शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Friday, July 13, 2012

श्री दासगणु महाराज कृत श्री सांईनाथ स्तवन मंजरी



!!! ॐ सांई राम !!!












श्री दासगणु महाराज कृत श्री सांईनाथ स्तवन मंजरी






हिन्दी अनुगायन ठाकुर भूपति सिंह





॥ॐ श्री गणेशाय नमः॥



॥ॐ श्री सांईनाथाय नमः॥






मयूरेश्वर जय सर्वाधार। सर्व साक्षी हे
गौरिकुमार।


अचिन्त्य सरूप हे लंबोदर। रक्षा करो
मम,सिद्धेश्वर॥1॥




सकल गुणों का तूं है स्वामी। गण्पति तूं है
अन्तरयामी।


अखिल शास्त्र गाते तव महिमा। भालचन्द्र मंगल गज
वदना॥2॥




माँ शारदे वाग विलासनी। शब्द-स्रष्टि की अखिल
स्वामिनी।


जगज्जननी तव शक्ति अपार। तुझसे अखिल जगत
व्यवहार॥3॥




कवियों की तूं शक्ति प्रदात्री। सारे जग की भूषण
दात्री।


तेरे चरणों के हम बंदे। नमो नमो माता
जगदम्बे॥4॥





पूर्ण ब्रह्म हे सन्त सहारे। पंढ़रीनाथ रूप तुम
धारे।


करूणासिंधु जय दयानिधान। पांढ़ुरंग नरसिंह
भगवान॥5॥





सारे जग का सूत्रधार तूं। इस संस्रति का सुराधार
तूं।


करते शास्त्र तुम्हारा चिंतन। तत् स्वरूप में रमते
निशदिन॥6॥





जो केवल पोथी के ज्ञानी । नहीं पाते तुझको वे
प्राणी।


बुद्धिहीन प्रगटाये वाणी। व्यर्थ विवाद करें
अज्ञानी॥7॥





तुझको जानते सच्चे संत। पाये नहीं कोई भी
अंत।


पद-पंकज में विनत प्रणाम। जयति-जयति शिरडी
घनश्याम॥8॥





पंचवक्त्र शिवशंकर जय हो। प्रलयंकर अभ्यंकर जय
हो।


जय नीलकण्ठ हे दिगंबर। पशुपतिनाठ के प्रणव
स्वरा॥9॥





ह्रदय से जपता जो तव नाम। उसके होते पूर्ण सब
काम।


सांई नाम महा सुखदाई। महिमा व्यापक जग में
छाई॥10॥





पदारविन्द में करूं प्रणाम। स्तोत्र लिखूं प्रभु
तेरे नाम।


आशीष वर्षा करो नाथ हे । जगतपति हे भोलेनाथ
हे॥11॥





दत्तात्रेय को करूं प्रणाम। विष्णु नारायण जो
सुखधाम।


तुकाराम से सन्तजनों को। प्रणाम शत शत भक्तजनों
को॥12॥





जयति-जयति जय जय सांई नाथ हे। रक्षक तूं ही
दीनदयाल हे।


मुझको कर दो प्रभु सनाथ। शरणागत हूं तेरे द्वार
हे॥13॥





तूं है पूर्ण ब्रह्म भगवान। विष्णु पुरूषोत्तम तूं
सुखधाम।


उमापति शिव तूं निष्काम। था दहन किया नाथ ने
काम॥14॥





नराकार तूं तूं है परमेश्वर। ज्ञान-गगन का अहो
दिवाकर।


दयासिंधु तूं करूणा-आकर। दलन-रोग भव-मूल
सुधाकर॥15॥





निर्धन जन का चिन्तामणि तूं। भक्त-काज हित सुरसुरि
जम तूं।


भवसागर हित नौका तूं है। निराश्रितों का आश्रय तूं
है॥16॥





जग-कारण तूं आदि विधाता। विमलभाव चैतन्य
प्रदाता।


दीनबंधु करूणानिधि ताता। क्रीङा तेरी अदभुत
दाता॥17॥





तूं है अजन्मा जग निर्माता। तूं मृत्युंजय
काल-विजेता।


एक मात्र तूं ज्ञेय-तत्व है। सत्य-शोध से रहे
प्राप्य है॥18॥





जो अज्ञानी जग के वासी। जन्म-मरण
कारा-ग्रहवासी।


जन्म-मरण के आप पार है। विभु निरंजन जगदाधार
है॥19॥





निर्झर से जल जैसा आये। पूर्वकाल से रहा
समाये।


स्वयं उमंगित होकर आये। जिसने खुद है स्त्रोत
बहायें॥20॥





शिला छिद्र से ज्यों बह निकला। निर्झर उसको नाम मिल
गया।







झर-झर कर निर्झर बन छाया। मिथ्या स्वत्व छिद्र से
पाया॥21॥





कभी भरा और कभी सूखता। जल निस्संग इसे
नकारता।


चिद्र शून्य को सलिल न माने। छिद्र किन्तु अभिमान
बखाने॥22॥





भ्रमवश छिद्र समझता जीवन। जल न हो तो कहाँ है
जीवन।


दया पात्र है छिद्र विचार। दम्भ व्यर्थ उसने यों
