शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Wednesday, October 5, 2011

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 26 Also in English - Chapter 26

ॐ सांई राम



आज बाबा जी का महासमाधि दिवस (पुण्यतिथि) है, अत: आप सब से अनुरोध है की कम से कम एक जरूरतमंद की सहायता अवश्य करने की कृपा करे, अगर हो सके तो किसी भूखे को भोजन करवाए...



बाबा जी की कृपा आप सब पर बनी रहे...



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 26

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भक्त पन्त, हरिश्चन्द्र पितले और गोपाल आंबडेकर की कथाएँ

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इस सृष्टि में स्थूल, सूक्ष्म, चेतन और जड़ आदि जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब एक ब्रहृ है और इसी एक अद्घितीय वस्तु ब्रहृ को ही हम भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित करते तथा भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखते है । जिस प्रकार अँधेरे में पड़ी हुई एक रस्सी या हार को हम भ्रमवश सर्प समझ लेते है, उसी प्रका हम समस्त पदार्थों के केवल ब्रहृ स्वरुप को ही देखते है, न कि उनके सत्य स्वरुप को । एकमात्र सदगुरु ही हमारी दृष्टि से माया का आवरण दूर कर हमें वस्तुओं के सत्यस्वरुप का यथार्थ में दर्शन करा देने में समर्थ है । इसलिये आओ, हम श्री सदगुरु साई महाराज की उपासना कर उनसे सत्य का दर्शन कराने की प्रार्थना करे, जो कि ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ।

आन्तरिक पूजन

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श्री. हेमाडपंत उपासना की एक सर्वथा नवीन पद्घति बताते है । वे कहते है कि सदगुरु के पादप्रक्षालन के निमित्त आनन्द-अश्रु के उष्ण जल का प्रयोग करो । उन्हें सत्यप्रेमरुपी चन्दन का लेप कर, दृढ़विश्वासरुपी वस्त्र पहिनाओ तथा अष्ट सात्विक भावों के स्थान पर कोमल और एकाग्र चित्तरुपी फल उन्हें अर्पित करो । भावरुपी बुक्का उनके श्री मस्तक पर लगा, भक्ति की कछनी बाँध, अपना मस्तक उनके चरणों पर रखो । इस प्रकार श्री साई को समस्त आभूषणों से विभूषित कर, उन्हें अपना सर्वस्व निछावर कर दो । उष्णता दूर करने के लिये भाव की सदा चँवर डुलाओ । इस प्रकार आनन्ददायक पूजन कर उनसे प्रार्थना करो –

हे प्रभु साई । हमारी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी बना दो । सत्य और असत्य का विवेक दो तथा सांसारिक पदार्थों से आसक्ति दूर कर हमें आत्मानुभूति प्रदान करो । हम अपनी काया और प्राण आपके श्री चरणों में अर्पित करते है । हे प्रभु साई । मेरे नेत्रों को तुम अपने नेत्र बना लो, ताकि हमें सुख और दुःख का अनुभव ही न हो । हे साई । मेरे शरीर और मन को तुम अपनी इच्छानुकूल चलने दो तथा मेरे चंचल मन को अपने चरणों की शीतल छाया में विश्राम करने दो ।

