शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Wednesday, November 9, 2011

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 31 & Chapter 31 in English Also

ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र अध्याय 31
मुक्ति-दान

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1. सन्यासी विरजयानंद

2. बालाराम मानकर

3. नूलकर

4. मेघा और

5. बाबा के सम्मुख बाघ की मुक्त
इस अध्याय में हेमाडपंत बाबा के सामने कुछ भक्तों की मृत्यु तथा बाघ के प्राण-त्याग की कथा का वर्णन करते है ।
प्रारम्भ

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मृत्यु के समय जो अंतिम इच्छा या भावना होती है, वही भवितव्यता का निर्माण करती है । श्री कृष्ण ने गीता (अध्याय-8) में कहा है कि जो अपने जीवन के अंतिम क्षण में मुझे सम्रण करता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है तथा उस समय वह रजो कुछ भी दृश्य देखता है, उसी को अन्त में पाता है । यह कोई भी निश्चयात्मक रुप से नहीं कह सकता कि उस क्षण हम केवल उत्तम विचार ही कर सकेंगे । जहाँ तक अनुभव में आया है, ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय अनेक कारणों से भयभीत होने की संभावना अधिक होती है । इसके अनेक कारण है । इसलिये मन को इच्छानुसार किसी उत्तम विचार के चिंतन में ही लगाने के लिए नित्याभ्यास अत्यन्त आवश्यक है । इस कारण सभी संतों ने हरिस्मरण और जप को ही श्रेष्ठ बताया है, ताकि मृत्यु के समय हम किसी घरेलू उलझन में न पड़ जायें । अतः ऐसे अवसर पर बक्तगण पूर्णतः सन्तों के शरणागत हो जाते है, ताकि संत, जो कि सर्वज्ञ है, उचित पथप्रदर्शन कर हमारी यथेष्ठ सहायता करें । इसी प्रकार के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है ।
1. विजयानन्द