धारा॥23॥





यह नरदेह छिद्र सम भाई। चेतन सलिल शुद्ध
स्थायी।


छिद्र असंख्य हुआ करते हैं। जलकण वही रहा करते
हैं॥24॥





अतः नाथ हे परम दयाघन। अज्ञान नग का करने
वेधन।


वग्र अस्त्र करते कर धारण। लीला सब भक्तों के
कारण॥25॥





जङत छिद्र कितने है सारे। भरे जगत में जैसे
तारे।


गत हुये वर्तमान अभी हैं। युग भविष्य के भीज अभी
हैं॥26॥





भिन्न-भिन्न ये छिद्र सभी है। भिन्न-भिन्न सब नाम
गति है।


पृथक-पृथक इनकी पहचान। जग में कोई नहीं
अनजान॥27॥





चेतन छिद्रों से ऊपर है। "मैं तूं" अन्तर नहीं
उचित है।


जहां द्वैत का लेश नहीं है।सत्य चेतना व्याप रही
है॥28॥





चेतना का व्यापक विस्तार। हुआ अससे पूरित
संसार।


"तेरा मेरा" भेद अविचार। परम त्याज्य है बाह्य
विकार॥29॥





मेघ गर्भ में निहित सलिल जो। जङतः निर्मल नहीं
भिन्न सो।


धरती तल पर जब वह आता। भेद-विभेद तभी
उपजाता॥30॥





जो गोद में गिर जाता है। वह गोदावरी बन जाता
है।


जो नाले में गिर जाता है। वह अपवित्र कहला जाता
है॥31॥





सन्त रूप गोदावरी निर्मल। तुम उसके पाव अविरल
जल।


हम नाले के सलिल मलिनतम। भेद यही दोनों में
केवल॥32॥





करने जीवन स्वयं कृतार्थ। शरण तुम्हारी आये
नाथ।


कर जोरे हम शीश झुकाते। पावन प्रभु पर बलि-बलि
जाते॥33॥





पात्र-मात्र से है पावनता। गोदा-जल की अति
निर्मलता।


सलिल सर्वत्र तो एक समान। कहीं न दिखता भिन्न
प्रणाम॥34॥





गोदावरी का जो जलपात्र। कैसे पावन हुआ वह
पात्र।


उसके पीछे मर्म एक है। गुणः दोष आधार नेक
है॥35॥





मेघ-गर्भ से जो जल आता। बदल नहीं वह भू-कण
पाता।


वही कहलाता है भू-भाग। गोदावरी जल
पुण्य-सुभाग॥36॥





वन्य भूमि पर गिरा मेघ जो। यद्यपि गुण में रहे एक
जो।


निन्दित बना वही कटुखारा। गया भाग्य से वह
धिक्कारा॥37॥





सदगुरू प्रिय पावन हैं कितने। षड्रिपुओं के जीता
जिनने।


अति पुनीत है गुरू की छाया। शिरडी सन्त नाम शुभ
पाया॥38॥





अतः सन्त गोदावरी ज्यों है। अति प्रिय हित भक्तों
के त्यों हैं।


प्राणी मात्र के प्राणाधार। मानव धर्म अवयं
साकार॥39॥





जग निर्माण हुआ है जब से। पुण्यधार सुरसरिता तब
से।


सतत प्रवाहित अविरल जल से। रुद्धित किंचित हुआ न
तल है॥40॥





सिया लखन संग राम पधारे। गोदावरी के पुण्य
किनारे।







युग अतीत वह बीत गया है। सलिल वही क्या शेष रहा
है॥41॥






जल का पात्र वहीं का वह है। जलधि समाया पूर्व सलिल
है।


पावनता तब से है वैसी। पात्र पुरातन युग के
जैसी॥42॥





पूरव सलिल जाता है ज्यों ही। नूतन जल आता है त्यों
ही।


इसी भाँति अवतार रीति है। युग-युग में होती प्रतीत
है॥43॥





बहु शताब्दियाँ संवत् सर यों। उन शतकों में सन्त
प्रवर ज्यों।


हो सलिल सरिस सन्त साकार। ऊर्मिविभूतियां
अपरंपार॥44॥





सुरसरिता ज्यों सन्त सु-धारा। आदि महायुग ले
अवतार।


सनक सनन्दन सनत कुमार। सन्त वृन्द ज्यों बाढ़
अपारा॥45॥





नारद तुम्बर पुनः पधारे। ध्रुव प्रहलाद बली तन
धारे।


शबरी अंगद नल हनुमान। गोप गोपिका बिदुर
महाना॥46॥





सन्त सुसरिता बढ़ती जाती। शत-शत धारा जलधि
समाती।


बाढ़ें बहु यों युग-युग आती वर्णन नहीं वाणी कर
पाती॥47॥





सन्त रूप गोदावरी तट पर। कलियुग के नव मध्य प्रहर
पर।


भक्ति-बाढ़ लेकर तुम आये। 'सांईनाथ" सुनाम तुम
कहाये॥48॥





