Shirdi Ke Sai Baba Group (Regd.)
शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण....
Sunday, March 31, 2013
राम नवमी उत्सव, शिर्डी से निमंत्रण्
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ॐ सांई राम
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5:35 PM
His parentage, birth details, and life before the age of sixteen are obscure, which has led to a variety of speculations and theories attempting to explain Sai Baba's origins. In his life and teachings he tried to reconcile Hinduism and Islam: Sai Baba lived in a mosque which he called Dwarakamayi, practised Hindu and Muslim rituals, taught using words and figures that drew from both traditions and was buried in a Hindu temple in Shirdi.
One of his well known epigrams says of God : "Sabka Malik Ek" which traces its root to Islam in general and sufism in particular.
श्री साईं लीलाएं - मेरा पेड़ा मुझे दो
ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. प्यार की रोटी से मन तृप्त हुआ
श्री साईं लीलाएं
मेरा पेड़ा मुझे दो
यह घटना दिसम्बर, 1915 की है| गोविन्द बालाराम मानकर जो बांद्रा में रहते थे| साईं बाबा की भक्ति के दीवाने थे| अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् मानकर ने उनकी अंत्येष्टि क्रिया शिरडी में करने का अपने मन में विचार किया| शिरडी जाने से पूर्व जब श्रीमती तर्खड से मिलने गये तो श्रीमती तर्खड के मन में विचार आया कि बाबा के लिए कुछ और भेंट भेजनी चाहिए| लेकिन क्या दें ? घर में ढूंढने पर उस समय केवल एक मावे का पेड़ा प्रसाद के रूप में बचा हुआ था| उन्होंने वह पेड़ा मानकर को देते हुए कहा कि आप यह पेड़ा बाबा को मेरी तरफ से भेंट दे देना| उन्हें पूर्ण विश्वास था कि बाबा पेड़ा अवश्य स्वीकार कर लेंगे| क्योंकि वह बाबा की भक्ति पूरी निष्ठा से करती थीं|
शिरडी पहुंचकर मानकर जब बाबा के दर्शनों के लिए मस्जिद गया, तो पेड़ा ले जाना भूल गया| लेकिन बाबा ने उसे कुछ नहीं कहा| मानकर जब पुन: शाम को बाबा के दर्शन करने के लिए गया, तो बाबा ने उससे पूछा - "तुम मेरे लिए कुछ लाए हो क्या ?" तब मानकर ने कहा, मैं तो कुछ भी नहीं लाया| जब बाबा ने दुबारा पूछा, तब भी मानकर ने वही उत्तर दिया|
इस बार बाबा ने उससे पूछा कि क्या माँ (श्रीमती तर्खड) में तुम्हें मेरे लिए मिठाई नहीं दी थी ? यह सुनते ही मानकर को श्रीमती तर्खड द्वारा बाबा के लिए दिया गया पेड़ा स्मरण हो आया| वह बाबा से क्षमा मांगकर, दौड़ते हुए अपने ठहरने वाली जगह पर गया और वहां से पेड़ा लाकर बाबा को अर्पण कर दिया| बाबा ने भी वह पेड़ा तुरंत खा लिया|
कल चर्चा करेंगे... बाबा का विचित्र शयन
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
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ॐ सांई राम
at
11:30 AM
His parentage, birth details, and life before the age of sixteen are obscure, which has led to a variety of speculations and theories attempting to explain Sai Baba's origins. In his life and teachings he tried to reconcile Hinduism and Islam: Sai Baba lived in a mosque which he called Dwarakamayi, practised Hindu and Muslim rituals, taught using words and figures that drew from both traditions and was buried in a Hindu temple in Shirdi.
One of his well known epigrams says of God : "Sabka Malik Ek" which traces its root to Islam in general and sufism in particular.
Saturday, March 30, 2013
श्री साईं लीलाएं - कतलियां कहां हैं?
ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. प्यार की रोटी से मन तृप्त हुआ
श्री साईं लीलाएं
कतलियां कहां हैं?
