शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Thursday, November 21, 2013

महर्षि वाल्मीकि जी



ॐ साँई राम जी













महर्षि वाल्मीकि जी



महर्षि वाल्मीकि का जन्म त्रैता युग में अस्सू पूर्णमाशी को एक श्रेष्ठ घराने में हुआ| आप अपने आरम्भिक जीवन में बड़ी तपस्वी एवं भजनीक थे| लेकिन एक राजघराने में पैदा होने के कारण आप शस्त्र विद्या में भी काफी निपुण थे|

आप जी के नाम के बारे ग्रंथों में लिखा है कि आप जंगल में जाकर कई साल तपस्या करते रहे| इस तरह तप करते हुए कई वर्ष बीत गए| आपके शरीर पर मिट्टी दीमक के घर की तरह उमड़ आई थी| संस्कृत भाषा में दीमक के घरों को 'वाल्मीकि' कहा जाता है| जब आप तपस्या करते हुए मिट्टी के ढेर में से उठे तो सारे लोग आपको वाल्मीकि कहने लगे| आपका बचपन का नाम कुछ और था, जिस बारे कोई जानकारी पता नहीं लगी|

भारत में संस्कृत के आप पहले उच्चकोटि के विद्वान हुए हैं| आप जी को ब्रह्मा का पहला अवतार माना जाता है| प्रभु की भक्ति एवं यशगान से आपको दिव्यदृष्टि प्राप्त हुई थी और आप वर्तमान, भूतकाल तथा भविष्यकाल बारे साब कुछ जानते थे| श्री राम चन्द्र जी के जीवन के बारे आप जी को पहले ही ज्ञान हो गया था| इसलिए आप जी ने श्री राम चन्द्र जी के जीवन के बारे पहले 'रामायण' नामक एक महा ग्रंथ संस्कृत में लिख दिया था| बाद में जितनी भी रामायण अन्य कवियों तथा ऋषियों द्वारा लिखी गई है, वह सब इसी 'रामायण' को आधार मानकर लिखी गई हैं|

जब महर्षि वालिमिकी को 'रामायण' की कहानी का पूर्ण ज्ञान हो गया तो आप जी ने एक दिन अपने एक शिष्य को बुलाया तथा तमसा नदी के किनारे पर पहुंच गए| इस सुन्दर नदी पर वह पहली बार आए थे| वह नदी के तट पर चलते-चलते बहुत दूर निकल गए| अंत में वह नदी के एक तट पर जाकर रुक गए|

नदी का वह किनारा बड़ा सुन्दर तथा हरा-भरा था| नदी का सुन्दर किनारा और निर्मल जल देखकर वालिमिकी जी बहुत प्रसन्न हुए| निर्मल जल को देखकर वह नदी पर स्नान करने गए| स्नान करते-करते वह उस जंगल में पहुंच गए जहां एक पेड़ पर बैठे चकवा चकवी प्रेम रस में डूबे हुए थे|

चकवा चकवी प्रेम करते बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे| वाल्मीकि जी अभी उनकी तरफ देख ही रही थी कि एक शिकारी उधर आ निकला|

उसने चकवे की हत्या कर दी| अपने प्यारे पति को तड़पता देखकर चकवी बहुत दुखी हुई तथा विलाप करने लग गई| शिकारी के निंदनीय कार्य को देखकर महर्षि वाल्मीकि बहुत क्रोधित हो गए| उन्होंने एक श्लोक संस्कृत में उच्चारण किया जिसका भाव था, 'हे शिकारी तूने जो प्रेम लीला कर रहे चकवे के प्राण लिए हैं इस कारण तेरी शीघ्र ही मृत्यु हो जाएगी तथा तेरी पत्नी भी इसी तरह दुखी होगी|'

वाल्मीकि जी के मुख से यह वचन स्वाभाविक ही निकल गए| फिर वह सोचने लगे कि मैं पक्षियों का दुःख देखकर यह सारा श्राप युक्त वचन क्यों कर बैठा| लेकिन जब अपने कहे हुए उत्तम तथा अलंकारक श्लोक की तरफ देखा तो बड़े प्रसन्न हुए| वह उस श्लोक को दोबारा गाने लगे| फिर उन्होंने अपने शिष्य भारद्वाज को कथन किया कि वह इस श्लोक को कंठस्थ कर ले ताकि इसे भूल न जाए| शिष्य भारद्वाज ने उस समय यह श्लोक कंठस्थ कर लिया|

इस तरह मासूम पक्षी की मृत्यु ने महर्षि वाल्मीकि के मन पर वेरागमयी प्रभाव डाला| पक्षी के तड़पने, मरने तथा मरने से पहले प्रेम लीला की झांकी महर्षि की आंखों से ओझल नहीं हो रही थी| इस विचार में डूबे हुए वाल्मीकि अपने आश्रम में आ पहुंचे|

लेकिन आश्रम में आकर भी आप उस श्लोक को मुंह में गुणगुनाने लगे| आप जी को दिव्यदृष्टि द्वारा जो श्री रामचन्द्र जी का जीवन चरित्र ज्ञात हुआ था, आप जी ने मन बनाया कि क्यों न उस श्लोक की धारणा में श्री रामचन्द्र जी का जीवन चरित्र लिख दिया जाए|

यह विचार बनाकर महर्षि वाल्मीकि जी सुन्दर ज्ञानवर्धक श्लोकों वाली 'रामायण' लिखने लगे| ऊंचे ख्यालों वाले शब्द, पिंगल तथा व्याकरण एवं नियम-उपनियम अपने आप उनके पास इकट्ठे होने लगे| फिर महर्षि वाल्मीकि जी जब अन्तर-ध्यान हुए तो श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण, सीता, दशरथ, कैकेयी, माता कौशल्या तथा हनुमान आदि मुख्य पात्रों के बारे सारे छोटे से छोटे हाल का भी सूक्ष्म ज्ञान हो गया| यहां तक कि श्री रामचन्द्र जी का हंसना, बोलना, मुस्कराना, तथा खेलना भी कानों में सुनाई देने लगा| आंखें उनके वास्तविक स्वरूप को देखने लगीं| सीता तथा श्री रामचन्द्र जी के जो संवाद वन में होते रहे महर्षि जी को उनका भी ज्ञान होता गया| जो भी घटनाएं घटित हुई थीं, वे याद आ गईं|

फिर महर्षि वाल्मीकि जी ने अपने शिष्यों के पास से बेअंत भोज पत्र मंगवाए तथा उनके ऊपर लिखना शुरू कर दिया जो बहुत मनोहर हैं तथा सम्पूर्ण रचना को सात कांडों सात सौ पैंतालीस सरगों तथा चौबीस हजार श्लोकों में विभक्त किया गया है|

जब महर्षि वाल्मीकि रामायण का मुख्य भाग लिख चुके थे तो सीता माता श्री रामचन्द्र की ओर से वनवास दिए जाने के कारण उनके आश्रम में आई| आप जी ने अपने सेवकों को सीता माता को पूरे आदर-सत्कार से रखने के लिए कहा| कुछ समय के बाद सीता माता के गर्भ से दो पुत्रों ने जन्म लिया| उन पुत्रों के नाम लव तथा कुश रखे गए| महर्षि ने उन बच्चों के पालन-पोषण का विशेष ध्यान रखा| अल्प आयु में ही उनकी शिक्षा शुरू कर दी| महर्षि वाल्मीकि स्वयं लव एवं कुश को पढ़ाते थे| बच्चों को संस्कृत विद्या के साथ-साथ संगीत तथा शस्त्र विद्या भी दी जाती थी| वाल्मीकि लव एवं कुश को रामायण भी पढ़ाने लगे|

वह दोनों बालक शीघ्र ही संस्कृत के विद्वान, संगीत के सम्राट बन गए| वे शस्त्र विद्या में भी काफी निपुण हो गए| महर्षि ने सोचा कि इन बालकों के द्वारा राम कथा को जगत में प्रचारित किया जाए| उन बालकों को वाल्मीकि ने राम कथा मौखिक याद करने के लिए कहा| बालकों लव कुश ने कुछ समय में ही चौबीस हजार श्लोक कंठस्थ कर लिए| वह अपने मीठे गले तथा सुरीली सुर में रामायण गाने लगे| उन्होंने दो सात सुरों वाली वीणाएं लीं तथा राम कथा का गुणगान करने लगे|

जब वह गायन कला में परिपूर्ण हो गए तो वाल्मीकि जी ने उनको आज्ञा दी की वह दूर-दूर जाकर उस उच्च तथा कल्याणकारी काव्य का प्रचार करें| दोनों राजकुमार जो श्रीराम चन्द्र जी के समान सुन्दर, विद्वान तथा बलशाली थे, ऋषियों, साधुओं तथा जनसमूह में जाकर रामकथा का गायन किया करते थे| उनके सुरीले गान ने काव्य को ओर ऊंचा कर दिया| जब वह गाते तो श्रोता बहुत प्रसन्न एवं वैरागमयी हो जाते| सब के नेत्रों में श्रद्धा, हमदर्दी तथा भक्ति के नीर बहने लग जाते| प्रत्येक नर-नारी उनकी उपमा करके बालकों लव कुश के पीछे-पीछे चल पड़ते| लव कुश केवल उस काव्य का गायन ही नहीं कर रहे थे बल्कि एक नया संदेश भी दे रहे थे| भूतकाल की घटनाएं वर्तमान काल की घटनाएं प्रतीत हो रही थीं| लव तथा कुश रामकथा का गायन करके वापिस महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम में आ जाया करते थे| वह अपनी माता सीता जी का बहुत सत्कार करते थे|

उन दिनों में ही श्री रामचन्द्र जी ने चक्रवर्ती राजा बनने के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का फैसला किया| उन्होंने यज्ञ के लिए एक घोड़ा छोड़ा तथा ऐलान किया कि जो इस घोड़े को पकड़ेगा, उसे लक्ष्मण के साथ युद्ध करना होगा| लक्ष्मण एक बड़ी सेना लेकर घोड़े के पीछे-पीछे जा रहा था| जब यह घोड़ा महर्षि वाल्मीकि के आश्रम के निकट पहुंचा तो लव कुश ने उस घोड़े को पकड़ लिया तथा अपने आश्रम आकर एक पेड़ के साथ बांध दिया| जब लक्ष्मण सेना लेकर निकट आया तो उसने बालकों को घोड़ा छोड़ने के लिए कहा| लेकिन लव कुश ने मना कर दिया ओर कहा, "हमें यह घोड़ा बहुत पसंद है, हम इसकी सवारी किया करेंगे, आप कोई अन्य घोड़ा छोड़ दीजिए|" लेकिन लक्ष्मण ने उनको समझाया कि 'यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है जो भी इस घोड़े को पकड़ेगा, उसे हमारे साथ युद्ध करना पड़ेगा|" पर बालक आगे से कहने लगे, "हम युद्ध करने को तैयार हैं लेकिन हम घोड़ा नहीं छोड़ेंगे|"

लक्ष्मण ने उनको युद्ध के लिए तैयार होने के लिए कहा| वह बालक भी महर्षि वाल्मीकि जी से युद्ध विद्या का ज्ञान प्राप्त कर चुके थे तथा जो योद्धा ब्रह्मज्ञानी वाल्मीकि से युद्ध विद्या ग्रहण कर चूका हो, वह भला कैसे हार सकता है| इसलिए दोनों बालक तीर कमान लेकर तथा कवच पहन कर घोड़ों पर सवार होकर मैदान में आ गए| लक्ष्मण की सेना के सामने डटकर उन्होंने निर्भीकता से कहा, "यदि आप में हिम्मत है तो हमारे ऊपर हमला करो|"

लक्ष्मण ने एक तीर छोड़ा जिसे लव ने अपने तीर से ही रोक लिया| फिर लव कुश ने तीरों की ऐसी वर्षा की कि लक्ष्मण की सेना वहीं पर ढेर हो गई| लक्ष्मण यह चमत्कार देखकर बड़ा हैरान हुआ, वह फिर बालकों को समझाने लगा| लेकिन लव कुश ने लक्ष्मण को वही मार दिया|

लक्ष्मण की हार के बारे में जब श्री राम चन्द्र जी को पता लगा तो उन्होंने शत्रुघ्न को एक बड़ी फौज देकर रणभूमि में भेजा| लेकिन शत्रुघ्न भी दोनों बालकों का मुकाबला न कर सका तथा पराजित हो गया| उसे भी महर्षि वाल्मीकि के शिष्यों ने धरती पर धूल चटा दी|