चरण कमल द्वय दिव्य ललाम। प्रभु स्वीकारों विनत
प्रणाम।


अवगुण प्रभु हैं अनगिन मेरे। चित न धरों प्रभु दोष
घनेरे॥49॥





मैं अज्ञानी पहित पुरातन। पापी दल का परम
शिरोमणी।


सच में कुटिल महाखलकामी। मत ठुकराओं
अन्तरयामी॥50॥





दोषी कैसा भी हो लोहा। पारस स्वर्ण बनाता
चोखा।


नाला मल से भरा अपावन। सुरसरिता करती है
पावन॥51॥





मेरा मन अति कलुष भरा है। नाथ ह्रदय अति दया भरा
है।


कृपाद्रष्टि से निर्मल कर दें। झोली मेरी प्रभुवर
भर दें॥52॥





पासस का संग जब मिल जाता। लोह सुवर्ण यदि नहीं बन
पाता।


तब तो दोषी पारस होता। विरद वही अपना है
खोता॥53॥





पापी रहा यदि प्रभु तव दास। होता आपका ही
उपहास।


प्रभु तुम पारस,मैं हूँ लोहा। राखो तुम ही अपनी
शोभा॥54॥





अपराध करे बालक अज्ञान। क्रोध न करती जननी
महान।


हो प्रभु प्रेम पूर्ण तुम माता। कृपाप्रसाद
दीजियें दाता॥55॥





सदगुरू सांई हे प्रभु मेरे। कल्पवृक्ष तुम करूणा
प्रेरे।


भवसागर में मेरी नैया। तूं ही भगवान पार
करैया॥56॥





कामधेनू सम तूं चिन्ता मणि।ज्ञान-गगन का तूं है
दिनमणि।


सर्व गुणों का तूं है आकार। शिरडी पावन स्वर्ग धरा
पर॥57॥





पुण्यधाम है अतिशय पावन। शान्तिमूर्ति हैं
चिदानन्दघन।


पूर्ण ब्रम्ह तुम प्रणव रूप हें। भेदरहित तुम
ज्ञानसूर्य हें॥58॥





विज्ञानमूर्ति अहो पुरूषोत्तम। क्षमा शान्ति के
परम निकेतन।


भक्त वृन्द के उर अभिराम। हों प्रसन्न प्रभु पूरण
काम॥59॥





सदगुरू नाथ मछिन्दर तूं है। योगी राज जालन्धर तूं
है।


निवृत्तिनाथ ज्ञानेश्वर तूं हैं। कबीर एकनाथ प्रभु
तूं है॥60॥





सावता बोधला भी तूं है। रामदास समर्थ प्रभु तूं
है।






माणिक प्रभु शुभ सन्त सुख तूं। तुकाराम हे सांई
प्रभु तूं॥61॥





आपने धारे ये अवतार। तत्वतः एक भिन्न आकार।


रहस्य आपका अगम अपार। जाति-पाँति के प्रभो उस
पार॥62॥





कोई यवन तुम्हें बतलाता। कोई ब्राह्मण तुम्हें
जतलाता।


कृष्ण चरित की महिमा जैसी। लीला की है तुमने
तैसी॥63॥





गोपीयां कहतीं कृष्ण कन्हैया। कहे 'लाडले' यशुमति
मैया।


कोई कहें उन्हें गोपाल। गिरिधर यदूभूषण
नंदलाल॥64॥





कहें बंशीधर कोई ग्वाल। देखे कंस कृष्ण में
काल।


सखा उद्धव के प्रिय भगवान। गुरूवत अर्जुन केशव
जान॥65॥





ह्रदय भाव जिसके हो जैसे। सदगुरू को देखे वह
वैसा।


प्रभु तुम अटल रहे हो ऐसे। शिरडी थल में ध्रुव सम
बैठे॥66॥





रहा मस्जिद प्रभु का आवास। तव छिद्रहीन कर्ण
आभास।


मुस्लिम करते लोग अनुमान। सम थे तुमको राम
रहमान॥67॥





धूनी तव अग्नि साधना। होती जिससे हिन्दू
भावना।


"अल्ला मालिक" तुम थे जपते। शिवसम तुमको भक्त
सुमरते॥68॥





हिन्दू-मुस्लिम ऊपरी भेद। सुभक्त देखते पूर्ण
अभेद।


नहीं जानते ज्ञानी विद्वेष। ईश्वर एक पर अनगिन
वेष॥69॥





पारब्रम्ह आप स्वाधीन। वर्ण जाति से मुक्त
आसीन।


हिन्दू-मुस्लिम सब को प्यारे। चिदानन्द गुरूजन
रखवारे॥70॥





करने हिन्दू-मुस्लिम एक। करने दूर सभी
मतभेद।


मस्जिद अग्नि जोङ कर नाता। लीला करते
जन-सुख-दाता॥71॥





प्रभु धर्म-जाति-बन्ध से हीन। निर्मल तत्व सत्य
स्वाधीन।


अनुभवगम्य तुम तर्कातीत। गूंजे अनहद आत्म
संगीत॥72॥





समक्ष आपके वाणी हारे। तर्क वितर्क व्यर्थ
बेचारे।


परिमति शबद् है भावाभास। हूं मैं अकिंचन प्रभु का
दास॥73॥





यदयपि आप हैं शबदाधार। शब्द बिना न प्रगटें
गीत।