बांद्रा निवासी रघुवीर भास्कर पुरंदरे साईं बाबा के परम भक्त थे| जो अवसर शिरडी जाते रहते थे| जब वे एक अवसर पर शिरडी जा रहे थे तो श्रीमती तर्खड (जो उस समय बांद्रा में ही थीं) ने श्रीमती पुरंदरे को दो बैंगन देते हुए उनसे विनती की की वे शिरडी में पहुचंकर साईं बाबा को एक बैंगन का भुर्ता और दूसरे बैंगन की कतलियां (घी में तले बैंगन के पतले टुकड़े) बनाकर बाबा को अर्पण कर दें| यह बाबा को बहुत पसंद हैं|शिरडी पहुंचने पर श्रीमती पुरंदरे भुर्ता बनाकर मस्जिद में थाली ले गयीं| वहां दूसरे लोगों के साथ उन्होंने भी अपनी थाली रखी और वापस अपने ठहरने की जगह पर लौट आयीं| जब बाबा दोपहर को सब चीजें इकट्ठा करके खाने बैठे तो उन्हें भुर्ता बहुत स्वादिष्ट लगा, भुर्ता खाते हुए उनकी कतलियां खाने की इच्छा हुई तो बाबा ने भक्तों से कतलियां लाने को कहा| सामने बैठे भक्त सोचने लगे, इस इलाके में तो बैंगन का मौसम नहीं है, फिर बैंगन कहां से लाएं ? फिर सोचा कि जिन्होंने भुर्ता बनाया है उनके पास और बैंगन भी हो सकते हैं|तब पता चला कि पुरंदरे की पत्नी बैंगन का भुर्ता आयी थीं| तब उन्हें कतलियां बनाने को कहा तो उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ| उन्होंने गलती के लिए माफी मांगकर कतलियां तलकर परोसीं, तब साईं बाबा ने भोजन किया| साईं बाबा का भक्तों के प्रति प्यार और उनकी सर्वज्ञता देखकर सभी भक्त बहुत आश्चर्यचकित हुए|
कल चर्चा करेंगे... मेरा पेड़ा मुझे दो
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
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11:30 AM
His parentage, birth details, and life before the age of sixteen are obscure, which has led to a variety of speculations and theories attempting to explain Sai Baba's origins. In his life and teachings he tried to reconcile Hinduism and Islam: Sai Baba lived in a mosque which he called Dwarakamayi, practised Hindu and Muslim rituals, taught using words and figures that drew from both traditions and was buried in a Hindu temple in Shirdi.
One of his well known epigrams says of God : "Sabka Malik Ek" which traces its root to Islam in general and sufism in particular.
Friday, March 29, 2013
श्री साईं लीलाएं - प्यार की रोटी से मन तृप्त हुआ
ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. बांद्रा गया भूखा ही रह गया
श्री साईं लीलाएं
प्यार की रोटी से मन तृप्त हुआ
शिरडी में रहते हुए एक बार बाबा साहब की पत्नी श्रीमती तर्खड दोपहर के समय खाना खाने बैठी थीं| उसी समस दरवाजे पर एक भूखा कुत्ता आकर भौंकने लगा| श्रीमती तर्खड ने अपनी थाली में से एक रोटी उठाकर उस कुत्ते को डाल दी| कुत्ता उस रोटी को बड़े प्रेम से खा गया| उसी समय वहां एक कीचड़ से सना हुआ सूअर आया तो उसे भी उन्होंने रोटी दे दी| यह एक सामान्य घटना थी, जिसे वह भूल गयीं|
शाम को जब श्रीमती तर्खड मस्जिद में बाबा के दर्शन करने गईं तो बाबा उनसे बोले - "माँ ! आज तो तुमने मुझे बड़े प्रेम से खाना खिलाया| खाना खाकर मेरा मन तृप्त हो गया| जिंदगीभर ऐसे ही खाना खिलाती रहना| एक दिन तुम्हें इसका उचित फल मिलेगा| मस्जिद में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं कहता| पहले तुम भूखों को भोजन खिलाना, फिर खुद खाना| इस बात का सदा ध्यान रखना| श्रीमती तर्खड बाबा की बात का अर्थ नहीं समझ पायी| उन्होंने बाबा से कहा - "हे देवा ! मैं भला आपको कैसे भोजन करा सकती हूं ? मैं तो स्वयं दूसरों के आधीन हूं और पैसे खर्च करके जो मिल जाता है, वही खा लेती हूं| मैंने आपको उसमें से भोजन कराया, मुझे तो ऐसे याद नहीं|"
बाबा बोले - "माँ ! आज दोपहर में तुमने जिस कुत्ते को और सूअर को रोटी दी थी, वह मेरा ही रूप था| इसी तरह जितने भी अन्य प्राणी हैं, वे सब मेरे ही प्रतिरूप हैं| उनके रूप में मैं सर्वत्र व्याप्त हूं| जो सभी जीवों में मुझे देखता है यानी मेरे दर्शन करता है, वह मुझे अतिप्रिय है| तुम इसी तरह समभाव से मेरी सेवा करती रहो|"
साईं बाबा के इन अमृत वचनों को सुनकर श्रीमती तर्खड अत्यन्त भावविह्वल हो गयीं| उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, गला अवरुद्ध हो गया, अपार हर्ष होने लगा| फिर उन्होंने साईं बाबा के चरणों में सिर झुका दिया|
कल चर्चा करेंगे... कतलियां कहां हैं?
