शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Wednesday, October 26, 2011

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 29 & also English Chapter - 29

ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 29
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मद्रासी भजनी मेला, तोंडुलकर (पिता व पुत्र), डाँक्टर कैप्टन हाटे और वामन नार्वेकर आदि की कथाएँ ।

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मद्रासी भजनी मेला

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लगभग सन् 1916 में एक मद्रासी भजन मंडली पवित्र काशी की तीर्थयात्रा पर निकली । उस मंडली में एक पुरुष, उनकी स्त्री, पुत्री और साली थी । अभाग्यवश, उनके नाम यहाँ नहीं दिये जा रहे है । मार्ग में कहीं उनको सुनने में आया कि अहमदनगर के कोपरगाँव तालुका के शिरडी ग्राम में श्री साईबाबा नाम के एक महान् सन्त रहते है, जो बहुत दयालु और पहुँचे हुए है । वे उदार हृदय और अहेतुक कृपासिन्धु है । वे प्रतिदिन अपने भक्तों को रुपया बाँटा करते है । यदि कोई कलाकार वहाँ जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करता है तो उसे भी पुरस्कार मिलता है । प्रतिदिन दक्षिणा में बाबा के पास बहुत रुपये इकट्ठे हो जाया करते थे । इन रुपयों में से वे नित्य एक रुपया भक्त कोण्डाजी की तीनवर्षीय कन्या अमनी को, किसी को दो रुपये से पाँच रुपये तक, छः रुपये अमनी की माली को और दस से बीस रुपये तक और कभी-कभी पचास रुपये भी अपनी इच्छानुसार अन्य भक्तों को भी दिया करते थे । यह सुनकर मंडली शिरडी आकर रुकी । मंडली बहुत सुन्दर भजन और गायन किया करती थी, परन्तु उनका भीतरी ध्येय तो द्रव्योपार्जन ही था । मंडली में तीन व्यक्ति तो बड़े ही लालची थे । केवल प्रधान स्त्री का ही स्वभाव इन लोगों से सर्वथा भिन्न था । उसके हृदय में बाबा के प्रति श्रद्घा और विश्वास देखकर बाबा प्रसन्न हो गये । फिर क्या था । बाबा ने उसे उसके इष्ट के रुप में दर्शन दिये और केवल उसे ही बाबा सीतानाथ के रुप में दिखलाई दिये, जब कि अन्य उपस्थित लोगों को सदैव की भाँति ही । अपने प्रिय इष्ट का दर्शन पाकर वह द्रवित हो गई तथा उसका कंठ रुँध गया और आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । तभी प्रेमोन्मत हो वह ताली बजाने लगी । उसको इस प्रकार आनन्दित देख लोगों को कौतूहल तो होने लगा, परन्तु कारण किसी को भी ज्ञात न हो रहा था । दोपहर के पश्चात उसने वह भेद अपने पति से प्रगट किया । बाबा के श्रीरामस्वरुप में उसे कैसे दर्शन हुए इत्यादि उसने सब बताया । पति ने सोचा कि मेरी स्त्री बहुत भोली और भावुक है, अतः इसे राम का दर्शन होना एक मानसिक विकार के अतिरिक्त कुछ नहीं है । उसने ऐसा कहकर उसकी उपेक्षा कर दी कि कहीं यह भी संभव हो सकता है कि केवल तुम्हें ही बाबा राम के रुप में दिखे ओर अन्य लोगों को सदैव की भाँति ही । स्त्री ने कोई प्रतिवाद न किया, क्योंकि उसे राम के दर्शन जिस प्रकार उस समय हुए थे, वैसे ही अब भी हो रहे थे । उसका मन शान्त, स्थिर और संतृप्त हो चुका था ।
आश्चर्यजनक दर्शन

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इसी प्रकार दिन बीतते गये । एक दिन रात्रि में उसके पति को एक विचित्र स्वप्न आया । उसने देखा कि एक बड़े शहर में पुलिस ने गिरफ्तार कर डोरी से बाँधकर उसे कारावास में डाल दिया है । तत्पश्चात् ही उसने देखा कि बाबा शान्त मुद्रा में सींकचों के बाहर उसके समीप खड़े है । उन्हें अपने समीप खड़े देखकर वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि आपकी कीर्ति सुनकर ही मैं आपके श्रीचरणों में आया हूँ । फिर आपके इतने निकट होते हुए भी मेरे ऊपर यह विपत्ति क्यों आई ।