स्तुति करूं ले शबदाधार। स्वीकारों हें दिव्य
अवतार॥74॥





कृपा आपकी पाकर स्वामी। गाता गुण-गण यह
अनुगामी।


शबदों का ही माध्यम मेरा। भक्ति प्रेम से है उर
प्रेरा॥75॥





सन्तों की महिमा है न्यारी। ईशर की विभूति
अनियारी।


सन्त सरसते साम्य सभी से। नहीं रखते बैर किसी
से॥76॥





हिरण्यकशिपु रावंअ बलवान। विनाश हुआ इनका जग
जान।


देव-द्वेष था इसका कारण। सन्त द्वेष का करें
निवारण॥77॥





गोपीचन्द अन्याय कराये। जालन्धर मन में नहीं
लाये।


महासन्त के किया क्षमा था। परम शान्ति का वरण किया
था॥78॥





बङकर नृप-उद्धार किया था। दीर्घ आयु वरदान दिया
था।


सन्तों की महिमा जग-पावन। कौन कर सके गुण
गणगायन॥79॥





सन्त भूमि के ज्ञान दिवाकर। कृपा ज्योति देते
करुणाकर।


शीतल शशि सम सन्त सुखद हैं। कृपा कौमुदी प्रखर
अवनि है॥80॥












है कस्तूरी सम मोहक संत। कृपा है उनकी सरस
सुगंध।



ईखरसवत होते हैं संत। मधुर सुरूचि ज्यों सुखद
बसंत॥81॥





साधु-असाधु सभी पा करूणा। दृष्टि समान सभी पर
रखना।


पापी से कम प्यार न करते। पाप-ताप-हर-करूणा
करते॥82॥





जो मल-युत है बहकर आता। सुरसरि जल में आन
समाता।


निर्मल मंजूषा में रहता। सुरसरि जल नहीं वह
गहता॥83॥





वही वसन इक बार था आया। मंजूषा में रहा
समाया।


अवगाहन सुरसरि में करता। धूल कर निर्मल खुद को
करता॥84॥





सुद्रढ़ मंजूषा है बैकुण्ठ। अलौकिक निष्ठा गंग
तरंग।


जीवात्मा ही वसन समझिये। षड् विकार ही मैल
समझिये॥85॥





जग में तव पद-दर्शन पाना। यही गंगा में डूब
नहाना।


पावन इससे होते तन-मन। मल-विमुक्त होता वह
तत्क्षण॥86॥





दुखद विवश हैं हम संसारी। दोष-कालिमा हम में
भारी।


सन्त दरश के हम अधिकारी। मुक्ति हेतु निज बाट
निहारी॥87॥





गोदावरी पूरित निर्मल जल। मैली गठरी भीगी
तत्जल।


बन न सकी यदि फिर भी निर्मल। क्या न दोषयुत
गोदावरि जल॥88॥





आप सघन हैं शीतल तरूवर।श्रान्त पथिक हम डगमग पथ
हम।


तपे ताप त्रय महाप्रखर तम। जेठ दुपहरी जलते
भूकण॥89॥





ताप हमारे दूर निवारों। महा विपद से आप
उबारों।


करों नाथ तुम करूणा छाया। सर्वज्ञात तेरी प्रभु
दया॥90॥





परम व्यर्थ वह छायातरू है। दूर करे न ताप प्रखर
हैं।


जो शरणागत को न बचाये। शीतल तरू कैसे
कहलाये॥91॥





कृपा आपकी यदि नहीं पाये। कैसे निर्मल हम रह
जावें।


पारथ-साथ रहे थे गिरधर। धर्म हेतु प्रभु
पाँचजन्य-धर॥92॥





सुग्रीव कृपा से दनुज बिभीषण। पाया प्राणतपाल
रघुपति पद।


भगवत पाते अमित बङाई। सन्त मात्र के कारण
भाई॥93॥





नेति-नेति हैं वेद उचरते। रूपरहित हैं ब्रह्म
विचरते।


महामंत्र सन्तों ने पाये। सगुण बनाकर भू पर
लायें॥94॥





दामा ए दिया रूप महार। रुकमणि-वर त्रैलोक्य
आधार।


चोखी जी ने किया कमाल। विष्णु को दिया कर्म
पशुपाल॥95॥





महिमा सन्त ईश ही जानें। दासनुदास स्वयं बन
जावें।


सच्चा सन्त बङप्पन पाता। प्रभु का सुजन अतिथि हो
जाता॥96॥





ऐसे सन्त तुम्हीं सुखदाता। तुम्हीं पिता हो तुम ही
माता।


सदगुरु सांईनाथ हमारे। कलियुग में शिरडी
अवतारें॥97॥





लीला तिहारी नाथ महान। जन-जन नहीं पायें
पहचान।


जिव्हा कर ना सके गुणगान। तना हुआ है रहस्य
वितान॥98॥





तुमने जल के दीप जलायें। चमत्कार जग में थे
पायें।


भक्त उद्धार हित जग में आयें। तीरथ शिरडी धाम
बनाए॥99॥





जो जिस रूप आपको ध्यायें। देव सरूप वही तव