भक्त पन्त

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एक समय एक भक्त, जिनका नाम पंत था और जो एक अन्य सदगुरु के शिष्य थे, उन्हें शिरडी पधारने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उनकी शिरडी आने की इच्छा तो न थी, परन्तु मेरे मन कछु और है, विधिना के कुछ और वाली कहावत चरितार्थ हुई । वे रेल (पश्चिम रोल्वे) द्घारा यात्रा कर रहे थे, जहाँ उनके बहुत से मित्र व सम्बन्धियों से अचानक ही भेंट हो गई, जो कि शिरडी यात्रा को ही जा रहे थे । उन लोगों ने उनसे शिरडी तक साथ-साथ चलने का प्रस्ताव किया । पंत यह प्रस्ताव अस्वीकार न कर सके । तब वे सब लोग बम्बई में उतरे और इसी बीच पन्त विरार में उतर अपने सदगुरु से शिरडी प्रस्थान करने की अनुमति लेकर तथा आवश्यक खर्च आदि का प्रबन्ध कर, सब लोगों के साथ रवाना हो गये । वे प्रातःकाल वहाँ पहुँच गये और लगभग 11 बजे मसजिद को गये । वहाँ पूजनार्थ भक्तों का एकत्रित समुदाय देख सब को अति प्रसन्नता हुई, परन्तु पन्त को अचानक ही मूर्च्छा आ गई और वे बेसुध होकर वहीं गिर पड़े । तब सब लोग भयभीत होकर उन्हें स्वस्थ करने के समस्त उपचार करने लगे । बाबा की कृपा से और मस्तक पर जल के छींटे देने से वे स्वस्थ हो गये और ऐसे उठ बैठे, जैसे कि कोई नींद से जगा है । त्रिकालज्ञ बाबा ने यह सब जानकर कि यह अन्य गुरु का शिष्य है, उन्हें अभय-दान देकर उनके गुरु में ही उनके विश्वास को दृढ़ करते हुए कहा कि कैसे भी आओ, परन्तु भूलो नही, अपने ही स्तंभ को दृढ़तापूर्वक पकड़कर सदैव स्थिर हो उनसे अभिन्नता प्राप्त करो । पन्त तुरन्त इन शब्दों का आशय् समझ गये और उन्हें उसी समय अपने सदगुरु की स्मृति हो आई । उन्हें बाबा के इस अनुग्रह की जीवन भर स्मृति बनी रही ।