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एक मद्रसी सन्यासी विजयानंद मानसरोवर की यात्रा करने निकले । मार्ग में वे बाबा की कीर्ति सुनकर शिरडी आये, जहाँ उनकी भेंट हरिद्घार के सोमदेव जी स्वामी से हुई और इनसे उन्होंने मानसरोवर की यात्रा के सम्बन्ध में पूछताछ की । स्वामीजी ने उन्हें बताया कि गंगोत्री से मानसरोवर 500 मील उत्तर की ओर है तथा मार्ग में जो कष्ट होते है, उनका भी उल्लेख किया जैसे कि बर्फ की अधिकता, 50 कोस तक भाषा में भिन्नता तथा भूटानवासियों के संशयी स्वभाव, जो यात्रियों को अधिक कष्ट पहुँचाया करते है । यह सब सुनकर सन्यासी का चित्त उदास हो गयाऔर उसने यात्रा करने का विचार त्यागकर मसजिद में जाकर बाबा के श्री चरणों का स्पर्श किया । बाबा क्रोधित होकर कहने लगे – इस निकम्मे सन्यासी को निकालो यहाँ से । इसका संग करना व्यर्थ है । सन्यासी बाबा के स्वभाव से पूर्ण अपरिचित था । उसे बड़ी निराशा हुई, परन्तु वहाँ जो कुछ भी गतिविधियाँ चल रही थी, उन्हें वह बैठे-बैठे ही देखता रहा । प्रातःकाल का दरबार लोगों से ठसाठस भरा हुआ था और बाबा को यथाविधि अभिषेक कराया जा रहा था । कोई पाद-प्रक्षालन कर रहा था तो कोई चरणों को छूकर तथा कोई तीर्थस्पर्श से अपने नेत्र सफल कर रहा था । कुछ लोग उ्हें चन्दन का लेप लगा हे थे तो कोई उनके शरीर में इत्र ही मल रहा था । जातिपाँति का भेदभाव भुलाकर सब भक्त यह कार्य कर रहे थे । यघपि बाबा उस पर क्रोधित हो गये थे तो भी सन्यासी के हृदय में उनके प्रति बड़ा प्रेम उत्पन्न हो गया था । उसे यह स्थान छोड़ने की इच्छा ही न होती थी । दो दिन के पश्चात् ही मद्रास से पत्र आया कि उसकी माँ की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है, जिसे पढ़कर उसे बड़ी निराशा हुई और वह अपनी माँ के दर्शन की इच्छा करने लगा, परन्तु बाबा की आज्ञा के बिना वह शिरडी से जा ही कैसे सकता था । इसलिये वह हाथ में पत्र लेकर उनके समीप गया और उनसे घर लौटने की अनुमति माँगी । त्रिकालदर्शी बाबा को तो सबका भविष्य विदित ही था । उन्होंने कह कि जब तुम्हें अपनी माँ से इतना मोह था तो फिर सन्यास धारण करने का कष्ट ही क्यों उठाया । ममता या मोह भगवा वस्त्रधारियों को क्या शोभा देता है । जाओ, चुपचाप अपने स्थान पर रहकर कुछ दिन शांतिपूर्वक बिताओ । परन्तु सावधान । वाड़े में चोर अधिक है । इसलिए द्घार बंद कर सावधानी से रहना, नहीं तो चोर सब कुछ चुराकर ले जायेंगे । लक्ष्मी यानी संपत्ति चंचला है और यह शरीर भी नाशवान् है, ऐसा ही समझ कर इहलौकिक व पालौकिक समस्त पदार्थों का मोह त्याग कर अपना कर्त्व्य करो । जो इस प्रकार का आचरण कर श्रीहरि के शरणागत हो रजाता है, उसका सब कष्टों से शीघ्र छुटकार हो उसे परमानंद की प्राप्ति हो जाती है । जो परमात्मा का ध्यान व चिंतन प्रेंम और भक्तिपूर्वक करता है, परमात्मा भी उसकी अविलम्ब सहायता करते है । पूर्वजन्मों के शुभ संस्कारों के फलस्वरुप ही तुम यहाँ पहुँचे हो और अब जो कुछ मैं कहता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो और अपने जीवन के अंतिम ध्येय पर विचार करो । इच्छारहित होकर कल से भागवत का तीन सप्ताह तक पठन-पाठन प्रारम्भ करो । तब भगवान् प्रसन्न होंगे और तुम्हारे सब दुःख दूर कर देंगे । माया का आवरण दूर होकर तुम्हें शांति प्राप्त होगी । बाबा ने उसका अंतकाल समीप देखकर उसे यह उपचार बता दिया और साथ ही रामविजय पढ़ने की भी आज्ञा दी, जिससे यमराज अधिक प्रसन्न् होते है । दूसरे दिन स्नानादि तथा अन्य शुद्घि के कृत्य कर उसने लेंडी बाग के एकांत स्थान में बैठकर भागवत का पाठ आरम्भ कर दिया । दूसरी बार का पठन समाप्त होने पर वह बहुत थक गया और वाड़े में आकर दो दिन ठहरा । तीसरे दिन बड़े बाबा की गोद में उसके प्राण पखेरु उड़े गये । बाबा ने दर्शनों के निमित्त एक दिन के लिये उसका शरीर सँभाल कर रखने के लिये कहा । तत्पश्चात् पुलिस आई और यथोचित्त जाँच-पडताल करने के उपरांत मृत शरीर को उठाने की आज्ञा दे दी । धार्मिक कृत्यों के साथ उसकी उपयुक्त स्थान पर समाधि बना दी गई । बाबा ने इस प्रकार सन्यासी की सहायता कर उसे सदगति प्रदान की ।
2. बालाराम मानकर

