ॐ साँई राम जी
राजा हरिचन्द
सुख राजे हरी चंद घर नार सु तारा लोचन रानी |
साध संगति मिलि गांवदे रातीं जाइ सुणै गुरबाणी |
पिछों राजा जागिआ अधी रात निखंड विहाणी |
राणी दिस न आवई मन विच वरत गई हैरानी |
होरतु राती उठ कै चलिआ पिछै तरल जुआणी |
रानी पाहुती संगतीं राजे खड़ी खड़ाऊं निसाणी |
साध संगति आराधिआ जोड़ी जुड़ी खड़ाऊं पुराणी |
राजे डिठा चलित इहु एह खड़ाव है चोज विडाणी |
साध संगति विटहु कुरबाणी |९|
एक हरिचन्द नाम का राजा था| उसकी रानी का नाम तारा रानी था| रानी को बचपन से ही सद् पुरुषों के वचन सुनने की लगन थी| छोटे-से राज्य की धार्मिक विचारों वाली रानी विवाह के पश्चात भी पूजा पाठ में लगी रहती थी| एक दिन राज भवन के निकट एक भजन मण्डली आ गई, वह हरि कीर्तन करने लगी| सारी रात ही कीर्तन होता रहता| रानी को जब पता चला तो वह भी उस कीर्तन में जाने लगी| अब यह उसका नित्य नियम था| परमात्मा का नाम ही उसके जीवन का आसरा था| वह बिना किसी भय के इस नेक रास्ते पर जाया करती थी|
भाई गुरदास जी के कथन अनुसार एक दिन तारा रानी जब कीर्तन सुनने गई तो बाद में राजा जाग गया| राजा धर्मी नहीं था इसलिए रानी का भी उसे कीर्तन में जाना अच्छा नहीं लगता था| वह सदा अपने राज कार्य में जुटा रहता तथा धर्म-कर्म की ओर ध्यान देने के स्थान पर रंगरलियां मनाने में लगा रहता| ऐसे पुरुष प्राय: शकी स्वभाव के होते हैं| राजा हमेशा अपनी रानी पर शक करता रहता था| रानी जितनी नेक थी उतनी ही रूपवंती भी थी| परमात्मा ने उसे सभी सुख दिए थे, वह शांति से दिन काट रही थी|
जब राजा जागा तो उसने देखा कि रानी की सेज खाली है| वह कहां गई? राजा के मन में हैरानी हुई| उसने उठ कर देखा पर रानी उसे कहीं भी न मिली| राज भवन के पहरेदारों से पूछा तो उन्होंने भी कुछ न बताया, क्योंकि जब रानी जाती थी तो उस समय पहरेदारों को नींद आ जाया करती थी| वह रानी को जाते हुए नहीं देख पाते थे| यह सब भगवान की ही लीला थी|
जब रानी वापिस आ गई तो राजा चुप ही रहा| उसने रानी को कुछ न पूछा| पर अगली रात को उसे नींद न आई| वह जागता रहा और उसने नजर रखी कि कब रानी उठ कर जाती है लेकिन रानी अपने नित्य नियम अनुसार सो गई| जब अमृत के समय कीर्तन का समय आया, आधी रात बीत गई तो रानी उठी| स्नान किया, साधारण भक्ति भाव वाले वस्त्र पहने और कीर्तन में चल पड़ी|
राजा वास्तव में सोया नहीं था| वह तो ऐसे ही आंखें बंद करके लेटा था| जब तारा रानी चली तो राजा ने उसका पीछा किया| रानी कीर्तन में जा बैठी, वहां पर हरि कीर्तन हो रहा था| वहां पर सब भक्त कीर्तन में अन्तर्ध्यान हुए विराजमान थे| परम शांति और प्यार का वातावरण था|
राजा रानी का पीछा करते-करते कीर्तन में पहुंच गया| वह वहां पर खड़ा पहले तो कुछ देर सोचता रहा, फिर रानी की एक खड़ाऊं उठा कर अपने राज भवन में आ गया| राज भवन आकर आराम से अपनी सेज पर सो गया| उसको दीन दुनिया का कोई ख्याल नहीं था, वह तो राज-काज, रंग-राग और माया का पुतला था| उस दिन वह सोते हुए कई स्वपन देखता रहा|
कीर्तन समाप्त हुआ तथा भोग पड़ गया| जब रानी बाहर आ कर अपनी खड़ाऊं पहनने लगी तो एक खड़ाऊं गायब थी| एक खड़ाऊं को देखकर रानी कुछ हैरान हुई कि यह कैसे हो गया? एक खड़ाऊं किसने चुरा ली है| उस समय सत्संगियों को भी पता चल गया| संगत ने अरदास की कि है पारब्रह्म! तुम्हारा यश गान करते हुए रानी की खड़ाऊं का चले जाना भय का कारण है| तुम्हारा यश किस तरह प्रगट होगा? कोई चमत्कार दिखाओ, रानी ने राज भवन जाना है|
संगत ने ऐसी अरदास की कि उसी समय खड़ाऊं के साथ वही जो पुरानी खड़ाऊं थी, आ कर जुड़ गई| रानी तारा ने खड़ाऊं के साथ वही जोड़ी पहनी और राज भवन में आ गई| जब वह अपने कक्ष में गई तो राजा ने पूछा, 'रानी! आप की खड़ाऊं कहां है?'
हे नाथ! मेरी खड़ाऊं मेरे पैरों में है| क्या बात है जो आज आप ने यह पूछने को कष्ट किया|' तारा रानी ने उत्तर दिया|
'कहां है? राजा ने फिर पूछा|'
'दासी के पैरों में|'
राजा हरिचन्द ने देखा दोनों खड़ाऊं रानी के पैरों में थी एक जैसी थी, एक जैसी ही घिसी हुई| राजा को हैरानी हुई और उसने जल्दी से उठा कर लाई हुई खड़ाऊं देखनी चाही, पर वह खड़ाऊं वहां नहीं थी| इस तरह के चमत्कार से राजा बड़ा हैरान हुआ| रानी सारी बात समझ गई कि राजा बाद में जाग गया होगा और शक पड़ने पर मेरे पीछे लग गया होगा| पर सत्संग के कारण मेरी लाज रह गई| पारब्रह्म परमेश्वर बड़ा दयालु और लीला करने वाला है| कोई भी उसका पारावार नहीं ले सकता| तब रानी ने स्पष्ट तौर पर राजा से पूछा, हे नाथ! अब तो आपको विश्वास हो गया कि मैं आधी रात को उठ कर कहां जाती हूं| मैं परमात्मा की भक्ति करती हूं| भक्ति ही मेरे जीवन का उद्देश्य है| इस मायावादी जगत में और है भी क्या? कितना अच्छा हो अगर आप भी वहां सत्संग में जाया करें| सत्संग में बैठ कर थोड़ा-सा तन मन को शांत कर लिया करो, राज-काज तो होते ही रहते हैं|
राजा हरिचन्द ने तारा रानी से क्षमा मांगी तथा उसे कीर्तन में जाने की आज्ञा दे दी| वह स्वयं भी भक्ति मार्ग पर चल पड़ा|
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