शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Thursday, February 3, 2011

Sabka Malik Ek

ॐ सांई राम


Sabka Malik Ek
उसके यहां कोई भेदभाव नहीं



कुछ दिनों पहले उड़ीसा के पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ के मंदिर में एक गैर हिंदू चला गया। उसके 'अनधिकृत प्रवेश' के कारण भगवान को स्नान कराया गया और मंदिर की साफ-सफाई हुई। कितनी बेतुकी बात है? जो भगवान सबको पवित्र करता है, वही अपवित्र हो गया? किसी पेड़ की छाया में जब कोई हिंदू या मुसलमान खड़ा होकर सुस्ताना चाहता है, तो क्या पेड़ उसकी जाति देख कर अपनी छाया देता है? वह तो कभी नहीं कहता कि तुम मुसलमान हो, तुम सिख हो, तुम हिंदू हो, तुम ईसाई हो, तुम बुद्ध हो। भगवान क्या पेड़ से भी गए-बीते हो गए। क्या उनमें पेड़ जैसी उदारता भी नहीं?



किसी व्यक्ति के छूने से पेड़ पवित्र या अपवित्र नहीं होता। उसे कुदरत ने पैदा किया है। परंतु पूजा स्थल मनुष्य ने बनाए हैं। जो मनुष्य ने बनाया है, उसमें दीवारें हैं, उसमें छूत-अछूत का भेद है। वह कहता कि फलाँ आ सकता है, फलाँ नहीं आ सकता। नाम वह भगवान की लेता है पर हुक्म अपनी चलाता है, तुम आ सकते हो, पर तुम नहीं आ सकते।



मनुष्य का बनाया हुआ है यह भेद-भाव, बनाने वाले ने तो कोई अंतर नहीं रखा। मनुष्य के बनाए नलके या कुएँ में छुआ छूता होता है, कहीं वह ऊँची जात वालों की होती है, कहीं वह नीची जात वालों की होती है। लेकिन भगवान की बनाई हुई जो नदी है वह किसी से छुआछूत नहीं करती। उसमें कोई भी जाकर पानी पी सकता है। हमारा समाज ही सिखाता है, आपस में बैर रखना। धर्म व ईश्वर की तरफ से ऐसा कोई विधान नहीं है। जो अज्ञानी है, वह चाहे जगन्नाथ पुरी में बैठे या वाराणसी में, यह तथ्य समझ नहीं पा रहा।



एक समय तीन ब्राह्माण गंगा स्नान करने गए, परंतु उके पास लोटा नहीं था। वहीं पर कबीर भी स्नान कर रहे थे। पंडितों की परेशानी भांपकर कबीर ने कहा, मेरा यह लोटा है इसे ले जाओ। वे ब्राह्माण कबीर को अछूत मानते थे, इसलिए लोटा लेने को तैयार नहीं हुए। कबीर ने उसे मिट्टी से तीन बार घिस कर उसे साफ करके दिया, तब ब्राह्माणों ने लोटा ले लिया और गंगा स्नान के लिए जाने लगे। कबीर ने पीछे से आवाज लगाई, 'लेकिन पंडितों, आप लोगों से पहले मैं इस गंगा में डुबकी लगा चुका हूँ, अब उसे मिट्टी से कैसे साफ करूँ?' तीनों को बात समझ में आ गई, वे बड़े शर्मसार हुए और क्षमा मांगने लगे।



आदमी-आदमी के बीच सचमुच में कोई अंतर नहीं है। जब तक सांस आती है, हम जीवित हैं और जब अंतिम सांस जाएगी, तब सबका एक ही हाल होना है। चाहे दफनाओ, जलाओ, चाहे पेड़ पर लटका कर चीलों को खिलाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या चीज है वह जिसके कारण हम जीवित हैं? उस शक्ति को जानना, उसका अनुभव करना -सारे भेदभाव की दीवारों को ध्वस्त कर देता है। मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव करने वाले धर्म के ठेकेदार नहीं समझते कि किसी भी मनुष्य के मंदिर प्रवेश से मंदिर अपवित्र नहीं होता और न ही कोई नलका या कुएँ का पानी पीने से अपवित्र होता है। कहा है, 'हित अनहित पशु पक्षी हि जाना, मानुष तन गुण ज्ञान निधाना।' अपना भला-बुरा तो पशु- पक्षी भी अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन मनुष्य में और भी कई विशेषताएँ हैं, दूसरे प्राणियों की तुलना में तो वह ज्ञान का खजाना है।


अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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