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बालाराम मानकर नामक एक गृहस्थबाबा के परम भक्त थे । जब उनकी पत्नी का देहांत हो गया तो वो बड़े निराश हो गये और सब घरबार अपने लड़के को सौंप वे शिरडी में आकर बाबा के पास रहने लगे । उनकी भक्ति देखकर बाबा उनके जीवन की गति परिवर्तित कर देना चाहते थे । इसीलिये उन्होंने उन्हें बारह रुपये देकर मच्छिंग्रगढ़ (जिला सातार) में जाकर रहने को कहा । मानकर की इच्छा उनका सानिध्य छोड़कर अन्यत्र कहीं जाने की न ती, परन्तु बाबा ने उन्हें समझाया कि तुम्हारे कलायाणार्थ ही मैं यह उत्तम उपाय तुम्हें बतलता रहा हूँ । इसीलिये वहाँ जाकर दिन में तीन बार प्रभु का ध्यान करो । बाबा के शब्दों में व्श्वास कर वह मच्छंद्रगढ़ चाल गया और वहाँ के मनोहर दृश्यों, शीतल जल तथा उत्तम पवन और समीपस्थ दृश्यों को देखकर उसके चित्त को बड़ी प्रसन्नता हुई । बाबा द्घारा बतलाई विधि से उसने प्रभु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ दिनों पश्चात् ही उसे दर्शन प्राप्त हो गया । बहुधा भक्तों को समाधि या तुरीयावस्था में ही दर्शन होते है, परन्तु मानकर जब तुरीयास्था से प्राकृतावस्था में आया, तभी उसे दर्शन हुए । दर्शन होने के पश्चात् मानकर ने बाबा से अपने को वहाँ भेजने का कारण पूछा । बाबा ने कहा कि शिरडी में तुम्हारे मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उठने लगे थे । इसी कारण मैंने तुम्हें वहाँ भेजा कि तुम्हारे चंचल मन को शांति प्राप्त हो । तुम्हारी धारणा थी कि मैं शिरडी में ही विघमान हूँ और साढ़ेतीन हाथ के इस पंचतत्व के पुतले के अतिरिक्त कुछ नही हूँ, परन्तु अब तुम मुझे देखकर यह धारणा बना लो कि जो तुम्हारे सामने शिरडी में उपस्थित है और जिसके तुमने दर्शन किये, वह दोनों अभिन्न है या नहीं । मानकर वह स्थान छोडकर अपने निवास स्थान बाँद्रा को रवाना हो गया । वह पूना से दादर रेल द्घारा जाना चाहता था । परन्तु जब वह टिकट-घर पर पहुँचा तो वहाँ अधिक भीड़ होने के कारण वह टिकट खरीद न सका । इतने में ही एक देहाती, जिसके कंधे पर एक कम्बल पड़ा था तथा शरीर पर केवल एक लंगोटी के अतिरिक्त कुछ न था, वहाँ आया और मानकर से पूछने लगा कि आप कहाँ जा रहे है । मानकर ने उत्तर दिया कि मैं दादर जा रहा हूँ । तब वह कहने लगा कि मेरा यह दादर का टिकट आप ले लीजिय, क्योंकि मुझे यहाँ एक आवश्यक कार्य आ जाने के कारण मेरा जाना आज न हो सकेगा । मानकर को टिकट पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई और अपनी जेब से वे पैसे निकालने लगे । इतने में ही टिकट देने वाला आदमी भीड़ में कहीं अदृस्य हो गया । मानकर ने भीड़ में पर्याप्त छानबीन की, परन्तु सब व्यर्थ ही हुआ । जब तक गाड़ी नहीं छूटी, मानकर उसके लौटने की ही प्रतीक्षा करता रहा, परन्तु वह अन्त तक न लौटा । इस प्रकार मानकर को इस विचित्र रुप में द्घितीय बार दर्शन हुए । कुछ दिन अपने घर ठहरकर मानकर फिर शिरडी लौट आया और श्रीचरणों में ही अपने दिन व्यतीत करने लगा । अब वह सदैव बाबा के वचनों और आज्ञा का पालन करने लगा । अन्ततः उस भाग्यशाली ने बाबा के समक्ष ही उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपने प्राण त्यागे ।
3. तात्यासाहेब नूलकर