तब वे बोले कि तुम्हें अपने बुरे कर्मों का फल अवश्य भुगतना चाहिये । वह पुनः बोला कि इस जीवन में मुझे अपने ऐसे कर्म की स्मृति नही, जिसके कारण मुझे ये दुर्दिन देखने का अवसर मिला । बाबा ने कहा कि यदि इस जन्म में नहीं तो गत जन्म की कोई स्मृति नहीं, परन्तु यदि एक बार मान भी लूँ कि कोई बुरा कर्म हो भी गया होगा तो अपने यहाँ होते हुए तो उसे भस्म हो जाना चाहिये, जिस प्रकार सूखी घास अग्नि द्घारा शीघ्र भस्म हो जाती है । बाबा ने पूछा, क्या तुम्हारा सचमुच ऐसा दृढ़ विश्वास है । उसने कहा – हाँ । बाबा ने उससे अपनी आँखें बन्द करने को कहा और जब उसने आँखें बन्द की, उसे किसी भारी वस्तु के गिरने की आहट सुनाई दी । आँखें खोलने पर उसने अपने को कारावास से मुक्त पाया । पुलिस वाला नीचे गिरा पड़ा है तथा उसके शरीर से रक्त प्रवाहित हो रहा है, यह देखकर वह अत्यन्त भयभीत दृष्टि से बाबा की ओर देखने लगा । तब बाबा बोले कि बच्चू । अब तुम्हारी अच्छी तरह खबर ली जायेगी । पुलिस अधिकारी अभी आवेंगे और तुम्हें गिरफ्तार कर लेंगे । तब वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि आपके अतिरिक्त मेरी रक्षा और कौन कर सकता है । मुझे तो एकमात्र आपका ही सहारा है । भगवान् मुझे किसी प्रकार बचा लीजिये । तब बाबा ने फिर उससे आँखें बन्द करने को कहा । आँखे खोलने पर उसने देखा कि वह पूर्णतः मुक्त होकर सींकचों के बाहर खड़ा है और बाबा भी उसके समीप ही कड़े है । तब वह बाबा के श्रीचरणों पर गिर पड़ा । बाबा ने पूछा कि मुझे बताओ तो, तुम्हारे इस नमस्कार और पिछले नमस्कारों में किसी प्रकार की भिन्नता है या नहीं । इसका उत्तर अच्छी तरह सोच कर दो । वह बोला कि आकाश और पाताल में जो अन्तर है, वही अंतर मेरे पहले और इस नमस्कारा में है । मेरे पूर्व नमस्कार तो केवल धन-प्राप्ति की आशा से ही थे, परन्तु यह नमस्कार मैंने आपको ईश्वर जानकर ही किया है । पहले मेरी धारणा ऐसी थी कि यवन होने के नाते आप हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट कर रहे है । बाबा ने पूछा कि क्या तुम्हारा यवन पीरों में विश्वास नहीं । प्रत्युत्तर में उसने कहा – जी नहीं । तब वे फिर पुछने लगे कि क्या तुम्हारे घर में एक पंजा नही । क्या तुम ताबूत की पूजा नहीं करते । तुम्हारे घर में अभी भी एक काडबीबी नामक देवी है, जिसके सामने तुम विवाह तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर कृपा की भीख माँगा करते हो । अन्त में जब उसने स्वीकार कर लिया तो वे बोले कि इससे अधिक अब तुम्हे क्या प्रमाण चाहिये । तब उनके मन में अपने गुरु श्रीरामदास के दर्शनों की इच्छा हुई । बाबा ने ज्यों ही उससे पीछे घूमने को कहा तो उसने देखा कि श्रीरामदास स्वामी उसके सामने खड़े है और जैसे ही वह उनके चरणों पर गिरने को तत्पर हुआ, वे तुन्त अदृश्य हो गये । तब वह बाबा से कहने गला कि आप तो वृदृ प्रतीत होते है । क्या आपको अपनी आयु विदित है । बाबा ने पूछा कि तुम क्या कहते हो कि मैं बूढ़ा हूँ । थोड़ी दूर मेरे साथ दौड़कर तो देखो । ऐसा कहकर बाबा दौड़ने लगे और वह भी उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा । दौड़ने से पैरों द्घारा जो धूल उड़ी, उसमें बाबा लुप्त हो गये और तभी उसकी नींद भी खुल गई । जागृत होते ही वह गम्भीरतापूर्वक इस स्वप्न पर विचार करने लगा । उसकी मानसिक प्रवृत्ति में पूर्ण परिवर्तन हो गया । अब उसे बाबा की महानता विदित हो चुकी थी । उसकी लोभी तथा शंकालु वृत्ति लुप्त हो गयी और हृदय में बाबा के चरणों के प्रति सच्ची भक्ति उमड़ पड़ी । वह था तो एक स्वप्न मात्र ही, परन्तु उसमें जो प्रश्नोत्तर थे, वे अधिक महत्वपूर्ण थे । दूसरे दिन जब सब लोग मसजिद में आरती के निमित्त एकत्रित हुए, तब बाबा ने उसे प्रसाद में लगभग दो रुपये की मिठाई और दो रुपये नगद अपने पास से देकर आर्शीवाद दिया । उसे कुछ दिन और रोककर उन्होंने आशीष देते हुए कहा कि अल्ला तुम्हें बहुत देगा और अब सब अच्छा ही करेगा । बाबा से उसे अधिक द्रव्य की प्राप्ति तो न हुई, परन्तु उनकी कृपा उसे अवश्य ही प्राप्त हो गई, जिससे उसका बहुत ही कल्याण हुआ । मार्ग में उनको यथेष्ठ द्रव्य प्राप्त हुआ और उनकी यात्रा बहुत ही सफल रही । उन्हें यात्रा में कोई कष्ट या असुविधा न हुई और वे अपने घर सकुशल पहुँच गये । उन्हें बाबा के श्रीवचनों तथा आर्शीवाद और उनकी कृपा से प्राप्त उस आनन्द की सदैव स्मृति बनी रही । इस कथा से विदित होता है कि बाबा किस प्रकार अपने भक्तों के समीप पधारकर उन्हें श्रेयस्कर मार्ग पर ले आते थे और आज भी ले आते है ।
तेंडुलकर कुटुम्ब