शत्रुघ्न की हार का समाचार सुनकर श्री रामचन्द्र जी ने भरत को भेजा| भरत ने पहले आकर लव कुश को बहुत समझाया लेकिन बालकों के ऊपर इसका कोई असर न हुआ| उन्होंने भरत की भी सारी सेना को मार डाला तथा भरत भी मूर्छित होकर गिर पड़ा|

फिर श्री रामचन्द्र भी स्वयं सेना लेकर आए| वह ऐसे शूरवीर बालकों को देख कर बहुत खुश हुए| उन्होंने बालकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा उनको घोड़ा छोड़ने के लिए कहा| पर बालकों ने उनकी बात की तरफ कोई ध्यान न दिया तथा युद्ध आरम्भ कर दिया| कुछ ही समय में श्री रामचन्द्र जी की सेना मार फेंकी|

अंत में उन्होंने श्री रामचन्द्र जी को भी घायल कर दिया| पूर्ण तौर पर विजय प्राप्त करके लव-कुश माता सीता को मिलने गए तथा कहा कि उन्होंने भारत के सर्वश्रेष्ठ राजा को पराजित कर दिया है तथा अब सारे देश के मालिक बन गए हैं| जब सीता माता ने यह बात सुनी तो उनको शक हुआ कि इस देश के राजा तो श्री रामचन्द्र जी हैं, इन्होने कहीं अपने पिता जी को ही न पराजित कर दिया हो| वह उसी समय रणभूमि पर उस रजा को देखने गई| जब उन्होंने श्री रामचन्द्र जी को घायल अवस्था में मूर्छित देखा तो ऊंची-ऊंची रोने लग पड़ी और कहा कि तुम दोनों ने मेरा सुहाग मुझ से छीन लिया है| यह बात सुनकर बालक बड़े हैरान हुए| फिर सीता माता ने परमात्मा के आगे प्रार्थना की कि यदि मैं पतिव्रता स्त्री हूं तो प्रभु मेरे सुहाग को जीवन दान दें| महर्षि वाल्मीकि जी को भी सारी बात का पता लग गया| उन्होंने श्री रामचन्द्र जी के मुंह पर पवित्र जल के छींटे मारे तो वह उठ कर बैठ गए| अपने पास दो शूरवीर बालकों, सीता तथा महर्षि वाल्मीकि जी को देख कर बहुत हैरान हुए| महर्षि जी ने फिर उनको सारी बात समझाई| श्री रामचन्द्र जी ने सीता माता का धन्यवाद किया तथा अपने दो शूरवीर पुत्रों को देख कर बहुत खुश हुए| फिर उन्होंने महर्षि वाल्मीकि जी को कहा कि अपनी कृपा दृष्टि से मेरे दूसरे भाईयों और सेना को भी जीवन दान की कृपा करें| सीता माता ने फिर प्रार्थना की तो रामचन्द्र जी के सारे भाई तथा सैनिक जीवित होकर उठ खड़े हुए| फिर श्री रामचन्द्र जी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में गए तथा सीता ओर बालकों को साथ ले जाने की इच्छा प्रगट की| वाल्मीकि जी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ ले जाने की इच्छा प्रगट की| वाल्मीकि जी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ सीता माता तथा बालकों को उनके साथ जाने की आज्ञा दे दी| दोनों बालक ओर सीता माता अयोध्या पहुंच गए| जब सारे नगर वासियों को पता लगा तो उन्होंने बहुत खुशियां मनाईं| शूरवीर बालकों को देखने के लिए सारा नगर उमड़ आया|

लव और कुश जिन को राम कथा सम्पूर्ण मौखिक याद थी उन्होंने सारी कथा सुरीली मधुरवाणी में नगर वासियों को सुनाई| श्री रामचन्द्र जी अपनी सारी जीवन कथा सुन कर धन्य हो गए| उन्होंने महर्षि वाल्मीकि कृत इस अमर कथा को सुन कर कहा, "जब तक यह दुनिया रहेगी महर्षि वाल्मीकि जी की यह कथा चलती रहेगी, धन्य हैं महर्षि वाल्मीकि जी, उनकी सदा ही जै होगी|"

वाल्मीकि जी ने बाद में उत्तराकांड लिखा| इस तरह वाल्मीकि जी एक उच्चकोटि के विद्वान तथा शस्त्रधारी शूरवीर थे| उनमें एक अवतार वाले सारे गुण विद्यमान थे| आज अगर संसार श्री रामचन्द्र जी को कहानी को जानता है तो वह केवल महर्षि वाल्मीकि जी की मेहनत के फलस्वरूप| उन्होंने अपने जीवन के कई साल उनकी जीवन गाथा को ब्यान करने में लगा दिए|


Wednesday, November 20, 2013

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 51



ॐ सांई राम













आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से श्री साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री  साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...





श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 51 - उपसंहार ------------------------------------



अध्याय – 51 पूर्ण हो चुका है और अब अन्तिम अध्याय (मूल ग्रन्थ का 52 वां अध्याय) लिखा जा रहा है और उसी प्रकार सूची लिखने का वचन दिया है, जिस प्रकार की अन्य मराठी धार्मिक काव्यग्रन्थों में विषय की सूची अन्त में लिखी जाती है । अभाग्यवश हेमाडपंत के कागजपत्रों की छानबीन करने पर भी वह सूची प्राप्त न हो सकी । तब बाब के एक योग्य तथा धार्मि भक्त ठाणे के अवकाशप्राप्त मामलतदार श्री. बी. व्ही. देव ने उसे रचकर प्रस्तुत किया । पुस्तक के प्रारम्भ में ही विषयसूची देने तथा प्रत्येक अध्याय में विषय का संकेत शीर्षक स्वरुप लिखना ही आधुनिक प्रथा है, इसलिये यहाँ अनुक्रमाणिका नहीं दी जा रही है । अतः इस अध्याय को उपसंहार समझना ही उपयुक्त होगा । अभाग्यवश हेमा़डपंत उस समय तक जीवित न रहे कि वे अपने लिखे हुए इस अध्याय की प्रति में संशोधन करके उसे छपने योग्य बनाते ।








श्री सदगुरु साई की महानता
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हे साई, मैं आपकी चरण वन्दना कर आपसे शरण की याचना करता हूँ, क्योकि आप ही इस अखिल विश्व के एकमात्र आधार है । यदि ऐसी ही धारणा लेकर हम उनका भजन-पूजन करें तो यह निश्चित है कि हमारी समस्त इच्छाएं शीघ्र ही पूर्ण होंगी और हमें अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी । आज निन्दित विचारों के तट पर माया-मोह के झंझावात से धैर्य रुपी वृक्ष की जड़ें उखड़ गई है । अहंकार रुपी वायु की प्रबलता से हृदय रुपी समुद्र में तूफान उठ खड़ा हुआ है, जिसमें क्रोध और घृणा रुपी घड़ियाल तैरते है और अहंभाव एवं सन्देह रुपी नाना संकल्प-विकल्पों की संतत भँवरों में निन्दा, घृणा और ईर्ष्या रुपी अगणित मछलियाँ विहार कर रही है । यघपि यह समुद्र इतना भयानक है तो भी हमारे सदगुरु साई महाराज उसमें अगस्त्य स्वरुप ही है । इसलिये भक्तों को किंचितमात्र भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । हमारे सदगुरु तो जहाज है और वे हमें कुशलतापूर्वक इस भयानक भव-समुद्र से पार उतार देंगे ।



प्रार्थना
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श्री सच्चिदानंद साई महाराज को साष्टांग नमस्कार करके उनके चरण पकड़ कर हम सब भक्तों के कल्याणार्थ उनसे प्रार्थना करते है कि हे साई । हमारे मन की चंचलता और वासनाओं को दूर करो । हे प्रभु । तुम्हारे श्रीचरणों के अतिरिक्त हममें किसी अन्य वस्तु की लालसा न रहे । तुम्हारा यह चरित्र घर-घर पहुँचे और इसका नित्य पठन-पाठन हो और जो भक्त इसका प्रेमपूर्वक अध्ययन करें, उनके समस्त संकट दूर हो ।







फलश्रुति (अध्ययन का पुरस्कार)
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अब इस पुस्तक के अध्ययन से प्राप्त होने वाले फल के सम्बन्ध में कुछ शब्द लिखूँगा । इस ग्रन्थ के पठन-पठन से मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी । पवित्र गोदावरी नदी में स्नान कर, शिरडी के समाधि मन्दिर में श्री साईबाबा की समाधि के दर्शन कर लेने के पश्चात इस ग्रन्थ का पठन-पाठन या श्रवण प्रारम्भ करोगे तो तुम्हारी तिगुनी आपत्तियाँ भी दूर हो जायेंगी । समय-समय पर श्री साईबाबा की कथा-वार्ता करते रहने से तुम्हें आध्यात्मिक जगत् के प्रति अज्ञात रुप से अभिरुचि हो जायेगी और यदि तुम इस प्रकार नियम तथा प्रेमपूर्वक अभ्यास करते रहे तो तुम्हारे समस्त पाप अवश्य नष्ट हो जायेंगें । यदि सचमुच ही तुम आवागमन से मुक्ति चाहते हो तो तुम्हें साई कथाओं का नित्य पठन-पाठन, स्मरण और उनके चरणों में प्रगाढ़ प्रीति रखनी चाहिये । साई कथारुपी समुद्र का मंथन कर ुसमें से प्राप्त रत्नों का दूसरों को वितरण करो, जिससे तुम्हें नित्य नूतन आनन्द का अनुभव होगा और श्रोतागण अधःपतन से बच जायेंगे । यदि भक्तगण अनन्य भाव से उनकी शरण आयें तो उनका ममत्व नष्ट होकर बाबा से अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी, जैसे कि नदी समुद्र में मिल जाती है । यदि तुम तीन अवस्थाओं (अर्थात्- जागृति, स्वप्न और निद्रा) में से किसी एक में भी साई-चिन्तन में लीन हो जाओ तो तुम्हारा सांसारिक चक्र से छुटकारा हो जायेगा । स्नान कर प्रेम और श्रद्घयुक्त होकर जो इस ग्रन्थ का एक सप्ताह में पठन समाप्त करेंगे, उनके सारे कष्ट दूर हो जायेंगे या जो इसका नित्य पठन या श्रवण करेंगे, उन्हें सब भयों से तुरन्त छुटकारा मिल जायेगा । इसके अध्ययन से हर एक को अपनी श्रद्घा और भक्ति के अनुसार फल मिलेगा । परन्तु इन दोनों के अभाव में किसी भी फल की प्राप्ति होना संभव नहीं है । यदि तुम इस ग्रन्थ का आदरपूर्वक पठन करोगे तो श्री साई प्रसन्न होकर तुम्हें अज्ञान और दरिद्रता के पाश से मुक्त कर, ज्ञान, धन और समृद्घि प्रदान करेंगे । यदि एकाग्रचित होकर नित्य एक अध्याय ही पढ़ोगे तो तुम्हें अपरिमित सुख की प्राप्ति होगी । इस ग्रन्थ को अपने घर पर गुरु-पूर्णिमा, गोकुल अष्टमी, रामनवमी, विजयादशमी और दीपावली के दिन अवश्य पढ़ना चाहिये । यदि ध्यानपूर्वक तुम केवल इसी ग्रन्थ का अध्ययन करते रहोगे तो तुम्हें सुख और सन्तोष प्राप्त होगा और सदैव श्री साई चरणारविंदो का स्मरण बना रहेगा और इस प्रकार तुम भवसागर से सहज ही पार हो जाओगे । इसके अध्ययन से रोगियों को स्वास्थ्य, निर्धनों को धन, दुःखित और पीड़ितों को सम्पन्नता मिलेगी तथा मन के समस्त विकार दूर होकर मानसिक शान्ति प्राप्त होगी ।

मेरे प्रिय भक्त और श्रोतागण । आपको प्रणाम करते हुए मेरा आपसे एक विशेष निवेदन है कि जिनकी कथा आपने इतने दिनों और महीनों से सुनी है, उनके कलिमलहारी और मनोहर चरणों को कभी विस्मृत न होने दें । जिस उत्साह, श्रद्गा और लगन के साथ आप इन कथाओं का पठन या श्रवण करेंगे, श्री साईबाबा वैसे ही सेवा करने की बुद्घि हमें प्रदान करेंगे । लेखक और पाठक इस कार्य में परस्पर सहयोग देकर सुखी होवें ।



प्रसाद - याचना
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अन्त में हम इ
स पुस्तक को समाप्त करते हुए सर्वशक्तिमान परमात्मा से निम्नलिखित कृपा या प्रसादयाचना करते है –



हे ईश्वर । पाठकों और भक्तों को श्री साई-चरणों में पूर्ण और अनन्य भक्ति दो । श्री साई का मनोहर स्वरुप ही उनकी आँखों में सदा बसा रहे और वे समस्त प्राणियों में देवाधिदेव साई भगवान् का ही दर्शन करें । एवमस्तु ।




।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।





।। ऊँ श्री साई यशःकाय शिरडीवासिने नमः ।।



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से हार्दिक धन्यवाद, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी के श्री चरणों में अनुग्रह करते है की वह हमें इसे पुन: आरम्भ (दिनांक 28 नवम्बर 2013 से ) करने हेतु आज्ञा प्रदान करें एवं हम अपने सभी पाठको से इस बात की भी क्षमा चाहते है की यदि अनजाने में हम से कोई भूल हो गयी हो तो बाबा श्री साईं जी हमें क्षमा प्रदान करने की कृपा करें, हम आपका इस सहयोग के लिए हृदय से आभार व्यक्त करते है एवं आपको आश्वासन देते है की अगले साईं-वार से श्री साईं सचरित्र का पुन: प्रसारण किया जायेगा, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर सभी को सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है... एवं सभी पाठको का एक बार फिर से आभार व्यक्त करते है ...!!