पायें।


सूक्षम तक्त निज सेज बनायें। विचित्र योग सामर्थ
दिखायें॥100॥






पुत्र हीन सन्तति पा जावें। रोग असाध्य नहीं रह
जावें।





रक्षा वह विभूति से पाता। शरण तिहारी जो भी
आता॥101॥







भक्त जनों के संकट हरते। कार्य असम्भव सम्भव
करतें।





जग की चींटी भार शून्य ज्यों। समक्ष तिहारे कठिन
कार्य त्यों॥102॥







सांई सदगुरू नाथ हमारें। रहम करो मुझ पर हे
प्यारे।





शरणागत हूँ प्रभु अपनायें। इस अनाथ को नहीं
ठुकरायें॥103॥







प्रभु तुम हो राज्य राजेश्वर। कुबेर के भी परम
अधीश्वर।





देव धन्वन्तरी तव अवतार। प्राणदायक है
सर्वाधार॥104॥







बहु देवों की पूजन करतें। बाह्य वस्तु हम संग्रह
करते।





पूजन प्रभु की शीधी-साधा। बाह्य वस्तु की नहीं
उपाधी॥105॥







जैसे दीपावली त्यौहार। आये प्रखर सूरज के
द्वार।





दीपक ज्योतिं कहां वह लाये। सूर्य समक्ष जो जगमग
होवें॥106॥







जल क्या ऐसा भू के पास। बुझा सके जो सागर
प्यास।





अग्नि जिससे उष्मा पायें। ऐसा वस्तु कहां हम
पावें॥107॥







जो पदार्थ हैं प्रभु पूजन के। आत्म-वश वे सभी
आपके।





हे समर्थ गुरू देव हमारे। निर्गुण अलख निरंजन
प्यारे॥108॥







तत्वद्रष्टि का दर्शन कुछ है। भक्ति भावना-ह्रदय सत्य
हैं।





केवल वाणी परम निरर्थक। अनुभव करना निज में
सार्थक॥109॥







अर्पित कंरू तुम्हें क्या सांई। वह सम्पत्ति जग में नहीं
पाई।





जग वैभव तुमने उपजाया। कैसे कहूं कमी कुछ
दाता॥110॥







"पत्रं-पुष्पं" विनत चढ़ाऊं। प्रभु चरणों में चित्त
लगाऊं।





जो कुछ मिला मुझे हें स्वामी। करूं समर्पित तन-मन
वाणी॥111॥







प्रेम-अश्रु जलधार बहाऊं। प्रभु चरणों को मैं
नहलाऊं।





चन्दन बना ह्रदय निज गारूं। भक्ति भाव का तिलक
लगाऊं॥112॥







शब्दाभूष्ण-कफनी लाऊं। प्रेम निशानी वह
पहनाऊं।





प्रणय-सुमन उपहार बनाऊं। नाथ-कंठ में पुलक
चढ़ाऊं॥113॥







आहुति दोषों की कर डालूं। वेदी में वह होम
उछालूं।





दुर्विचार धूम्र यों भागे। वह दुर्गंध नहीं फिर
लागे॥114॥







अग्नि सरिस हैं सदगुरू समर्थ। दुर्गुण-धूप करें हम
अर्पित।





स्वाहा जलकर जब होता है। तदरूप तत्क्षण बन जाता
है॥115॥







धूप-द्रव्य जब उस पर चढ़ता। अग्नि ज्वाला में है
जलता।





सुरभि-अस्तित्व कहां रहेगा। दूर गगन में शून्य
बनेगा॥116॥







प्रभु की होती अन्यथा रीति। बनती कुवस्तु जल कर
विभुति।





सदगुण कुन्दन सा बन दमके। शाशवत जग बढ़ निरखे
परखे॥117॥







निर्मल मन जब हो जाता है। दुर्विकार तब जल जाता
है।





गंगा ज्यों पावन है होती। अविकल दूषण मल वह
धोती॥118॥







सांई के हित दीप बनाऊं। सत्वर माया मोह
जलाऊं।





विराग प्रकाश जगमग होवें। राग अन्ध वह उर का
खावें॥119॥







पावन निष्ठा का सिंहासन। निर्मित करता प्रभु के
कारण।





कृपा करें प्रभु आप पधारें। अब नैवेद्य-भक्ति
स्वीकारें॥120॥







भक्ति-नैवेद्य प्रभु तुम पाओं। सरस-रास-रस हमें
पिलाओं।





माता, मैं हूँ वत्स तिहारा। पाऊं तव दुग्धामृत
धारा॥121॥







मन-रूपी दक्षिणा चुकाऊं। मन में नहीं कुछ और
बसाऊं।





अहम् भाव सब करूं सम्पर्ण। अन्तः रहे नाथ का
दर्पण॥122॥







बिनती नाथ पुनः दुहराऊं। श्री चरणों में शीश
नमाऊं।





सांई कलियुग ब्रह्म अवतार। करों प्रणाम मेरे
स्वीकार॥123॥






ॐ सांई राम!!!