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हेमाडपंत ने तात्यासाहेब नूलकर के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं लिखा है । केवल इतना ही लिखा है कि उनका देहांत शिरडी में हुआ था । साईलीला पत्रिका में संक्षिप्त विवरण प्रकाशित हुआ था, रजो नीचे उद्घृत है – सन 1909 में जिस समय तात्यासाहेब पंढरपुर में उपन्यायाधीश थे, उसी समय नानासाहेब चाँदोरकर भी वहाँ के मामलतदार थे । ये दोनो आपस में बहुधा मिला करते और प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया करते थे । तात्यासाहेब सन्तों में अविश्वास करते थे, जबकि नानासाहेब की सन्तों के प्रति विशेष श्रद्घा थी । नानासाहेब ने उन्हें साईबाबा की लीलाएँ सुनाई और एक बार शिरडी जाकर बाब का दर्शन-लाभ उठाने का आग्रह भी किया । वे दो शर्तों पर चलने को तैयार हुए –
1. उन्हें ब्राहमण रसोइया मिलना चाहिये ।
2. भेंट के लिये नागपुरसे उत्तम संतरे आना चाहिये ।
शीघ्र ही ये दोनों शर्ते पूर्ण हो गयी । नानासाहेब के पास एक ब्राहमण नौकरी के लिये आया, जिसे उन्होंने तात्यासाहेब के पास भिजवा दिया और एक संतरे का पार्सन भी आया, जिसपर भेजने वाले का कोई पता न लिखा था । उनकी दोनों शर्ते पूरी हो गई थी । इसीलिये अब उन्हें शिरडी जाना ही पड़ा । पहले तो बाबा उन पर क्रोधित हुए, परन्तु जब धीरे-धीरे तात्यासाहेब को विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही ईश्वरावतार है तो वे बाबा से प्रभावित हो गये और फिर जीवनपर्यन्त वहीं रहे । जब उनका अन्तकाल समीप आया तो उन्हें पवित्र धार्मिक पाठ सुनाया गया और अंतिम क्षणों में उन्हें बाबा का पद तीर्थ भी दिया गया । उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर बाबा बोल उठे – अरे तात्या तो आगे चला गया । अब उसका पुनः जन्म नहीं होगा ।
4. मेघा

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28वे अध्याय में मेघा की कथा का वर्णन किया जा चुका है । जब मेघा का देहांत हुआ तो सब ग्रामबासी उनकी अर्थी के साथ चले और बाबा भी उनके साथ सम्मिलित हुए तथा उन्होंने उसके मृत शरीर पर फूल बरसाये । दाह-संस्कार होने के पश्चात् बाबा की आँखों से आँसू गिरने लगे । एक साधारण मनुष्य के समान उनका भी हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया । उनके शरीर को फूलों से ढँककर एक निकट समबन्धी के सदृश रोते-पीटते वे मसजिद को लौटे । सदगति प्रदान करते हुए अनेक संत देखने में आये है, परन्तु बाबा की महानता अद्घितीय ही है । यहाँ तक कि बाघ सरीखा एक हिंसक पशु भी अपनी रक्षा के लिये बाबा की शरण में आया, जिसका वृतान्त नीचे लिखा है -
5. बाघ की मुक्ति

