शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....

Friday, October 25, 2013

भाई भाना परोपकारी जी - जीवन परिचय



ॐ श्री साँई राम जी















भाई भाना परोपकारी जी





जिऊं मणि काले सप सिरि हसि हसि रसि देइ न जाणै |


जाणु कथूरी मिरग तनि जींवदिआं किउं कोई आनै |


आरन लोहा ताईऐ घड़ीऐ जिउ वगदे वादाणै |


सूरणु मारनि साधीऐ खाहि सलाहि पुरख परवानै |


पान सुपारी कथु मिलि चूने रंगु सुरंग सिञानै |


अउखधु होवै कालकूटु मारि जीवालनि वैद सुजाणै |


मनु पारा गुरमुखि वसि आणै |


भाई गुरदास जी फरमाते हैं, जैसे काले नाग के सिर में मणि होती है पर उसको ज्ञान नहीं होता, मृग की नाभि में कस्तूरी होती है| दोनों के मरने पर उत्तम वस्तुएं लोगों को प्राप्त हो जाती हैं| इसी तरह लोहे की अहिरण होती है| जिमीकंद धरती में होता है| उसकी विद्वान उपमा करते तथा खाते हैं लाभ पहुंचता है| ऐसे ही देखो पान, सुपारी कत्था, चूना मिलकर रंग तथा स्वाद पैदा करते हैं| काला सांप जहरीला होता है, समझदार उसे मारते हैं तथा लाभ प्राप्त करते हैं|

इसी तरह जिज्ञासु जनो! मन जो है वह पारे की तरह है तथा सदा डगमगाता रहता है| उस पर काबू नहीं पाया जा सकता| यदि कोई मन पर काबू पा ले तो उसका कल्याण हो जाता है| ऐसे ही भाई भाना जी हुए हैं, जिन्होंने मन पर काबू पाया हुआ था| उनको कोई कुछ कहे वह न क्रोध करते थे तथा न खुशी मनाते| अपने मन को प्रभु सिमरन तथा लोक सेवा में लगाए रखते|

ग्रंथों में उनकी कथा इस तरह आती है -

भाना प्रयाग (इलाहाबाद) का रहने वाला था| यह छठे सतिगुरु जी के हजूरी सिक्खों में था, वह सदा धर्म की कमाई करता| जब कभी फुर्सत मिलती तो दरिया यमुना के किनारे जा कर प्रभु जी का सिमरन करता, किसी का दिल न दुखाता, किसी की निंदा चुगली करना, जानता ही नहीं था, कोई उसे अपशब्द कहे तो वह चुप रहता|

एक दिन भाई भाना यमुना किनारे बैठा हुआ सतिनाम का सिमरन करता बाणी पढ़ रहा था, पालथी मार कर बैठे हुए ने लिव गुरु चरणों से जोड़ी हुई थी| मन की ऊंची अवस्था के कारण उसकी आत्मा श्री अमृतसर में घूम रही थी तथा तन यमुना किनारे था, अलख निरंजन अगम अपार ब्रह्म के निकट होने तथा उसके भेद को पाने का प्रयत्न करता रहा था वह जब गुरु का सिक्ख बना था तब वह युवावस्था में था, व्यापारी आदमी था व्यापार में झूठ बोलना नहीं जानता था|

हां, भाई भाना गुरु जी की बाणी पढ़ रहा था| संध्या हो रही थी| डूबता हुआ सूरज अपनी सुनहरी किरणें यमुने के निर्मल जल पर फैंक रहा था| उस समय एक नास्तिक (ईश्वर से विमुख) मुर्ख भाई जी के पास आ बैठा| भाई जी को कहने लगा - 'हे पुरुष! मुझे यह समझाओ कि तुम प्रतिदिन हर समय परमात्मा को बे-आराम क्यों करते हो| क्या तुम्हारा परमात्मा परेशान नहीं होता? एक दिन किसी को यदि कोई बात कह दि तो वह काफी है, रोज़ बुड़-बुड़ करते रहते हो|'