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बम्बई के पास बान्द्रा में एक तेंडुलकर कुटुम्ब रहता था, जो बाबा का पूरा भक्त था । श्रीयुत् रघुनाथराव तेंडुलकर ने मराठी भाषा में श्रीसाईनाथ भजनमाला नामक एक पुस्तक लिखी है, जिसमें लगभग आठ सौ अभंग और पदों का समावेश तथा बाबा की लीलाओं का मधुर वर्णन है । यह बाबा के भक्तों के पढ़ने योग्य पुस्तक है । उनका ज्येष्ठ पुत्र बाबू डाँक्टरी परीक्षा में बैठने के लिये अनवरत अभ्यास कर रहा था । उसने कई ज्योतिषियों को अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, परन्तु सभी ने बतलाया कि इस वर्ष उसके ग्रह उत्तम नहीं है किन्तु अग्रिम वर्ष परीक्षा में बैठने से उसे अवश्य सफलता प्राप्त होगी । इससे उसे बड़ी निराशा हुई और वह अशांत हो गया । थोड़े दिनों के पश्चात् उसकी माँ शिरडी गई और उसने वहाँ बाबा के दर्शन किये । अन्य बातों के साथ उसने अपने पुत्र की निराशा तथा अशान्ति की बात भी बाबा से कही । उनके पुत्र को कुछ दिनों के पश्चात् ही परीक्षा में बैठना था । बाबा कहने लगे कि अपने पुत्र से कहो कि मुझ पर विश्वास रखे । सब भविष्यकथन तथा ज्योतिषियों द्घारा बनाई कुंडलियों को एक कोने में फेंक दे और अपना अभ्यास-क्रम चालू रख शान्तचित्त से परीक्षा में बैठे । वह अवश्य ही इस वर्ष उत्तीर्ण हो जायेगा । उससे कहना कि निराश होने की कोई बात नहीं है । माँ ने घर आकर बाब का सन्देश पुत्र को सुना दिया । उसने घोर परिश्रम किया और परीक्षा में बैठ गया । सब परचों के जवाब बहुत अच्छे लिखे थे । परन्तु फिर भी संशयग्रस्त होकर उसने सोचा कि सम्भव है कि उत्तीर्ण होने योग्य अंक मुझे प्राप्त न हो सकें । इसीलिये उसने मौखिक परीक्षा में बैठने का विचार त्याग दिया । परीक्षक तो उसके पीछे ही लगा था । उसने एक विघार्थी द्घारा सूचना भेजी कि उसे लिखित परीक्षा में तो उत्तीर्ण होने लायक अंक प्राप्त है । अब उसे मौखिक परीक्षा में अवश्य ही बैठना चाहिये । इस प्रकार प्रोत्साहन पाकर वह उसमें भी बैठ गया तथा दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गया । उस वर्ष उसकी ग्रह-दशा विपरीत होते हुए भी बाबा की कृपा से उसने सफलता पायी । यहाँ केवल इतनी ही बात ध्यान देने योग्य है कि कष्ट और संशय की उत्पत्ति अन्त में दृढ़ विश्वास में परिणत हो जाती है । जैसी भी हो, परीक्षा तो होती ही है, परन्तु यदि हम बाबा पर दरृढ़ विश्वास और श्रद्घा रखकर प्रयत्न करते रहे तो हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी । इसी बालक के पिता रघुनाथराव बम्बई की एक विदेशी व्यवसायी फर्म में नौकरी करते थे । वे बहुत वृदृ हो चुके थे और अपना कार्य सुचारु रुप से नहीं कर सकते थे । इसलिये वे अब छुट्टी लेकर विश्राम करना चाहते थे । छुट्टी लेने पर भी उनके शारीरिक स्वास्थ्य में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ । अब यह आवश्यक था कि सेवानिवृतत्ति की पूर्वकालिक छुट्टी ली जाय । एक वृदृ और विश्वासपात्र नौकर होने के नाते प्रधान मैनेजर ने उन्हें पेन्शन देर सेवा-निवृत्त करने का निर्णय किया । पेन्शन कितनी दी जाय, यह प्रश्न विचाराधीन था । उन्हें 150 रुपये मासिक वेतन मिलता था । इस हिसाब से पेन्शन हुई 75 रुपये, जो कि उनके कुटुम्ब के निर्वाह हेतु अपर्याप्त थी । इसलिये वे बड़े चिन्तित थे । निर्णय होने के पन्द्रह दिन पूर्व ही बाबा ने श्रीमती तेंडुलकर को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मेरी इच्छा है कि पेन्शन 100 रुपये दी जाय । क्या तुम्हें इससे सन्तोष होगा । श्रीमती तेंडुलकर ने कहा कि बाबा मुझ दासी से आप क्या पूछते है हमें तो आपके श्री-चरणों में पूर्ण विश्वास है । यघपि बाबा ने 100 रुपये कहे थे, परन्तु उसे विशेष प्रकरण समझकर 10 रुपये अधिक अर्थात् 110 रुपये पेन्शन निश्चित हुई । बाबा अपने भक्तों के लिये कितना अपरिमित स्नेह और कितनी चिन्ता रखते थे ।
कैप्टन हाटे