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बाबा के समाधिस्थ होने के सात दिन पूर्व शिरडी में एक विचित्र घटना घटी । मसजिद के सामने एक बैलगाड़ी आकर रुकी, जिसपर एक बाघ जंजीरों से बँधा हुआ था । उसका भयानक मुख गाड़ी के पीछे की ओर था । वह किसी अज्ञात पीड़ा या दर्द से दुःखी था । उसके पालक तीन दरवेश थे, जो एक गाँव से दूसरे गाँव में जाकर उसके नित्य प्रदर्शन करते और इस प्रकार यथेएष्ठ द्रव्य संचय करते थे और यही उनके जीविकोवपार्जन का एक साधन था । उन्होंने उसकी चिकित्सा के सभी प्रयत्न किये, परन्तु सब कुछ व्यर्थ हुआ । कहीं से बाबा की कीर्ति भी उनके कानों में पड़ गई और वे बाघ को लेकर साई दरबार में आये । हाथों से जंजीरें पकड़कर उन्होंने बाघ को मसजिद के दरवाजे पर खड़ा कर दिया । वह स्वभावतः ही भयानक था, पर रुग्ण होने के कारण वह बेचैन था । लोग भय और आश्चर्य के साथ उसकी ओर देखने लगे । दरवेश अन्दर आये और बाबा को सब हाल बताकर उनकी आज्ञा लेकर वे बाघ को उनके सामने लाये । जैसे ही वह सीढ़ियों के समीप पहुँचा, वैसे ही बाबा के तेजःपुंज स्वरुप का दर्शन कर एक बार पीछे हट गया और अपनी गर्दन नीचे झुका दी । जब रदोनों की दृष्टि आपस में एक हुई तो बाघ सीढ़ी पर चढ़ गया और प्रेमपूर्ण दृष्टि से बाबा की ओर निहारने लगा । ुसने अपनी पूँछ हिलाकर तीन बार जमीन पर पटकी और फिर तत्क्षम ही अपने प्राण त्याग दिये । उसे मृत देखकर दरवेशी बड़े निराश और दुःखी हुए । तत्पश्चात जब उन्हें बोध हुआ तो उन्होंने सोचा कि प्राणी रोगग्रस्त थी ही और उसकी मृत्यु भी सन्निकट ही थी । चलो, उसके लिये अच्छा ही हुआ कि बाबा सरीखे महान् संत के चरणों में उसे सदगति प्राप्त हो गई । वह दरवेशियों का ऋणी था और जब वह ऋम चुक गया तो वह स्वतंत्र हो गया और जीवन के अन्त में उसे साई चरणों में सदगति प्राप्त हुई । जब कोई प्राणीससंतों के चरणों पर अपना मस्तक रखकर प्राण त्याग दे तो उसकी मुक्ति हो जाती है । पूर्व जन्मों के शुभ संस्कारों के अभाव में ऐसा सुखद अंत प्राप्त होना कैसे संभव है ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

 

 

Shree Sai Sachritra Chapter 31

The Passing Away In Baba's Presence of - (1) Sannyasi Vijayanand - (2) Balaram Mankar - (3) Noolkar - (4) Megha - and (5) The Tiger.

In this Chapter Hemadpant describes the passing away of certain persons and a tiger in Baba's presence.

Preliminary

The last wish or thought that a man has at the hour of death, determines his future course. Shri Krishna has said in Gita (VIII-5-6) that "he who remembers Me in his last moments, comes verily to Me, and he that meditates otherwise at that time goes to what he looks for." We cannot be certain that we can entertain a particular good thought at our last moment, for, more often than not, we are more likely to be frightened and terrified by many causes. Hence constant practice is necessary for enabling us to fix our mind on any desired good thought at any or the last moment. All Saints, therefore, recommended us to always remember God and chant His name always, so that we may not be puzzled when the time for departure comes. The devotees on their part surrender themselves completely to the Saints, fully believing that the all-knowing Saints would guide and help them in their last moments. A few such cases will be noted here.

(1) Vijayanand

A Madrasi Sannyasi named Vijayanand started on a pilgrimage to Manasa-Sarovar. En route, hearing Baba's fame, he halted at Shirdi. There he met one Somadevaji Swami of Hardwar and enquired of him about the particulars of the Manasa-Sarovar trip. The Swami told him that the Sarovar was 500 miles above the Gangotri and described to him the difficulties of the journey, viz. plenty of snow and the change of dialect every 50 koss and the suspicious nature of the people of Bhutan who give a lost of trouble to the pilgrims on the way. Hearing this, the Sannyasi was dejected and cancelled the trip. Then when he went to Baba and prostrated himself before Him, Baba got enraged and said, "Drive out this useless Sannyasi, his company is of no use". The Sannyasi did not know Baba's nature. He felt discomforted, but sat there watching things that were going on. It was the morning Darbar and the Masjid was overcrowded. Baba was being worshipped in various ways. Some were washing His Feet, some taking the Tirth (holy water) from His toe and drinking it heartily and some touching their eyes with it, some were applying sandal-paste, and some scents to His body. And all were doing these things forgetting the distinction of caste and creed. Though Baba got enraged with him, he was filled with affection for Baba and he did not like to leave the place.