हरिश्चन्द्र पितले

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बम्बई में एक श्री. हरिश्चन्द्र पितले नामक सदगृहस्थ थे । उनका पुत्र मिर्गी रोग से पीड़ित था । उन्होंने अनेक प्रकार की देशी व विदेशी चिकित्सायें कराई, परन्तु उनसे कोई लाभ न हुआ । अब केवल यही उपाय शेष रह गया था कि किसी सन्त के चरण-कमलों की शरण ली जाय । 15वें अध्याय में बतलाया जा चुका है कि श्री. दासगणू के सुमधुर कीर्तन से साईबाबा की कीर्ति बम्बई में अधिक फैल चुकी थी । पितले ने भी सन् 1910 में उनका कीर्तन सुना और उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री साईबाबा के केवल कर-स्पर्श तथा दृष्टिमात्र से ही असाध्य रोग समूल नष्ट हो जाते है । तब उने मन में भी श्री साईबाबा के प्रिय दर्शन की तीव्र इच्छा जागृत हो जाते है । यात्रा का प्रबन्ध कर भेंट देने को फलों की टोकरी लेकर स्त्री और बच्चों सहित वे शिरडी पधारे । मसजिद पहुँचकर उन्होंने चरण-वंदना की तथा अपने रोगी पुत्र को उनके श्री-चरणों में डाल दिया । बाबा की दृष्टि उस पर पड़ते ही उसमें एक विचित्र परिवर्तन हो गया । बच्चे ने आँखें फेर दी और बेसुध हो कर गिर पड़ा । उसके मुँह से झाग निकलने लगी तथा शरीर पसीने से भीग गया और ऐसी आशंका होने लगी कि अब उसके प्राण निकलने ही वाले है । यह देखकर उसके माता-पिता अत्यंत निराश होकर घबड़ाने लगे । बचेचे को बहुधा थोड़ी मूर्च्छा तो अवश्य आ जाया करती थी, परन्तु यह मूर्च्छा दीर्घ काल तक रही । माता की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी और वह दुःखग्रसित हो आर्तानाद करने लगी कि मैं ऐसी स्थिति में हूँ, जैसे कि एक व्यक्ति, चोरों के डर से भाग कर किसी घर में प्रविष्टि हो जाय और वह घर ही उसके ऊपर गिर पड़े, या एक भक्त मन्दिर में पूजन के लिये जाय और वह मन्दिर में ही उसके ऊपर गिर पड़े या एक गाय शेर के डर से भागकर किसी कसाई के हाथ लग जाय, या एक स्त्री सूर्य के ताप से व्यथित होकर वृक्ष की छाया में जाये और वह वृक्ष ही उसके ऊपर गिर पड़े । तब बाबा ने सान्त्वना देते हुये कहा कि इस प्रकार प्रलाप न कर, धैर्य धारण करो । बच्चे को अपने निवासस्थान पर ले जाओ । वह आधा घण्टे के पश्चात् ही होश में आ जायेगा । तब उन्होंने बाबा के आदेश का तुरन्त पालन किया । बाबा के वचन सत्य निकले । जैसे ही उसे वाड़े में लाये कि बच्चा स्वस्थ हो गया और पितले परिवार – पति, पत्नी व अन्य सब लोगों को महान् हर्ष हुआ और उनका सन्देह दूर हो गया । श्री. पितले अपनी धर्मपत्नी सहित बाबा के दर्शनो को आये और अति विनम्र होकर आदरपूर्वक चरण-वन्दना कर पादसेवन करने लगे । मन ही मन वे बाबा को धन्यवाद दे रहे थे । तब बाबा ने मुस्कराकर कहा किक्या तुम्हारे समस्त विचार और शंकायें मिट गई । जिन्हें विश्वास और धैर्य है, उनकी रक्षा श्री हरि अवश्य करेंगे । श्री. पितले एक धनाढ्य व्यक्ति थे, इसलिये उन्होंने अधिक मात्रा में मिठाई बाँटी और उत्तम फल तथा पान बीड़े बाबा को भेंट किये । श्रीमती