ॐ सांई राम जी  



Tuesday, November 19, 2013

भक्त अंगरा जी




ॐ साँई राम जी








भक्त अंगरा जी 






गुरु ग्रंथ साहिब में एक तुक आती है:


'दुरबा परूरउ अंगरै गुर नानक जसु गाईओ ||'

जिसने ईश्वर कर नाम सिमरन किया है, यदि कोई पुण्य किया है, वह प्रभु भक्त बना ओर ऐसे भक्तों ने सतिगुरु नानक देव जी का यश गान किया है| अंगरा वेद काल के समय भक्त हुआ है| इसने सिमरन करके अथर्ववेद को प्रगट किया| कलयुग ओर अन्य युगों के लिए अंगरा भक्त ने ज्ञान का भंडार दुनिया के आगे प्रस्तुत किया| इस भक्त का सभी यश करते हैं| इस भक्त विद्वान के पिता का नाम उरु तथा माता का नाम आग्नेय था|

भक्त अंगरा एक राज्य का राजा था| इसके मन में इस बात ने घर कर लिया कि सभी प्रभु के जीव हैं ओर यदि किसी जीव को दुःख मिला तो इसके लिए राजा ही जिम्मेवार होगा| राजा को अपनी प्रजा का सदैव ध्यान रखना चाहिए| इन विचारों के कारण अंगरा बच-बच कर सावधानी से राज करता रहा| राज करते हुए उसे कुछ साल बीत गए|

एक दिन नारद मुनि जी घूमते हुए अंगरा की राजधानी में आए| राजा ने नारद मुनि का अपने राजभवन में बड़ा आदर-सत्कार किया| राजा अंगरा ने विनती की कि मुनिवर! राजभवन छोड़कर वन में जाकर तपस्या क्यों न की जाए? राज की जिम्मेदारी में अनेक बातें ऐसी होती हैं कि कुछ भी अनिष्ट होने से राजा उनके फल का भागीदार होता है| उसने कहा कि मैं ताप करके देव लोक का यश करने का इच्छुक हूं|

राजा अंगरा के मन की बात सुनकर नारद मुनि ने उपदेश किया - राजन! आपके ये वचन ठीक हैं| आपका मन राज करने से खुश नहीं है| मन समाधि-ध्यान लगाता है| मनुष्य का मन जैसा चाहे वही करना चाहिए| मन के विपरीत जाकर किए कार्य उत्तम नहीं होते| यह दुःख का कारण बन जाते हैं| जाएं! ईश्वर की भक्ति करें|

देवर्षि नारद के उपदेश को सुनकर अंगरा का मन ओर भी उदास हो गया| उसने राज-पाठ त्याग कर अपने भाई को राज सिंघासन पर बैठा दिया तथा प्रजा की आज्ञा लेकर वह वनों में चला गया| अंगरा ने वन में जाकर कठोर तपस्या की| भक्ति करने से ऐसा ज्ञान हुआ कि उसके मन में संस्कृत की कविता रचने की उमंग जागी| उसने वेद पर स्मृति की रचना की| 17वीं स्मृति आपकी रची गई है|

अन्त काल आया| कहते हैं कि जब प्राण त्यागे तो ईश्वर ने देवताओं को आपके स्वागत के लिए भेजा| आप भक्ति वाले वरिष्ठ भक्त हुए| जिनका नाम आज भी सम्मानपूर्वक लिया जाता है| परमात्मा की भक्ति करने वाले सदा अमर हैं|
बोलो! सतिनाम श्री वाहिगुरू|


Monday, November 18, 2013

भक्त अम्ब्रीक जी



ॐ साँई राम जी










भक्त अम्ब्रीक जी





अंबरीक मुहि वरत है राति पई दुरबासा आइआ|


भीड़ा ओस उपारना उह उठ नहावण नदी सिधाइआ|


चरणोदक लै पोखिआ ओह सराप देण नो धाइआ|


चक्र सुदरशन काल रूप होई भिहांवल गरब गवाइआ|


ब्राहमण भंना जीउ लै रख न हंघन देव सबाइआ|


इन्द्र लोक शिव लोक तज ब्रहम लोक बैकुंठ तजाइआ|


देवतिआं भगवान सण सिख देई सभना समझाइआ|


आई पइआ सरणागती मरीदा अंबरीक छुडाइआ|


भगत वछलु जग बिरद सदाइआ|४|




हे भगत जनो! भाई गुरदास जी के कथन अनुसार अम्ब्रीक भी एक महान भक्त हुआ है| इनकी महिमा भी भक्तों में बेअंत है| आप को दुरबाशा ऋषि श्राप देने लगे थे लेकिन स्वयं ही दुरबाशा ऋषि राजा अम्ब्रीक के चरणों में गिर गए| ऐसा था वह भक्त|

भक्त अम्ब्रीक पहले दक्षिण भारत का राजा था और वासुदेव अथवा श्री कृष्ण भक्त था| यह माया में उदासी भक्त था| इनके पिता का नाम भाग था| वह भी राजा था| जब यह युवा हुआ तो राजसिंघासन पर आसीन हुआ| राजा साधू-संतों की अत्यंत सेवा किया करता था और आए गए जरूरत मंदों की सहायता करता था|

राजा अम्ब्रीक में बहुत सारे गुण विद्यमान थे| वह अपनी सारी इन्द्रियों को वश में रखता था| वह प्रत्येक व्यक्ति को एक आंख से ही देखता और हर निर्धन, धनी, सन्त और भिक्षुक का ध्यान रखता| बुद्धि से सोच-विचार कर जरूरत मंदों की सेवा करता जितनी उनको आवश्यकता होती| वह भंडारा करके अपने हाथों से प्रसाद श्रद्धालुओं में बांटता| वह प्रतिदिन राम का सिमरन करता तथा नंगे पांव चलकर तीर्थ यात्रा के लिए जाता और कानों से सत्संग का उपदेश सुनता|

राजा अम्ब्रीक ऐसा त्यागी हो गया कि वह राज भवन, कोष, रानियां, घोड़े-हाथी किसी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं समझता था| वह सब वस्तुएं प्रजा एवं परमात्मा की मानता था| एकादशी के व्रत रखता एवं पाठ-पूजा में सदा मग्न रहता| इस तरह राजा अम्ब्रीक को जीवन व्यतीत करते हुए कई वर्ष बीत गए|

एक वर्ष श्री कृष्ण जी की भक्ति की प्रेम मस्ती तथा श्रद्धा भावना में लीन होकर उसने प्रतिज्ञा की कि वह हर वर्ष एकादशियां रखेगा| तीन दिन निर्जला व्रत और मथुरा-वृंदावन में जाकर यज्ञ करके दान पुण्य भी देगा| उसने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली| अम्ब्रीक एक आशावादी राजा था| उसने भरोसे में सभी बातें पूरी कर लीं और मंत्रियों सहित मथुरा-वृंदावन में पहुंच गया| मथुरा और वृंदावन में उसने यमुना स्नान करके यज्ञ लगाया| ब्राह्मणों को उपहार एवं दान दिया| वस्त्र तथा अन्न के अलावा सोने के सींगों वाली गऊएं भेंट में दान कीं| कई स्थानों पर पुराणों में लिखा है कि राजा अम्ब्रीक ने करोड़ों गाएं दान कीं| अर्थात् ढ़ेर सारा दान पुण्य किया|

ऐसा समय आ गया कि ब्राहमण छत्तीस प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खा कर तथा दान-दक्षिणा लेकर कृतार्थ होकर घर को विदा हो गए तो राजा को आज्ञा मिली कि वह अपना व्रत खोल ले| जब राजा ने अपना व्रत खोला तो वह खुशी-खुशी इच्छा पूर्ण होने पर स्वयं ही राजभवन को चल पड़ा|

राजा राज भवन में अभी पहुंचा भी नहीं था कि उसे मार्ग में दुरबाशा ऋषि आ मिले| राजा ने उन्हें झुककर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की|

'हे शिरोमणि मुनिवर! क्या आप राजभवन में भोजन करेंगे| यज्ञ का भोजन लेकर तृप्त होकर निर्धन राजा अम्ब्रीक को कृतार्थ करें|'

'जैसी राजन की इच्छा! भोजन का निमंत्रण स्वीकार करता हूं लेकिन यमुना में स्नान करने के बाद|'

ऋषि दुरबाशा ने उत्तर दिया|

यह कहकर ऋषि चल पड़ा| उसने मन में अनित्य धारण किया था| वह दरअसल राजा अम्ब्रीक को मोह-माया के जाल में फंसाने हेतु आया था| वैसे भी दुरबाशा ऋषि मन का क्रोधी एवं छोटी-छोटी बातों पर श्राप दे दिया करता था| इसके श्राप देने से कितनों को ही नुक्सान पहुंचा, वह बड़े प्रसिद्ध थे|

निमंत्रण देकर प्रसन्नचित राजा अम्ब्रीक अपने राजमहल में चला आया और ऋषि दुरबाशा का इंतजार करने लग गया| द्वाद्वशी का समय भी बीतने के निकट था लेकिन ऋषि दुरबाशा न आया| पंडितों ने आग्रह किया कि राजन! आप व्रत खोल ले लेकिन अम्ब्रीक यही उत्तर देता रहा-'नहीं'! एक अतिथि के भूखे रहने से पहले मेरा व्रत खोलना ठीक नहीं|

ऋषि दुरबाशा पूजा-पाठ में लीन हो गया| वह जान-बूझकर ही देर तक न पहुंचा| जब ऋषि न आया तो ब्राह्मणों ने चरणामृत पीला कर व्रत खुलवा दिया और कहा कि चरणामृत अन्न नहीं|

ऋषि दुरबाशा समय पाकर राजा अम्ब्रीक के राज भवन में उपस्थित हुआ| उसने योग विद्या से अनुभव कर लिया कि राजा अम्ब्रीक ने व्रत खोल लिया है| उसे गुस्से करने का बहाना मिला गया| ऋषि दुरबाशा ने अम्ब्रीक को अपशब्द बोलने शुरू कर दिए| उसने कहा कि एक अतिथि को भोजन पान करवाए बिना आपने व्रत खोल कर शास्त्र मर्यादा का उल्लंघन किया है| आपको क्षमा नहीं किया जाएगा|

ऋषि दुरबाशा ने आग बबूला होकर कहा-चण्डाल! अधर्मी! मैं तुम्हें श्राप देकर भस्म कर दूंगा| महांमुनि क्रोध में आकर बुरा-भला कहता गया|

राजा अम्ब्रीक उनकी चुपचाप सुनता रहा| उसने उनकी किसी बात का बुरा नहीं मनाया और खामोश खड़ा रहा| राजा का हौंसला देखकर ऋषि का मन डोल गया लेकिन क्रोध वश होकर उसने कोई बात न की| जब दुरबाशा ऋषि अपशब्द कहकर शांत हुए तो राजा अम्ब्रीक ने हाथ जोड़कर विनती की-हे महामुनि जी! जैसे पूजनीय ब्राह्मणों ने आज्ञा की, वैसे ही मैंने व्रत खोला| आपकी हम राह देखते रहे| उधर से तिथि बीत रही थी| अगर भूल गई है तो भक्त को क्षमा करें| जीव भूल कर बैठता है| आप तो महा कृपालु धैर्यवान मुनि हैं| दया करें! कृपा करें! कुछ जीवन को रोशनी प्रदान करें| मैं श्राप लेने जीवन में नहीं आया| जीव कल्याण की इच्छा पूर्ण करने के लिए पूजा की है|