He stayed in Shirdi for two days when he got a letter from Madras stating that his mother was very ill. He felt very dejected and wanted to be by his mother's side; but he could not leave without Baba's permission. So he saw Baba with the letter in hand and asked for His permission to return home. The omniscient Baba knowing the future said to him - "If you so loved your mother, why did you take Sannayasa? Fondness or attachment ill becomes an ochre garb. Go and sit quiet at your lodging, wait with patience for a few days. In the Wada there are many robbers, bolt your doors, be very vigilant, the thieves will carry everything. Wealth and prosperity are transient and the body is subject to decay and death. Knowing this, do your duty, leaving all attachment to the things of this world and next. He who does this and surrenders himself to the Feet of Hari (Lord) will get free from all troubles and attain bliss. The Lord runs and helps him who remembers and meditates on Him with love and affection. Your store of past merits is considerable, so you have come here. Now attend to what I say and realise the end of your life. Being desireless, begin from tomorrow the study of Bhagwat. Do three 'saptahas' i.e. three reading during three weeks, conscientiously. The Lord will be pleased with you and destroy your sorrows, your illusions will vanish and you will get peace." Seeing that his end was approaching, Baba prescribed that remedy and made him read 'Ramavijaya' which pleases the God of death. Next morning after bathing and other purifying rites he commenced to read Bhagwat in a secluded part in the Lendi garden. He completed two readings and thereafter felt much exhausted. He returned to the Wada and stayed in his lodging for two days and on the third day he breathed his last on Fakir (Bade) Baba's lap. Baba asked the people to preserve the body for a day for a good reason. The police afterwards came and on making proper enquiries gave permission for the disposal of the body. It was buried in a proper place with due rites. In this way Baba helped the Sannyasi and ensured him Sadgati (salvation).

(2) Balaram Mankar

There was a house-holder devotee of Baba by name Balaram Mankar. When his wife passed away, he got dejected and entrusting his household to his son, left his home and came to Shirdi and lived with Baba. Being pleased with his devotion, Baba wanted to give a good turn to his life and He did this in this wise. He gave him Rs. 12/- and asked him to go and live in Macchindragad (District Satara). Mankar was first unwilling to go and stay away from Baba, but Baba convinced him that he was giving the best course for him and asked him to practise mediation thrice a day on the Gad. Believing in Baba's words, Mankar came to the Gad. He was much pleased with the lovely sight, pure water, healthy air and the surroundings of the place, and began to practice assiduously the meditations as recommended by Baba. After some days he got a revelation. Generally Bhaktas get revelation in their Samadhi or trance states, but in Mankar's case he got it, when he came down to his ordinary consciousness from his trance. Baba appeared to him in person. Not only that Mankar saw Him, but he also asked Him why he was sent there. Baba replied - "In Shirdi many thoughts and ideas began to rise in your mind and I sent you here to rest your unsteady mind. You thought that I was in Shirdi with a body composed of the five elements and three and a half cubits in length, and not outside of it. Now you see and determine for yourself whether the person you see here now is the same you saw at Shirdi. It is for this reason that I sent you here." Then after the period was over, Mankar left the Gada and proceeded to his native place Bandra. He wanted to travel by rail from Poona to Dadar, but when he went to the booking office to get a ticket, he found it very much crowded. He could not get his ticket soon, when, a villager with a langoti (piece of cloth) on his waist and kambali on his shoulder turned up and said - "Where are your going?" "To Dadar." replied Mankar. Then he said - "Please take this Dadar ticket of mine; as I have some urgent business here, I have cancelled my Dadar trip." Mankar was very glad to receive the ticket and was just taking out money from his pocket, when the rustic disappeared in the crowd. Mankar tried to find him out in the crowd, but it was in vain. He waited for him till the train left the station but found no trace of him. This was the second revelation Mankar got in a strange form. Then Mankar after visiting his home, again returned to Shirdi and remained there at Baba's feet, always following His biddings and advice. In the end, he was very fortunate to leave this world in the presence, and with the blessings of Baba.