पितले सात्विक वृत्ति की महिला थी । वे एक स्थाने पर बैठकर बाबा की ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से निहारा करती थी । उनकी आँखों से प्रसन्नता के आँसू गिरते थे । उनका मृदु और सरल स्वभाव देखकर बाबा अति प्रसन्न हुए । ईश्वर के समान ही सन्त भी भक्तों के अधीन है । जो उनकी शरण में जाकर उनका अनन्य भाव से पूजन करते है, उनकी रक्षा सन्त करते है । शिरडी में कुछ दिन सुखपूर्वक व्यतीत कर पितले परिवार बाबा के समीप मसजिद में गया और चरण-वन्दना कर शिरडी से प्रस्थान करने की अनुमति माँगी । बाबा ने उन्हें उदी देकर आर्शीवाद दिया । पितले को पास बुलाकर वे कहने लगे । बापू । पहले मैंने तुम्हें दो रुपये दिये थे और अब मैं तुम्हे तीन रुपये देता हूँ । इन्हें अपने पूजन में रखकर नित्य इनका पूजन करो । इससे तुम्हारा कल्याँण होगा । श्री. पितले ने उनहें प्रसादस्वरुप ग्रहण कर, बाबा को पुनः साष्टांग नमस्कार किया तथा आशीष के लिये प्रार्थना की । उन्हें एक विचार भी आया कि प्रथम अवसर होने के कारण मैं इसका अर्थ समझने में असमर्थ हूँ कि दो रुपये मुझे पहले कब दिये थे । वे इस बात का स्पष्टीकरण चाहते थे, परन्तु बाबा मौन ही रहे । बम्बई पहुँचने पर उन्होंने अपनी वृदृ माता को शिरडी की विस्तृत वार्ता सुनाई और उन दो रुपयों की समस्या भी उनसे कही । उनकी माता को भी पहले-पहल तो कुछ समझ में न आया, परन्तु पूरी तरह विचार करने पर उन्हें एक पुरातन घटना की स्मृति हो आई, जिसने यतह समस्या हल कर दी । उनकी वृदृ माता कहने लगी कि जिस प्रकार तुम अपने पुत्र को लेकर श्री साईबाबा के दर्शनार्थ गये थे, ठीक उसी प्रकार तुम्हें लेकर तुम्हारे पिता अनेक वर्षों पहले अक्कलकोटकर महाराज के दर्शनार्थ गये थे । महाराज पूर्ण सिदृ, योगी, त्रिकालज्ञ और बड़े उदार थे । तुम्हारे पिता परम भक्त थे । इस कारण उनकी पूजा स्वीकार हुई । तब महाराज ने उन्हें पूजनार्थ दो रुपये दिये थे, जिनकी उन्होंने जीवनपर्यन्त पूजा की । उनके पश्चात् उनकी पूजा यथाविधि न हो सकी और वे रुपये खो गये । कुछ दिनों के उपरान्त उनकी पूर्ण विसमृति भी हो गई । तुम्हारा सौभाग्य है, जो श्री अक्कलकोटकर महाराज ने साईस्वरप में तुम्हें अपने कर्तव्यों और पूजन की स्मृति कराकर आपत्तियों से मुक्त कर दिया । अब भविष्य में जागरुक रहकर समस्त शंकाएँ और सोच विचार छोड़कर अपने पूर्वजों को स्मरण कर रिवाजों का अनुसरण कर, उत्तम प्रकार का आचरण अपनाओ । अपने कुलदेव तथा इन रुपयों की पूजा कर उनके यथार्थ स्वरुप को समझो और सन्तों का आर्शीवाद ग्रहण करने में गर्व मानो । श्री साई समर्थ ने दया कर तुम्हारे हृदय में भक्ति काबीजारोपण कर दिया है और अब तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उसकी वृद्घि करो । माता के मधुर वचनामृत का पान कर श्री. पितले को अत्यन्त हर्ष हुआ । उन्हे बाबा की सर्वकालज्ञता विदित हो गई और उनके श्री दर्शन का भी महत्व ज्ञात हो गया । इसके पश्चात वे अपने व्यवहार में अधिक सावधान हो गये ।

