शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Thursday, February 21, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 - विभूतियोग



श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 - विभूतियोग









विभूति व योगशक्ति (अध्याय 10 शलोक 1 से 7)


श्रीभगवानुवाच:


भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि
हितकाम्यया॥१०- १॥


फिर से,
हे
महाबाहो
, तुम
मेरे परम वचनों को सुनो। क्योंकि तुम मुझे
प्रिय हो
इसलिय
मैं तुम्हारे हित के लिये तुम्हें बताता हूँ।





 


न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च
सर्वशः॥१०- २॥


न मेरे आदि (आरम्भ) को देवता लोग
जानते हैं और न ही महान् ऋषि जन
क्योंकि मैं
ही
सभी देवताओं का और महर्षियों का आदि हूँ।


 


यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।

असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः
प्रमुच्यते॥१०- ३॥


जो मुझे अजम (जन्म हीन) और अन-आदि
(जिसका कोई आरम्भ न हो) और इस संसार
का महान
ईश्वर
(स्वामि) जानता है
, वह
मूर्खता रहित मनुष्य इस मृत्यु संसार में सभी पापों से

मुक्त
हो जाता है।


 


बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।

सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव
च॥१०- ४॥




अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं
यशोऽयशः।


भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव
पृथग्विधाः॥१०- ५॥


बुद्धि,
ज्ञान,
मोहित
होने का अभाव
, क्षमा,
सत्य,
इन्द्रियों
पर संयम
, मन की सैम्यता
(संयम)
, सुख,
दुख,
होना
और न होना
, भय और
अभय
, प्राणियों
की हिंसा न करना (अहिंसा)
, एक सा रहना
एक सा देखना (समता)
, संतोष,
तप,
दान,
यश,
अपयश
- प्राणियों
के ये
सभी अलग अलग भाव मुझ से ही
होते हैं।


 


महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः
प्रजाः॥१०- ६॥


पुर्वकाल में उत्पन्न हुये सप्त
(सात) महर्षि
, चार
ब्रह्म कुमार
, और
मनु
- ये सब
मेरे द्वारा ही मन से (योग द्वारा) उत्पन्न हुये हैं और उनसे ही इस लोक में यह
प्रजा
हुई है।


 


एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र
संशयः॥१०- ७॥


मेरी इस विभूति (संसार के जन्म
कर्ता) और योग ऍश्वर्य को सार तक जानता
है, वह
अचल
(भक्ति) योग में स्थिर हो जाता है
, इसमें कोई शक नहीं।








भक्तियोग की व्याख्या (अध्याय 10 शलोक 8
से 11)



श्रीभगवानुवाच :


अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा
भावसमन्विताः॥१०- ८॥


मैं ही सब कुछ का आरम्भ हूँ,
मुझ
से ही सबकुछ चलता है। यह मान कर
बुद्धिमान
लोग
पूर्ण भाव से मुझे भजते हैं।


 


मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च
रमन्ति च॥१०- ९॥


मुझ में ही अपने चित्त को बसाऐ,
मुझ
में ही अपने प्राणों को संजोये
, परस्पर एक
दूसरे
को मेरा बोध कराते हुये और मेरी बातें करते हुये मेरे भक्त सदा संतुष्ट रहते
हैं
और मुझ में ही रमते हैं।


 


तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन
मामुपयान्ति ते॥१०- १०॥


ऍसे भक्त जो सदा भक्ति भाव से भरे
मुझे प्रीति पूर्ण ढंग से भजते हैं
, उनहें
मैं
वह बुद्धि योग (सार युक्त बुद्धि) प्रदान करता हूँ जिसके द्वारा वे मुझे
प्राप्त
करते हैं।


 


तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन
भास्वता॥१०- ११॥


उन पर अपनी कृपा करने के लिये मैं
उनके अन्तकरण में स्थित होकर
, अज्ञान
से उत्पन्न
हुये उनके अँधकार को ज्ञान रूपी दीपक जला कर नष्ट कर देता हूँ।








भागवत् महिमा का वर्णन (अध्याय 10 शलोक 12
से 18)




अर्जुन उवाच :


परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं
विभुम्॥१०- १२॥




आहुस्त्वामृषयः सर्वे
देवर्षिर्नारदस्तथा।


असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव
ब्रवीषि मे॥१०- १३॥


आप ही परम ब्रह्म हैं,
आप ही
परम धाम हैं
, आप ही
परम पवित्र हैं
, आप ही दिव्य शाश्वत
पुरुष हैं
, आप ही
हे विभु आदि देव हैं
, अजम
हैं। सभी ऋषि
, देवर्षि
नारद
, असित,
व्याल,
व्यास
जी आपको ऍसे ही बताते हैं।
यहाँ तक की स्वयं आपने भी मुझ से यही
कहा है।