(3) Tatyasaheb Noolkar

Hemadpant gives no particulars regarding Tatyasaheb Noolkar, except the bare mention of the fact that he up his ghost in Shirdi. A brief summary of his account that appeared in the Sai Leela magazine is given here.

Tatyasaheb was a Sub-Judge at Pandharpur in 1909, when Nanasaheb Chandorkar was Mamalatdar there. Both met often and exchanged talks. Tatyasaheb did not believe in saints, while Nanasaheb loved them. Nanasaheb often told him the Leelas of Sai Baba and pressed him to go to Shirdi and see Baba. He finally agreed to go to Shirdi on two conditions:- (1) he must get a Brahmin cook, and (2) must get good Nagpur oranges for the presentation. Both these conditions were providentially fulfilled. A Brahmin came to Nanasaheb for service and he was sent to Tatyasaheb and a fruit parcel containing 100 beautiful oranges was received by Tatyasaheb, the consigner being not known. As the conditions were fulfilled, Tatyasaheb had to go to Shirdi. At first Baba was much enraged with him. But by and by Tatyasaheb got such experiences that he was convinced that Baba was God incarnate. So he was enamoured of Baba and stayed there till his death. As his end was approaching, sacred literature was read out to him and at the last hour Baba's Pada-tirth was brought and given to him for drinking. Baba on hearing of his death, said, "Oh, Tatya went ahead of us, he won't be reborn."

(4) Megha

The story of Megha has been already described in Chapter 28. When Megha died, all the villagers followed the funeral procession. Baba also accompanied them and showered flowers on Megha's body. After the obsequies were performed, tears flowed from Baba's eyes and like an ordinary mortal, Baba showed Himself overcome with grief and sorrow. Then covering the body with flowers and crying like a near relation, Baba returned to the Masjid.

Many Saints have been seen giving Sadgati to men, but Baba's greatness is unique. Even a cruel animal like a tiger came to Baba's feet for being saved. It is this story which will be narrated now.

(5) Tiger

Seven days before Baba passed away, a wonderful incident occured at Shirdi. There came a country-cart and stopped in front of the Masjid. A tiger was on the cart, fastened with iron chains, with its fierce face turned to the rear. It was suffering from some pain or agony. Its keepers - three Derveshis - were taking it from place to place and making money by exhibiting it. It was the means of their subsistence. They tried all sorts of remedies to cure it from the malady it was suffering from, but all was in vain. Then they heard of Baba's fame and came to Him with the animal. They got it down the chains in their hands and made it stand at the door. It was naturally fierce, besides, disease ridden. So it was restless. The people began to look at it with fear and amazement. The Derveshies went in, told Baba everything about the animal and with His consent, brought it before Him. As it approached the steps, it was taken aback on account of the lustre of Baba and hung its head down. When both saw each other, it got on the step and looked at Baba with affection. Immediately it moved the tuft of its tail and dashed it thrice against the ground and then fell down senseless. On seeing it dead the Derveshis were first much dejected and full of sorrow, but on mature thought they came to their senses. They considered that as the animal was diseased and nearing its end, it was very meritorious on its part that it should meet its death at the feet and in the presence of Baba. It was their debtor, and when the debt was paid off it was free and met its end at Sai's Feet. When any creatures bow down their heads at saints' feet and meet death, they are saved; and unless they have got a good store of merit on their account, How could they get such a happy end?



Bow to Shri Sai - Peace be to all

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