पहुंचा तो उसे अपना घर ही न मिला| वह बड़ा हैरान हुआ| उसका कच्चा घर जो झौंपड़ी के बराबर घास फूस से बना गाय बांधने योग्य था, कहीं दिखाई न दिया| वह वहां खड़ा हो कर पूछना ही चाहता था कि इतने में उसका लड़का आ गया| उसने नए वस्त्र पहने हुए थे| 'पिता जी! आप बहुत समय लगा कर आए हो|.....द्वारिका से आए जिन आदमियों को आप ने भेजा था, वह यह महल बना गए हैं, सामान भी छोड़ गए हैं तथा बहुत सारे रुपये दे गए हैं| माता जी आपका ही इंतजार कर रहे हैं| आप आकर देखें कितना सुंदर महल बना है|'
अपने पुत्र से यह बात सुन कर तथा कच्चे घर की जगह सुन्दर महल देख कर वह समझ गया कि यह सब भगवान श्री कृष्ण की लीला है| श्री कृष्ण ने मुझे वहां अपने पास द्वारिका में रखा और मेरे पीछे से यहां पर यह लीला रचते रहे तथा मुझे बिल्कुल भी मालूम नहीं पड़ने दिया| महल इतना सुन्दर था कि, उस जैसा किसी दूसरे का शायद ही हो| शायद महल बनाने के लिए विश्वकर्मा जी स्वयं आए थे, तभी तो इतना सुन्दर महल बना| भगवान श्री कृष्ण की लीला देख कर सुदामा बहुत ही प्रसन्न था| उसके बिना कुछ बताए ही श्री कृष्ण जी सब कुछ समझ गए थे|
उस दिन के बाद सुदामा श्री कृष्ण की भक्ति में लग गया और भक्तों में गिने जाने लगा|
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