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बीकानेर के निवासी कैप्टन हाटे बाबा के परम भक्त थे । एक बार स्वप्न में बाबा ने उनसे पूछा कि क्या तुम्हें मेरी विस्मृति हो गई । श्री. हाटे ने उनके श्रीचरणों से लिफ्ट कर कहा कि यदि बालक अपनी माँ को भूल जाये तो क्या वह जीवित रह सकता है । इतना कहकर श्री. हाटे शीघ्र बगीचे में जाकर कुछ वलपपडी (सेम) तोड़ लाये और एक थाली में सीधा (सूखी भिश्रा) तथा दक्षिणा रखकर बाबा को भेंट करने आये । उसी समय उनकी आँखें खुल गई और उन्हें ऐसा भान हुआ कि यह तो एक स्वप्न था । फिर वे सब वस्तुएँ जो उन्होंने स्वप्न में देखी थी, बाबा के पास शिरडी भेजने का निश्चय कर लिया । कुछ दोनों के पश्चात् वे ग्वालियर आये और वहाँ से अपने एक मित्र को बारह रुपयों का मनीआर्डर भेजकर पत्र में लिख भेजा कि दो रुपयों में सीधा की सामग्री और वलपपड़ी (सेम) आदि मोल लेकर तथा दस रुपये दक्षिणास्वरुप साथ में रखकर मेरी ओर से बाबा को भेंट देना । उनके मित्र ने शिरडी आकर सब वस्तुएँ तो संग्रह कर ली, परन्तु वलपपड़ी प्राप्त करने में उन्हें अत्यन्त कठिनाई हुई । थोड़ी देर के पश्चात् ही उन्होंने एक स्त्री को सिर पर टोकरी रखे सामने से आते देखा । उन्हें यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि उस टोकरी में वलपपड़ी के अतिरिक्त कुछ भी न था । तब उन्होंने वलपपड़ी खरीद कर सब एकत्रित वस्तुएँ लेकर मसजिद में जाकर श्री. हाटे की ओर से बाबा को भेंट कर दी । दूसरे दिन श्री. निमोणकर ने उसका नैवेघ (चावल और वलपपड़ी की सब्जी) तैयार कर बाबा को भोजन कराया । सब लोगों को बड़ा विसमय हुआ कि बाबा ने भोजन में केवल वलपपड़ी ही खाई और अन्य वस्तुओं को स्पर्श तक न किया । उनके मित्र द्घारा जब इस समाचार का पता कैप्टन हाटे को चला तो वे गदगद हो उठे और उनके हर्ष का पारावार न रहा ।
पवित्र रुपया