श्री. आंबडेकर

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पूने के श्री. गोपाल नारायण आंबडेकर बाबा के परम भक्तों में से एक थे, जो ठाणे जिला और जव्हार स्टेट के आबकारी विभाग में दस वर्षों से कार्य करते थे । वहाँ से सेवानिवृत होने पर उन्होंने अन्य नौकरी ढूँढी, परन्तु वे सफल न हुए । तब उन्हें दुर्भाग्य ने चारों ओर से घेर लिया, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और भी अधिक दयनीय हो गई । ऐसी परिस्थिति में उन्होंने सात वर्ष व्यतीत किये । वे प्रति वर्ष शिरडी जाते और अपनी दुःखदायी कथा वार्ता बाबा को सुनाया करते थे । सन् 1916 में तो उनकी स्थिति और भी अधिक चिन्ताजनक हो गई । तब उन्होंने शिरडी जाकर आत्महत्या करने की ठानी । इसलिये वे अपनी पत्नी को साथ लेकर शिरडी आये और वहाँ दो मास तक ठहरे । एक रात्रि को दीक्षितवाड़े के सामने एक बैलगाड़ी पर बैठे-बैठे उन्होंने कुएँ में गिर कर प्राणान्त करने का और साथ ही बाबा ने उनकी रक्षा करने का निश्चय किया । वहीं समीप ही एक भोजनालय के मालिक श्री. सगुण मेरु नायक ठीक उसी समय बाहर आकर उनसे इस प्रकार वार्तालाप करने लगे कि क्या आपने कभी श्री अक्कलकोट महाराज की जीवनी पढ़ी है । सगुण से पुस्तक लेकर उन्होंने पढ़ना प्रारम्भ कर दिया । पुस्तक पढ़ते-पढ़ते वे एक ऐसी कथा पर पहुँचे, जो इस प्रकार थी – श्री अक्कलकोटकर महाराज के जीवन काल में एक व्यक्ति असाध्य रोग से पीड़ित था । जब वह किसी प्रकार भी कष्ट सह न सका तो वह बिलकुल निराश हो गया और एक रात्रि को कुएँ में कूद पड़ा । तत्क्षण ही महाराज वहाँ पहुँच गये और उन्होंने स्वयं अपने हाथों से उसे बाहर निकाला । वे उसी समझाने लगे कि तुम्हें अपने शुभ अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना चाहिए । यदि भोग अपूर्ण रह गया तो पुनर्जन्म धारण करना पड़ेगा, इसलिये मृत्यु से यह श्रेयस्कर है कि कुछ काल तक उन्हें सहन कर पूर्व जन्मों के कर्मों का भोग समाप्त कर सदैव के लिये मुक्त हो जाओ । यह सामयिक और उपयुक्त कथा पढ़कर आम्बडेकर को महान् आश्चर्य हुआ और वे द्रवित हो गये । यदि इस कथा द्घारा उन्हें बाबा का संकेत प्राप्त न होता तो अभी तक उनका प्राणान्त ही हो गया होता । बाबा की व्यापकता और दयालुता देखकर उनका विश्वासस दृढ़ हो गया और वे बाबा के परम भक्त बन गये । उनके पिता श्री अक्क्लकोटकर महाराज के शिष्य थे और बाबा की इच्छा भी उन्हें उन्हीं के पद-चिन्हों का अनुसरण कराने की थी । बाबा ने उन्हें आर्शीवाद दिया और अब उनका भाग्य चमक उठा । उन्होंने ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन में निपुणता प्राप्त कर उसमें बहुत उन्नति कर ली और बहुत-सा धन अर्जित करके अपना शेष जीवन सुख और शान्तिपूर्वक व्यतीत किया ।



।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु शुभं भवतु ।।





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Shree Sai Satcharitra Chapter 26

Stories of (1) Bhakata Pant (2) Harishchandra Pitale and (3) Gopal Ambadekar.

Preliminary

All the things that we see in the universe are nothing but a play of Maya -- the creative power of the Lord. These things do not really exist. What really exists is the Real Absolute. Just as we mistake a rope of a garland or a stick for a serpent on account of darkness, we always see the phenomena, i.e. things as they outwardly appear, and not the Noumenon which underlies all the visible things. It is only the Sad-guru that opens the eyes of our understanding and enables us to see things in their true light and not as they appear. Let us, therefore, worship the Sad-guru and pray to him to give us the true vision, which is nothing but God-vision.

Inner Worship

Hemadpant has given us a novel form of worship. Let us, he says, use hot water in the form of tears of joy to wash the Sad-guru's feet, let us besmear His body with sandle-paste of pure love, let us cover His body with the cloth of true faith, let us offer eight lotuses in the form of our eight Sattwik emotions and fruit in the form of our concentrated mind; let us apply to His head bukka (black-powder) in the form of devotion and tie the waistband of Bhakti and place our head on his toes.

After decorating the Sad-guru with all jewelry in this way, let us offer our all to Him and wave chamar of devotion to ward off heat. After such blissful worship, let us pray thus:- "Introvert our mind, turn it inward, give us discrimination between the Unreal and the Real and non-attachment for all worldly things and thus enable us to get Self-realisation. We surrender ourselves, body and soul (body-consciousness and ego). Make our eyes Yours, so that we should never feel pleasure and pain. Control our body and mind as You will and wish. Let our mind get rest in Your Feet".

Now let us turn to the stories of this Chapter.