लेकिन इन बातों से ऋषि दुरबाशा का क्रोध शांत न हुआ| वह और तेज हो गया जैसे वह धर्मी राजा को तबाह करने के इरादा से ही आया हो| उसने अपने क्रोध को और चमकाया तथा क्रोध में आकर दुरबाशा ने अपने बालों की एक लट उखाड़ी| उस लट को जोर से हाथों में मलकर योग बल द्वारा एक भयानक चुड़ैल पैदा की और उसके हाथ में एक तलवार थमा दी जो बिजली की तरह चमक रही थी|

उस चुड़ैल को देखकर ब्राह्मण, माननीय लोग और राजभवन के सारे व्यक्ति डर गए| अधिकतर ने अपनी आंखें बंद कर लीं लेकिन धर्मनिष्ठ और भक्ति भाव वाला राजा अम्ब्रीक न डगमगाया और न ही डरा, वह शांत ही खड़ा रहा|

जैसे ही चुड़ैल धर्मनिष्ठ राजा अम्ब्रीक पर हमला करने लगी तो राजा के द्वार के आगे जो भगवान का सुदर्शन चक्र था, वह घूमने लगा| उसने पहले चुड़ैल का बाजू काट दिया और उसके बाद उसका सिर काट कर उसका वध कर दिया| वह चक्र फिर दुरभाशा ऋषि की तरफ हो गया| आगे-आगे दुरभाशा ऋषि तथा पीछे-पीछे सुदर्शन चक्र, दोनों देव लोक में जा पहुंचे लेकिन फिर भी शांति न आई| देवराज इन्द्र भी ऋषि की रक्षा न कर सका|

दुरबाशा बहुत अहंकारी ऋषि था| वह सदा साधू-संतों, भक्त जनों और अबला देवियों को क्रोध में आकर श्राप देता रहता था| उसने शकुंतला जैसी देवी को भी श्राप देकर अत्यंत दुखी किया था| इसलिए ईश्वर ने उसके अहंकार को तोड़ने के लिए ऐसी लीला रची|

भयभीत दुरबाशा ऋषि को देवताओं ने समझाया कि राजा अम्ब्रीक के अलावा आपका किसी ने कल्याण नहीं करना और आप मारे जाएंगे| परमात्मा उसके अहंकार को शांत करने के लिए ही यह यत्न कर रहा था| उसने तप किया, पर तप करने से वह अहंकारी हो गया|

दुरबाशा परलोक और देवलोक से फिर दौड़ पड़ा| वह पुन: राजा अम्ब्रीक की नगरी में आया और अम्ब्रीक के पांव पकड़ लिए| उसने मिन्नतें की कि हे भगवान रूप राजा अम्ब्रीक! मुझे बचाएं! मैं आगे से किसी साधू-संत को परेशान नहीं करुंगा| दया करें! मेरी भूल माफ करें!

जब दुरबाशा ऋषि ने ऐसी मिन्नतें की तो राजा अम्ब्रीक को उस पर दया आ गई| उसने दुरबाशा की दयनीय दशा देखी तो वह आंसू बह रहा था| राजा को उसकी दशा पर तरस आ गया| राजा अम्ब्रीक ने हाथ जोड़कर ईश्वर का सिमरन किया| प्रभु! दया करें, प्रत्येक प्राणी भूल करता रहता है| उसकी भूलों को माफ करना आपका ही धर्म है| हे दाता! आप कृपा करें! मेहर करें! राजा अम्ब्रीक ने ऐसी विनती करके जब सुदर्शन चक्र की तरफ संकेत किया तो वह अपने स्थान पर स्थिर हो गया| दुरबाशा के प्राणों में प्राण आए| सात सागरों का जल पीने वाला दुरबाशा ऋषि धैर्यवान राजा अम्ब्रीक से पराजित हो गया| उससे क्षमा मांगकर वह अपने राह चल दिया| इस प्रकार राजा अम्ब्रीक जो बड़ा प्रतापी था, संसार में यश कमा कर गया तथा भवजल से पार होकर प्रभु चरणों में लिवलीन होकर उनका स्वरूप हो गया| कोई भेदभाव नहीं रहा| भाई गुरदास जी के वचनों के अनुसार भक्त के ऊपर परमात्मा ने कृपा की जिससे भक्त अम्ब्रीक ने संसार से मोक्ष प्राप्त किया|




Sunday, November 17, 2013

गौतम मुनि और अहल्या की साखी



ॐ साँई राम जी









गौतम मुनि और अहल्या की साखी




प्राचीन काल से भारत में अनेक प्रकार के प्रभु भक्ति के साथ रहे हैं| उस पारब्रह्म शक्ति की आराधना करने वाले कोई न कोई साधन अख्तयार कर लेते थे जैसा कि उसका 'गुरु' शिक्षा देने वाला परमात्मा एवं सत्य मार्ग का उपदेश करता था भाव-प्रभु का यश गान करता था| ऐसे ही भक्तों में एक गौतम ऋषि जी हुए हैं| गुरुबाणी में विद्यमान है| 'गौतम रिखि जसु गाइओ ||' जिसका भावार्थ है कि गौतम ऋषि ने जिस तरह प्रभु का सिमरन एवं गुणगान किया था, वह प्रभु का प्यारा भक्त हुआ| पुराणों में जिसकी एक कथा का वर्णन है, जो महापुरुषों और जिज्ञासुओं को इस प्रकार सुनाई जाती है|

गौतम ऋषि सालगराम शिवलिंग के पुजारी थे| उन्होंने कई वर्ष परमात्मा की कठिन तपस्या की| भोले भंडारी शिव जी महाराज ने इन पर कृपालु होकर वर दिया-हे गौतम! जो मांगोगे वही मिलेगा| तेरी हर इच्छा पूर्ण होगी| हम तुम पर अति प्रसन्न हैं|

यह वर लेकर गौतम ऋषि बड़े प्रसन्न हुए और दिन-रात प्रभु के सिमरन में व्यतीत करने लगे| संयोग से गौतम ऋषि को एक दिन पता चला कि मुदगल की कन्या जिसका नाम अहल्या था, उसके विवाह हेतो स्वयंवर रचा जा रहा है| अहल्या इतनी सुन्दर थी कि हरेक उससे शादी करने का इच्छावान था| इन्द्र जैसे स्वर्ग के राजा महान शक्तियों वाले देवते भी तैयार थे| देवताओं और ऋषियों की इच्छा, उनके क्रोध को देखकर मुदगल ने ब्रह्मा जी से विनती की - हे प्रभु! मेरी कन्या के शुभ कार्य के बदले युद्ध होना ठीक नहीं| आप हस्तक्षेप करके देवताओं को समझाएं| वह युद्ध न करें तथा कोई और उपाय सोचकर कृपा करें|

ब्रह्मा जी ने विनती स्वीकार कर ली| वह स्वयं ही सालस बन बैठे और उन्होंने सारे देवताओं व ऋषियों-मुनियों, जो विवाह करवाने के चाहवान थे, को इकट्ठा करके कहा-देखो! मुदगल की पुत्री सुन्दर है लेकिन उसको वर एक चाहिए| आप सब चाहवान हैं| यह भूल है| यदि स्वयंवर मर्यादा पर चलना है तो आप में से जो चौबीस मिनटों में धरती का चक्कर लगाकर प्रथम आए, उससे अहल्या का विवाह कर दिया जाएगा|

ब्रह्मा जी से ऐसी शर्त सुनकर सारे देवता पहले तो बड़े हैरान हुए लेकिन फिर सबने अपने-अपने तपोबल पर मां करके यह शर्त परवान कर ली| देवराज इन्द्र तथा ब्रह्मा जी के पुत्रों सनक, सनन्दन, सनातन और सनत को बड़ा अभिमान था| उन्होंने मन ही मन में सोचा की वह बाजी जीत जाएंगे| त्रिलोकी की परिक्रमा करनी उनके लिए कठिन नहीं|

मुदगल की पुत्री अहल्या की सुन्दरता और शोभा सुनकर गौतम ने उससे विवाह रचाने की इच्छा रखी और अपने सालगराम से प्रार्थना की| सालगराम ने गौतम ऋषि को दर्शन दिए और कहा-हे गौतम! यदि आपकी ऐसी इच्छा है तो वह अवश्य पूर्ण होगी| आप मेरी परिक्रमा कर लें, बस त्रिलोकी की परिक्रमा हो जाएगी| आप सबसे पहले ब्रह्मा जी को दिखाई देंगे|

विवाह के लिए शर्त की दौड़ शुरू हो गई| ऋषि गौतम ने सालगराम की परिक्रमा कर ली| उधर देवराज इन्द्र तथा अन्य देवता जब परिक्रमा करने लगे तो वह बहुत तेज चले| हवा से भी अधिक रफ्तार पर दौड़ते गए लेकिन जिस पड़ाव पर जाते, वहां गौतम ऋषि होते| वे बड़े हैरान हुए तथा गुस्से में आकर मारने के लिए भागे मगर वह तो माया रूपी हो चुके थे| इसलिए कोई ताकत उनको नष्ट नहीं कर सकती थी|

भगवान सालगराम की महान शक्ति से गौतम ब्रह्मा जी के पास पहले आ गए| ब्रह्मा जी अत्यंत प्रसन्न हुए| फिर ब्रह्मा जी ने अहल्या तथा गौतम को परिणय सूत्र में बांधने का फैसला किया| यह सुनकर देवता बड़े निराश और नाराज हुए, उन्होंने बड़ी ईर्ष्या की| जबरदस्ती छीनने का प्रयास किया, पर ब्रह्मा जी की शक्ति के आगे उनकी एक न चली| वह वापिस अपने-अपने स्थानों पर चले गए| गौतम अहल्या को लेकर अपने आश्रम में आ गया| गौतम का आश्रम गंगा के किनारे था| वह तपस्या करने लगा, उसकी महिमा दूर-दूर तक फैल गई|

इन्द्र देवता नाराज हो गए, देश में अकाल पड़ गया, सारी धरती दहक उठी| साधू, संत, ब्राह्मण तथा अन्य सब लोग बहुत दुखी हुए| उनके दुःख को देख कर गौतम ऋषि का दिल भी बड़ा दुखी हुआ| उसने सालगराम की पूजा की और प्रार्थना की कि हे भगवान! मुझे शक्ति दीजिए ताकि मैं भूखे लोगों को भोजन खिलाकर उनकी भूख को मिटा सकूं| भगवान ने गौतम की प्रार्थना स्वीकार कर ली और गौतम ने लंगर लगा दिया, भगवान की ऐसी कृपा हुई कि किसी चीज़ की कोई कमी न रही| हर किसी ने पेट भर कर और अपने मनपसंद का खाना खाया| गौतम का यश तीनों लोकों में फैल गया| उसके यश को देखकर इन्द्र और भी तड़प उठा, वह पहले ही अहल्या को लेकर क्रोधित था| इन्द्र ने माया शक्ति से काम लेना चाहा| इस माया शक्ति से उसने एक गाय बनाई, गाय की रचना इस प्रकार की कि जब गौतम उसे हाथ लगाएगा तो वह मर जाएगी|

वह गाय गौतम के आश्रम में पहुंची| गौतम आश्रम से बाहर निकला तो गाय को काटने के लिए उसने जब हाथ लगाया तो वह धरती पर गिर कर मर गई|

इन्द्र की चाल के अनुसार ब्राह्मणों ने शोर मचा दिया कि ऋषि गौतम के हाथ से गाय की हत्या हो गई, उसको अब प्रायश्चित करना चाहिए| पर सालगराम भगवान की कृपा से गौतम ऋषि को पता चल गया कि यह इन्द्र का माया जाल था| गौतम ने उन सब झूठे ब्राह्मणों को श्राप दिया और कहा-"जाओ! तुम्हारी भूख कभी नहीं मिट सकती, यह भूख जन्म-जन्म ऐसे ही रहेगी|" यह श्राप लेकर ब्राह्मण बहुत दुखी हुए और गौतम ने भोजन बंद कर दिया|