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एक अन्य अवसर पर कैप्टन हाटे ने विचार किया कि बाबा के पवित्र करकमलों द्घारा स्पर्शित एक रुपया लाकर अपने घर में अवश्य ही रखना चाहिये । अचानक ही उनकी भेंट अपने एक मित्र से हो गई, जो शिरडी जा रहे थे । उनके हाथ ही श्री. हाटे ने एक रुपया भेज दिया । शिरडी पहुँचने पर बाबा को यथायोग्य प्रणाम करने के पश्चात् उसने दक्षिणा भेंट की, जिसे उन्होंने तुरन्त ही अपनी जेब में रख लिया । तत्पश्चात् ही उसने कैप्टन हाटे का रुपया भी अर्पण किया, जिसे वे हाथ में लेकर गौर से निहारने लगे । उन्होंने उसका अंकित चित्र ऊपर की ओर कर अँगूठे पर रख खनखनाया और अपने हाथ में लेकर देखने लगे । फिर वे उनके मित्र से कहने लगे कि उदी सहित यह रुपया अपने मित्र को लौटा देना । मुझे उनसे कुछ नहीं चाहिये । उनसे कहना कि वे आनन्दपूर्वक रहें । मित्र ने ग्वालियर आकर वह रुपया हाटे को देकर वहाँ जो कुछ हुआ था, वह सब उन्हें सुनाया, जिसे सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अनुभव किया कि बाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते है । उनकी मनोकामना बाबा ने पूर्ण कर दी ।
श्री. वामन नार्वेकर