Bhakta Pant

Once it so happened that a devotee by name Pant, a disciple of another Sad-guru had the good fortune of visiting Shirdi. He had no mind to go to Shirdi, but man proposes one way and God disposes the other. He was travelling in a B.B. & C.I. Rly. train where he met many friends and relations bound for Shirdi. They all asked him to accompany them and he could not say nay. They alighted at Bombay while pant got down at Virar. There he took the permission of his Sadguru for the Shirdi trip and after arranging for the expenses, left with the party for Shirdi. They all reached the place in the morning and went to the Masjid at about Seeing the concourse of the devotees assembled for Baba's worship, they were all pleased, but Pant suddenly got a fit and fell senseless. They were all frightened, still they tried their best to bring him to his senses. With Baba's grace and with pitchers of water which they poured over his head, he regained his consciousness and sat upright as if he was just awakened from sleep. The omniscient Baba knowing that he was a disciple of another Guru, assured him fearlessness and confirmed his faith in his own Guru, by addressing him as follows :- "Come what may, leave not, but stick to your Bolster (support, i.e. Guru) and ever remain steady, always at-one-ment (in union) with him." Pant at once knew the significance of this remark and thus he was reminded of his Sad-guru. This kindness of Baba he never forgot in his life.

Harishchandra Pitale

There was a gentleman by name Harishchandra Pital in Bombay. He had a son, who suffered from epilepsy. He tried many allopathic and ayurvedic doctors, but there was no cure. There remained only one way of remedy, viz. resorting to the saints. It has been stated in Chapter XV that Das Ganu by his inimitable and splendid kirtans spread the fame of Sai Baba in the Bombay Presidency. Mr. Pitale heard some of these kirtans in 1910 and learnt therefrom and from others that Baba, by His touch and mere glance, cured many incurable diseases. Then a desire arose in his mind to see Sai Baba. Making all preparations and taking presents and fruit-baskets, Mr. Pitale came to Shirdi with family, wife and children. He then went to the Masjid with them, prostrated before Baba and placed his sick son on Baba's Feet. No sooner Baba saw the child than an untoward thing happened. The son immediately revolved his eyes and fell down senseless. His mouth began to foam and his whole body began to perspire profusely and it seemed as if he breathed himself out. Seeing this, the parents became very nervous and excited. The boy used to get such fits very often, but this fit seemed to persist long. Tears began to flow ceaselessly from the mother's eyes and she began to wail, crying that her condition was like that of a person, who being afraid of the robbers ran into a house which collapsed on him,or like a cow fearing a tiger, ran into the hands of a butcher, or like a traveller, who being tormented by the heat of the sun went to take refuge under a tree, which fell upon him, or like a devout person going for worship into a temple which collapsed upon him. Then Baba comforted her saying - "Do not wail like this, wait a bit, have patience, take the boy to your lodging, he will come to his senses within half an hour." They did as directed by Baba and found that His words came true. As soon as he was taken into the Wada, the boy recovered and all the Pitale family, husband, wife and others were very delighted and all their doubts disappeared. Then Mr. Pitale came with his wife to see Baba and prostrated himself before Him very humbly and respectfully and sat shampooing His legs and mentally thanking Baba for His help. Baba then smilingly said - "Are not all your thoughts, doubts and apprehensions calmed down now? Hari (Lord) will protect him, who has got faith and patience". Mr. Pitale was a rich and well-to-do gentleman. He distributed sweet-meat on a large scale and gave Baba excellent fruits and pan (betel-leaves). Mrs. Pitale was a very Sattwik lady, simple, loving and faithful. She used to sit near the post staring at Baba with tears of joy flowing down from her eyes. Seeing her of an amicable and loving nature, Baba was much pleased with her. Like Gods, Saints are always dependent on their devotees who surrender and worship them with their heart and soul. After passing some happy days in Baba's company, the Pitale family came to the Masjid to take Baba's leave to depart. Baba gave them Udi and blessings and called Mr. Pitale close by and said to him - "Bapu, I had given you before, Rs. two, now I give you Rs. three; keep these in your shrine for worship and you will be benefited." Mr. Pitale accepted these as Prasad, prostrated himself again before Baba and prayed for His blessings. A thought arose in his mind, that as that was his first trip to Shirdi, he could not understand what Baba meant, when He said that He had given Rs. two previously. He was curious to have this mystery solves, but Baba kept silent. When Mr. Pitale returned to Bombay, he narrated to his old mother all that had happened at Shirdi and the mystery about Baba's giving him Rs. two formerly. The mother also did not understand the mystery, but, thinking seriously about that, she was reminded of an old incident, which solved the mystery. She said to her son - "As you now went to Sai Baba with your son, so had your father done when he took you to Akkalkot, for the darshana of the Maharaj there many years ago. That Maharaj was also a Siddha, Perfect Yogi, omniscient and liberal. Your father was pure, devout and his worship was accepted. He then gave your father Rs. two for being kept in the shrine and worshipped. Your father worshipped them accordingly till his death, but thereafter the worship was neglected and the rupees were lost. After some years the memory of these two rupees also disappeared and now, as you are very fortunate, the Akkalkotkar Maharaj has appeared to you in the form of Sai Baba just to remind you to your duties and worship, and to ward off all dangers. Now beware henceforth, leave off all doubts and bad thoughts, follow your ancestors and behave well; go on worshipping the family gods and the rupees, appraise properly and take pride in the blessing of the Saints. Sai Samartha has kindly revived the spirit of Bhakti in you, cultivate it it your benefit." Hearing the remarks of the mother, Mr. Pitale was very much delighted. He came to know, and was convinced about the all-prevasiveness of Baba and the significance of His darshan. From that time he became very careful about his behaviour.