इस प्रकार दिन-प्रतिदिन गौतम का यश बढ़ता गया और वह अहल्या के साथ जीवन व्यतीत करता रहा| उसके घर एक कन्या ने जन्म लिया| वह कन्या भी बहुत रूपवती थी| वह आश्रम में खेल कूद कर पलने बढ़ने लगी|

इन्द्र ने अपना हठ न छोड़ा| वह अहल्या के पीछे लगा रहा| वह प्रेम लीला करने के लिए व्याकुल था| वासना की ज्वाला उसे दुखी करती थी| उसकी व्याकुलता बाबत भाई गुरदास जी ने वचन किया है :-


गोतम नारि अहलिआ तिस नो देखि इंद्र लोभाणा |


पर घर जाइ सराप लै होई सहस भग पछोताणा |


सुंञा होआ इन्द्र लोक लुकिआ सरवर मन शरमाणा |


सहस भगहु लोइण सहस लैदोई इन्द्र पुरी सिधाणा |


सती सतहुं टलि सिला होइ नदी किनारे बाझ पराणा |


रघुपति चरन छुहंदिआं चली स्वर्ग पुर सणे बिबाणा |


भगत वछ्ल भलीआई अहुं पतित उधारण पाप कमाणा |


गुण नो गुण सभको करै अउगुण कीते गुण तिस जाणा |


अवगति गति किआ आखि वखाणा |१८|






भाई गुरदास जी अहल्या की कथा बताते हुए कहते हैं कि अहल्या का सौंदर्य देख कर इन्द्र लोभ में आ गया था| उसे कोई बुद्धिमानों ने समझाया-हे इन्द्र! पराई-नारी का भोग मनुष्य को नरक का भागी बनाता है| इस तरह का विचार कभी भी अपने मन में नहीं लाना चाहिए| आपकी पहले ही अनेक रानियां हैं| सारी इन्द्रपुरी नारि सुन्दरता से भरी पड़ी है, उन्हें धोखा नहीं देना चाहिए| पतिव्रता नारी एक महान शक्ति है|

पर जब इन्द्र ने हठ न छोड़ा तो उसके एक धूर्त सलाहकार ने कहा कि 'गौतम जिस समय गंगा स्नान करने जाता है, तब पूजा - पाठ का समय होता है| उस समय भोग-विलास नहीं किया जाता, प्रभु का गुणगान किया जाता है| अच्छा यह है कि आप माया शक्ति से मुर्गे और चन्द्रमा से सहायता लें|

'वह क्या सहायता करेंगे?' इन्द्र ने पूछा| मुझे इसके बारे में जरा विस्तार से बताओ|

इन्द्र की बात सुनकर उसके सलाहकार ने कहा-'मुर्गे की बांग से गौतम सुबह उठता है और चन्द्रमा निकलने पर वह गंगा स्नान करने जाता है| अगर मुर्गा पहले बांग दे दे और चन्द्रमा पहले निकल जाए तो वह गंगा स्नान करने चला जाएगा और इस प्रकार आपको एक सुनहरी अवसर मिल जाएगा|'

'यह तो बहुत अच्छी चाल है|' इन्द्र ने कहा| इन्द्र खुशी से बोला - मैं अभी मुर्गे और चन्द्रमा से सहायता मांगता हूं, उनसे अभी बात करता हूं| वह अवश्य ही मेरी सहायता करेंगे| फिर साहस करके इन्द्र मुर्गे और चन्द्रमा के पास पहुंचा| उनको सारी बात बताई और अपने पाप का भागी उन्हें भी बना लिया| वे दोनों उसकी सहायता करने को तैयार हो गए| उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी|

रात नियत की गई तथा नियत रात को ही मुर्गे ने बांग दे दी| चन्द्रमा भी निकल आया| गौतम ने मुर्गे की बांग सुनी तो अपना तौलिया धोती उठा कर गंगा स्नान के लिए चल पड़ा| वास्तव में अभी गंगा स्नान का समय नहीं हुआ था| जब वह गंगा स्नान करने लगा तो आकाशवाणी हुई 'हे ऋषि गौतम! असमय आकार ही स्नान करने लगे हो, अभी तो स्नान का समय नहीं है| तुम्हारे साथ धोखा हुआ है| यह सब एक माया जाल है| तुम्हारे घर पर कहर टूट रहा है, जाओ जा कर अपने घर की खबर लो| यह आकाशवाणी सुनकर गौतम वापिस चल पड़ा|

उधर गौतम के जाने के पश्चात इन्द्र ने बिल्ले का रूप धारण किया| बिल्ले का रूप धारण करने का कारण यह था कि गौतम अहल्या को अकेले नहीं छोड़ता था क्योंकि देवता उसके पीछे पड़े थे| जब भी गौतम स्नान करने जाता तो अपनी पुत्री अंजनी को कुटिया के सामने द्वार पर बिठा जाता था|

इन्द्र ने जब देखा कि अंजनी द्वार के आगे बैठी है और पूछेगी कि आप कौन है? तो वह क्या उत्तर देगा, इसलिए इन्द्र ने बिल्ले का रूप धारण कर लिया और भीतर चला गया| अंजनी ने ध्यान न दिया| इन्द्र की माया शक्ति से अंजनी को नींद आ गई, वह बैठी रही| भीतर जाकर इन्द्र ने गौतम मुनि का भेस धारण कर लिया, उसके जैसी ही सूरत बना ली| अहल्या को कुछ भी पता न चला| इन्द्र अहल्या से प्रेम-क्रीड़ा करने लग गया| अभी वह अंदर ही था कि बाहर से गौतम आ गया|

'अंदर कौन है?' अंजनी को गौतम ने पूछा| उस समय गौतम की आंखें गुस्से से लाल थीं| वह बहुत व्याकुल था|

'माजार' अंजनी ने उत्तर दिया| इसके दो अर्थ हैं एक तो 'मां का यार' और दूसरा 'बिल्ला'| वह बहुत घबरा गई|

गौतम भीतर चला गया| उसने देखा कि इन्द्र उसी का रूप धारण करके नग्न अवस्था में ही अहल्या के पास बैठा था| उसकी यह घिनौनी करतूत देखकर गौतम ऋषि ने अपने भगवान सालगराम को याद किया और इन्द्र को श्राप दिया - "हे इन्द्र! तू एक भग के बदले पाप का भागी बना है| तुम्हारे शारीर पर एक भग के बदले हजारों भग होंगे| तुम दुखी होकर दुःख भोगोगे|"

गौतम ऋषि का यह श्राप सुनकर इन्द्र घबराया| लेकिन इन्द्र पर श्राप प्रगट होने लगा| उसका शरीर फूटने लगा| हजार भग नज़र आने लगीं| शर्म का मारा छिपता रहा|

इन्द्र से ध्यान हटाकर गौतम ऋषि ने चन्द्रमा को श्राप दिया| तुम तो धर्मी थे, जगत को रोशन करने वाले मगर तुमने एक अधर्मी, पापी का साथ दिया है इसलिए डूबते-चढ़ते रहोगे, बस एक दिन सम्पूर्ण कला होगी| जबकि चांद पहले सम्पूर्ण कला में रहता था परन्तु उसी समय श्राप के बाद उसकी कला भी कम हो गई|

मुर्गे को भी श्राप दिया-'कलयुग में तुम असमय बांग दिया करोगे| तुम्हारी बांग पर कोई भरोसा नहीं करेगा|

गौतम ऋषि तब तीनों को श्राप दे कर फिर अहल्या की ओर मुड़ा| उस समय वह बहुत ही सुन्दर लग रही थी जिसके समान कोई दूसरी नारी न थी| उसको भी गौतम ने श्राप दे दिया-'हे अहल्या! तुम एक पतिव्रता स्त्री थी| क्या तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी जो एक पराये पुरुष को पहचान न सकी, पत्थर की तरह लेटी रही जाओ - तुम पत्थर का रूप धारण कर लोगी| तुम्हारा कल्याण न होगा| इस के पश्चात नारी का धर्म कमज़ोर हो जाएगा| कलयुग में नारी बदनाम होगी|

जब यह श्राप अहल्या ने सुना तो वह हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगी-हे प्रभु! मेरा कोई दोष नहीं है, मैंने तो बस आपका रूप देखा| मुझे क्षमा करो, मेरे साथ धोखा हुआ है| मैं तो आपकी दासी हूं| मेरा धर्म है....|'

अहल्या का विलाप एवं पुकार सुनकर गौतम को दया आई और उसने दूसरा वचन किया - 'शिला के रूप में तुम्हें कुछ काल तक रहना पड़ेगा| जब श्री राम चन्द्र जी अवतार लेंगे तो उनके पवित्र चरण स्पर्श से तुम फिर से नारी रूप धारण करोगी और तुम्हारा कल्याण होगा|

आश्रम में से निकल कर अहल्या गंगा किनारे पहुंची तो उसका शरीर पत्थर हो गया| वह श्राप में सोई रही| अहल्या बहुत देर तक पत्थर बनी रही| श्री राम चन्द्र जी ने अयोध्या नगरी में जन्म लिया| श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण तथा विश्वामित्र के साथ जब उस तपोवन में आए तो उनके चरणों के स्पर्श से अहल्या फिर नारी रूप में आ गई|

उधर बृहस्पति के कहने पर इन्द्र फिर गौतम के पास गया और अपनी भूल की माफी मांगी हाथ जोड़े, पैर पकड़े, कहा-फिर कभी पर-नारी कोई नहीं देखूंगा| तब इन्द्र का रोगी शरीर भी ठीक हो गया| वह अपने इन्द्र लोक चला गया|




Saturday, November 16, 2013

गनिका जी



ॐ साँई राम जी









गनिका जी











गनिका एक वेश्या थी जो शहर के एक बाजार में रहती थी| वह सदा पाप कर्म में कार्यरत रहती थी| उसके रूप और यौवन सब बाजार में बिकते रहते थे| वह मंदे कर्म करके पापों की गठरी बांधती जा रही थी| जब से हो जाती तो उसके घर में रौनकें बढ़ जाती तथा महफिलें सजी रहतीं| रात को दीया जलते ही वह हार-श्रृंगार करके अपने सुन्दर यौवन को आकर्षित करती हुई बैठ जाती|





पर - सुआ पड़ावत गनिका तरी ||


सो हरि नैनहु की पूतरी ||











भक्तों ने वचन किया है कि तोते को पढ़ाती हुई गनिका भवजल से तर गई| वह परमात्मा के नयनों की पुतली बनी| वह भक्तों में गिनी जाने लगी| उसका ऐसा जीवन बदल गया|





उसके पाप एवं नरकी जीवन में से निकलने की कथा इस प्रकार है - वह बुरे कर्मों में व्यस्त हुई जीवन को ही भूल गई थी| मनुष्य जीवन के मनोरथ का उसे बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था| एक दिन एक साधू जिसके पास एक तोता था, वहां आ गया|





कहते हैं कि वह साधू नगर से बाहर रहता था| वह भीड़-भाड़ में कम ही आता| उस रात इतनी वर्षा हुई कि वहां ऊंची-नीची धरती जल-थल दिखाई देने लगी| साधू ने देखा कि सर्दी से उसका तोता भी मरने लगा है| यह तोता उसको प्राणों से भी प्यारा था, क्योंकि वह 'राम-राम' जपता था| उसने तोते के पिंजरे को उठाया तथा नगर की ओर चल पड़ा| उसने अपनी गोदड़ी तथा अन्य वस्त्र ऊपर लिए हुए थे| कुदरत की शक्ति का मुकाबला करना उसके वश से बाहर था| वह पैदल चलता हुआ नगर आ गया, पर कोई ठिकाना न मिला| रात का समय था| सब लोग अपने-अपने घरों में द्वार बंद करके बैठे हुए थे| बहुत घूमने-फिरने पर भी साधू को कोई ठिकाना न मिला, वह चलता रहा|





गनिका का घर आया| दिया जल रहा था, द्वार भी खुला हुआ था| वह राम का नाम लेकर भीतर चला गया| गनिका उसे देखकर मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई| उसने सोचा कि वर्षा और तूफान में भी उसके पास ग्राहक आया है, जो उसके तन का सौदा करेगा और उसको पैसे खटाएगा| उसने बड़ी खुशी से कहा.... आओ, मेरी आंखों में बैठो, मैं आपका रास्ता देख रही थी|





गनिका की यह बात सुन कर और उसके रूप तथा श्रृंगार को देख कर साधू बड़ा हैरान हुआ| साधू ने गनिका से कहा-'पुत्री! बाहर वर्षा बहुत हो रही है जिस कारण मेरी झोंपड़ी बह गई| मैं अपने तोते सहित सहारा लेने आया हूं|'





'पुत्री' शब्द से गनिका का पापी मन कांप उठा| वह एक बार कांपी तथा फिर मायूस होकर बोली-'आप ने रात ठहरना है?