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
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ॐ सांई राम
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11:30 AM
His parentage, birth details, and life before the age of sixteen are obscure, which has led to a variety of speculations and theories attempting to explain Sai Baba's origins. In his life and teachings he tried to reconcile Hinduism and Islam: Sai Baba lived in a mosque which he called Dwarakamayi, practised Hindu and Muslim rituals, taught using words and figures that drew from both traditions and was buried in a Hindu temple in Shirdi.
One of his well known epigrams says of God : "Sabka Malik Ek" which traces its root to Islam in general and sufism in particular.
Thursday, March 28, 2013
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15. पुरुषोत्तमयोग
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स
वेदवित्॥१५- १॥
अश्वत्थ नाम वृक्ष जिसे अव्यय बताया जाता है, जिसकी
जडें ऊपर हैं और शाखायें नीचे हैं, वेद
छन्द जिसके पत्ते हैं, जो उसे जानता है वह वेदों का ज्ञाता
है।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा
विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५- २॥
उस वृक्ष की गुणों और विषयों द्वारा सिंचीं शाखाएं नीचे
ऊपर हर ओर फैली हुईं हैं। उसकी जडें भी मनुष्य के
कर्मों द्वारा मनुष्य को हर ओर से बाँधे नीचे उपर बढी हुईं हैं।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च
संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण
दृढेन छित्त्वा॥१५- ३॥
न इसका वास्तविक रुप दिखता है, न इस
का अन्त और न ही इस का आदि और न ही इस का मूल
स्थान (जहां यह स्थापित है)। इस अश्वथ नामक वृक्ष की बहुत धृढ शाखाओं को असंग रूपी धृढ शस्त्र से काट कर।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति
भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः
प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५- ४॥
उसके बाद परम पद की खोज करनी चाहिये, जिस
मार्ग पर चले जाने के बाद मनुष्य फिर लौट
कर नहीं आता। उसी आदि पुरुष की शरण में चले जाना चाहिये जिन से यह
पुरातन वृक्ष रूपी संसार उत्पन्न हुआ है।
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या
विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः
सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५- ५॥
मान और मोह से मुक्त, संग
रूपी दोष पर जीत प्राप्त किये,
नित्य अध्यात्म में लगे, कामनाओं
को शान्त किये, सुख दुख जिसे कहा जाता है उस द्वन्द्व से मुक्त हुये, ऐसे मूर्खता हीन महात्मा जन उस परम
अव्यय पद को प्राप्त करते हैं।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं
मम॥१५- ६॥
न उस पद को सूर्य प्रकाशित करता है, न
चन्द्र और न ही अग्नि (वह पद इस सभी लक्षणों
से परे है), जहां पहुँचने पर वे पुनः वापिस नहीं आते, वही
मेरा परम धाम (स्थान) है।
जीवात्मा का वर्णन (अध्याय 15 शलोक 7 से 11)
श्री भगवान बोले :
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि
प्रकृतिस्थानि कर्षति॥१५- ७॥
मेरा ही सनातन अंश इस जीव लोक में जीव रूप धारण कर, मन
सहित छे इन्द्रियों (मन और पाँच अन्य इन्द्रियों)
को, जो प्रकृति में स्थित हैं, आकर्षित
करता है।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहित्वैतानि संयाति
वायुर्गन्धानिवाशयात्॥१५- ८॥
जैसे वायु गन्ध को ग्रहण कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर
ले जाता है, उसी प्रकार आत्मा इन इन्द्रियों को
ग्रहण कर जिस भी शरीर को प्राप्त करता है वहां ले जाता है।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं
विषयानुपसेवते॥१५- ९॥
शरीर में स्थित हो वह सुनने की शक्ति, आँखें, छूना, स्वाद, सूँघने
की शक्ति तथा मन द्वारा इन सभी के विषयों का
सेवन करता है।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति
ज्ञानचक्षुषः॥१५- १०॥
शरीर को त्यागते हुये, या उस