Mr. Ambadekar

Mr. Gopal Narayan Ambadekar of Poona was a devotee of Baba. He served for ten years in the Abkari department in the Thana District and in Javhar state, from where he had to retire. He tried to get some other job, but he did not succeed. He was overtaken by other calamities and his condition grew from bad to worse. He passed 7 years in this condition, visiting Shirdi every year and placing his grievance before Baba. In 1916 his plight became worst and be decided to commit suicide in Shirdi. So he came there with his wife and stayed for two months. One night while sitting in a bullock cart in front of Dixit's Wada, he resolved to end his life by throwing himself into a well close by. He proposed to do one way but Baba wished to do something else. A few paces from this place, there was a hotel and its proprietor Mr. Sagun, a devotee of Baba, came out and accosted him thus - "Did you ever read this Akkalkotkar Maharaja's life?" Ambadekar took that book from Sagun and began to read it. Casually, or we may say providentially he came across a story which was to this effect. - During the life time of Akkalkotkar Maharaj a certain devotee suffered very much from an incurble disease and when he could endure the agony and pain no longer, be became desperate and to end his miseries threw himself one night into a well. Immediately the Maharaj came there and took him out with his own hands and advised him thus - "You must enjoy the fruit - good or bad - of your past actions; if the enjoyment be incomplete, suicide won't help you. You have to take another birth and suffer again; so instead of killing yourself, why not suffer for some time and finish up your store of the fruit of your past deeds and be done with it once and for all?"

Reading this appropriate and timely story, Ambadekar was much surprised, and moved. Had he not got Baba's hint through the story, he would have been no more. On seeing Baba's all-prevasiveness and benevolence, his faith in Him was confirmed, and he became a staunch devotee. His father was a devotee of Akkalkotkar Maharaj and Sai Baba wanted him to walk into his father's footsteps and continue his devotion to Him. He then got Sai Baba's blessings and his prospects began to improve. He studied astrology and gained proficiency in it and thereby improved his lot. He was able to earn sufficient money and passed his after-life in ease and comfort.

Bow to Shri Sai - Peace be to all

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