हां, 'पुत्री! हमने रात ठहरना है| हरेक आत्मा परमात्मा का अंश है और शरीर आत्मा का घर| शरीर को आश्रय देना नेक मार्ग पर चलना होता है| पुत्री! परमात्मा ने तुम्हें सुख के सभी साधन दिए हैं, तुम उसे याद करती होगी|





साधू सहज स्वभाव बोलता गया| उसकी आत्मा सचमुच ही बड़ी निर्मल थी, परन्तु गनिका जिसका वास्तविक नाम 'चन्द्रमणी' था, वह साधू की बातें सुनकर घबराने लगी| वह तो पापिन थी, उसने घबरा कर कहा - 'आप साधू हैं?'





हां, ' मैं साधू हूं| मेरे मालिक ने मुझे साधू बना कर अपने नाम के सिमरन में लगाया है| वही मालिक सबका जीवन दाता और अन्न दाता है|'





गनिका के मन में भी कुछ नेक भाव आए, क्योंकि उस दिन से पहले उस जैसा साधू महात्मा पुरुष पहले कभी भी उसके पास नहीं आया था जो उसको पाप कर्म की ओर न लगाता| उसके पास वहीं पुरुष आते जो उसके तन का सौदा करके उसके मैले मन पर और अधिक मैल फैंक देते| उस दिन गनिका सुबह स्नान करके घूमती रही| वर्षा अभी भी हो रही थी|





'आप साधू हैं, भगवान के भक्त! ठीक है| आओ.... बैठो और भीगे वस्त्र उतार कर दूसरे वस्त्र पहन लो| गनिका को शायद जीवन में पहली बार साधू की सेवा करने का अवसर मिला है| आओ.... क्या पता मेरे जीवन में ऐसी घटना होनी होगी|'





यह कह कर उसने साधू के भीगे वस्त्र उतरवाए और उसे गर्म वस्त्र दिए| उसने साधू और तोते के लिए आग जलाई| जब वह गर्म होकर अपने आपको ठीक अनुभव करने लगे तो तोते ने अपनी आदत अनुसार राम का नाम लेना शुरू कर दिया| चन्द्रमुखी गनिका को उनकी बातें अनोखी लगी| उसने साधू से पूछा - 'महाराज! भोजन करोगे?'





हां, 'पुत्री! मैं भी भूखा हूं और यह पक्षी भी भूखा है, जो भगवान ने हमारी किस्मत में लिखा है, वह देगा| आज नहीं तो कल| उसकी जैसी इच्छा है वैसा ही होना है|' साधू ने उत्तर दिया|





'मेरे पास जो कुछ है उसको स्वीकार करें-पर मैं गनिका (वेश्या) हूं, जिसे इस घर में आए बारह साल हो गए हैं| पुरुषों के मन की खुशियां पूरी करती रही हूं| मैं तो पापिन हूं, पापिन के घर का भोजन! गनिका चन्द्रमुखी ने कहा| उसके चेहरे पर गम्भीरता आ गई, शायद उसके जीवन में यह पहली घटना थी|





साधू ने देखा, गनिका ने अपने पाप कर्मों को अनुभव कर लिया है| अब इसको उपदेश देना ठीक है| साधू ने कहा -'तुम्हारा दिया भोजन स्वीकार होगा| इस जगत में माया का प्रवेश है| माया का प्रभाव जब जीव पर पड़ता है तो वह भगवान को भूल कर काम, क्रोध और मोह में फंस जाता है| जीवन मार्ग से दूर हो जाता है, राम नाम का सिमरन नहीं करता| कुछ ऐसे पुरुष होते हैं जो अपने ही स्वार्थ के लिए किसी दूसरे को कुमार्ग पर भेज देते हैं, ऐसा ही जगत का दस्तूर है|'





ठीक है महाराज! आप सत्य कहते हैं| पुरुषों ने ही मुझे कुमार्ग पर डाला है| मैं पापिन हूं, पर पापिन होने का ज्ञान मुझे आपके ही दर्शन करने पर हुआ है| जब आपने मुझे 'पुत्री' कहा| मेरे घर में चाहे जवान आए चाहे बूढ़ा, कभी मुझे बहन या पुत्री किसी ने नहीं कहा| न ही मुझे पता है कि मेरी मां कौन थी और पिता कौन? बस ऐसे ही जीवन व्यतीत होने लगा| वर्षा होते दो दिन हो गए लेकिन वह नहीं आए जो अपने स्वार्थ के लिए आते थे|





इस प्रकार गनिका चन्द्रमुखी को ज्ञान होता गया| उसका शरीर और मन कांपने लगा| उसको ऐसा अनुभव होने लगा जैसे उसमें एक महान परिवर्तन आ रहा हो| एक दर्द और पीड़ा हो रही थी|





मतलब ही तो सब कुछ है, इस समाज की जान है| मुझे और मेरे तोते को मतलब था आसरा लेने का, हम चल कर आ गए| इस मतलब के दो रूप हैं - एक तो है मायावादी तथा दूसरा ईश्वरवादी| अगर जीवन को यह मतलब हो कि उसका जीवन अच्छा बने, तो वह राम नाम का सिमरन करने के लिए साधू-सन्तों और नेक पुरुषों की संगत करे| सेवा का भाव अपने मन में रखे| धर्म और समाज की मर्यादा कायम रखे तो ठीक है| देख पुत्री! अगर तुमने एक पति धारण किया होता, उसकी सेवा करती, उससे ही तन और मन की जरूरत पूरी किया करती तो बच्चे होते| बच्चों और पति की सुख-शांति के लिए पूजा-पाठ करती, सभी तुझे देवी कहते| जीव कर्म से जाना जाता है शरीर से नहीं| इसलिए भला है, जो बीत गया सो बीत गया, आगे से नेक मार्ग पर चलना| भगवान, जिसने जीवन दिया है, वह रोजी-रोटी भी देता है|





गनिका चन्द्रमुखी ने साधू को भोजन कराया| उसने तोते को चूरी खिलाई और उनके चरणों में लग गई| साधू की संगत ने उसके मन को बदल दिया तथा उसको पापों का एहसास करा दिया| इसीलिए तो सद्पुरुष हमेशा कहते हैं कि सदा साधू-सन्त, गुरु पीर, नेक पुरुषों की संगत करनी चाहिए| भाई गुरदास जी ने संगत का बहुत ही बड़ा महत्व बताया है| भाई गुरदास जी फरमाते हैं :-





सण वण वाड़ी खेत इक परउपकार विकार जणावै |खल कढाइ वढाइ सण रसा बंधन होई बनावै |खासा मलमल सिरिसाफ सूत कताइ कपाह वणावै |लजण कजण होइकै साध असाध बिरद बिरदावै |संग दोख निरदोख मोख संग सुभाउ न मान मिटावै |त्रपड़ होवै धरमसाल साध संगति पग धूड़ धुमावै |कुटकुट सण किरतास कर हरिजस लिख पुराण सुणावै |पतित पुनीत करे जन भावै |पथर चित कठोर है चूना होवै अगीं दधा |अग बुझै जल छिड़कीअै चूने अग उठै अति वधा |पाणी पाए विहु न जाइ अगन न फुटे अवगुण बधा |जीभै उते रखिआ छाले पवन संग दुख लधा |पान सुपारी कथ मिल रंग सुरंग संपूरण सधा |साध संगति मिल साध होइ गुरमुख महां असाध समधा |पाप गवाइ मिले पल अधा|





साधू-संगत का ऐसा फल है कि जो गनिका के मन पर प्रभाव डाल गया| वह सारी-सारी रात सत्संग करती रहती|





अगले दिन वर्षा बंद हो गई| आकाश बिल्कुल साफ हो गया| धूप निकली तो साधू ने चलने की तैयारी की| तब गनिका चन्द्रमणी ने प्रार्थना की 'महाराज! मुझ पर एक उपकार करो, यह तोता दे जाओ| मैं इससे 'राम नाम' सुना करुंगी, इसको पढ़ाया करुंगी| अच्छा हो अगर आप भी यहां पर ही रहें|





अच्छा पुत्री! अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो यह लो पिंजरा| इसको संभाल कर रखना, हम अपनी कुटिया में जाते हैं| तुम्हारे घर रहने से लोग तुम्हारी और मेरी दोनों की निंदा करेंगे| लोक निंदा करानी अच्छी नहीं होती| हम चलते हैं|'





यह कह कर साधू चला गया| वह अपना तोता छोड़ गया| वह तोता राम का नाम बोलता| गनिका कहती, बोल गंगा राम 'राम-राम'|





गनिका चन्द्रमणी को ऐसी लगन लगी कि वह दिन-रात गंगा राम को 'राम' नाम का पाठ पढ़ाने लगी| उसका मन पाप कर्मों से हट गया| उसने राम नाम की धुनी गानी शुरू कर दी| धीरे-धीरे उसकी बैठक खाली रहने लगी और 'राम नाम' की गूंज आने लगी| उसे तन और मन की होश न रही| वह भूखी ही 'राम' नाम जपती रहती|





गनिका चन्द्रमणी की भक्ति देख कर भगवान प्रसन्न हो गया| उसने चन्द्रमणी को अपने पास बुलाने के लिए एक बहाना बना लिया| वह बहाना यह था कि उसने पिंजरे में सांप का रूप धारण करके अपने काल दूत को भेजा| उसने पहले तोते को डंक मारा, उसकी आत्मा को पहले भेज दिया तथा फिर बैठा रहा| गनिका उठी, उसने तोते को बुलाया, बोल गंगा राम 'राम-राम|' पर उसको कोई आवाज़ न आई| उसने अपना हाथ पिंजरे में डाल कर तोते को हिलाया तो सांप ने उसको डंस लिया| उसी समय उसकी आत्मा शरीर त्याग गई| आत्मा के लिए बिबान आया, नरसिंघे बजे| शंखों की धुन में वह मृत्यु-लोक से स्वर्ग-लोक में पहुंच गई| इस कथा पर भाई गुरदास जी ने कहा है -





गई बैकुण्ड बिमान चढ़ नाम नाराइण छोत अछोता |


थाऊं निथावें माण मणोता |






आप सभी को श्री गुरू नानक देव जी के प्रकाश उत्सव की लख लख बधाईयाँ





श्री गुरु नानक देव जी













Parkash Ustav (Birth date) :April 15, 1469. Saturday;


at Talwandi (Nankana Sahib, Present day Pakistan)
 प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): 15 अप्रैल 1469. शनिवार,


तलवंडी (ननकाना साहिब, वर्तमान  पाकिस्तान)









 Father : Mehta Kalyan Dass (Mehta Kalu)

 पिता: मेहता कल्याण दास (मेहता कालू)



Mother : Mata Tripta Ji

 माँ: माता तृप्ता जी



Sibling :Bebe Nanaki Ji (sister)

सहोदर: बेबे नानकी जी (बहन)




Mahal (spouse) : Mata Sulakhani Ji

महल (पत्नी): माता सुलखनी जी




Sahibzaday (offspring) : Baba Sri Chand Ji, Baba Lakhmi Das Ji.

साहिबज़ादे (वंश): बाबा श्री चंद जी, बाबा लखमी दास जी.




Joti Jyot (ascension to heaven) :September 7, 1539 at Sri Kartarpur Sahib (present day Pakistan)ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): श्री करतारपुर साहिब (वर्तमान पाकिस्तान) में 7 सितम्बर 1539






धन धन श्री गुरु नानक देव जी दा जनम 1469 तलवंडी के ए

क गाँव शेखपुरा डिस्ट्रिक्ट में, लाहौर से 65 कि. मी. पश्चिम कि ओर हुआ | गुरूजी जनम से ही एक विचित्र हाव-भावः अत: मोहक व्यक्तित्व के थे जो कि मनुष्य रूप में भगवान् को दर्शाता है. गुरु नानक देव जी ने उनके द्वारा बताये मार्ग पर चलने वालों के लिए एक मजबूत नीवं का निर्माण किया..






गुरु नानक देव जी ने सदा एक ही महत्तवपूर्ण शिक्षा दी जो कि जरूरतमंद और गरीबो कि मदद के लिए सब का सहयोग था..