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पाठकगण अब एक भिन्न कथा श्रवण करें । एक महाशय, जिनका नाम वामन नार्वेकर था, उनकी साई-चरणों में प्रगाढ़ प्रीति थी । एक बार वे एक ऐसी मुद्रा लाये, जिसके एक ओर राम, लक्ष्मण और सीता तथा दूसरी ओर करबबदृ मुद्रा में मारुपति का चित्र अंकित था । उन्होंने यह मुद्रा बाबा को इस अभिप्राय से भेंट की कि वे इसे अपने कर स्पर्श से पवित्र कर उदी सहित लौटा दे । परन्तु उन्होंने उसे तुरन्त अपनी जेब में रख लिया । शामा ने वामनराव की इच्छा बताकर उनसे मुद्रा वापस करने का अनुरोध किया । तब वे वामनराव के सामने ही कहने लगे कि यह भला उनको क्यों लौटाई जाये । इसे तो हमें अपने पास ही रखना चाहिये । यदि वे इसके बदले में पच्चीस रुपया देना स्वीकार करें तो मैं इसे लौटा दूँगा । वह मुद्रा वापस पाने के हेतु श्री. वामनराव ने पच्चीस रुपयेएकत्रित कर उन्हें भेंट किये । तब बाबा कहने लगे किइस मुद्रा का मूल्य तो पच्चीस रुपयों से कहीं अधिक है । शामा तुम इसे अपने भंजार में जमा करके अपने देवालय में प्रतिष्ठित कर इसका नित्य पूजन करो । किसी का साहस न था कि वे यह पूछ तो ले कि उन्होंने ऐसी नीति क्यों अपनाई । यह तो केवल बाबा ही जाने कि किसके लिये कब और क्या उपयुक्त है ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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Chapter 29

Stories of (1) Madrasi Bhajani Mela - (2) Tendulkars (Father and son) - (3) Dr. Captain Hate - (4) Waman Narvekar.

This Chapter described other interesting and wonderful stories of Sai Baba.

(1) Madrasi Bhajani Mela

It was in the year 1916 that a Madrasi Bhajani Mela (Party of the Ramadasi Panth) started on a Pilgrimage to the holy city of Banaras. The Party consisted of a man, his wife, daughter and sister-in-law. Unfortunately their names are not mentioned. On their way, the party heard that there lived at Shirdi in Kopergaon Taluka, Ahmednagar District, a great sage named Sai Baba, who was calm and composed, and who was very liberal and who distributed money every day to His Bhaktas and to skilful persons, who went and showed their skill there. A lot of money in the form of Dakshina was collected daily by Sai Baba and out of this amount, He gave daily one rupee to a three year old girl Amani, the daughter of a Bhakta Kondaji and Rs. 2 to 5 to some, Rs. 6 to Jamali, the mother of Amani and Rs. 10 to 20 and even Rs. 50 to other Bhaktas as He pleased. On hearing all this the party came to Shirdi and stayed there. The Mela did very good bhajan and sang very good songs, but inwardly they craved for money. Three of the party were full of avarice, but the chief lady or mistress was of a very different nature. She had a regard and love for Baba. Once it so happened, that when the noon-day Arati was going on, Baba was much pleased with her faith and devotion, and was pleased to give her darshan of her Ishtam (Beloved Deity). To her Baba appeared as Sitanath (Rama) while to all the others the usual Sainath. On seeing her beloved Deity, she was very much moved. Tears began to flow from her eyes and she clapped her hands in joy. The people began to wonder at her joyful mood; but were not able to guess its cause. Late in the afternoon she disclosed everything to her husband. She told him how she saw Shri Rama in Sai Baba. He thought that she was very simple and devout, and her seeing Rama might be a hallucination of her mind. He poohpoohed her, saying that it was not possible, that she alone should see Rama while they all saw Sai Baba. She did not resent this remark, as she was fortunate enough to get Ramadarshan now and then, when her mind was calm and composed and free from avarice.