 


सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।

न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा
न दानवाः॥१०- १४॥


हे केशव,
आपने
मुझे जो कुछ भी बताया उस सब को मैं सत्य मानता हूँ। हे

भगवन,
आप के
व्यक्त होने को न देवता जानते हैं और न ही दानव।


 


स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥१०-
१५॥


स्वयं आप ही अपने आप को जानते हैं
हे पुरुषोत्तम। हे भूत भावन (जीवों के
जन्म
दाता)।
हे भूतेश (जीवों के ईश)। हे देवों के देव। हे जगतपति।


 


वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं
व्याप्य तिष्ठसि॥१०- १६॥


आप जिन जिन विभूतियों से इस संसार
में व्याप्त होकर विराजमान हैं
, मुझे
पुरी तरहं
(अशेष) अपनी उन दिव्य आत्म विभूतियों का वर्णन कीजिय (आप ही करने में समर्थ
हैं)।


 


कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि
भगवन्मया॥१०- १७॥


हे योगी,
मैं
सदा आप का परिचिन्तन करता (आप के बारे में सोचता) हुआ किस

प्रकार आप को
जानूं (अर्थात किस प्रकार मैं आप का चिन्तन करूँ)। हे भगवन
,
मैं
आपके किन किन
भावों
में आपका
चिन्तन
करूँ।


 


विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।

भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो
नास्ति मेऽमृतम्॥१०- १८॥


हे जनार्दन,
आप
आपनी योग विभूतियों के विस्तार को फिर से मुझे बताइये
,
क्योंकि
आपके वचनों रुपी इस अमृत का पान करते (सुनते) अभी मैं तृप्त नहीं हुआ
हूँ।


 








विभूतियां तथा योगशक्ति (अध्याय 10 शलोक 19
से 42)


 


श्रीभगवानुवाच :


हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ
नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥१०- १९॥


मैं तुम्हें अपनी प्रधान प्रधान
दिव्य आत्म विभूतियों के बारे में बताता
हूँ
क्योंकि
हे कुरु श्रेष्ठ मेरे विसतार का कोई अन्त नहीं है।


 


अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव
च॥१०- २०॥


मैं आत्मा हूँ,
हे
गुडाकेश
, सभी
जीवों के अन्तकरण में स्थित। मैं ही सभी
जीवों
का
आदि (जन्म)
, मध्य
और अन्त भी हूँ।


 


आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं
शशी॥१०- २१॥


आदित्यों (अदिति के पुत्रों) में
मैं विष्णु हूँ। और ज्योतियों में
किरणों
युक्त
सूर्य हूँ। मरुतों (
49 मरुत नाम के देवताओं) में से मैं मरीचि हूँ। और नक्षत्रों
में शशि (चन्द्र)।


 


वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि
भूतानामस्मि चेतना॥१०- २२॥


वेदों में मैं साम वेद हूँ।
देवताओं में इन्द्र। इन्द्रियों में मैं मन
हूँ।
और
जीवों में चेतना।


 


रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः
शिखरिणामहम्॥१०- २३॥


रुद्रों में मैं शंकर (शिव जी) हूँ,
और
यक्ष एवं राक्षसों में कुबेर
हूँ।
वसुयों
में मैं अग्नि (पावक) हूँ। और शिखर वाले पर्वतों में मैं मेरु हूँ।


 


पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि
सागरः॥१०- २४॥


हे पार्थ तुम मुझे पुरोहितों में
मुख्य बृहस्पति जानो। सेना पतियों में
मुझे
स्कन्ध
जानो और जलाशयों में सागर।


 


महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां
हिमालयः॥१०- २५॥


महर्षीयों में मैं भृगु हूँ,
शब्दों
में मैं एक ही अक्षर ॐ हूँ। यज्ञों
में
मैं
जप यज्ञ हूँ और न हिलने वालों में हिमालय।


 


अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां
कपिलो मुनिः॥१०- २६॥


सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ,
और
देव ऋर्षियों में नारद। गन्धर्वों
में
मैं
चित्ररथ हूँ और सिद्धों में भगवान कपिल मुनि।


 


उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।

ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च
नराधिपम्॥१०- २७॥


सभी घोड़ों में से मुझे तुम अमृत
के लिये किये सागर मंथन से उत्पन्न
उच्चैश्रव
समझो।
हाथीयों का राजा ऐरावत समझो। और मनुष्यों में मनुष्यों का राजा समझो।


 


आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः
सर्पाणामस्मि वासुकिः॥१०- २८॥


शस्त्रों में मैं वज्र हूँ। गायों
में कामधुक। प्रजा की बढौति करने
वालों में
कन्दर्प
(काम देव) और सर्पों में मैं वासुकि हूँ।


 


अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितॄणामर्यमा चास्मि यमः
संयमतामहम्॥१०- २९॥


नागों में मैं अनन्त (शेष नाग) हूँ
और जल के देवताओं में वरुण। पितरों
में
अर्यामा
हूँ और नियंत्रित करने वालों में यम देव।


 


प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च
पक्षिणाम्॥१०- ३०॥


दैत्यों में मैं भक्त प्रह्लाद
हूँ। परिवर्तन शीलों में मैं समय हूँ।
हिरणों
में
मैं उनका इन्द्र अर्थात शेर हूँ और पक्षियों में वैनतेय (गरुड)।


 


पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि
जाह्नवी॥१०- ३१॥


पवित्र करने वालों में मैं पवन
(हवा) हूँ और शस्त्र धारण करने वालों में
भगवान
राम।
मछलियों में मैं मकर हूँ और नदीयों में जाह्नवी (गँगा)।


 


सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः
प्रवदतामहम्॥१०- ३२॥


सृष्टि का आदि,
अन्त
और मध्य भी मैं ही हूँ हे अर्जुन। सभी विद्याओं मे

से अध्यात्म
विद्या मैं हूँ। और वाद विवाद करने वालों के वाद में तर्क मैं हूँ।


 


अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं
विश्वतोमुखः॥१०- ३३॥


अक्षरों में अ मैं हूँ। मैं ही
अन्तहीन (अक्षय) काल (समय) हूँ। मैं ही
धाता
हूँ
(पालन करने वाला)
, मैं
ही विश्व रूप (हर ओर स्थित हूँ)।


 


मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां
स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥१०- ३४॥


सब कुछ हर लेने वीली मृत्यु भी मैं
हूँ और भविष्य में उत्पन्न होने वाले
जीवों
की
उत्पत्ति भी मैं ही हूँ। नारीयों में कीर्ति (यश)
, श्री (धन संपत्ति सत्त्व),
वाक
शक्ति (बोलने की
शक्ति),
स्मृति
(यादाश्त)
, मेधा
(बुद्धि)
, धृति
(स्थिरता) और
क्षमा
मैं हूँ।


 


बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां
कुसुमाकरः॥१०- ३५॥


गाये जाने वाली श्रुतियों (सामों)
में मैं बृहत्साम हूँ और वैदिक छन्दों
में
गायत्री।
महानों में मैं मार्ग-शीर्ष हूँ और ऋतुयों में कुसुमाकर (फूलों को करने
वाली
अर्थात वसन्त)।


 


द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं
सत्त्ववतामहम्॥१०- ३६॥


छल करने वालों का जुआ मैं हूँ और
तेजस्वियों का तेज मैं हूँ। मैं ही
विजय (जीत) हूँ,
मैं
ही सही निश्चय (सही मार्ग) हूँ। मैं ही सात्विकों का सत्त्व

हूँ।


 


वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना
कविः॥१०- ३७॥


वृष्णियों में मैं वासुदेव हूँ और
पाण्डवों में धनंजय (अर्जुन)। मुनियों
में
मैं
भगवान व्यास मुनि हूँ और सिद्ध कवियों में मैं उशना कवि (शुक्राचार्य) हूँ।


 


दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं
ज्ञानवतामहम्॥१०- ३८॥


दमन (लागू) करने वालों में दण्ड
नीति मैं हूँ और विजय की इच्छा रखने
वालों में
न्याय
(नीति) मैं हूँ। गोपनीय बातों में मौनता मैं हूँ और ज्ञानियों का ज्ञान मैं
हूँ।


 


यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं
चराचरम्॥१०- ३९॥


जितने भी जीव हैं हे अर्जुन,
उन
सबका बीज मैं हूँ। ऍसा कोई भी चर अचर
(चलने या

चलने वाला) जीव नहीं है जो मेरे बिना हो।


 


नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो
विभूतेर्विस्तरो मया॥१०- ४०॥


मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त
नहीं है हे परन्तप। मैने अपनी इन
विभूतियों
की
विस्तार तुम्हें केवल कुछ उदाहरण देकर ही बताया है।


 


यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम
तेजोंऽशसंभवम्॥१०- ४१॥


जो कुछ भी (प्राणी,
वस्तु
आदि) विभूति मयी है
, सत्त्वशील
है
, श्री
युक्त
हैं अथवा
शक्तिमान है
, उसे
तुम मेरे ही अंश के तेज से उत्पन्न हुआ जानो।


 


अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन
स्थितो जगत्॥१०- ४२॥


और इस के अतिरिक्त बहुत कुछ जानने
की तुम्हें क्या आवश्यकता है हे
अर्जुन।
मैंने
इस संपूर्ण जगत को अपने एक अंश मात्र से प्रवेश करके स्थित कर रखा
है।



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