भाई भाना ने नास्तिक के कटु वचनों का क्रोध नहीं किया, प्रेम से कहने लगा-सुनो नेक पुरुष मैं बहुत ज्ञानी तो नहीं पर जो कुछ मैं समझता हूं तुम्हें समझाने का यत्न करता हूं| ध्यान से सुनो, जैसे किसी को चोर मिले तो वह राजा के नाम की पुकार करता है, वह चोर भाग जाते हैं क्योंकि चोरों को डर होता है कि राजा उनको दण्ड न दे| इसी तरह मनुष्य के इर्द-गिर्द काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार पांच चोर हैं| वह जीव को सुख से बैठने नहीं देते| जीव का भविष्य लूटते हैं| पाप कर्म की ओर प्रेरित करते हैं, उन पांचों चोरों से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि सतिगुरों के बताए ढंग से राजाओं के राजा परमेश्वर के नाम का सिमरन किया जाए, साथ ही यदि हम परमेश्वर को याद रखे तो वह भी हमें याद रखता है| सांस-सांस नाम याद रखना चाहिए| भगवान को भूलने वाला अपने आप को भूल जाता है जो अपने आप को भूल क्र बुरे कर्म करता है, बुरे कर्मों के फल से उसकी आत्मा दुखी होती है| वह संसार से बदनाम हो जाता है, उस को कोई अच्छा नहीं समझता|

जैसे खाली बांस में फूंक मारने से दूसरी ओर निकल जाती है बांस पर कोई असर नहीं होता, वैसे भाने के शुभ तथा अच्छे वचनों का असर मुर्ख पर बिल्कुल न हुआ| एक कान से सुना तथा दूसरे से बाहर निकाल दिया, साथ ही क्रोधित हो कर भाई भाने को कहने लगा, 'मुर्ख! क्यों झूठ बोलते जा रहे हो| न कोई परमात्मा है तथा न किसी को याद करना चाहिए|' यह कह कर उसने भाई साहिब को एक जोर से थप्पड़ मारा, थप्पड़ मार कर आप चलता बना, रास्ते में जाते-जाते भाई जी तथा परमात्मा को गालियां निकालते हुए चलता गया|

भाई भाना जी धैर्यवान पुरुष थे| उन्होंने क्रोध न किया, बल्कि उठ कर घर चले गए| घर पहुंच कर सतिगुरों के आगे विनय की, 'सच्चे पातशाह! मैं तो शायद कत्ल होने के काबिल था, आप की कृपा है कि एक थप्पड़ से ही मुक्ति हो गई है| पर मैं चाहता हूं, उस नास्तिक का भला हो, वह सच्चाई के मार्ग पर लगे|'

इस घटना के कुछ समय पश्चात एक दिन भाई भाना जी फिर यमुना किनारे पहुंचे| आगे जा कर क्या देखते हैं कि वहीं नास्तिक वहां बैठा हुआ था, उसका हुलिया खराब था, तन के वस्त्र फटे हुए थे| तन पर फफोले ही फफोले थे| जैसे उसकी आत्मा भ्रष्ट हो रखी थी वैसे उसका तन भी भ्रष्ट हो गया| वह रो रहा था, उसके अंग-अंग में से दर्द निकल रहा था| उसका कोई हमदर्द नहीं बनता| भाई भाने जी को देखते ही वह शर्मिन्दा-सा हो गया, आंखें नीचे कर लीं| भाई साहिब की तरफ देख न सका| उसकी बुरी दशा पर भाई साहिब को बहुत रहम आया| उन्होंने दया करके उसको बाजु से पकड़ लिया तथा अपने घर ले आए| घर ला कर सेवा आरम्भ की, सतिनाम वाहिगुरु का सिमरन उसके कानों तक पहुंचाया| उसको समझाया कि भगवान अवश्य है| उस महान शक्ति की निंदा करना अच्छा नहीं| धीरे-धीरे उसका शरीर अरोग हो गया| आत्मा में परिवर्तन आ गया| वह परमात्मा को याद करने लगा, ज्यों-ज्यों सतिनाम कहता गया, त्यों-त्यों उसके शरीर के सारे रोग दूर होते गए|

उसने भाई भाना जी के आगे मिन्नत की कि भाई साहिब उसको अपने सतिगुरों के पास ले चले, गुरों के दर्शन करके वह भी पार हो जाए क्योंकि उसने अपने बीते जीवन में कोई नेकी नहीं की थी|

यह सुन कर भाई भाना जी को खुशी हुई| उन्होंने उसी समय तैयारी की तथा मंजिल-मंजिल चल कर श्री अमृतसर पहुंच गए, आगे सतिगुरों का दीवान लगा हुआ था, दोनों ने जा कर सतिगुरों के चरणों पर माथा टेका| गुरु जी ने कृपा करके भाई भाने के साथ उस नास्तिक को भी पार कर दिया, वह गुरु का सिक्ख बन गया, फिर वह कहीं न गया| गुरु के लंगर में सेवा करके जन्म सफल करता रहा| इस तरह मन पर काबू पाने वाले भाई भाना जी बहुत सारे लोगों को गुरु घर में लेकर आए|











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