प्रार्थनाष्टक






शान्त चित्त प्रज्ञावतार जय। दया-निधान सांईनाथ
जय।


करुणा सागर सत्यरूप जय। मयातम संहारक प्रभु
जय॥124॥






जाति-गोत्र-अतीत सिद्धेश्वर। अचिन्तनीयं
पाप-ताप-हर।





पाहिमाम् शिव पाहिमाम् शिव। शिरडी ग्राम-निवासिय
केशव॥125॥






ज्ञान-विधाता ज्ञानेश्वर जय। मंगल मूरत मंगलमय
जय।





भक्त-वर्गमानस-मराल जय। सेवक-रक्षक प्रणतापाल
जय॥126॥






स्रष्टि रचयिता ब्रह्मा जय-जय। रमापते हे विष्णु रूप
जय।





जगत प्रलयकर्ता शिव जय-जय। महारुद्र हें अभ्यंकर
जय॥127॥






व्यापक ईश समाया जग तूं। सर्वलोक में छाया प्रभु
तूं।





तेरे आलय सर्वह्रदय हैं। कण-कण जग सब सांई ईश्वर
है॥128॥






क्षमा करे अपराध हमारें। रहे याचना सदा
मुरारे।





भ्रम-संशय सब नाथ निवारें। राग-रंग-रति से
उद्धारे॥129॥






मैं हूँ बछङा कामधेनु तूं। चन्द्रकान्ता मैं पूर्ण इन्दु
तूं।





नमामि वत्सल प्रणम्य जय। नाना स्वर बहु रूप धाम
जय॥130॥






मेरे सिर पर अभय हस्त दों। चिन्त रोग शोक तुम हर
लो।





दासगणू को प्रभु अपनाओं। 'भूपति' के उर में बस
जओं॥131॥






कवि स्तुति कर जोरे गाता। हों अनुकम्पा सदा
विधाता।





पाप-ताप दुःख दैन्य दूर हो। नयन बसा नित तव सरूप
हों॥132॥






ज्यौ गौ अपना वत्स दुलारे। त्यौ साईं माँ दास
दुलारे।





निर्दय नहीं बनो जगदम्बे। इस शिशु को दुलारो
अंबे ॥133॥






चन्दन तरुवर तुम हो स्वामी। हीन-पौध हूं मैं
अनुगामी।





सुरसरि समां तू है अतिपावन। दुराचार रत मैं
कर्दमवत ॥134॥






तुझसे लिपट रहू यदि मलयुत। कौन कहे तुझको चन्दन
तरु।





सदगुरु तेरी तभी बड़ाई। त्यागो मन जब सतत बुराई
॥135॥






कस्तुरी का जब साथ मिले। अति माटी का तब मोल
बड़े।





सुरभित सुमनों का साथ मिले। धागे को भी सम सुरभि
मिले ॥136॥






महान जनों की होती रीति। जीना पर हुई हैं उनकी
प्रीति।





वही पदार्थ होता अनमोल। नहीं जग में उसका फिर तौला
॥137॥






रहा नंदी का भस्म कोपीना। संचय शिव ने किया
आधीन।





गौरव उसने जन से पाया। शिव संगत ने यश
फैलाया॥138॥






यमुना तट पर रचायें। वृन्दावन में धूम मचायें।





गोपीरंजन करें मुरारी। भक्त-वृनद मोहें
गिरधारी॥139॥






होंवें द्रवित प्रभों करूणाघन। मेरे प्रियतम नाथ
ह्रदयघन।





अधमाधम को आन तारियें। क्षमा सिन्धु अब क्षमा
धारियें॥140॥






अभ्युदय निःश्रेयस पाऊ। अंतरयामी से यह
चाहूं।





जिसमें हित हो मेरे दाता। वही दीजियें मुझे
विधाता॥141॥






मैं तो कटु जलहूं प्रभु खारा। तुम में मधु सागर
लहराता।





कृपा-बिंदु इक पाऊ तेरा। मधुरिम मधु बन जायें
मेरा॥142॥