गुरु जी ने ४० सालो में 38,000 मील पाँव से चल कर अपनी जीवन यात्रा को अंजाम दिया|





वो हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, बनारस, हिमालय, बिदार, तिब्बत, बर्मा,


सीलोन, मक्का, बगदाद, इराक के साथ साथ भारतीये खाड़ी के सभी द्वीपों पर भी गए..





गुरु जी ने सर्व शक्तिमान भगवान् को सदा एक कहा… गुरु जी ने कभी भी जाती और धर्म पर विश्वास नहीं किया.. गुरूजी ने हमें सिखाया कि हमारा शरीर, रंग और भेद एक सा बना हुआ है


आओ आज सब मिल कर श्री गुरु नानक देव जी के प्रकाश उत्सव का जश्न मनाएं…





वाहेगुरु जी का खालसा


वाहेगुरु जी कि फतह 





किसी ने पुछा तेरा घर बार कितना है


किसी ने 


पुछा


 तेरा परिवार कितना है 


आज तक किसी ने 


पुछा


 के 



तेरा गुरु नाल प्यार कितना है…








गुरु जी ने जन कल्याण व समाज सुधार के लिए चार उदासियाँ कीपहली उदासी पूरब दिशा की तरफ संवत १५५६-१५६५ तक की व दूसरी उदासी दक्षिण दिशा की और संवत १५६७-१५७१ तक कीयहीं तक गुरु जी नहीं रुकेउनकी अगली उदासी उत्तर दिशा की तरफ संवत १५७१ में प्रारम्भ हो ग ई तथा चौथी उदासी संवत १५७५ के साथ यह कल्याण यात्रा समाप्त हो गई|


Friday, November 15, 2013

अजामल जी



ॐ साँई राम जी












अजामल जी 





अजामल उधरिआ कहि ऐक बार ||


हे भक्त जनो! अजामल की कथा श्रवण करो| इस कथा के श्रवण करने वाले को यम भी तंग नहीं करता| वह ऊंचे चाल-चलन वाला बनता है| सुनने वाले के पाप मिटते हैं| उसका कल्याण होता है, उसे मोक्ष मिलता है|





अजामल उस समय का बहुत बड़ा पापी माना गया है| वह पापी किसलिए था? उसने क्या कसूर किया था? इसकी कथा इस प्रकार है :-





अजामल एक राज-ब्राह्मण का पुत्र था| उसका पिता राजा के पास पुरोहित भी था और वजीर भी| वह बहुत अक्लमंद था| उसके सूझवान होने की चर्चा चारों ओर थी|





अजामल की आयु जब पांच साल की हुई तो उसके माता-पिता ने उसको विद्यालय में दाखिल करवा दिया| वह जिस गुरु से पढ़ता था वह बहुत ही सूझवान था| सूझवान गुरु को जब सूझवान शिष्य मिल जाता है तो वह बहुत खुश हो जाता है ऐसी ही हालत अजामल के गुरु की भी थी| उसने देखा कि अजामल की जुबान पर सरस्वती बैठी है वह जो भी शब्द पढ़ता या सुनता वही कंठस्थ कर लेता| उसका कंठ भी रसीला था| जब वह वेद मंत्र पढ़ता तो एक अनोखा ही रंग दिखाई देता था| वह बहुत ही बुद्धिमान निकला| उसने केवल दस साल में ही बीस साल की विद्या प्राप्त कर ली| उसकी विद्वता की चहुं ओर प्रसिद्धि हो गई| ऐसी प्रसिद्धि कि बड़े-बड़े विद्वान भी उसके दर्शन करने आते थे|





एक दिन अजामल के गुरु ने कहा - 'अजामल! अभी तुम शिष्य हो!'





'हां, गुरुदेव मैं शिष्य हूं - पर कितनी देर शिष्य रहूंगा?' 'कोई चार साल और लगेंगे| चारों वेद और उपनिषद पूरे हो जाएंगे|'





'जो आज्ञा गुरुदेव|'





उसके गुरु ने उसकी ओर ध्यान से देख कर कहा - अजामल जब मेरे पास आओ या अपने घर को जाओ तो नगर से बाहर-बाहर आया-जाया करो| नगर में कभी नहीं जाना, क्योंकि अभी तुम्हारे वस्त्र विद्यार्थी के हैं| गुरु कि आज्ञा का पालन करना होगा| आज्ञा का पालन न किया तो दुःख उठाओगे| सुखी वही रहता है जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, क्योंकि गुरु को हर प्रकार के ज्ञान और कर्म का बोध होता है|'





हे गुरुदेव! क्या मैं पूछ सकता हूं कि आप मुझे नगर में आने से क्यों रोकते हो? अजामल ने उत्तर दिया| उसका उत्तर सुनकर गुरु चुप कर गया| केवल इतना ही कहा-नगर से बाहर-बाहर आया-जाया करो, ऐसा ही कर्म है|





अजामल ने गुरु की आज्ञा का पालन किया| वह नगर के बाहर बाहर ही आया-जाया करता था| न ही वह इस बारे किसी से बात किया करता था कि उसके गुरु ने उसको नगर में जाने से मना किया है| इस तरह कई साल बीत गए| वह विद्या पढ़ता रहा| उसकी आयु अब बीस साल की हो गई| वह बहुत सुन्दर दर्शनी जवान निकला| नेत्रों में डोरे आए उसकी विद्या पूरी होने वाली थी| उसके पश्चात उसने गुरु दक्षिणा दे कर आज़ाद हो जाना था|





एक दिन उसका अपने मन से झगड़ा हो गया| उसने कहा, गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करके नगर में से जाना ही ठीक है| आखिर यह तो देखा जाए, गुरु जी रोकते क्यों हैं?





उसके एक मन का यह भी कहना था कि अजामल! गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करेगा तो नरक का भागी होगा, बहुत दुःख भोगेगा|





देखा जाएगा, अजामल ने मन सुदृढ़ किया और वह अपने गुरु के पास से उठ कर उस मार्ग को छोड़ कर जिससे वह रोज़ आया-जाया करता था, अनदेखे रास्ते से नगर में से चल पड़ा|





अजामल के गुरु ने उसको इसलिए नगर में जाने से रोका था क्योंकि नगर में माया का विस्तार था| धन के रूप के चमत्कार ऐसे थे कि नौजवान का मन उस ओर शीघ्र आकर्षित हो जाता था| नवयुवक को पूर्ण ज्ञान नहीं होता था| गुरु के आश्रम के वेश्याओं का बाजार था, सारी ही वेश्या नगरी थी| उस मुहल्ले में वेश्याएं बैठती थीं| वह युवा-पुरुषों को अपने वश में करती थी| ऐसी हवा से बचाने के लिए ही गुरु ने अजामल को रोका था| गुरु चाहता था कि अजामल राजपुरोहित बन जाए| जब विवाह हो जाएगा तो फिर इस ओर ध्यान नहीं जाएगा| ऐसा ही विचार गुरु का था, क्योंकि गुरु के लिए शिष्य ही उसका पुत्र होता है, उसका ध्यान रखना गुरु का कर्त्तव्य और धर्म होता है| शिष्य का भी धर्म है कि वह गुरु की सेवा करे, उसकी आज्ञा का पालन करे| अजामल जब जाने लगा तो गुरु ने स्मरण करवाया कि अजामल! शहर के अन्दर मत जाना|





'बहुत अच्छा गुरुदेव' कह कर अजामल चल पड़ा| पर वह आश्रम में से निकल कर नगर के अंदर ही अंदर द्वार की ओर चल पड़ा| वह जैसे ही द्वार के भीतर गया, वैसे ही उसे नगर की महिमा बड़ी अनोखी-सी लगी| बहुत चहल-पहल थी| सबसे बड़ी बात यह थी कि सुन्दर नारियां हाव-भाव करती इधर-उधर घूमती दिखाई दीं| वह पुरुषों से मधुर बातें करती थीं| उनके रूप बहुत सुन्दर थे| नरगिस के फूल जैसे नयन थे| उनके अर्द्ध-नग्न तन तुलाब की पत्तियों की तरह चमकते थे| वह शोभा वाली थी|





उन सुन्दर नारियों को देखता हुआ अजामल अपने घर को चला गया| घर जाकर उसका मन पढ़ने और पाठ याद करने में न लगा| उसका मन बेचैन हो गया तथा जो कुछ देखा था वहीं सामने घूमने लगा| जब रात को नींद आई तो वही सपने आते रहे जो उसने नगर में देखा था| सुबह उठ कर स्नान किया| जब गुरु के पास गया तो गुरु ने उसकी आंखों में लाली देखी और पूछा-अजामल! रात सोए नहीं, क्या बात है?





'सोया था गुरुदेव!''


आंखें लाल और मन उखड़ा-सा क्यों है?''


पता नहीं गुरुदेव?''


नगर से बाहर-बाहर गया था, बाहर-बाहर आया था|'





अजामल ने पहले तो गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया और बाद में दूसरी महान भूल यह की कि गुरु से झूठ बोल दिया| उसने झूठ बोलते हुए कहा - गुरुदेव बाहर-बाहर गया था| वह झूठ बोला| इसलिए उसकी आत्मा कांपी, पर वह झूठ बोल चुका था|





उस दिन पढ़ने में मन न लगा| दो दोष हो गए| अजामल के मन पर बहुत भार रहा| दूसरा उसकी आंखों के सामने नगर के नजारे थे वह पाठ को पढ़ने नहीं देते थे| जैसे तैसे उसने समय व्यतीत किया| जब छुट्टी मिली तो फिर उस नगर के रास्ते ही चल पड़ा| उस नगर की वासना भरी महिमा को देखता रहा| देखता-देखता वह घर चला गया|





इस प्रकार दस-बारह दिन व्यतीत हो गए| वह नगर आता-जाता रहा| नारी रूप लीला ने उसके युवा मन को प्रभावित कर दिया| जादू जैसा असर और उसका मन डगमगाने लगा| जब मन डगमगा जाए तो मनुष्य शीघ्र शिकार हो जाता है| एक दिन एक रूपवती नवयौवना अभी खिलती जवानी 16-17 वर्ष की आयु वाली वेश्या ने उसका बाजू पकड़ लिया| उसे जाल में फंसा कर पाप कर्म की तरफ लगा लिया| वह अधिकतर समय उसके पास बैठा रहा| वह भोग-विलास में डूब गया और फिर घर चला गया| घर उसे पराया-सा लगा| उसकी आंखों में नींद न आई| सुबह पढ़ने के लिए गुरु आश्रम में समय पर न पहुंच सका|





पहले ही अजामल ने मंदे कर्म-दोष किए थे| एक गुरु की आज्ञा की अवज्ञा तथा दूसरा झूठ बोलना| उसने अब दो पाप और कर दिए| एक जूठन खाई और पराई नारी का गमन करना| वह वासना की ओर बढ़ गया| वेश्या का जूठा भोजन भी खा लिया| इन चारों ही महां-दोषों ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी| वह गुरु के पास जाता लेकिन मन भटकने से पाठ न कर पाता|





उसका सूझवान गुरु यह सब कुछ जान गया था लेकिन अपने मन की तसल्ली करने के लिए एक दिन अपने शिष्य अजामल के पीछे-पीछे चल पड़ा| उसने अपनी आंखों से देख लिया कि उसका बुद्धिमान शिष्य अजामल एक वेश्या के दर पर चला गया है| वह वापिस लौट आया और बहुत बैचेन रहा| अगले दिन जब अजामल आया तो गुरु ने उसे कहा-अजामल इस आश्रम से चले जाओ, तुमने जो कुछ पढ़ना था वह पढ़ लिया है| यह कह कर गुरु ने अजामल को भेज दिया| तदुपरांत गुरु ने अजामल के पिता को बुलाकर कर कहा -





'आप अजामल का विवाह कर दें| इसका अब कुंवारा रहना योग्य नहीं|'





अजामल का पिता राजपुरोहित था| राजपुरोहित होने के कारण उसके लिए अजामल का विवाह करना कोई मुश्किल कार्य न था| उसने शीघ्र ही अजामल के लिए योग्य कन्या देखकर उसे परिणय सूत्र में बांध दिया|