Wonderful Vision

Things were going on like this, when the husband got a wonderful vision in his dream one night as follows :- He was in a big city, the police there had arrested him, tied his hands with a rope, and put him up in a cage (lock-up). As the police were tightening the grip, he saw Sai Baba standing quiet outside, near the cage. On seeing Baba so near, he said in a plaintive tone - "Hearing Your fame I came to Your Feet and why should a calamity befall me when You are standing here in person?" Baba said - "You must suffer the consequences of your action" He said - "I have not done anything in this life which would bring such a misfortune on me." Baba said - "If not in this life, you must have committed some sin in your past life." He replied, "I do not know anything of my past life, but assuming that I did commit some sin then, why should it not be burnt and destroyed in Your presence, as dry grass before fire? "Baba - "Have you got such faith?" He - "Yes." Baba then asked him to close his eyes. No sooner did he shut them than he heard a thumping sound of something falling down, and opening his eyes, he saw that he was free and the police had fallen down, bleeding. Being much frightened he began to look at Baba who said - "Now you are well caught, officers will now come and arrest you." Then he begged - "There is no other saviour except You, save me anyhow." Then Baba again asked him to close his eyes. He did so and when he opened them, he saw that he was free, out of the cage and that Baba was by his side. He then fell at Baba's Feet. Baba then asked him - "Is there any difference between this namaskar and your previous ones? Think well and reply." He said "There is a lot of difference; my former namaskaras were offered with the object of getting money from You, but the present namaskar is one offered to You as God; besides, formerly I thought resentfully that you, being a Mahomendan, were spoiling us, the Hindus". Baba "Do you not believe in your mind in Mahomendan Gods?" He said "No". Then Baba said - "Have you not got a Panja (Emblem of Hand) in your house and do you not worship the same in Tabut, i.e. Moharum festival? Also there is in your house another Mahomedan Deity by name Kadbibi, whom you propitiate and appease on your marriage and other festivals. Is it not so?" He admitted all this. Then Baba said,"What more do you want?" Then a desire arose in his mind to get the darshan of his Guru Ramdas, when Baba asked him to turn back and see. And when he turned, lo, Ramadas was in front of him. No sooner did he begin to fall at His Feet, Ramadas vanished. Then he inquisitively asked Baba,"You look old. Do You know Your age?" Baba - "What! Do you say I am old! just run a race with Me and see." Saying this Baba began to run and he too followed. Baba disappeared in the dust raised by His foot-steps while running and the man was awakened.

After awakening he began to think seriously about the dream-vision. His mental attitude was completely changed and he realised the greatness of Baba. After this, his grabbing and doubting tendencies disappeared and true devotion to Baba's Feet sprang in his mind. The vision was a mere dream, but the questions and answers therein were most significant and interesting. Next morning when all the persons assembled in the Masjid for the Arati, Baba gave him as prasad two rupees' worth sweetmeats and also two rupees from His pocket and blessed him. He made him stay there for a few more days and gave him His blessing, saying,"Allah (God) will give you plenty and He will do you all good". He did not get more money there, but he got far better things viz. Baba's blessing which stood him in good stead all along. The party got plenty of money afterwards and their pilgrimage was successful as they had not to suffer any trouble or inconvenience during their journey. They all returned home safe and sound, thinking of Baba's words and blessings and the Anand(Bliss) they experienced by His grace.

This story illustrates one of the methods, which Baba followed (and is following even now) in some cases to improve and reform His devotees.

(2) Tendulkar family

There lived in Bandra (a suburb of Bombay) a Tendalkar family, all the members of which were devoted to Baba. Mrs. Savitribai Tendulkar has published a Marathi book named "Shri Sainath Bhajan Mala" containing 800 abhangas and padas describing the Leelas of Baba. It is a book worth reading by those who are interested in Baba. The son, Babu Tendulkar was studying hard day and night and wanted to appear for the medical examination. He consulted some astrologers. Examining his horoscope they told him that the stars were not favourable that year and that he should appear for the examination next year, when he would be certainly successful. This cast a gloom over him and made him restless. A few days afterwards his mother went to Shirdi and saw Baba. Amongst other things she mentioned the gloomy and morose condition of her son, who was to appear for the examination in a few days. Hearing this Baba said to her,"Tell your son to believe in Me, to throw aside horoscopes and predictions of astrologers and palmists and go on with his studies. Let him appear for the examination with a calm mind, he is sure to pass this year. Ask him to trust in Me and not to get disappointed". The mother returned home and communicated Baba's message to her son. Then he studied hard and in due course appeared for the examination. In the written papers he did well, but being overwhelmed by doubts he thought that he would not secure sufficient marks for passing. So he did not care to appear for the oral examination. But the examiner was after him. He sent word through a fellow- student, stating that he had passed in the written examination and that he should appear for the oral. The son being thus encouraged appeared for the oral examination and was successful in both. Thus he got through the examination that year successfully by Baba's grace, though the stars were against him. It is to be noted here that doubts and difficulties surround us just to move us and confirm our faith. We are tested as it were. If we only hold on steadily to Baba with full faith and continue our endeavours, our efforts will be ultimately crowned with success.