हे प्रभु आपकी शक्ति अपार। तिहारे सेवक हम
सरकार।



खारा जलधि करें प्रभु मीठा। दासगणु पावे
मन-चीता॥143॥










सिद्धवृन्द का तुं सम्राट। वैभव व्यापक ब्रह्म
विराट।





मुझमें अनेक प्रकार अभाव। अकिंचन नाथ करें
निर्वाह॥144॥







कथन अत्यधिक निरा व्यर्थ हैं। आधार एक गुरु समर्थ हैं





माँ की गोदी में जब सुत हो। भयभीत कहो कैसे तब
हो॥145॥







जो यह स्तोत्र पड़े प्रति वासर। प्रेमार्पित हो गाये सादर





मन-वाँछित फल नाथ अवश दें। शाशवत शान्ति सत्य
गुरुवर दें॥146॥







सिद्ध वरदान स्तोत्र दिलावे। दिव्य कवच सम सतत
बचावें।





सुफल वर्ष में पाठक पावें। जग त्रयताप नहीं रह
जावें॥147॥







निज शुभकर में स्तोत्र सम्भालो। शुचिपवित्र हो स्वर को
ढालो।





प्रभु प्रति पावन मानस कर लो। स्तोत्र पठन श्रद्धा
से कर लो॥148॥







गुरूवार दिवस गुरु का मानों। सतगुरु ध्यान चित्त में
ठानों।





स्थोथरा पठन हो अति फलदाई। महाप्रभावी
सदा-सहाई॥149॥







व्रत एकादशी पुण्य सुहाई। पठन सुदिन इसका कर
भाई।





निश्चय चमत्कार थम पाओ। शुभ कल्याण कल्पतरु
पाओ॥150॥







उत्तम गति स्तोत्र प्रदाता। सदगुरू दर्शन पाठक
पाता।





इह परलोक सभी हो शुभकर। सुख संतोष प्राप्त हो
सत्वर॥151॥







स्तोत्र पारायण सद्य: फल दे। मन्द-बुद्धि को बुद्धि प्रबल
दे।





हो संरक्षक अकाल मरण से। हों शतायु जा स्तोत्र पठन
से॥152॥







निर्धन धन पायेगा भाई। महा कुबेर सत्य शिव
साईं।





प्रभु अनुकम्पा स्तोत्र समाई। कवि-वाणी शुभ-सुगम
सहाई॥153॥







संततिहीन पायें सन्तान। दायक स्तोत्र पठन
कल्याण।





मुक्त रोग से होगी काया। सुखकर हो साईं की
छाया॥154॥







स्तोत्र-पाठ नित मंगलमय है। जीवन बनता सुखद प्रखर
है।





ब्रह्मविचार गहनतर पाओ। चिंतामुक्त जियो
हर्षाओ॥155॥







आदर उर का इसे चढ़ाओ। अंत द्रढ़ विश्वास
बासाओ।





तर्क वितर्क विलग कर साधो। शुद्ध विवेक बुद्धि
अवराधो॥156॥







यात्रा करो शिरडी तीर्थ की। लगन लगी को नाथ चरण
की।





दीन दुखी का आश्रय जो हैं। भक्त-काम-कल्प-द्रुम
सोहें॥157॥







सुप्रेरणा बाबा की पाऊं। प्रभु आज्ञा पा स्तोत्र
रचाऊं।





बाबा का आशीष न होता। क्यों यह गान पतित से
होता॥158॥







शक शंवत अठरह चालीसा। भादों मास शुक्ल
गौरीशा।





शाशिवार गणेश चौथ शुभ तिथि। पूर्ण हुई साईं की
स्तुति॥159॥







पुण्य धार रेवा शुभ तट पर। माहेश्वर अति पुण्य सुथल
पर।





साईंनाथ स्तवन मंजरी। राज्य-अहिल्या भू में
उतारी॥160॥







मान्धाता का क्षेत्र पुरातन। प्रगटा स्तोत्र जहां पर
पावन।





हुआ मन पर साईं अधिकार। समझो मंत्र साईं