अजामल का विवाह हो गया| उसके घर एक सुन्दर, सुशील, गुणवंती तथा तेजवान दुल्हन आ गई| लेकिन अजामल का मन अब भी चंचल ही रहा| वह अपनी पत्नी से तृप्त न हुआ| वह वेश्या के द्वार पर फिर जाने लग गया| परन्तु उसका वेश्या के पास जाना छिपा न रह सका| इसका सब को पता चल गया| उसकी धर्मपत्नी ने काफी यत्न किए कि वह उसके पास ही रहे| सोलह श्रृंगार भी किए, नृत्य तथा संगीत से उसे प्रसन्न करने का प्रयास किया लेकिन अजामल का मन पापी ही रहा| वेश्या की जूठन और शराब ने उसकी बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया था| उसकी सत्यवंती पत्नी अनेक प्रयास करके हार गई|





एक दिन अजामल का पिता परलोक गमन कर गया| उसके पश्चात राजा ने अजामल को राजपुरोहित बना दिया| राजपुरोहित बनने पर उसकी जिम्मेदारी और बढ़ गई| वह धर्म, समाज और राज्य का अध्यक्ष बन गया| धन-दौलत काफी बढ़ गई| किसी बात की कमी न रही, तब भी उसने न सोचा| वह सोचता भी कैसे? पांच दोष उसके ऊपर लग गए थे| गुरु की आज्ञा की अवज्ञा| झूठ बोलना| जूठन खानी और मदिरापान| पांचवा महान दोष-वेश्या का गमन करना था|





उसने उच्च पदवी मिलने पर भी वेश्या के पास जाना न छोड़ा| शहर में आम चर्चा होने लगी| जो बात छिपी थी, वह दुनिया में जाहिर हो गई, जाहिर भी सूर्य की तरह हुई| उसका नया प्यार एक कलावंती वेश्या से हो गया| वह पापों की पुतली माया रूप धारण कर बैठी थी|





एक दिन अजामल को राजा ने अपने पास बुलाया और पूछा-अजामल! 'आप राजपुरोहित हैं|'





हां, महाराज! अजामल ने कहा|





आपके विरुद्ध एक आरोप लगा है|





'क्या आरोप है?'





'आप कलावंती वेश्या के पास जाते हैं| मदिरा पान करके रंगरलियां मनाते हैं|'





'सत्य है महाराज, इसमें झूठ नहीं| मैं कलावंती के पास जाता हूं, क्योंकि मैं उससे प्रेम करता हूं|'





'क्या यह नहीं मालूम कि कोई भी पंडित कभी ऐसा कर्म नहीं कर सकता, जिससे राज्य में बदनामी का कारण बने और जिसका देश की प्रजा पर बुरा असर पड़े?'





'यह भी पता है महाराज|'





'फिर कलावंती के पास क्यों जाते हो? क्या तुम ने अपनी ही बदनामी स्वयं नहीं सुनी?'





'सुनी है! लेकिन मैं विवश हूं| मैं कलावंती को छोड़ नहीं सकता| उसके रूप ने मुझे मोह लिया है|'





अजामल और आगे बढ़ गया| वह 'निर्लज्ज' भी हो गया, क्योंकि जिसके पास निर्लज्जता आ गए उसके पास कुछ भी नहीं रहता| निर्लज्जता सबसे महान दोष या पाप है|





राजा बुद्धिमान था| उसकी आयु अजामल के पिता जितनी थी| वह जान गया कि उसका राजपुरोहित पापों का भागीदार बन गया है| पाप इसको अच्छे लग रहे हैं| उसने अजामल से कहा - 'यदि आप की बात सही है कि वह आपको अपना पति स्वीकार कर चुकी है तो उसे अपने घर ले आओ, घर रहेगी तो लोगों को पता नहीं चलेगा| जितनी देर वहां रहेगी उतनी देर वेश्या है| कर्म करना भी स्थान की जांच करता है| जगह पर ही हर चीज़ की शोभा होती है| आप भी राज पुरोहित है| राज पुरोहित को शोभा नहीं देता कि वह वेश्या के बाजार में जाए|'





'मैं उसको घर नहीं ला सकता, न ही मैं उसको छोड़ सकता हूं| अजामल ने अपना फैसला दे दिया|'





'यह पक्का फैसला है?' राजा ने पूछा|





'जी हां पक्का फैसला!'





'सोच लो!'





'जी सोच लिया है!'





'देखो अजामल! आज तो नहीं, अभी से तुम राज पुरोहित नहीं! खामियां यह हैं! गुरु की आज्ञा को भंग करना, झूठ बोलना| जूठ खानी, वेश्या गमन, शराब पीनी और निर्लज्जता से मंद कर्मों से रुकने से मना करना| ऐसे दोषों के रहते हुए आप राज पुरोहित रहने के अधिकारी नही| आपको अब शहर से बाहर रहना पड़ेगा| सारी जायदाद और राज महल जो है वह अब आपकी पत्नी और उसके बच्चे को दे दिया जाएगा| आज के बाद इस शहर में मत आना| कलावंती को भी इस शहर से बाहर निकाल दिया जाता है| यह हुक्म है, कोई अपील नहीं न कोई साधन जाओ!'





राजा के हुक्म को सुन कर राज दरबारी और अहलकार सब घबरा गए, लेकिन अजामल पर कोई असर न हुआ| उस समय राजदूतों ने अजामल को धक्के मार कर बाहर निकाल दिया| उसको शहर से बाहर निकालने का हुक्म हो गया|





अजामल की पत्नी ने जब यह हुक्म सुना तो वह बहुत दुखी हुई| पर राजा ने हुक्म को टालना भी कठिन था| नगर वासी भी हैरान हुए| पर अजामल को कोई रोक नस सका|





अजामल ने कलावंती को साथ लेकर शहर से बाहर झोंपड़ी बना ली| कलावंती का सारा सामान वहां गया! गरीबों और अछूतों में रहने लगे| रात दिन भोग-विलास में लगे रहे तो चार बच्चे हो गए| उन बच्चों के लिए अन्न वस्त्र की जरूरत थी| राजा का हुक्म था कि कोई मदद न करें| सभी उसको 'अजामल-पापी' कहने लग पड़े थे और वे चिड़िया-पक्षी मार कर खाने लगे! नंगे रहने लगे| दुर्दशा इतनी बुरी हो गई कि वह पागलों की तरह खीझ कर बात करने लग गया| शरीर रोगी हो गया| ऐसा रोगी की जीवन की उम्मीद कम हो गई| जब शरीर ऐसा हुआ उससे पहले सात पुत्र हो गए| सातवें पुत्र का नाम नारायण रखा| जैसे भाई गुरदास जी फरमाते हैं : -





पतित अजामल पाप करि जाइ कलावतनी दे रहिआ |


गुर ते बेमुख होइ कै पाप कमावै दुरमति दहिआ |


बिरथा जनमु गवाइअनु भवजल अंदर फिरदा वहिआ |


छिअ पुत जाऐ वेसना पापां दे फल इछे लहिआ |


पुत उपंना सतवां नाऊं धरन नो चिति उमहिआ |


गुरु दुआरै जाइ कै गुरमुखि नाउं नराइण कहिआ |





उसने सातवें पुत्र का नाम नारायण रख लिया| दुखी होने लगा| वह पापों और दुखों का एक पुतला बन गया| वह सुबह जंगल को चला जाता और शाम को शिकार करके वापस आ जाता| कलावंती अब एक भारी गृहिणी थी| सात बच्चों की मां थी, और रूप भी अब ढल गया था| वह दुखी होने लगी|





स्त्री-पुरुष का यह स्वभाव है, जब दुःख-कष्ट तन को आए तो भगवान या नेकी याद आती है| कलावंती को अब पछतावा होने लगा कि उसने एक उच्च ब्राह्मण का जीवन नष्ट किया और अपना भी| पापिन बनी| अगर राजा से क्षमा मांग लेती तो इतना कष्ट न पाती| झौंपड़ी के पास से कोई साधू-संतों की तरफ देखती रहती|





एक दिन देवनेत के साथ समय बन गया कि दो साधू उसकी झौंपड़ी के पास ठहर गए| वह महापुरुष बहुत सूझवान थे| भगवान रूप! मगर कलावंती के पास कुछ नहीं था, जो उनको खाने को देती| वह वैष्णव साधू थे| अजामल शाम को घर आया| वह चिड़िया, बटेर और कबूतर आदि मार कर लाया तो कलावंती ने उस दिन उसको बनाने न दिए| उसने कहा-हे पति देव! पहले ही पता नहीं किस कुकर्म के बदले यह दशा हुई है| हमें आज मांस नहीं बनाना चाहिए| साधू वैष्णव हैं| हो सकता है कि कोई अच्छा वचन कर जाएं तो हमारे जीवन में कोई सुख का समय आ जाए| सुना है साधू भगवान के भक्त होते हैं|





अजामल-'हे प्रियतमा! बात तो आपकी ठीक है, पर हम क्या खाएं और इनको क्या दें| मेहमान हैं| घर आए अतिथि को भोजन न देना भी तो घोर पाप है|





कलावंती-यह बात तो ठीक है| इनको खाने के लिए क्या दें| हां, कुछ दाने हैं भूने हुए और गुड़ भी है| वह ही दें दे| आप भी मुठ्ठी-मुठ्ठी चबाकर संतोष से रात बिता लें! सुबह जो होगा देखा जाएगा|





अजामल-बात ठीक है| ऐसा ही करो|





दम्पति ने भूने हुए दाने और गुड़ साधुओं को खाने के लिए दिए| अनुरोध किया, 'महाराज! हमारे पास तो यही कुछ है| हम गरीब और पापी हैं| कृपा करो! दया करो! हे महाराज! हमारे लिए भगवान से प्रार्थना करो!





भगवान रूप साधू ने वचन किया-'हे अजामल! त्रिकाल दृष्टि द्वारा हम सब जान गए हैं| आप ब्राह्मण के पुत्र थे, वासना की अग्नि ने आप की बुद्धि सब भस्म कर दी, ठीक है पर जल्दी ही आपका कल्याण होगा| जो आपने अपने पुत्र का नाम 'नारायण' रखा है यह भगवान की प्रेरणा है| इसके साथ प्यार किया करो| नारायण! नारायण! पुकारो| एक दिन अवश्य नारायण आप की पुकार सुन लेंगे|'





ये वचन करके सुबह वह वहां से चले गए| अजामल ने अपने पुत्र को उठा लिया और उससे प्यार करता हुआ कहने लगा-'पुत्र नारायण! आओ बेटा नारायण| रोटी खाओ नारायण! दूध पीओ नारायण!' ऐसी बातें करने लगा| उसकी बातें उसके मन को शांति देने लगी|





कुछ ऐसी प्रभु की लीला हुई, वह जो शिकार मार कर लाता वही बिक जाता| जिससे उसको पैसे मिल जाते इस तरह उसे अन्न खाने को मिलने लगा| उसके दिन अब अच्छे व्यतीत होने लगे| वह झौंपड़ी में रह कर भी सुख महसूस करने लगा|





काल महाबली है| काल की मार से कोई नहीं बचता जो दिखाई देता है, सब नाशवान है सब के काम अधूरे रह जाते हैं जब काल आता है| काल का भारी हाथ सब के सिर के ऊपर रखा जाता है| अजामल का भी काल आ गया| वह बीमार पड़ गया और बिमारी भी उसको कष्ट देने वाली| वह कष्टदायक बीमारी से दुखी होने लगा| एक दिन ऐसा आया जब आंखें बन्द करते ही यमदूत भी नजर आने लगे| नरक की आग जलती हुई दिखाई देने लगी, वह बहुत भयानक रूप में थी, उसकी दशा बहुत डरावनी थी! नरक की झांकी व अंतकाल नजदीक नज़र आया देखकर उसने बहुत ऊंची-ऊंची पुकारा-'नारायण आओ! नारायण आओ!





अजामल पापी ने आवाज़ तो अपने पुत्र को दी परन्तु पुत्र शब्द का इस्तेमाल न किया! सत्य ही उसका कल्याण हो गया जैसे ही उसने 'नारायण' कहा वैसे ही धर्मराज के यमदूत भी पीछे हट गए| अचानक रोशनी हुई| नाद शंख बजे| इधर आत्मा ने शरीर छोड़ा, उधर से फूलों की वर्षा हुई| अजामल की आत्मा स्वर्ग में चली गई| नारायण कहने से पापी का कल्याण हो गया| इस संबंध में चौथे पातशाह का वचन है :-





अजामल प्रीति पुत्र प्रति कीनी करि नाराइण बोलारे ||


मेरे ठाकुर कै मनि भाइ भावणी जम कंकर मारि बिदारे ||





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