में स्थित रहते हुये, गुणों को भोगते हुये, जो विमूढ (मूर्ख) हैं वे उसे (आत्मा) को नहीं देख पाते, परन्तु
जिनके पास ज्ञान चक्षु (आँखें) हैं, अर्थात
जो ज्ञान युक्त हैं, वे उसे देखते हैं।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं
पश्यन्त्यचेतसः॥१५- ११॥
साधना युक्त योगी जन इसे स्वयं में अवस्थित देखते हैं
(अर्थात अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं), परन्तु
साधना करते हुये भी अकृत जन,
जिनका चित अभी
ज्ञान युक्त नहीं है, वे इसे नहीं देख पाते।
परमेश्वर के रूप का वर्णन (अध्याय 15 शलोक 12 से 15)
श्रीभगवान बोले :
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो
विद्धि मामकम्॥१५- १२॥
जो तेज सूर्य से आकर इस संपूर्ण संसार को प्रकाशित कर
देता है, और जो तेज चन्द्र
औऱ अग्नि में है, उन सभी को तुम मेरा ही जानो।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो
भूत्वा रसात्मकः॥१५- १३॥
मैं ही सभी प्राणियों में प्रविष्ट होकर उन्हें धारण
करता हूँ (उनका पालन पोषण करता हूँ)। मैं ही रसमय चन्द्र
बनकर सभी औषधीयाँ (अनाज आदि) उत्पन्न करता हूँ।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं
चतुर्विधम्॥१५- १४॥
मैं ही प्राणियों की देह में स्थित हो प्राण और अपान
वायुओं द्वारा चारों प्रकार के खानों को पचाता हूँ।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः
स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५- १५॥
मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझ से ही
स्मृति, ज्ञान होते है। सभी
वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। मैं ही वेदों का सार हुँ और मैं ही वेदों का ज्ञाता हुँ।
पुरषोत्तम का विषय (अध्याय 15 शलोक 16 से 20)
श्रीभगवान
बोले :
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर
उच्यते॥१५- १६॥
इस संसार में दो प्रकार की पुरुष संज्ञायें हैं - क्षर
और अक्षऱ (अर्थात जो नश्वर हैं और जो शाश्वत हैं)। इन
दोनो प्रकारों में सभी जीव (देहधारी) क्षर हैं और उन
देहों में विराजमान आत्मा को अक्षर कहा जाता है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय
ईश्वरः॥१५- १७॥
परन्तु इन से अतिरिक्त एक अन्य उत्तम पुरुष और भी हैं
जिन्हें परमात्मा कह कर पुकारा जाता है। वे विकार हीन
अव्यय ईश्वर इन तीनो लोकों में प्रविष्ट होकर संपूर्ण संसार का भरण पोषण करते हैं।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः
पुरुषोत्तमः॥१५- १८॥
क्योंकि मैं क्षर (देह धारी जीव) से ऊपर हूँ तथा अक्षर
(आत्मा) से भी उत्तम हूँ, इस
लिये मुझे इस संसार में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है।
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन
भारत॥१५- १९॥
जो अन्धकार से परे मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह ही
सब कुछ जानता है और संपूर्ण भावना से हर प्रकार मुझे
भजता है, हे भारत।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा
बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥१५- २०॥
हे अनघ (पाप हीन अर्जुन), इस
प्रकार मैंने तुम्हें इस गुह्य शास्त्र को सुनाया। इसे जान लेने पर
मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है, हे भारत।
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ॐ सांई राम
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His parentage, birth details, and life before the age of sixteen are obscure, which has led to a variety of speculations and theories attempting to explain Sai Baba's origins. In his life and teachings he tried to reconcile Hinduism and Islam: Sai Baba lived in a mosque which he called Dwarakamayi, practised Hindu and Muslim rituals, taught using words and figures that drew from both traditions and was buried in a Hindu temple in Shirdi.
One of his well known epigrams says of God : "Sabka Malik Ek" which traces its root to Islam in general and sufism in particular.
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