उदगार॥161॥







दासगणु किंकर साईं का। रज-कण संत साधु चरणों
का।





लेख-बद्ध दामोदर करते। भाषा गायन ' भूपति'
करते॥162॥







साईंनाथ स्तवन मंजरी। तारक
भव-सागर-ह्रद-तन्त्री।





सारे जग में साईं छाये। पाण्डुरंग गुण किकंर
गाये॥163॥






श्रीहरिहरापर्णमस्तु | शुभं भवतु | पुण्डलिक वरदा
विठ्ठल |


सीताकांत स्मरण | जय जय राम | पार्वतीपते हर हर
महादेव |





श्री सदगुरु साईंनाथ महाराज की जय ||


श्री सदगुरु साईंनाथपर्णमस्तु
||










ॐ सांई राम!!!









श्री सदगुरू सांईनाथ के ग्यारह वचन~~~







शिरडीस ज्याचे लागतील पाय।


टळती अपाय सर्व त्याचे ॥1॥






शिरडी की पावन भूमि पर पाँव रखेगा जो भी कोई


तत्क्षण मिट जाएँगे कष्ट उसके,हो जो भी कोई
॥1॥






माझ्या समाधीची पायरी चढेल॥


दुःख हे हरेल सर्व त्याचे॥2॥






चढ़ेगा जो मेरी समाधि की सीढ़ी॥


मिटेगा उसका दुःख और चिंताएँ सारी॥2॥






जरी हे शरीर गेलो मी टाकून ॥


तरी मी धावेन भक्तासाठी ॥3॥






गया छोङ इस देह को फिर भी।


दौङा आऊँगा निजभक्त हेतु ॥3॥






नवसास माझी पावेल समाधी॥


धरा द्रढ बुद्धी माझ्या ठायी ॥4॥






मनोकामना पूर्ण करे यह मेरी समाधि।


रखो इस पर विश्वास और द्रढ़ बुद्धि॥4॥






नित्य मी जिवंत जाणा हेंची सत्य॥


नित्य घ्या प्रचीत अनुभवे॥5॥






नित्य हूँ जीवित मैं,जानो यह सत्य॥


कर लो प्रचीति,स्वयं के अनुभव से॥5॥















शरण मज आला आणि वाया गेला॥


दाखवा दाखवा ऐसा कोणी॥6॥








मेरी शरण में आ के कोई गया हो खाली।


ऐसा मुझे बता दे,कोई एक भी सवाली॥6॥








जो जो मज भजे जैशा जैशा भावे॥


तैसा तैसा पावे मीही त्यासी॥7॥








भजेगा मुझको जो भी जिस भाव से॥


पाएगा मुझको वह उसी भाव से॥7॥








तुमचा मी भार वाहीन सर्वथा ॥


नव्हे हें अन्यथा वचन माझे॥8॥








तुम्हारा सब भार उठाऊँगा मैं सर्वथा॥


नहीं इसमें संशय,यह वचन है मेरा॥8॥








जाणा येथे आहे सहाय्य सर्वांस॥


मागे जे जे त्यास ते ते लाभे॥9॥








मिलेगा सहाय यहाँ सबको ही जाने॥


मिलेगा उसको वही,जो भी माँगो॥9॥








माझा जो जाहला काया वाचा मनीं ॥


तयाचा मी ऋणी सर्वकाळ॥10॥








हो गया जो तन मन वचन से मेरा॥


ऋणी हूँ मैं उसका सदा-सर्वथा ही॥10॥








साई म्हणे तोचि, तोचि झाला धन्य॥


झाला जो अनन्य माझ्या पायी॥11॥








कहे सांई वही हुआ धन्य धन्य।


हुआ जो मेरे चरणों से अनन्य॥11॥








॥श्री सच्चिदानन्द सदगुरु साईनाथ महाराज की जय





॥ॐ राजाधिराज योगिराज परब्रह्य सांईनाथ
महाराज॥




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