The father of this boy, Raghunathrao was serving in some foreign mercantile firm in Bombay. As he grew old, he was not able to attend to his work properly and so he had to take leave and rest. As he did not improve during the period of leave a further extension of leave or retirement from service was inevitable. The Chief Manager of the firm decided to retire him on pension as he was an old and a reliable servant. The question regarding the amount of pension to be given was under consideration. He was getting Rs.150/- p.m. and his pension i.e. half the amount viz. Rs. 75/- would not be enough to meet the expenses of the family. So they were all anxious about this matter. Fifteen days before the final settlement, Baba appeared to Mrs. Tendulkar in her dream and said, "I wish that Rs. 100/- should be paid (settled) as pension, will this satisfy you?" She replied "Baba, why ask me this? We fully trust in You". Though Baba said Rs.100/- still he was given ten Rupees more i.e. Rs.110/- as a special case. Such wonderful love and care did Baba exhibit for His Bhaktas.

(3) Captain Hate

Captain Hate, who was staying in Bikaner, was a great devotee of Baba. Once Baba appeared to him in his dream and said "Did you forget Me?" Hate then immediately held Baba's Feet and replied, "If a child forgets his mother, how could it be saved?" Then Hate went into the garden and took out fresh walpapadi vegetables, and arranging 'shidha' (ghee, wheat-flour and dal etc.) and Dakshina, was about to offer all this to Baba when he was awakened and came to know that the whole thing was a dream. Then he decided to send all these things to Baba at Shirdi. When he came to Gwalior some days afterwards, he sent Rs.12/- by money order to a friend, with instructions that Rs. 2 should be spent in buying shidha articles and walpapadi vegetables, and those should be offered to Baba with Rs. 10 as Dakshina. The friend went to Shirdi and purchased the things mentioned, but walpapadi was not available. In a short time a woman turned up with a basket on her head, which curiously enough contained the vegetables. It was purchased and then all the things were offered to Baba on behalf of Captain hate. Mr. Nimonkar prepared the 'naivedya' (rice and walpapadi vegetables) next day and offered the same to Baba. All the people were surprised to see that Baba while dining, took and ate walpapadi, and did not touch rice and other things. Hate's joy knew no bounds when he heard of this from his friend.

Consecrated Rupee

At another time Captain Hate wished that he should have in his house a coin of rupee consecrated by Baba with His touch. He came across a friend who was bound for Shirdi. With him Hate sent his rupee. The friend went to Shirdi and after the usual saluation gave first his Dakshina which Baba pocketed. Then he gave Hate's rupee, which Baba took in His hand and began to stare at it. He held it in front, tossed it up with His right thumb and played with it. Then He said to the friend, "Return this to its owner with the Prasad of Udi, tell him that I want nothing from him, ask him to live in peace and contentment." The friend returned to Gwalior, handed over the consecrated rupee to Hate, and told him all the h0appened at Shirdi. This time Hate was much pleased and realised that Baba always encouraged good thoughts, and as he wished intently, Baba fulfilled the same accordingly.

(4) Waman Narvekar

Now let the readers hear a different story. A gentleman, named Waman Narvekar loved Baba very much. He once brought a rupee. On one said (obverse) of it were engraved the figures of Rama, Laxman and Sita and on the other (reverse) side was engraved the figure of Maruti, with folded hands. He offered it to Baba with a hope that He should consecrate it with His touch and return it to him with Udi. But Baba immediately pocketed it. Then Shama spoke to Baba, regarding Womanrao's intention and requested Him to return it. Then Baba spoke in the presence of Wamanrao as follows :- "Why should it be returned to him? We should keep it ourselves. If he gives Rs.25/- for it, it will be returned." Then, for the sake of that rupee, Wamanrao collected Rs.25/- and placed them before Baba. Then Baba said, "The value of that rupee far exceeds 25 Rupees. Shama, take this rupee, let us have it in our store, keep this in your shrine and worship it." No one had the courage to ask Baba why He followed this particular action. He only knows what is best and most suitable to each and all.

Bow to Shri Sai - Peace be to all

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